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जैन राजनैतिक चिन्तन धारा
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सम्पादकीय
भारतीय राजनीति का चिन्तन सदैव नैतिक मूल्य परक और दूसरों को प्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ स्वयं अनुशासन में बद्ध होने का रहा है । यहाँ राजा का कार्य सदैव लोकरञ्जन करता रहा है । उत्तरराम चरितम् में महाकवि भवभूति ने राम के मुख से कहलाया है
स्नेहं दया च सौख्य च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा । अर्थात् लोक की अगाधना के लिए मुझे स्नेह, स्या, सुख और जानकी को भी छोड़ना पड़े तो मुझे व्यथा नहीं होगी।
जैन आगमों में कहा गया है -विणओ मोक्ख मग्गो' अर्थात् विनय मोक्ष का मार्ग है । राजा को भी विनीत होने का उपदेश दिया गया है । वही मनुष्य महान् है, जो जितेन्द्रिय हो । मनुस्मृति में कहा गया है कि राजा को चाहिए कि वह दिन-रात इन्द्रियों पर विजय पाने की चेष्टा करता रहे; क्योंकि जितेन्ट्रिय राजा ही प्रजा को वश में रख सकता है। संसार को समस्त पर्यादायें राजा द्वारा ही सुरक्षित मानी गयी है । राजा धर्मों की उत्पत्ति का कारण है । राजा के बाहुबल की छाया का आश्रय लेकर प्रजा सुख से आत्मध्यान करती है तथा आश्रमवासी विद्वान निराकुल रहते हैं। हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने कहा है कि राजा जन्म को छोड़कर सब बातों में प्रजा का मातापिता है, उसके सुख-दुःख प्रजा के आधीन है । अभिज्ञान शाकुन्तलम् में राजा दुष्यन्त कहता है
येन येन वियुज्यन्ते प्रजा स्निग्धेन बन्धुना ।
स स पापाद् ऋाते तसां दुष्यन्त इति घुष्यताम् ॥६/२३ "प्रजाजन अपने जिस किसी स्नेही बन्धु बान्धव से वियोग को प्राप्त हो जाय । केवल पापकार्य को छोड़ कर दुष्यन्त उनका वही बन्यु बायव है, ऐसी घोषणा करा दी जाय ।
राजा अध:पतन से होने वाले विनाश से रक्षा करता है, अतः संसार की स्थिति रहती है, ऐसा न होने पर संसार की स्थिति नहीं रह सकती। उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख देती है। आज के मनुष्य के पास सब कुछ साधन होते हुए भी वह सुखी नहीं है क्योंकि जिन्हें हमने सत्ता सौंप रखी है, जनता के उन प्रतिनिधियों का चरित्र उजवल नहीं है । आज राजनीति का अपराधीकरण हो गया है,अत: मनुष्य दुःखी है। प्राचीन राजाओं का स्वरूप ऐसा नहीं था । वादीभसिंह का कहना है कि राजा गर्भ का भार धारण करने के क्लेश से अनभिज्ञ माता, जन्म की करणमात्रता से रहित पिता, सिद्धमातृका के उपदेश के क्लेश से रहित गुरु, उभयलोकों का हित करने में तत्पर बन्धु, निद्रा के उपद्रव से रहित नेत्र, दूसरे शरीर में संचार करने वाले प्राण, समुद्र में न उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष, चिन्ता की अपेक्षा से रहित चिन्तामणि, कुलपरम्परा को आगति के जानकार, सेवकों के प्रेमपात्र व्रज की प्रजा की रक्षा करने वाले, शिक्षा के उद्देश्य से दण्ड देने वाले और शत्रुसमूह को दण्डित करने वाले होते हैं ।
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आचार्य सोमदेव ने राष्ट्र की परिभाषा इस प्रकार दी है - 'पशु धान्य हिरण्य सम्पदा राजते शोभते इति राष्ट्रम' अर्थात् जहाँ पशु, धान्य और हिरण्य सम्पदा सुशोभित होती है, उसे राष्ट्र कहते हैं। आज धान्य और हिरण्य सम्पदा की ओर तो विशेष ध्यान दिया जा रहा है, किन्तु पशु सम्पदा की घोर उपेक्षा हो रही है। पशुओं को अमानुषिक यन्त्रणा देकर आधुनिक शस्त्रोपकरणों से लैस वधशालाओं में मारा जा रहा है । ऐसी स्थिति में पशुधन को सुरक्षा के बिना राष्ट्रको पालामा कैसे की जा सकती है? हमें प्राचीन आदर्शों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । पर्याप्त गुप्तचर व्यवस्था के अभाव में बड़े से बड़े व्यक्ति का भी जीवन आज खतरे से खाली नहीं है । सीमावर्ती राज्यों में विदेशी एजेन्ट सक्रिय हैं, जो आतङ्कवादी गतिविधियाँ फैला रहे हैं, इस प्रकार देश के सामने अनेक समस्यायें हैं, जिनका निराकरण प्राचीन भारतीय राजमार्गोपदेष्टाओं के नीतिपरक उपदेशों से ही हो सकता है, जिसके लिए सम्यक् अध्ययन अपेक्षित है।
डॉ.विजयलक्ष्मी जैन ने जैन राजनैतिक चिन्तन धारा को सर्वसामान्य के सम्मुख उद्घाटित कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। राजनैतिक चिंतनधारा को धर्मनीति से जोड़ने वाले दार्शनिक संत परम पूज्य श्री सुधासागरजी महाराज की पावन प्रेरणा एवं मंगलकारी आशीर्वाद से यह कृति संपादित एवं प्रकाशित होकर पाठकों के हाथ में पहुंच रही है, इनके पावन चरणों में कोटि - कोटि नमोस्तु करता हूँ, तथा इस ग्रन्थ का प्रकाशन श्री दिगम्बर जैन समिति,अजमेर के सहयोग से आचार्य जानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र ब्यावर से किया जा रहा है, अत: केन्द्र के प्रति भी साधुवाद ज्ञापित करता हूँ । आशा है, इस प्रकार के अध्ययन को और भी अधिक गति प्राप्त होगी।
-डॉ. रमेशचन्द जैन
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प्रकाशकीय
चिरंतन काल से भारत मानव समाज के लिये मूल्यवान विचारों की खान बना हुआ है । इस भूमि से प्रकट आत्मविद्या एवं तत्व ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व का नव उदात्त दृष्टि प्रदान कर उसे पतनीमुखी होने से बचाया है । इस देश से एक के बाद एक प्राणयान प्रवाह प्रकट होते रहे । इस प्राणवान बहूमूल्य प्रवाहों की गति की अविरलता में जैनाचार्यों का महान योगदान रहा है। स्त्रीसो शताब्दी में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विश्व को आदिम सभ्यता और संस्कृति के जानने के उपक्रम में प्राचीन भारतीय साहित्य की व्यापक खोजबीन एवं गहन अध्यनादि कार्य सम्पादिक किये गये। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राच्ययाङ्मय की शोध, खोज व अध्यापन अनुशीलनादि में अनेक जैन-अजैन विद्वान भी अग्रणी हुए । फलतः इस शताब्दी के मध्य तक जैनाचार्य विरचित अनेक आधकाराच्छादिक मूल्यवान ग्रन्धरत्न प्रकाश में आये। इन गहनीय ग्रन्थों में मानव जीवन की युगीन समस्याओं को सुलझाने का अपूर्व सामर्थ्य है । विद्वानों के शोष-अनुसंधान-अनुशोलन कार्यों को प्रकाश में लाने हेतु अनेक साहित्यिक संस्थाए उदित भी हुई, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में साहित्य मागर अवगाहनरत अनेक विद्ववानों द्वारा नवसाहित्य भी सृजित हुआ है, किन्तु जैनाचार्य-विरचित विपुल साहित्य के सकल ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ अनुशीलनार्थ उक्त प्रयास पर्याप्त नहीं हैं । सकल जैन वाङ्मय के अधिकांश ग्रन्थ अब भी अप्रकाशित हैं, जो प्रकाशित भी है तो शोधार्थियों को बहुपरिश्रमोपसन्त भी प्राप्त नहीं हो पाते है । और भी अनेक बाधायें: समस्याऐं जैन ग्रन्थों के शोध-अनुसन्धान-प्रकाशन के मार्ग में है, अतः समस्याओं के समाधान के साथ-साथ विविध संस्थाओं-उपक्रमों के माध्यम से समेकित प्रयासों की आवश्यकता एक लम्बे समय से विद्वानों द्वारा महसूस की जा रही थी।
राजस्थान प्रान्त के महाकवि ब्र. भूरामल शास्त्री (आ. ज्ञातमागर महाराज) को जन्मस्थनी एवं कर्म स्थलो रहा है । महाकवि ने चार-चार संस्कृत महाकाव्यों के प्रणयन के साथ हिन्दी संस्कृत में जैन दर्शन सिद्धान्त एवं अध्यात्म के लगभग 24 ग्रन्थों की रचना करके अवरुद्ध जैन साहित्यभागीरथी के प्रवाह को प्रवर्तित किया । यह एक विचित्र संयोग कहा जाना चाहिये कि रससिद्ध कवि की काव्यरस धारा का प्रवाह राजस्थान की मरुधरा से हुआ । इमी राजस्थान के भाग्य मे श्रमण परम्परोन्नायक सन्तशिरोमणी आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्यजिनवाणी के पांच उद्घोषक, अनेक ऐतिहासिक उपक्रमों के समर्थ सूत्रधार, अध्यात्मयोगी युवामनीषी पू. मुनिपुंगव सुधासागर जी महाराज का यहीं पदार्पण हुआ । राजस्थान को धरा पर राजस्थान के अपर साहित्यकार के समग्रकृतित्व पर एक अखिल भारतीय विद्गत संगोष्टी सागानेर में दिनांक १ जुन से 11 जून, 1994 तथा अजमेर नगर में महाकवि की महनीय कृति "दौरोदय" महाकाव्य पर अखिल भारतीय विद्वत् संगोष्ठो दिनांक 13 से 15 अक्टूबर 1994 तक आयोजित हुई व इसा सुअवसर पर दि. जैन समाज, अजमेर ने आचार्य ज्ञानसागर के सम्पूर्ण 24 ग्रन्थ मुनिश्री के 1994 के चातुमास के दौरान प्रकाशित कर/लोकार्पण कर अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम करके श्रुत को महत् प्रभावना की । पू. मुनि श्री के सानिध्य में आयोजित इन संगोष्ठियों में महाकवि के कृतित्व पर अनुशीलनात्मक-आलोचनात्मक, शोधपत्रों के वाचन सहित विद्वानों द्वारा जैन साहित्य के शोध क्षेत्र में आगत अनेक समस्याओं पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा शोध छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने. शोधार्थियों को शोध विषय सामग्री उपलब्ध कराने, ज्ञानसागर वाङ्मय महिंत सकल जैन विद्या पर प्रख्यात अधिकारी विद्वानों द्वारा निबन्ध लेखन - प्रकाशनादि के विद्वानों द्वारा प्रस्ताव आये।
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इसके अनन्तर मास 22 से 24 जनवरी तक 1995 में ब्यावर (राज.) में मुनिश्री के संघ सानिध्य में आयोजित "आचार्य ज्ञानसागर राष्ट्रीय संगोष्ठी में पूर्व प्रस्तावों के क्रियान्वन को जोरदार मांग की गई तथा राजस्थान के अमर साहित्यकार, सिद्धसारस्वत महाकवि ब. मूरामल जी की स्टेच्यू स्थापना पर भी बल दिया गया, विद्वत् गोष्ठिी में उक्त कार्यों के संयोजनार्थ डॉ. रमेशचन्द्र जैन बिजनौर और मुझे संयोजक चुना गया । मुनिश्री के आशीष से ज्यावर नगर के अनेक उदार दातारों ने उक्त कार्यों हेतु मुक्त हृदय से सहयोग प्रदान करने के भाव व्यक्त किये।
पू. मुनिश्री के मंगल आशिष से दिनांक 18.3.95 को त्रैलोक्य तिलक महामण्डल विधान के शुभप्रसंग पर सेढ चम्पालाल रामस्वरूप को नसियों में जयोदय महाकाव्य (7 खण्डों में) के प्रकाशन सौजन्य प्रदाता आर.के.मार्बलस किशनगढ़ के रतनलाल कंबरीलाल पाटनी श्री अशोक कुमार जी एवं जिला प्रमुख श्रीमान् पुखराज पहाड़िया, पीसांगन के करकमलों द्वारा इस संस्था का श्रीगणेश आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के नाम से किया गया।
आयार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के माध्यम से जैनाचार्य प्रणीत ग्रन्थों के साथ जैन संस्कृति के प्रतिपादक ग्रन्थों का प्रकाशन किया जावेगा एवं आचार्य ज्ञानसागर वाङ्मय काव्यापक मूल्यांकन-समीक्षा-अनुशीलनादि कार्य कराये जायेंगे। केन्द्र द्वारा जैन विद्या पर शोध करने वाले शोधार्थी छात्र हेतु 10 छात्रवृत्तियों की भी व्यवस्था की जा रही है।
केन्द्र का अर्थ प्रबन्य समाज के उदार दातारों के सहयोग से किया जा रहा है। केन्द्र का कार्यालय सेठ चम्पालाल रामस्वरूप की नसियों में प्रारम्भ किया जा चुका है। सम्प्रति 10 विद्वानी की विविध विषयों पर शोध निबन्ध लिखने हेतु प्रस्ताव भेजे गये, प्रसन्नता का विषय है 25 विद्वान अपनी स्वीकृति प्रदान कर चुके हैं तथा केन्द्र ने स्थापना के प्रथम मास में ही निम्न पुस्तकें प्रकाशित की - प्रथम पुष्प - इतिहास के पत्रे - आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित द्वितीय पुष्प - हित सम्पादक - आचार्य ज्ञानसागरजी द्वारा रचित तृतीय पुष्प - तीर्थ प्रवर्तक - मुनिश्री सुधासागरजी महाराज के प्रवचनों का संकलन चतुर्थ पुष्प - जैन राजनैतिक चिन्तन धारा - डॉ. श्रीमती विजयलक्ष्मी जैन पंचम पुष्प - अञ्जना पवनंजयनाटकम् डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर षष्टम पुष्प - जैनदर्शन में रत्नत्रय का स्वरूप - डॉ. नरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित सप्तम पुष्प - बौद्ध दर्शन पर शास्त्रीय समिक्षा डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर अष्टम पुष्प - जैन राजनैतिक चिन्तन धारा डॉ. श्रीपती विजयलक्ष्मी जैन द्वारा लिखित पुस्तक
(पी, एच. डी. हेतु स्वीकृत) प्रकाशित की जा रही हैं । जो लोग यह कहते हैं कि जैन दर्शन मात्र आध्यात्मिक चेतना तक ही सीमित हैं । राष्ट्र चेतना के सम्बन्य में निष्क्रीय हैं ऐसे लोगों की मिथ्या धारणा को यह पुस्तक दूर करेगी तथा दिशा निर्देश भी देगी की जैन दर्शन आध्यात्मक प्रेमी होने के साथ-साथ राष्ट्र प्रेमी भी है।
अरुण कुमार शास्त्री,
ब्यावर
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दी शब्द
भारतीय राजनीति के विभिन्न पहलुओं पर प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों ने काफी शोध और खोज की है तथा इसके विषय में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है। अन्य भारतीय आचार्यों की तरह जैन आचार्यों ने भी राजनैतिक विषयों पर गहन मन्थन किया है, किन्तु इस ओर विद्वानों की दृष्टि नहीं गई है यही कारण है कि जैन राजनीति पर अभी तक अत्यल्प सामग्री प्रकाश में आई है एवं राजनीतिप्रधान ग्रन्थों में जैन सन्दर्भों का नितान्त अभाव है। इसी अभाव की पूर्ति हेतु हमारा ध्यान इस ओर गया । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध जैन राजनैतिक चिन्तनधारा (सातर्जी से दशवीं शताब्दी) इसी दिशा में किया गया आंशिक प्रयत्न है। इस प्रयत्न की सफलता का पूरा श्रेय उन प्राचीन महनीय महर्षियों को है, जिनके विचारों को ग्रहण कर इस प्रबन्ध को सजाया और संवारा गया है। तथा दार्शनिक संत परम पूज्य श्रद्धेय गुरुवर श्री सुधासागरजी महाराज की पावन प्रेरणा एवं मंगलकारी आर्शीवाद से यह कृति चर्मोत्कर्षता प्राप्त करकें पाठकों के हाथ में पहुँच रही हैं। इनके पकरणों में फोटो करती हूँ। आगरा कॉलेज आगरा के राजनीति विभाग के अध्यक्ष डॉ. वी. एम. टोंक की मैं हृदय से बहुत आभारी हूँ, जिनके कुशल निर्देशन में यह शोध कार्य सम्पत्र हो सका। डॉ. राजकुमार जैन (तत्कालीन अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, आगरा कॉलेज, आगरा), ड्रॉ कुन्दनलाल जैन (तत्कालीन अध्यक्ष हिन्दी विभाग, बरेली कॉलेजबरेली) तथा अन्य अनेक महानुभावों से समय-समय पर मुझे उपयोगी परामर्श मिले । सहायक पुस्तकों के रूप में अनेक प्राचीन आचार्यों एवं आधुनिक विद्वानों की कृतियों का उपयोग इस ग्रन्थ में किया गया है। इन सबके प्रति में हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। आगरा विश्वविद्यालय से यह शोध प्रबन्ध 'सातवी से दशवीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में राजनीति ' शीर्षक से पी-एच. डी. हेतु स्वीकार किया गया था, अब इसका शीर्षक परिवर्तित कर 'जैन राजनैतिक चिन्तन धारा (सातवीं से दशवीं शताब्दी) ' के रूप में प्रकाशित कराया जा रहा है। आशा है इससे राजनीति शास्त्र के अध्येताओं को लाभ होगा। इस ग्रन्थ का प्रकाशन दिगम्बर जैन समिति, अजमेर के सहयोग से आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर से किया जा रहा है, अत: इस केन्द्र के प्रति कृतज्ञयता ज्ञापित करती हूँ। तथा ग्रन्थ प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले
को अनेकश
धन्यवाद !
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विजयलक्ष्मी जैन
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विषयानुक्रमणिका
प्रथम अध्याय
सातवीं शताब्दी से पूर्व की भारतीय राजनीति
सिन्धुयुगीन राजनीति 1, वैदिक कालीन राजनीति 2, महाकाव्यों में वर्णित राजनीति 3. स्मृतिग्रन्थों में प्रतिपादित राजनीति 4, राजनीति प्रधान ग्रन्थों में वर्णित राजनीति 7. कौटिलीय अर्थशास्त्र 7, शुक्रानीतिसार 9, कामन्दकीय नीतिस्तर 10 द्वितीय अध्याय
सातवीं से दशवीं शत्यन्दी तक के प्रमुख जैन राजनैतिक विचारक और उनका योगदान:
रविषेण 13, जटासिंहनन्दि 14, जिनसेन प्रथम 15, धनंजय 16, सादीसिंह 18, जिनसेन द्वितीय 20, गुणभद्र 21, वीरनन्दि 22, असग 24, सोमदेव 25 तृतीय अध्याय
राज्य
राज्य की परिभाषा और उसका क्षेत्र 29, राज्य की उत्पत्ति 31, राज्य के अंग 32. राष्ट्र 32, देश 32, विषय 32, मण्डल 32, जनपद 32, दारक 32, निर्गम 32, जनपद के
गुण 32, जनपद के दोष 32, राष्ट्र के कण्टक 33 राज्य का फल 33, राज्य के कार्य 33 . चतुर्थ अध्याय
राजा -
राजा का महत्त्व 35, राज्यभिषेक 38, राजा का उत्तराधिकारी 40, राजाओं की दिनचर्या 41, राजाओं के भेद 41, कुलकर 42, चक्रवती 42,अर्द्धचक्री 43, विद्याधर 44, महामाण्डलिक 45, मण्डलाधिय 45, सामन्त 45, द्वोप 46 भूचर 46, धर्मविजयो राजा 46, लोमविजयी राजा 46, असुरविजयी राजा 47, शत्रु और मित्र की अपेक्षा राजाओं के भेद 47 राजाओं के मित्र 48, निस्पमित्र सहजमित्र 48, कृत्रिम मित्र 48, मित्र के गुण 48, मित्र के दोष 49, आर्दश मैत्री की परीक्षा 49, मैत्री के अयोग्य पुरुष 49, राजा के अधिकार 49, राजा के कर्तव्य 49, न्यायपुर्ण व्यवहार 49, कुलपालन 50, प्रत्यनुपालन 50, आत्मानुपालन 50. प्रजापालन 51, अनुरूप दण्ड देना 51, मुख्य वर्ग की रक्षा 52, घायल और मृत सैनिकों को रक्षा 52, सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान 52, योग्य स्थान पर नियुक्ति 52, कण्टक शोधन 53, सेवकों की आजीविका देना 53, योग्य पुरुषों की नियुक्ति 53, कृषि कार्य में योग देना 53, अमरम्लेच्छों को वश के करना 53, प्रजारक्षण 54, सारजस्य अथवा समञ्जसत्व धर्म का पालन 54, दुराचार का निषेध करना 5A, लोकापवाद से भयभीत होना 54, राजमण्डल के प्रति कर्त्तव्य 55, उदासीन 55, मध्यम का मध्यस्थ 55, विजीगोणु 55, अरि 55 मित्र 55 पाणिग्राह 55, आक्रन्द 55, आसार 55, अन्तद्घि 55 शत्रु के कुटुम्बियों के प्रति राजकर्तव्य 55 परदेश में रहने वाले स्वदेशी व्यक्ति के प्रति राजकर्तव्य 55, सहायकों के प्रति राजकर्तव्य 55, व्यापारियों के प्रति राजकर्तव्य 56, अन्य कर्तव्या 55, राजा के गुण 57. घरांगचरित में प्रतिविम्बित राजा के गुण 57, द्विसन्धान महाकाव्य में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 58, वादोपसिंह
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के काव्यों में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 60, आदिपुराण में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 61, उत्तरपुराण में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 61, चन्द्रप्रभचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 62, वर्धमानचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण 63, नीतिवाक्यामृत में प्रतिबिम्बित राजा के गुण64, राजा के प्रमुख गुण 64, अरिषड्वर्गविजय 64, रागासक्त जनों में योग्य 65, त्रिवर्ग का अविशेष रूप से सेवन 66, मध्यवृत्ति का आश्रय 67, कार्य को स्वयं निश्चित करना 67. शान्ति और प्रताप 67, शत्रुओं का विजेता होना 67, प्रजापालन 67 वीरता 68. जागृति 68, नियमपूर्वक कार्य करना 68, विद्वत्ता यथापराध दण्ड 69, न्यायपरायणता 70, सत्संगति 70, दान देना 70, प्रत्युपकार 70, समयानुसार कार्य करना 70 जितेन्द्रियता 70, गोपनीयता 70, अनीतिपूर्ण आचरण का परित्याग 71, धार्मिकता 77, राजा के दोष 71, मूर्खता 72, दृष्टता 73, दुराचार 73, चंचलचित्तपना 73, स्वतन्त्रता 73, आलस्य 73, अपनी शक्ति को न जानना 73, अधार्मिकता 73, बलात्कारपूर्वक प्रजा से धनग्रहण 73, यथापराध दण्ड़ न देना 73, शूद्र अधिकारी रचना 73, स्वेच्छाचारिता 73, ब्रह्मघात 73,
पंचम अध्याय
राजकुमार
राजकुमार 83, राजकुमारों को दी जाने वाली शिक्षा 85 इस प्रकार परगतिविरोधिनी 88
पृष्ठ अध्याय
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मन्त्रिपरिषद् और अन्य अधिकारी
मन्त्रिपरिषद् का महत्त्व 92, मन्त्रियों की संख्या 93, मन्त्रियों की योग्यता 94. मन्त्रियों की योग्यता की परीक्षा 94, धर्मोपधा 94, अर्थोपधा 95 कामोपघा 95, भयोपश्रा 95, मन्त्रियों की नियुक्ति 95, मन्त्रियों के अर्थ 96, राजा और मन्त्री का पारस्परिक व्यवहार 97, अमात्य और उनका महत्त्व 97, अमात्यों का अधिकार क्षेत्र 98, अमात्य के दोष 98, अमात्य होने के अयोग्य पुरुष 98, मन्त्रियों के दोष राजा की इच्छा के अनुसार अकार्य की कार्य के रूप में शिक्षा देना 98, व्यसनता 99, युद्धोद्योग अथवा भूमित्याग का उपदेश देना 99 हितोपाय तथा अहित प्रतीकार न करना 99, अकुलीनता 99, स्वेच्छाचारिता 99, व्यावहारिकता का अभाव 99 मूर्खता 99, विषमता 99 शस्त्रोपजीविता 99, मन्त्राणा और उसका माहात्य 99, मन्वणी करते समय ध्यान देने योग्य बातें 100, मन्त्रणा करने का स्थान 100, मन्त्रणा के अयोग्य व्यक्ति 101, मन्त्रभेद से हानि 101, मन्त्रभेद के कारण 101, मन्त्रणा की सुरक्षा और उसका प्रयोग 101 पञ्चांग मन्त्र 101, कार्य आरम्भ करने का उपाय 101, पुरुष तथा द्रव्य सम्पत्ति 107, देश और काल 101, विघ्नप्रतीकार 101, कार्यसिद्धि 102, उच्चपदाधिकारी अठारह श्रेणियों के प्रधान 102, मन्त्री 102, पुरोहित 102, सेनापति 103, सेनापति के गुण 103, सेनापति के दोष 103, सेनापति का कार्य युवराज 103, दौवारिक 104, अन्तर्वेशिक 104, प्रशास्ता 104, समाहर्ता 104, आकराध्यक्ष 104, पण्याध्यक्ष 104, कुप्याध्यक्ष 105 आयुषागाराध्यक्ष 105 यौवसाध्यक्ष 105, मानाध्यक्ष 105 शुल्काध्यक्ष 105, सूत्राध्यक्ष 105, सोताध्यक्ष 105, सुराध्यक्ष 105, सूनाध्यक्ष 105, गणिकाध्यक्ष 105, नावध्यक्ष 105, गोऽध्यक्ष 105, अश्वाध्यक्ष 105, हस्त्यध्यक्ष 105, रथाध्यक्ष 105, मुद्राध्यक्ष 105, विवीताध्यक्ष 105 लक्षणाध्यक्ष 105,
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देवताध्यक्ष 105, सन्निधाता 105, प्रदेष्टा 105, नायक 105, पौरण्यावहारिक 105. कामान्तिक 105, मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष 106, दण्डपाल 106, दुर्गपाल 106, अन्तपाल 106, आटविक 106, श्रेणियों का महत्व १८ मभापति 10. ,गज श्रेष्ती 106 पीतामर्द, १९६.,अन्त र के प्रशिक 106, नैभिस्तिक 107, भाण्डागरिक 307, पौर 107, महत्तर 107, गृहपति 107. ग्राम मुख्य 107, लेखप्रवाह 107, लेखक 107, मोजक 107, गोष्टमहत्तर 107. पुररक्षक 107. पालक 107, धर्मस्थ 107, आयुधपालन 107, याममहत्तर 107, अधिकारियों को नियुक्ति 107, अधिकारियों का राजा के प्रति व्यवहार 108, राजा का अधिकारियों के प्रति कत्तंव्य 108 सप्तम अध्याय .
दीप एवं दुर्ग -
कोप की उपयोगिता 113, कोष का लक्षण 114, कोषाधिकारो 114, कोषविहीन राजा की स्थिति 114,आय और व्यय 114, राजकीय आय के साघम् कर 115, अधिकारियों से प्राप्त धन 115, व्यापारियों से प्राप्त धन 115, अन्य देश के राजाओं से प्राप्त धन 115, कोषवृद्धि के उपाय 115, संचय करने योग्य पदार्थ 116, कोषवृद्धि के कारण 116, कोष के गुण 116, अर्थ और उसकी महत्ता 116, अर्थलाभ के तीन भेद 117, राजनाला धन 117, दुर्ग की परिभाषा 117, दुर्ग का महत्त्व 117, दुर्गरचना 117, दुर्ग के भेद 118, स्वाभाविक दुर्ग 118, आहार्य दुर्ग 11B, दुर्गजीतने के उपाय 118, अधिगमन 118, उपजाप 118, विरानुबन्ध 118, अवस्कन्द 118, तीक्ष्णपुरुष प्रयोग 118, दुर्ग न होने से हानि 118, दुर्ग की सुरक्षा के उपया 178 अष्टम अभाव
बल अथवा सेना -
सेना की परिभाषा 121, सेना के भेद 121, हस्तिसेना 121, अश्वसेना 121, रथ सेना 122, पदातिसेना 122, सप्ताङ्ग सेना 122 मोक्षबल 123, मृतकबल 123, श्रेणी बल 124, आरण्य बल 124, मित्रबल 124, दुर्गबल 124, सेना की गणना 125, पत्ति 125, सेना 125, सेनामुख 125, गुत्म 125, वाहिणी 125, पृतना 125, चमू 125, अनीकिनी 125, अतौहिणो 125, सैनिक प्रयाण 125, सैन्य शिविर 126, युद्धकालीन स्थिति 127, सेना के विविध कर्मचारी 128, युद्ध 128, सैन्य शक्ति का उपयोग 128, युद्धकालीन राजकर्तव्य 129, युद्धरीति 129, व्यूह रचना 130, चक्रव्यूह 130, गरूड़ व्यूह 130, केतुरचना 130, तृष्णोयुद्ध 130, श्रेष्ठ सेना 131 सैनिकों का कर्तव्य 131, सेना के राज विरूद्ध होने के कारण 131, युद्ध में जीत न होने के कारण 131, पराजय के बाद की स्थिति 131, शत्रुविजय 132, देश 135, काल 135, यात्राकाल 135, उचित देश 13 नवम अध्याय
न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था -
न्याय की आवश्यकता 140, न्यायाधीश 140, सभ्य 140, न्यायिक उत्तरदायित्व 140. सभायें 141, विजयदेव की सभा 141, सुधमां सभा और उसके समान अन्य सभायें 141, शक्र समा 141, बलदेव सभा 141, रामा बसु की सभा 141, राज सभा 142, वादविवाद
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में प्रमाण 143, पराजित के लक्षण 143, ५५५ : आवाः १६.:: 14:, ६. ..दे । 144, दण्डनीति का प्रारम्भिक इतिहास 144, दण्ड और उसके भेद 144, प्रशासन की स्थिति 145, प्रशासन की सुव्यवस्था हेतु राजकीय कर्तव्य 146, ग्राम्य सगंठन 146, ग्रामीण एवं नागरिक शासन पद्धति 146, पुलिस व्यवस्था 146, प्रान्तीय शासन पद्धति 147 दशम अध्याय
अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध -
दूत और उसका महत्व 149, दूत का लक्षण 149, दूत के गुण 149, दूत की योग्यतायें 149, दुतों के भेद 150, निसृष्टार्थ 150, परिमितार्थ 150, शासनहारी 150. दूतों के कार्य 150 दूतों से सुरक्षा 151, शत्रुप्रेषित लेख तथा उपहार के विषय में राजकर्तव्य 151, दुत के प्रति राजकर्ता 151, लेख की प्रमाणता 151, गुप्तचर और उनका महत्त्व 152, गुप्तचरों की नियुक्ति 152, गुप्तचरों के गुण 152, गुप्तचरों के भेद 152, छात्र 152, कपटिक 152. उदास्थित 152, गृहपत्ति 152, येदेहिक 152, तापस 152, किरात 152, यमपट्टिक 152. अहिंतुण्डिक 152, शोण्डिक 152, शोभिक 152. पाटच्चर 153, बिट 153, विदूषक 153. पीतमदं 153, नास्तिक 153, गायक 153, वादक 153, वाग्जोवो 153, गणक 153. शाकुनिक 153, भिषगृ 153, ऐन्द्रजात्तिक 153, नैमित्तिक 153, सूद 153, आरालिक 153, संवाक 153. सीक्ष्ण 153, 'कुर 153, रसद 153. गुप्त रहस्य की रक्षा 153, गुप्तचर रहित राजा को हानि 153, गुप्तचर के वचनों की प्रमाणता 153, गुप्तरहस्य प्रकाशन की अवधि 154, गुप्तचरों का कर्तव्य 154, गुप्तचरों का वेतन 354, तोन शक्तियां 154, मन्त्रशक्ति 154. उत्साह शक्ति 154, पाइगुण्य सिद्धान्त 154, विग्रह 155, यान 155, आसन 155, संश्रय 155, द्वैधीभाव 156, उपाय 156. साम 156, सामनीति के भेद 158, दान 156, स्थान 159, भेद तथा दण्ड के प्रयोग का अवसर 159, दण्ड 159, भेद 160, उपायों का सम्यक् प्रयोग 160, नीतिमार्ग 161 एकादश अध्याय
उपसंहार -
राग्य 165, राजा की आवश्यकता 166, राजा की महत्ता 166, राजा में नैतिक गुणों की अनिवार्यता 166, सुशिक्षित राजकुमार 166, दोषपूर्ण राजा 167. राजा के सहायक 168, सहायकों के प्रति राजा के कर्त्तव्य 169, अर्थव्यवस्था 169, लोकरक्षा के लिए किए गए निर्माण कार्य 169, सैन्यशक्ति 170, मित्रशक्ति 170, नागरिक और ग्राम्य शक्ति 171, दृतों की भूमिका 171, वार प्रचार 171, शक्तित्रय 171, बाङाग्य 171, शत्रुओं का प्रतीकार 171. विधान 171, न्याय व्यवस्था 172
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प्रथम अध्याय
सातवीं शताब्दी से पूर्व की भारतीय राजनीति प्राचीन भारत में सातवीं शताब्दी से पूर्व राजशास्त्र के अनेक आचार्य हुए हैं, जिनको राजनीति के क्षेत्र में महती देन है।
सातवीं शताब्दी से पूर्व की राजनीति पर एक विहंगम दृष्टि डालने के लिए इसे निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है -
(1) सिन्धु युगीन राजनीति । (2) वैदिक कालीन राजनीति । .
(3) महाकाव्यों में वर्णित राजनीति । . (4) स्मृति ग्रन्थों में प्रतिपादित राजनीति ।
(5) राजनीति प्रधान ग्रन्थों में वर्णित राजनीति ।
इन सब का समग्र अध्ययन तो इन ग्रन्थों अथवा इनके आधार पर लिखे गए विस्तृत ग्रन्धों से ही सम्भव हो सकता है । यहाँ हमारे शोध प्रबन्ध की पृष्ठ भूमि के रूप में उनके कतिपय मालिक तत्वों पर ही क्रमश: प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है -
(1) सिन्धु युगीन राजनीति - सिन्धु प्रदेश की राजनीति और शासन व्यवस्था के विषय में हमारा ज्ञान अनुमान पर ही निर्भर है । किसी निश्चित साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि देश की सत्ता किसी राजा अथवा उसके या जनता के प्रतिनिधि के हाथ में थी अथवा पुरोहित वर्ग के हाथ में थी परन्तु यह अनुमानस्वाभाविक प्रतीत होता है कि केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था । कदाचित् केन्द्रीय शासन की ओर से अनेक पदाधिकारी भिन्न-भिन्न नगरों में शासन करते थे। कदाचित् इन्हें नगर पासियों का भी सहयोग प्राप्त था । सिन्यु प्रदेश में प्रतिष्ठित समष्टिगत जीवन को देखते हुए यह कहना असंगत न होगा कि विभिन्न नगरों में नगरपालिकाओं की भी व्यवस्था थी। नालियों को संरक्षित और साफ रखने, स्थान- स्थान पर कूड़ा एकत्र करने के लिए मिट्टी के बने हुए घड़ों और पीपों को रखने तथा उस संग्रहीत कूड़े को नगर के बाहर फिकवाने, सड़कों, पुलों, नगरों और सार्वजनिक भवनों के निर्माण और जीर्णोद्धार करने, व्यक्तिगत भवनों के आकार प्रकार और खिड़कियों तथा नालियों आदि की दिशा पर नियन्त्रण रखने, श्रम, मुल्य,लाम, माप, तोल आदि सार्वजनिक विषयों को नियमानुकूल रखने इत्यादि के लिए प्रत्येक नगर में नगरपालिका के समान कोई संस्था अवश्य रही होगी। मैके का कथन है कि मोहनजोदड़ों का नगर रक्षा के निमित्त दीवारों के द्वारा कई भागों में विभाजित कर दिया गया था। इन विभागों में रात्रि के समय पुलिस के गश्तों को योजना रही होगी। अनेक सड़कों के कोनों पर भी एकएक भवन के ध्वंसावशेष मिले हैं । कदाचित् वे पुलिस के नाके थे।"शान्ति प्रिय जीवन होने के कारण सिन्धु निवासियों को कभी बहुसंख्यक पुलिस अथवा मिलिटरी की आवश्यकता न रहो होगी । पुलिस का योग एकमात्र सार्वजनिक कार्यों के निमित्त ही किया जाता होगा। उत्खनन में भवनों और सड़कों के जो ध्वंसावशेष निकले हैं, उनमें से अधिकांश आश्चर्यजनक रूप से संरक्षित और व्यवस्थित हैं। इनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि सिन्धु प्रदेश दीर्घकाल तक विप्लव और अशान्ति से मुक्त रहा होगा ।"
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(2) वैदिक कालीन राजनीति - वैदिक युग 2500 ई. पूर्व से लेकर ईसा पूर्ष 200 वर्ष तक का माना जाता है। इस युग को दो भागों में विभाजित किया जाता है - पूर्व वैदिक काल
और उत्तर वैदिक काल । पूर्व वैदिक काल को ऋग्वेदीय काल कहते हैं, क्योंकि इस काल में ऋग्वेद लिखा गया । ऋग्वेद की रचना में एक हजार या उससे अधिक वर्ष लगे । भावेद का बाद का 200 ई. पूर्व तक का काल उसरवैदिक काल माना जाता है । ऋग्वेदीय काल में सामाजिक इकाई का कुल या कुटुम्ब होता था । इसमें एक ही कुलपति के आश्रम में अनेक कुटुम्बी रहते थे । यह कुलपति या कुलप कुटुम्ब का पिता या बड़ा भाई होता था । कुटुम्बों या गृहों के समूह को ग्राम कहते थे । गाँव से बड़ी बस्ती को विश' (वगं या संघ) कहते थे और इसका मुखिया विश्पत्ति कहलाता था। विशों के समूह की जन कहते थे । राष्ट्र' शब्द देश या राज्य के लिए प्रयुक्त किया जाता था । उस समय आर्यों और अनार्यों (अथवा विभिन्न आर्यदलों) के बीच होने वाले अनवरत युद्धों के कारण राजा का रहना आवश्यक था । राजा अनुचित कार्य करने वालों को दण्ड देता था । राजकीय कार्यों में पुरोहित, सेनानी और ग्रामीण योग देते थे।
राज्य की एकच्छत्र शक्ति, की रोकथाम करने वाली दो सार्वजनिक संस्थायें थी. सभा और समिति, जिनके द्वारा जनता के हित से सम्बन्ध रखने वाला नहाच तो तक कि स्वयं राजा के चुनाव में भी जनता की इच्छा प्रकट की जाती थी" | ऋग्वेद काल में न्याय विषयक सामग्री अपेक्षाकृत कम है । उस समय यह प्रथा थी कि मारे गए व्यक्तियों के सम्बन्धियों को धन देका उसको जान के बदले में उऋण हो सकते थे । एक व्यक्ति या मनुष्य को शतदाय कहा गया है. क्योंकि उसके प्राणों का मूल्य सौ गायें था। इस प्रकार प्राणपात के लिए द्रव्य देने की प्रथा से आँख के बदले औख निकालने और दौत के बदले दाँत तोड़ने की आदिम कूर प्रथा का सुधार हुआ और घदसा लेने के निजी अधिकार पर पाबन्दी हुई । उग्न और जीवभृग शब्द का शब्दार्थ है - जोवित पकड़ लेना। ये शब्द राजा के दण्डधर या रक्षा पुरुषों के वाचक माने गए है" ।
उत्तरवैदिक काल में राजा का पद नितान्त प्रतिष्ठित हुआ तथा उसके अधिकारों में भी विशेष रूप से वृद्धि हुई। अभिषेक के निमित्त उपादेय यागों में राजरूप महत्त्वशाली है । उसके स्वरूप की मीमांसा करने से ग़जा की प्रभुक्ति के गौरव का परिचय मिलता है । राजा होने के निमित्त राजसूय यज्ञ का विधान नियत किया गया था । कालान्तर में अश्वमेघ का अनुष्ठान सम्राट तथा चक्रपती पद के लिए आवश्यक बतलाया गया है । अधिकारी रत्नों के नाम मे प्रख्यात थे, जिनके पाम अभिषेक से पहिले राजा को जाना आवश्यक था । इनके नाम ये हैं - (1) सेनानी (सेना का अध्यक्ष) (2) पुरोहित (3) अभिषेचनीय राजा (4) महिणी (राजा की पटरानी) (5) सूत (6) ग्रामदी (7) क्षत्तृ (8) संग्रहोतृ (9) भागदुह (प्रजा से कर वसूल करने वाले अधिकारी) (10) अक्षावाय (रुपए पैसों का हिसाब रखने वाले अफसर (11) गौविकर्तृ (जंगल का अधिकारी) |
अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति को दो पुत्रियों कहा गया है । सभा प्राम ममा थी, यह नाम के समस्त स्थानीय विषयों की देख रेख करती थी। अथर्ववेद में एक स्थान पर मभा को नरिष्ठा कहा गया है । नरिष्ठा का अर्थ सामूहिक वादविवाद होता है । इससे प्रकट होता है कि ग्राम निवासी अपनी सभा में वाद विवाद के पश्चात् ही किसी निर्णय पर पहुँचते थे । ग्राम के
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सभी विषय सभा के आधीन थे। समिति राज्य की केन्द्रीय संस्था प्रतीत होती है। अथर्वद में एक स्थान पर उल्लेख है कि ब्राह्मण सम्पत्ति का अपहरण करने वाले राज्य को समिति का सहयोग नहीं मिलना चाहिए" | दूसरे स्थान पर राजा के लिए समिति के चिर सहयोग की शुभाकांक्षा प्रकट की गई है" ।
राज्याभिषेक के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को आमन्त्रित किया जाता था ताकि वे महार्षीनिधि की भाँति मनोनीत राजा की रक्षा करें। राजा की घोषणा इन शब्दों में की जाती थीहे जनता ! अमुक व्यक्ति तुम्हारा राजा है, किन्तु हम ब्राह्मणों का राजा सोम है (शतपथ ब्राह्मण 5/3/3/12, 5/4/2/3) इससे इस सिद्धान्त का समर्थन होता है कि धर्म जिसका प्रतिनिधि ब्राह्मण है, उस राजा या छत्र से ऊपर है, जिसका शासन जीवन के उन व्यवहारों और क्षेत्रों पर हैं जो धर्म के अन्तर्गत नहीं आते ।
(3) महाकाव्यों में वर्णित राजनीति रामायण और महाभारत ये दो प्राचीन बड़े महाकाय हैं। इन दोनों के काल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार महाभारत पातंजलि के महाभाव्य ( ई. पू. दूसरी शताब्दी) तक पूर्ण हो चुका था " जैकोबो मूल रामायण की रचना 600 ई. पूर्व तथा मैक्डॉनल्ड 500 ई. पूर्व मानते हैं। मूल रामायण में प्रक्षेप जोड़े जाते रहे, फिर भी विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि रामायण का वर्तमान रूप 200 ई. तक बन गया था | रामायण और महाभारत दोनों के आधार पर यहाँ राजनीति का विवेचन किया जायेगा, क्योंकि दोनों का विवेचन लगभग समान है।
प्रजा में मात्स्यन्याय का विनाश करने के लिए राजा की आवश्यकता हुई । राजा की कार्य लोकरंजन करना है । रक्षण, पालन और रंजन कार्य की समानता के कारण राजा और क्षत्रिय एक दूसरे के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होते हैं। प्रजा के योग, क्षेम, व्याधि, मरण और भय का मूल राजा ही है" । राजा के बिना लोक की स्थिति और सुख दोनों असम्भव है" । महाकाव्यों में वर्णित राजा निरंकुश नहीं है, उसे धर्म और नीति के अनुसार शासन चलाना होता है । अत्याचारी राजा अधिकारच्युत कर दिया जाता है। प्रजाओं का उत्पीड़न करने वाला राजा पागल कुत्ते की भाँति वध का पात्र है" । राजा ही योग्य व्यक्तियों की योग्य पदों पर नियुक्ति करता है। 'नारद के कृतास्ते वीर मन्त्रिण:' ( सभा पर्व 5/16 ) से स्पष्ट है कि राजा ही मन्त्रियों का नियोजक था, मन्त्रीगण राजकुत्या राजकर्तारः नहीं थे" ।
सामान्यतया राज्याधिकार वंशानुगत होता था। राजा की मृत्यु के पश्चात् नमका ज्येष्ठ पुत्र स्वत: राज्याधिकारी बन जाता था। परन्तु यदि ज्येष्ट पुत्र के गम्भीर शारीरिक दोष हो तो उस अवस्था में वह राज्याधिकार से वंचित कर दिया जाता था। अन्धे धृतराष्ट्र का उदाहरण इस विषय में उल्लेखनीय है। कोढ़ी होने के कारण देवापि का सिंहासनाधिकार जाता रहा था और उसके स्थान पर शान्तनु राजा बनाया गया था ।
राजा को जनपद, कुल, जाति, श्रेणी और पूरा इन संघीय संस्थाओं के धर्मों का आचार और नियमों का पालन आवश्यक था। महाभारत में गणसंसद संघीय शासन का उल्लेख आता है, जो उस समय प्रचलित है। कई ग्रामों का संयुक्त शासन भी होता था। इसके अतिरिक्त राजतन्त्र प्रणाली भी प्रचलित थी ।
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रामायण, महाभारत से ज्ञात होता है कि वैदिक काल की सभा और समिति संस्थाओं का इस समय सास हो गया था । डॉ. जायसवाल के अनुसार इनका स्थान पौर और जनपद संस्थाओं ने ले लिया था । डॉ.जायसवाल के मत का खण्डन डॉ. अल्टेकर ने किया है। उनके अनुसार रामायण में जो पौर जनपदा: श्रेष्ठाः का उल्लेख हुआ है, उसका आशय पुर और जनपद के प्रमुख निवासियों से.म. समाओं के प्रति घरों से नहीं है: कोर या बनाने का निर्णय दशरथ ने अपने सचिवों के साथ परामर्श करके किया था, किसी सभा के परामर्श से नहीं यदि पौर तथा जनपद दो सभायें होती तो वे राम का वनगमन भी रोक सकती थी।
(4) स्मृति ग्रन्थों में प्रतिपादित राजनीति - स्मृति साहित्य बहुत विशाल है । यहाँ उसका समग्र अध्ययन सम्भव नहीं अत: मनुस्मृति और याज्ञवलय स्मृति इन दो प्रधान स्मृतियों के माध्यम से यहाँ राजनीति का प्रतिपादन किया जाता है ।
मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म का विशेष रूप से निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ मानव के आदि पूर्वज मनु से भिन्न किसी व्यक्ति की रचना है। डॉ. पाण्डुरङ्ग वामन काणे ने अनेक प्रमाणों के आधार पर मनुस्मृति का रचनाकाल ई. पू. दूसरी शताब्दी से ईसा के उपरान्त दूसरी शताब्दी के बीच माना है । मनुस्मृति के अनुसार अराजक संसार में जब सभी लोगों में भय से खलबली मच गई तो भगवान् ने राजा बनाया । इन्द्र, वायु, यम, अग्नि, वझण, कुबेर, सूर्य और चन्द्रमा का थोड़ा अंश लेकर विधाता ने राजा की रचना की । इन्द्रादि श्रेष्ठ देवताओं के अंश से उत्पत्र होने के कारण राजा सब प्राणियों में श्रेष्ठ होला है । सूर्य के समान तेजस्वी राजा अपने राजलेज से सब प्राणियों के नेत्र और मन को अभिभुत कर लेता है, इस कारण कोई उसको और ताक नहीं पाता। वह अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, यमराज, वरुण, कुबेर और इन्द्र का मृतरूप रहता है। राजा यदि बालक हो तो भी साधारण मनुष्य समझकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए: क्योंकि वह मनुध्य के रूप में बहुत बड़ा देवता है। यदि कोई दुःसाहसी मनुष्य आग में कूद पड़े तो जल जायेगा, किन्तु राजा रूप अग्नि कपित हो जाय तो वह समस्त पशु और दस्य के साथ उसे जलाकर भस्म कर देता है। उसकी प्रसन्नता में लक्ष्मी, पराक्रम में विजय और क्रोध में मृत्यु का निवास रहता है, क्योंकि राजा सर्वतेजमय है। इस प्रकार मनुस्मृति में राजा को देवीय अंश के रूप में उपस्थित किया गया है।
___राजा को विनयवान् होना चाहिए, क्योंकि विनीत राजा का कभी विनाश नहीं होता है । राजा को चाहिए कि वह दिन रात इन्द्रियों पर विजय पाने की चेष्टा करता रहे। क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजा को वश में रख सकता है । राजा दस कामजनित और आठ क्रोघजनित व्यसनों का प्रयत्नपुर्वक त्याग करें, क्योंकि कामजनित दोषों में आसक्त राजा धर्म और अर्थ से वंचित हो जाता है और क्रोधजनित व्यसनों में आसक्त होने से सदा प्राणसंकट बना रहता है । मृगया (शिकार), पाश क्रीड़ा, दिन में सोना, दूसरे के दोष कहना, स्त्रियों की आसक्ति, मदनित मतता, वाद्य, नृत्य, गीत और वृथा पर्यटन ये दस कामजनित दोष कहे जाते हैं। चुगली, दुःसाहस, द्रोह, ईष्या. अमूया, परधनहरण, वाक्पारुष्य (आक्रोश),और दण्डपारूण्य अर्थात् अत्यन्त ताड़नायें आठ प्रकार के क्रोधजनित दोष कहे जाते हैं | ___मनुस्मृति में दण्ड की उत्पत्ति भी ईश्वर द्वारा निर्मित मानी गई है" । दण्ड ही राजा, दण्ड ही पुरूष, दण्ड हो राजा का नेता और दण्ड हो शासनकर्ता रहता है, ऋषियों ने दण्ड को ही चारों
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आश्रमों के धर्म का प्रतिभू कहा है । दण्ड ही प्रजा का शासन, रक्षा और अवेक्षण करता है, जब सब लोग सो जाते हैं, उस समय भी दण्ड जागता रहता है अतएव पंडित लोग दण्ड को हो धर्म का मूल कहते हैं राजा यदि दण्ड का भली भांति विचारकर उपयोग करता है तो प्रजा सुखी होती है,अविचारपूर्वक उपयोग से सबका विनाश हो जाता है। दण्डभय से ही लोगन्याय पथ में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि सर्वथा निर्दोष पुरुष संसार में दुर्लभ हैं। सब चराचर जगत् अपने योग्य भाग का उपभोग दण्ड के भय से ही कर पाता है।
राजा की पीढ़ी दर पीढ़ी से राजकर्मचारी, शास्त्रवित्, शूरवीर, युद्धकला में निपुण, सत्कुलीन और परीक्षित सात या आठ मंत्री (सचिव) रखना चाहिए । प्रत्येक मंत्री का अभिप्राय अलग-अलग समझने के बाद मन्त्रियों के साथ राजा सम्मिलित रूप से सलाह करे । पश्चात् विवेचना करके अपना हितकारी सिद्धान्त निर्धारित करे' | बुद्धिमान, कार्यकुशल, न्याय से धन अर्जन करने वाले, एवं सुपरीक्षित अन्य मंत्रियों को भी राजा नियुक्ति करें। जितने मनुष्यों से अच्छी तरह काम चल सके उत्त- आलस्य शून्य, कार्य के उत्साही, अपने-अपने के बाद और विद्वान मनुष्यों को (मंत्री) नियुक्त करे ।
राजा सर्वशास्त्रविशारद, इंगित, आकार एवं चेष्टा को पहचान लेने वाले, शुद्धस्वभाव और अच्छे कुल में उत्पन्न मनुष्यों को दूत बनावे । सर्वजनप्रिय, कार्यदक्ष. देशकाल का ज्ञाता, विशुद्धस्वभाव, सुन्दर शरीर युक्त, भयरहित तथा वाग्मी दुत प्रशंसनीय माना जाता है । कोष और नगर विभाग राजा अपने हाथ में रखे।चतुर्विध सैन्य संचालन कार्य सेनापति के अधीन और सन्धिविग्रह का कार्य दूत के आधीन रखना चाहिए । दूत को शत्रु राजा के कर्तव्य का उसके आधार
और भावभंगी द्वारा समझना चाहिए तथा उसे क्षुब्ध, सुब्ध तथा अपमानित भृत्यवर्ग का अभिप्राय भी जानना चाहिए । जैसे अपने दुर्ग में रहने वाले मृगादि को व्याघ्रादि का भय नहीं रहता, उसी प्रकार अपने किले में बैठे हुए राजा का शत्रु कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकता । प्रत्येक राजा के पास किले का रहना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि दुर्ग के परकोटे पर बैठा हुआ एक योद्धा बाहर के सौ सैनिकों से और सौ योद्धा एक हजार शत्रुपक्षीय सैनिकों से लड़ सकता है। विजय के लिए प्रवृत्त राजा अपने सभी विरोधियों को साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार उपायों से वश में करे । यदि सामादि तीन उपायों से वे वश में न आयें तो दण्ड नीति द्वारा धीरे-नोरे उन्हें वश में लाए । साम, दाम, दण्ड, भेद इन चार उपायों में राष्ट्र की अभिवृद्धि के लिए विद्वान लोग साम
और दान को ही प्रशंसा करते हैं । मंत्री के अतिरिक्त और कोई मनुष्य जिस राजा की मंत्रणा का रहस्य नहीं जान पाता वह ससागरा पृथ्वी का अधिपति होता है । होनबल होते हुए भी परिणामस्वरूप वृद्धियुक्त स्थिरमित्र मिलने से राजा की राजशक्ति जिस प्रकार बढ़ती है उतनी बहुमूल्य रत्न और भूमि सम्पत्ति प्राप्त होने पर नहीं बढ़ती' इस प्रकार मनुस्मृति में राजधर्म का विपुल विवेचन है।
याज्ञवलय स्मृति के राजधर्म प्रकरण में राजनीति का विशेष रूप से विवेचन किया गया है । याज्ञवलय स्मृति के समय की प्राचीनतम सीमा बेवर के अनुसार दूसरी शताब्दी ईस्वी और निचली सीमा छठी या सातवीं शताब्दी के बाद का समय माना है। प्रो.कालो के अनुसार याज्ञवलय स्मृति के समय को ईसा पूर्व पहली शताब्दी तथा ईसा के बाद को तीसरी शताब्दी के बीच कहीं रखा जा सकता है ।
याज्ञवल्य स्मृति के अनुसार राजा को महान, उत्साही, अत्यन्त धन देने वाला कृतज्ञ, वृद्धों की सेवा करने वाला, विनीत, सत्वसम्पत्र, कुलीन सत्यवादी, पवित्र, आलस्य रहित, स्मृतिवान्, सद्गुणी दूसरे का दोष न कहने वाला, धार्मिक, व्यसन न करने वाला, बुद्धिमान, वोर, रहस्य को
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छिपाने में चतुर, अपने राज्य के प्रवेशद्वारों को गुप्त रखने वाला, आन्वीक्षिकी, दण्ड नोति एवं वार्ता विद्या में प्रवीण होना चाहिए। वह ज्ञानी, वंश परम्परा से चले आने वाले, धैर्यवान् एवं पवित्र पुरुषों कोना उनके कार्यों का विचार करे फिर ब्राह्मण से परामर्श करे और स्वयं कर्त्तव्य का निश्चय करे* राजा रमणीक, पशुओं की वृद्धि के योग्य जीवन निर्वाह में सहायता देने वाले एवं वनप्राय देश में निवास करे। उस स्थान पर परिजनों, कोश एवं अपनी रक्षा के लिए दुर्ग बनवाये । वह तत्तत् (धर्म, अर्थ, काम आदि) कर्मों में, आय कर्म और व्यय कर्म में योग्य, कार्यकुशल, पवित्र एवं कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यक्षों को नियुक्त करें" । राजा को मैं तुम्हारा ही हैं. ऐसा कहने वाले, नपुंसक, शस्त्रहीन, दूसरे के साथ युद्ध में संलग्न (युद्ध से) निवृत्त और युद्ध देखने के लिए आए हुए व्यक्तियों को नहीं मारना चाहिए। वह (पुर और अपनी ) रक्षा करके स्वयं आय और व्यय का लेखा देखे, इसके बाद व्यवहार (मुकदमें) देखे तब स्नान करके समय से भोजन करें, तदनन्तर (स्वर्ण आदि लाने के लिए) नियुक्त व्यक्तियों द्वारा लाये गये स्वर्ण को (देखकर) भण्डार में रखे, पश्चात् गुप्तचरों से बात करे और फिर मंत्री के साथ बैठकर दूतों को निर्दिष्ट कार्य करने के लिए भेजे। (अपराह्न में ) इच्छानुसार (अन्तःपुर में) विहार करे अथवा मन्त्रियों के साथ बैठे। पुनः अपनी सेनाओं का निरीक्षण करके सेनापतियों के साथ विचारविमर्श करें। सांयकाल के समय राजा न्योपासना करे गुप्तचरों के रहस्यमय वचनों को सुने । अनन्तरगीत और नृत्य का आनन्द ले, भोजन और स्वाध्याय करके । स्वाध्याय के पश्चात् सोए । सवेरे जागकर अपनी बुद्धि से शास्त्रों का और किए जाने वाले सभी कार्यों का चिन्तन करे, पश्चात गुप्तचरों को आदर के साथ अपने मन्त्रियों आदि के निकट अथवा दूसरे राजाओं के समीप भेजे । राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, अनुराग रखने वालों के प्रति सरल, शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान (दयालु एवं हितकारी) होना चाहिए । न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने पर राजा प्रजाओं के पुण्य का छठवाँ भाग प्राप्त करता है, क्योंकि भूमि आदि सभी प्रकार के दान से प्रजापालन का फल अधिक होता है। राजा लुटेरों, चोरों, बुरा आचरण करने वाले एवं दुस्साहसी डाकुओं आदि से पीड़ित प्रजा की रक्षा करे और कायस्थों से पीड़ित व्यक्तियों की रक्षा करे । राजा द्वारा अरक्षित प्रजा जो कुछ चोरी आदि पाप करती है, उसमें से आधा पाप राणा का हो जाता है, क्योंकि यह रक्षा करने के लिए ही प्रजाओं से कर लेता है। राजकार्य में अधिकार युक्त पदों पर नियुक्त व्यक्तियों का आचरण भली भाँति गुप्तचरों द्वारा जानकर राजा उत्तम चरित्र वालों का सम्मान करे और विपरीत आचरण करने वालों को दण्ड दे। जो घूस लेकर जीविका चलाते हैं, उनका धन छीनकर देश से निकाल देना चाहिए" | राजकार्य का मुख्य आधार मन्त्र (गुप्त परामर्श) है, अतएव मन्त्र को इस प्रकार गुप्त रखना चाहिए कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके । सीमा से सटे हुए राज्य, उसके बाद के राज्य और उसके भी बाद के राज्य पर शासन करने वाले राजा क्रमशः शत्रु, मित्र और उदासीन होते हैं, इन राजमण्डलों पर क्रमश: ध्यान रखना चाहिए और इनके साथ साम आदि उपायों का प्रयोग करना चाहिए। साम, दाम, भेद और दण्ड इनका उचित रूप से प्रयोग करने पर सफलता मिलती है और कोई उपाय न चलने पर दण्ड का आश्रय लिया जाता है। सन्धि विग्रह, यान, उपेक्षामान, आश्रय तथा दुवैधाभाव गुणों का राजा यथोचित अवलम्बन करें। जब शत्रु का राज्य अन्न आदि से भरा हो, शत्रु सेना दुर्बल हो और अपनी सेना के वाहन तथा सैनिक प्रसन्न हों, तब आक्रमण करना चाहिए" । राजा को अपराध, देश, समय, शक्ति, आदि कार्य और धन का पता लगाकर ही दण्डनीय व्यक्तियों को दण्ड देना चाहिए” |
(5) राजनीति प्रधान ग्रन्थों में वर्णित राजनीति राजनीति प्रधान ग्रन्थों से तात्पर्य ऐसे ग्रन्थों से है, जिनमें प्रधान रूप से राजनीति का खुलकर विवेचन किया गया है। ऐसे ग्रन्थों की परम्परा
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में कौटिलीय अर्थशास्त्रम, शुक्रनीतिसार तथा कामन्दकीय नीतिसार का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र
भारतीय राजनीति का प्राचीन स्वरूप स्पाट तथा सर्वप्रथम कौटिल्य अर्थशास्त्र में ध्यान किया गया है । कौटिल्य ने स्वयं अपने अर्थशास्त्र में लगभग अठारह उन्नीस अर्थशास्त्रविद आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनसे विचार ग्रहण कर उन्होंने अपने अद्भुत ग्रन्थ का निर्माण किया । इससे सिद्ध होता है कि अर्थशास्त्र का निर्माण बहुत पहले से होने लगा था। प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने कौटिल्य अर्थशास्त्र की प्रस्तावना में कहा है कि वृहद् हिन्दू जाति के राजनीति विश्यक साहित्य का निर्माण लगभग 650 ई. पूर्व में हो चुका था । इतना होने पर भी वर्तमान उपलक सजनीति प्रधान ग्रन्थों में कौटिल्यका अर्थशास्त्र सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। अर्थशास्त्र के अन्त: साक्ष्य एवं बहिः साक्ष्य दोनों से ही सिद्ध होता है कि इसके रचियता मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु एवं प्रधान मन्त्री कौटिल्य थे और यह ग्रन्थ मर्यकाल में रचा गया । चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल 321 अथवा 323 ई.पूर्व आरम्भ होता है, अत: अर्थशास्त्र का रचनाकाल भी इसी तिथि के समीप मानना न्यायसंगत है।
कौटिल्य ने आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये चार विद्यायें पानी है । उन्होंने आन्वीक्षिकी (सांख्य, योग और लोगट यो (ऋम्मेट गजुर और सावेद) और वार्ता (कृषि, पशुपालन और व्यापार) विद्याओं का मूल दण्डनीति को बतलाया है। शास्त्रविहित उचित रोति से प्रयुक्त दण्ड प्रजा के योग और क्षेम का साधक होता है । विद्या के द्वारा विनीत जो राजा प्रजा के शासन तथा चिन्ता में तत्पर रहता है, वह पृथ्वी का चिरकाल तक निर्बाध शासन करता है। विद्या और विनय का हेतु इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना है । अत: काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, हर्ष के त्याग से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना चाहिए अथवा शास्त्रों में प्रतिपादित कर्तव्यों के सम्यक अनुष्ठान को ही इन्द्रियजय कहते हैं । सारे शास्त्रों का मूल कारण इन्द्रियजय है। शास्त्रनिहित कर्तव्यों के विपरीत आचरण करने वाला इन्द्रियलोलुप राजा सारी पृथ्वी का अधिपति होता हुआ भी शीघ्र नष्ट हो जाता है. इसलिए (राजा) काम, क्रोधादि छह शत्रुओं का सर्वथा परित्याग कर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे, विद्वान पुरुषों की संगति में रहकर बुद्धि का विकास करे , गुप्तचरों एवं स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र के वृत्तान्त अवगत करे. राजकीय नियमों द्वारा अपने अपने धर्म पर दृढ़ बने रहने के लिए प्रजा पर नियन्त्रण रखे, शिक्षा के प्रचार, प्रसार से प्रजा को विनम्र
और शिक्षित बनाए, प्रजाजनों को धन-सम्मान प्रदानकर अपनी लोकप्रियता को बनाए रखे तथा दूसरों का हित करने में उत्सुक रहे । इन्द्रियों को वश में रखता हुआ राजा पराई मत्रो. पराया थन
और हिंसावृत्ति का परित्याग कर दे। वह कुसमय शयन करना, चंचलता, झूठ बोलना. अविनित वृत्ति बनाए रखना, इस प्रकार के आचरणों और इस प्रकार का आचरण करने वाले लोगों को संगति को छोड़ दे तथा अथांचरण और अनर्थकारी व्यवहार का भी परित्याग कर दे । धर्म और अर्थ का जिससे विरोध न हो ऐसे काम का सेवन करे. सर्वथा सुखरहित न हो। धर्म, अर्थ और काम का समान रूप से सेवन करे, क्योंकि इनमें से एक का भी अत्यधिक रूप से सेवन किया गया तो उससे अपने आपको और दूसरे को पीड़ा होगी।
राजा विद्या, बुद्धि, साहस, गुण, दोष, देश, काल और पात्र का विचार करके हो अमात्यों की नियुक्ति करे । स्वदेशोत्पत्र, सत्कुलीन अवगुण शून्य. शिल्पकालाओं का ज्ञाता, विद्वान, बुद्धिमान, स्मरण शक्ति सम्पन्न, चतुर, वा-पटु, प्रगल्भ (दवंग), प्रतिबाद तथा प्रतीकार करने में समर्थ, उत्साही, प्रभावशाली, सहिष्णु, पवित्र, मित्रता के योग्य, दृढ़, स्वामिभक्त, सुशील, समर्थ,
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स्वस्थ, धैर्यवान, निरभिमानी, स्थिरप्रवृति, प्रियदी और द्वेषवृत्तिरहित पुरुष प्रधान मंत्री पद के योग्य है 1जिनमें इसके एक चौथाई या आधी योग्यतायें हों उन्हें मध्यम या निकृष्ट मंत्री समझना चाहिए । मंत्री नियुक्त करने से पूर्व राजा को चाहिए कि वह प्रामाणिक, सत्यवादी एवं आर्य पुरुषों के द्वारा उनके निवास स्थान तथा आर्थिक स्थिति का, सहपाठियों के माध्यम से उनकी योग्यता तथा शास्त्रप्रवेश का, नये-नये कार्य में नियुक्त कर उनकी बुद्धि, स्मृति तथा चतुराई का, व्याख्यानों एवं सभाओं के माध्यम से उनकी वाक्पटुता, प्रगल्यता एवं प्रतिभा का, आपत्तियों से उनके उत्साह. प्रभाव तथा सहिष्णुता का, व्यवहार से उनकी पवित्रता , मित्रता एवंदृढ़स्वामिभक्ति का सहवासियों एवं पड़ोसियों के माध्यम से उनके शील, बल, स्वास्थ्य, गौरव, अप्रमाद तथा स्थिरवृत्ति का पता लगाए और उनके मधुरभाषी स्वभाव तथा द्वेषरहित प्रकृति की परीक्षा स्वयं राजा करें ।
राजा के मित्र ऐसे होने चाहिए जो वंश परम्परागत हों, स्थायी हों, अपने वंश में रह सकें, जिससे विरोध की सम्भावना न हो तथा जो सपा आने पर सहायता कर सके।
सारे कार्य कोष पर निर्भर है। इसलिए राजा को चाहिए कि मनसे पहिले वह कोष पर ध्यान दे राष्ट्र की सम्पत्ति को बढ़ाना, राष्ट्र के चरित्र पर ध्यान रखना, नोरों पर निगरानी रखना, राजकीय अधिकारियों को रिश्वत लेने से रोकना.सभी प्रकार के अनोत्पादन को प्रोत्साहित करना, जल-स्थल में होने वाली प्रत्येक व्यापार योग्य वस्तुओं को बढ़ाना, अग्नि आदि के भय में राज्य की रक्षा करना, ठीक समय पर यथोचित कर वसूल करना और हिरण्य आदि की भेंट लेना ये सब कोषवृद्धि के उपाय है ।
जनपद की स्थापना ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बीच में तथा सीमान्तों में किले बने ही. जिसमें यथेष्ट अन्न पैदा होता हो, जिसमें विपत्ति के समय वन पर्वतों के द्वारा आत्मरक्षा की जा सके, जिसमें थोड़े क्रम से ही अधिक धान्य पक्षहानके, जिसमें शत्रुराजा के वियों की संख्या अधिक हो, जिसके पास पड़ोस के राजा दुर्बल हों. जो कीचड़, कंकड़, पत्थर, ऊसर भूमि चार जुआरो, छोटे छोटे शत्रु, हिंसक जानवर एवं घने जंगलों मे रहित हो, जो नदी तालाबों से सज्जित हो, जिसमें खेती, धान,सकड़ियों तथा हाथियों के जंगल हो,जो गायों के लिए हितकर हो जिसका जलवायु अच्छा हो, जो लुधकों (शिकारियों) से रहित हो, जिसमें गाय, भैंस. नदी, नहर, जल, थल आदि सभी उपयोगी वस्तुयें हों, जिसमें बहुमूल्य वस्तुओं का विक्रय हों, जो दण्ड तथा कर को सहन कर सके, जहाँ के किसान बड़े मेहनती हो, जहाँ के मालिक समझदार हों, जहाँ नीचवणं को आबादी अधिक हो और जहाँ प्रेमी तथा शुद्ध स्वभाव के लोग असते हो |
जन पद सीमाओं को चारों दिशाओं में राजा युद्धोचित प्राकृतिक दुर्ग का निर्माण करवाए। दुर्ग चार प्रकार के हैं - (1) ओदक (2) पार्वत (3) धान्वन (4) वनदुर्ग चारों ओर पानी से घिरा हुआ सपू के समान गहरे तालाबों से आवृत स्थल प्रदेश ओदक दुर्ग कहलाता है । बड़ीबड़ी चट्टानों अथवा पर्वत की कन्दराओं के रूप में निर्मित दुर्ग पार्वत दुर्ग कहलाता है । जल तथा घास आदि से रहित अथवा सर्वथा ऊसर भूमि में निर्मित दुर्ग धान्वन दुर्ग है । चारों ओर दलदल से घिरा हुआ अथवा कांटेदार समान झाड़ियों से परिवृत दुर्ग वनदुर्ग कहलाता है । इनमें औदक तथा पार्वत दुर्ग आपत्तिकाल में जनपद की रक्षा के उपयोग में लाए जाते हैं। धान्न वन और वनदुर्ग वनपालों की रक्षा के लिए उपयोगी होते हैं अथवा आपत्ति के समय इन दुर्गों में भागकर राजा भी अपनी रक्षा कर सकता है ।
सेना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें वंशानुगत, स्थायी एवं वश में रहने वाले सैनिक भी हों, जनके स्वी पुत्र राजवृत्ति को पाकर पूरी तरह सन्तुष्ट हो, युद्ध के समय जिसको आवश्यक सामग्री
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से युक्त किया जा सके, जो कभी भी हार न खाता हो, दुःख को सहने वाला हो. युद्ध कौशलों से परिचित हों, हर तरह के युद्ध में प्रवीण हों. राजा के लाभ तथा हानि में भागीदार हो और जिसमें क्षत्रियों की अधिकता हो । इन गुणों से युक्त सेना दण्ड सम्पत्र कही गई है ।
उपयुक्त राज्यांगों के अतिरिक्त कौटिल्य ने दुतों एवं गुप्तचरों का वर्णन किया है तथा न्याय व्यवस्था पर प्रकाश डाला है। शासन और धर्म के क्षेत्र में कार्यरत प्रमुखत विभागाध्यक्षों को सूचि द्धा. जायसवाल ने अपने ग्रन्थ हिन्दु राजतंत्र ( भाग 2 पृ. 251-262) में इस प्रकार दी है -
(1) मंत्रो (2) पुरोहित (3) सेनापति (4) युवराज (5) दोवारिक (6) अंतर्वशिक - राजा के गृहकार्यों का प्रधान अधिकारी (1) प्रशास्ता - कारागाराध्यक्ष (8) समाहर्ता - माल विभाग का अधिकारी (9) सन्निधाता - कोषाध्यक्ष (10) प्रदेष्टा - राजकीय आज्ञा का प्रचार करने वाला अधिकारी (11) नायक - सेनिकों का प्रधान अधिकारी (12) पौन नगरशासक
(13) व्यावहारिक - न्यायाधीश (14) कार्मास्तिक - ख़ानों का अध्यक्ष (15) मम्य - मविपरिषदाध्यक्ष (16) दण्डपाल - सैनाधिकारी
(17) अंर्तपाल - सोमान्ताधिरा (18) दुर्गपाल -
उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त कौटिल्य ने षाट्य का भी सुन्दर विवेचन किया है । शुक्रनीतिसार
प्राचीन राजशास्त्र के प्रणेता शुक्राचार्य के नाम पर प्रचलित शुक्रनीति सार में राजनीति सम्बन्धी विविध विषयों का विशद्विवेचन मिलता है। शुक्र राज्यविधि का आधार धर्मशास्त्र मानते हैं और अर्थशास्त्र का प्रयोग धर्मशास्त्र से अविरुद्ध रूप में ही स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार न्यायपालिका वह है जहाँ अर्थशास्त्र का प्रयोग धर्मशास्त्र के अनुसार होता है । राजशासन, आचार. परम्परा आदि को भी वे राज्यविधि का आधार मानते हैं । उनके अनुसार राजा न्याय में शास्त्रदृष्ट, जाति, क्षेत्र, श्रेणी, कुटुम्ब एवं जनपद धर्म के साथ सपन्धय करके निर्णय करे। देश विभिन्न व्यवहारों में विभक्त है, सबका समन्वय समान रूप से नहीं किया जा सकता । शुक्र एक ओर धर्मशास्त्र और दूसरी ओर जनमत आचार एवं परम्परा को राज्यविधि का स्रोत मानते हैं, किन्तु वे किसी भी स्थिति में क्षेत्रीय एवं 'जातीय आधार की अवहेलना नहीं करना चाहते । इस प्रकार इस काल तक राजशक्ति के विकास होने पर भी राज्यविधि का आधार राजाज़ा नहीं हो पायी, उसका नियन्त्रण सामाजिक शक्तियां करती रहीं।
शुक्र ने राज्य प्रशासन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सन्तरी सड़क पर पहरा देते हुए चोरों से जनता की रक्षा करें । जनता को चाहिए कि वह दास, भृत्य, स्त्री, शिष्य पुत्र को न पोटे और न गाली, धातु घी, मधु, दूध चबी और आटे में मिलाबट न करे, तोल, सिक्का आदि का गलत प्रयोग न हो,राजकार्य में राजा तथा राजकर्मचारियों को धूस न दे. चोरों दुश्चरित्रों, राजद्रोही आदि को आश्रय न दे, इत्यादि ।
शुक्र के अनुसार दण्ड वह है, जिससे असद् आचरण की समाप्ति हो, फलत: अतिदण्ड
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के स्थान पर अल्पदण्ड आवश्यक है | अपराध के वातावरण का दायित्व काल एवं प्रजा पर नहीं, राजा पर है" । अपराध की मनोवृत्तिजब तक समाप्त नहीं हो जाती तब तक अपराध समाप्त नहीं हो सकता, अतएव दण्डविधान मनोवृत्ति और आदत पर विशेष ध्यान देता है । दमन दण्ड का साधन है, सुधार साथ्य है । दण्ड वही है, जिससे अपराध समाप्त किया आ सके । दमन के माध्यम से पशु भी सुधारे और निमन्त्रित किए जाते हैं | सम्जन व्यक्ति भी दुष्टों के समर्ग से दुष्ट हो जाते हैं, उन्हें दण्ड की शिक्षा के माध्यम से सन्मार्ग पर लाया जाना चाहिए" । दण्ड का उद्देश्य चरित्र, नैतिकता तथा मानवीय गुणों का विकास करना है। जो कुछ सोचा जाता है, वह परिस्थिति विशेष में मूर्तरूप धारण कर लेता है। राजदण्ड के माध्यम से व्यक्ति उचित मार्ग पर लाया जाता
कामन्दकीय नीतिस्तर
आचार्य कामन्दक ने 400 ई. के लगभग एक पद्यमय ग्रंथ नीतियार लिखा.जो कि आचार्य शुक्रकृत नीतिसार का संस्करण होने के साथ-साथ कौटिल्य के अर्थशास्त्र को भी आधार मानता है । कामन्दक ने कौटिल्य का निम्नलिखित रूप से स्मरण किया है
"जिसने अर्थशास्त्ररूप महासमुद्र से नीतिशास्त्र रूप अमृत निकाला उस असौमाण सम्पन्न विष्णुगुप्त (कौटिल्य) को नमस्कार है |
कामन्दक कौटिल्य के अर्थशास्त्र की परम्परा के पालन के साथ स्मृतियों का भी समन्वय करते हैं । उनके अनुसार समाज (वर्ण) अपनी विधियों (धर्म) के पालन से ही नाश से बच सकता है। राज्य की यही आवश्यकता है कि वह सामाजिक विधियों के पालन की व्यवस्था करे। इस प्रकार कामन्दक ने सामाजिक विधि को जमा हुए उसके लाग्य की लापता स्वीकार की विधि को धर्मशास्त्रों पर आधारित मानते हुए उनका कहना है कि आर्यों का व्यवहार विधि (धर्म) और उनका निषेध अधर्म है। इस प्रकार कामन्दक ने आपस्तम्ब मनु एवं अर्थशास्त्र के समन्वय पर सामाजिक विधि की सर्वोच्चता प्रस्तुत की । कामन्दक के समय में देश में बाल आक्रमण होने लगे थे, उसका प्रभाव सामाजिक नैतिकता पर भी पड़ा । ऐसे समय पूर्व परम्परः प्राप्त नैतिकता की सुरक्षा की आवश्यकता थी । कामन्दक ने इसके लिए राज्य को माध्यम बनाया। सामाजिक नैतिकता और राज्य के सम्बन्य निर्धारण में कामन्दक कौटिल्य का मार्गग्रहण करते हैं। उसके अनुसार असामाजिक नैतिकता के उन्मूलन में राज्य सभी प्रकार की नीतियों का प्रयोग कर सकता है । इस प्रकार राज्य एवं समाज के हित के प्रतिकूल जाने वाली शक्ति का उन्मूलन राज्य अनैतिक माध्यमों से भी कर सकता है और वह राजघर्म है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में इस प्रकार के विविध कूट प्रयोगों को स्थान दिया गया । इस प्रकार कामन्दक राज्य के व्यवहार में अर्थशास्त्र की परम्परा स्वीकार करते हैं और सामाजिक विधि, नैतिकता एवं राज्य के आधार में स्मृतियों की । लेकिन सामाजिक विधि एवं राज्य के सम्बन्ध में उस काल की स्थिति का प्रभाव पड़ता है, जिसमें सामाजिक विधि की रक्षा का एकमात्र माध्यम राज्य रह जाता है।
____ कामन्दक के अनुसार स्वामी, मंत्री, राज्य, दुर्ग, कोष, सेना, मित्रवर्ग इन सबका नाम राज्य है । बलपूर्वक सत्वगुण का अवलम्बन कर बुद्धि से निर्गम के उपाय को देखता हुआ राजा निरन्तर जागता हुआ सा इन सातों अंगों के लाभ का यत्न करे | कुलीनता, वृद्ध जनों की सेवा, उत्साह, स्थूललक्षिता, चित्त का ज्ञान, बुद्धिमत्ता, प्रगल्मता, सत्यवादिता इत्यादि राजा के गुण अनेक गुण
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है। इन सब गुणों से हीन होने पर भी जो प्रतापी है वहीं राजा है । प्रतापवान राजा ही शत्रुओं को नष्ट कर सकता है, जैसे सिंह मृगों को । जो राजा व्यसनग्रस्त न हो, यहीं राज्य के व्यसन दूर कर सकता है अन्यथा वह वृहत् राज्य के व्यसन दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता | जिम्म राजा के शास्त्ररूपी नेत्र नहीं है, वह राजा अन्धा कहा जाता है जिसने मद से सन्मार्ग को बिगाड़ दिया है ऐसा नेत्रों वाला अन्धा, अन्धा नहीं है ।
साम, दाम, दण्ड, भेद, माया, उपेक्षा और इन्द्रजाल ये सात जय के उपाय है । नीति के जानने वाले को ये सम्पूर्ण उपाय शत्रु की सेना व अपने द्रोहियों में प्रयोग करना चाहिए। यदि इन उपायों का प्रयोग किए बिना प्रयाण किया जाय तो वह चेष्टा अन्धे के समान होती है । जैसी इना हो या रूप धारण करना अम्न शाब काला जल वर्षाना. अंधकार में लीन हो जाना यह सब मानुषी मावा है । अन्याय, व्यसन तथा युद्ध में प्रवृत्त हुए का निवारण न करना उपेक्षा है। मैघ, अन्धकार, वर्षा, अग्नि, पर्वत तथा अद्भुतदर्शन तथा दूर स्थित भ्वजायुक्तसेना का दर्शन होना. छिन्न भिन्न और संस्कृत वस्तु का दिखाना यह इन्द्रजाल विद्या शत्रुओं को भय दिखाने के लिए कल्पित की जाती है। इस प्रकार के राजनीतिपरक विविध कथनों में कापन्दकीय नीतिसार ओतप्रोत है।
फुटनोट) 1. डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय : प्राचीन भारत का || 19. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी : हिन्दू सभ्यता पृ. 1140
राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पृ.64 20. डॉ. विमलचन्द पाण्डेय : प्राचीन भारत का 2. ऋग्वेद दशम् मण्डल सृक्त 179 ऋचा 2 | राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पृ. 206 3. ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त 44 ऋचा 10 | 21. महाभारत शान्तिपर्व 59:16-21.68/1-16 4. ऋग्वेद चतुर्थ मण्डल सूक्त 4 ऋचा 3 22. वहीं 5613-6,57/31 5. ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 26 ऋचा 3 23. वही आरण्यक 186/90 6. ऋग्वेद द्वितीय मण्डल सूक्त 26 ऋचा 3 24. वही शान्तिपर्व 139/9 7. ऋग्वेद दशम् मण्डल सूक्त 27 ऋचा 5 25. वहीं आदिपर्व 5715-6 शान्ति 63/26 8. ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 17 ऋचा 26. हिन्दू सभ्यता पृ. 141-142 9. ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त 7 ऋचा 5 27. डॉ. कामेश्वर प्रसाद मित्र : महाभारत में 10.पंडित विश्वेश्वलाथ रेड : ऋग्वेद पर एक लोकल्याण को राजकीय योजनायें पृ. 67 ऐतिहासिक ए. 212, 213
28. वहीं पृ. 209 11.डॉ. राधाकुमुद मुकजी : हिंन्दृ सध्यता पृ.82 29. हिन्दू सभ्यता पृ. 142 12. वही पृ.83
30. रामायण 2/14/40 13. बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और 31,डॉ, विमलचन्द्र पाण्डेय : प्राचीन भारत का संस्कृति पृ. 140-741
राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास . 14. अथर्ववेद 7:12/1
209-210 15. वहीं 7/1212
32. काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम 16. वही 5/19:15
भाग) पृ. 46-47 17, वहीं 6/88/3
33. मनुस्मृति 7/3 18. डॉ. राधामुकुट मुकी हिन्दू सभ्यता पृ. 102 || 34. मनुस्मृति 714-11
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12
35. वही 7/38
166, वही 6/96/1 36. वही 7143-47
67. वहो 2/43/8 37. वहीं 7/14
68. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 6/96/1 38. वही 7:17-19
69. वहीं 2/19/3 39 वहीं 7122
70. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 6:96/1 40. मनुस्मृति 7/53
71. शुक्रनीतिसार 4/52,41785 41. बही 7/56
72. वही 4/565 42. वही 7160-61
73. वहीं 332. 43. वही 7163.67
74. वहीं 41568-70 44. वही 7773-74
75. हरिहरनाथ त्रिपाठो : प्राचीन भारत में राज्य 45. यही 7/107-109
__और न्यायपालिका पृ. 88-89 46. मनुस्मृति 7/14
76. शुक्रनीतिसार 1/293-371 47. वही 7:208
77. वहीं 4140 48, यज्ञवलक्य स्मृति (हिन्दी व्याख्या - || 78. वहो 4/49
टमेशचन्द्र पाण्डेय) प्रस्तावना (ले. | 79. युगानांन प्रजानां दौय: किन्तु नृपस्य हि । श्रीनारायण मिश्र) पृ. 30-31
__ वही 4/56 49. याज्ञवलम्यस्मृति 1/309-312
80. शुक्रनीतिसार 2. 130, 131, 136 50, वहीं 1/321-322
(विनयकुमार सरकार का अंग्रेजी अनुवाद) 51. याज्ञवलक्यस्मृति 1/326-339
81. शुक्र 4/1/110 52 साजवन्नाम ति 1/385-30
मुक्रनीतिसार पृ. 130, 131, 136 53. वहीं 1/368
(विनयकुमार सरकार का अंग्रेजी अनुवाद) 54. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् - अनु. वाचस्पति १३. कापन्दकीयनीतिसार: 1/6 गैरौला (भूमिका) पृ.66
84. हरिहरनाथ त्रिपाठी : प्राचीन भारत में राज्य 55. वहीं पृ. 65
और न्यायापलिका पृ. 81-82 56. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 15/1
85. कामन्दकीय नीतिसार 1/16 57. कामन्दकीय नीतिसार 1/6
&. वहीं 117 58, एम. एल. शर्मा : नीतिवाक्यामृत में 87. वही 8/7-11 राजनीति पृ.7
88. ब्रही 8/12 59. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 1/1/1
89. वहीं 4/2 60. वहीं 1/2/4
90. वहीं 14/3 61. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 1/2/4
91. वही 1713 62. वहीं 1/375
92. वहो 1763 63. वही 1/3/6
93. वहीं 17:53 64. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 17 94. वही 17/55 65. वही 1/4/8
95. वही 17/59
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द्वितीय अध्याय सातवीं से दशवीं शताब्दी तक के प्रमुख जैन राजनैतिक
विचारक और उनका योगदान
रविषेण
आचार्य रविषेण अठारह हजार अनुष्टुप श्लोक प्रमाण पद्मचरित नामक संस्कृत जैन कथा साहित्य के आद्य ग्रंथ के प्रणोता हैं । विक्रम संवत् 734 (667 ई.) में पद्म-चरित की रचना पूर्ण की, ऐसा ग्रन्थ के अन्त में इन्होंने स्वयं लिखा है । पदमचरित का प्रमुख प्रतिपादय रामकथा है, किन्तु प्रसङ्गानुसार राजनीतिक विचार भी प्राप्त होते हैं । उदाहरण के लिए प्रजापालन के ही प्रसा को लें । प्रजापालन करते समय राजा सदाचार की ओर विशेष ध्यान देता था क्योंकि राजा जैसा कार्य करता है, प्रजा भी उसी का अनुसरण करती है । जिस समय प्रजा के प्रतिनिधियों द्वारा राम को ज्ञात हुआ कि चारों ओर यह चर्चा है कि राजा दशरथ के पुत्र सम रावण द्वारा हरण की गई सीता को वापिस ले आए हैं । उस समय उन्हें महान् दुख हुआ और कदाचित प्रजा बुरे मार्ग पर न चलने लगे यह सोचकर उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया । कुल को प्रतिष्ठा पर सजा लोग अधिक ध्यान देते थे। सीता का परित्याग करते समय राम लक्ष्याण से कहते हैं कि हे भाई
चन्द्रमा के समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्तिरूपी मेघ की रेखा से आवृत न हो जाय, इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ । मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यन्त निर्मल एवं उञ्जवल कुल्ल जब तक कलङ्कित नहीं होता है, तब तक शीघ्र हो इसका उपाय करो। जनता के सुख के लिये जो अपने आपको अर्पित कर सकता है, ऐसा मैं निर्दोष एवं शील से सुशोभित सौता को छोड़ सकता हूँ, परन्तु कीर्ति को नष्ट नहीं होने दूंगा । पिता के समान न्यायवत्सल हो-प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना', विचारपूर्वक कार्य करना, दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर वश में करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखलाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तमशील अर्थात् निदोष आचरण से वश में करा. मित्र को सद्भावपूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना' क्षमा से क्रोध को, मृदुता से मान को.आर्जव से माया को और धैर्य से लोम को वश करना राजा का धर्म माना जाता था।
पद्मचरित में अनेक युद्धों का वर्णन है । इन युद्धों के मूल कारण प्रमुखत: चार थे - 1. श्रेष्ठता का प्रदर्शन। 2. कन्या । 3. साम्राज्य विस्तार ।
4. स्वाभिमान की रक्षा । प्राचीन काल में वीरभोग्या वसुन्धरा' का सिद्धान्त प्रचलित था । जो शासन की अवहेलना करते थे या आज्ञा नहीं मानते थे ऐसे राजाओं के विरूद्ध दूसरे राजा जो अपने आप को श्रेष्ठ मानते थे, युद्ध छेड़ दिया करते थे। राजा, माली, वेश्या, वाहन, विमान, कन्या, वस्त्र और आभूषण आदि जो-जो श्रेष्ठ वस्तु (दूसरों के यहाँ) गुप्तचरों से मालूम करता था, उसे शीघ्र ही बलात् अपने यहाँ बुलना लेला था । वह बल, विद्या विभूति आदि में अपने आपको ही श्रेष्ठ मानता था । इन्द्र का आश्रय पाकर जब विद्याधर रामा माली की आज्ञा मन करने लगे तब वह पाई तथा किष्किन्य के पुत्रों के साथ युद्ध करने के लिये विजयादगिरि की ओर चला।
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प्राचीन काल में अनेक युद्धों का कारण स्त्री रही है । पद्मचरित में वर्णित राम रावण का युद्ध इसका बड़ा उदाहरण है । इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक उदाहरण यहाँ मिलते हैं। राजा शक्रधनु की कन्या जयचन्द्रा का विवाह जब हरिप्रेणा के साथ हुआ तब इस कन्या ने हम लोगों को छोड़कर भूमिंगोचरी पुरुष प्रहण किया है, ऐसा विचारकर कन्या के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर बहुत ही कुद्ध हुये" | बाद में युद्ध हुआ, जिसमें हरिषेण विजयी हुआ । इसी प्रकार कैकेयी ने जब दशरथ के गले में बरमाला डाली तन्त्र अन्य राजाओं के साथ दशरथ का युद्ध हुआ।
माम्राज्य विस्तार की अभिलाषा के कारण राजा लोग अनेक युद्ध लड़ा करते थे। लक्ष्मण ने समस्त पृथ्वी को वश में कर नारायण पद प्राप्त किया था" । सागर चक्रवर्ती छन् खंड का अधिपति था तथा समस्त राजा उसकी आज्ञा मानते थे । इस प्रकार साम्राज्य विस्तार की प्रवृत्ति अधिकांश . बलशाली राजाओं में दिखाई देती है । इसके कारण अनिवार्य रूप से युद्ध हुआ करते थे ।
___ कभी-कभी स्वाभिमान की रक्षा के लिये भी युद्ध होते थे । चक्ररत्न के अहंकार में चुर जब भरत ने बाहुबलि पर आक्रमण किया तब मैं और भरत एक हो पिता के पुत्र हैं, इस्प म्वाभिमान के कारण उसने भरत के साथ युद्ध किया और दृष्टियुद्ध, पल्लयुद्ध तथा जलयुद्ध में परास्त कर अन्त में विरक्ति के कारण दीक्षा ले ली।
जटासिंह नन्दि
जटासिंह नन्दि ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति वरांगचरित में अपना कोई परिचयादि नहीं दिया है. केवल इतरवर्ती लेखकों के उल्लेखों के आधार पर विद्वानों ने उनके काल को जानने की चेष्टा की है । जटासिंह नन्दि के समय की पूर्वप्तीमा बतलाना विद्वानों के लिये सहज नहीं है । उत्तरवर्ती सीमा सातवीं शताब्दी तक निर्धारित होती है, क्योंकि आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन ने सिखसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र और शिवकोटि के बाद जटाचार्य का उल्लेख किया है | जटासिंहनन्दि अन्य विषयों के साथ राजनीति के भी अच्छे विद्वान थे, उनके काथ्य में भी राजनीति सम्बन्धी जानकारी यत्र तत्र मिलती है । उदाहरणार्थ राज शासन के विषय में वे कहते हैं - राजा का शासन इतना प्रचण्ड हो कि लोग उसके जनपद या राजधानी में चारों कणों या आश्रमा की गर्भादाओं को लाँघने का साहस न करें । सब धर्मों के अनुयायी अपने-अपने शास्त्रों के अनुसार आचरण करें। बालक, वृद्ध, अज्ञ तथा विद्वान सभी अपने कर्तव्यों का पालन करें। यदि कोई पुरुष मन में भी बुरा करने का विचार लाये या विरुद्ध कार्य करे तो वह उसके राज्य में एक क्षण. भी ठहरने का साहम न करे । बह इतना भयभीत हो जाये कि अपने को इधर-उधर छिपाता किरे ताकि भूख, प्याम की वेदना से उसका पेट, गाल और आँखें धस जॉय तथा दुर्बलता और थकान से उसका पृष्टदण्ड झुक जाय । राजा का शासन इतना अधिक प्रभावमय हो कि शत्रु उसकी आज्ञा का उल्लंघन न करें । उसके सब कार्य अपने पराक्रम के बल पर सफल हो जाये। ममस्त वसुन्धरा की रक्षा करता हुआ वह इन्द्र के समान मालूम दे" । जब कोई शानु उसके सामने मिर उठाये तो वह अपनी उत्साह शक्ति, पराक्रम, धैर्य तथा पौरुष से युक्त हो जाये. किन्तु यही राजा जब सच्चे गुरूओं, मातृत्व के कारण आदरणीय स्त्रियों तथा सञ्चनपुरुषों के सामने पहुंचे तो उसका आचरण सल्ल, सरलता.शान्ति, दया तथा आत्मनिग्रहादि भावों से युक्त हो जाय । सजा विधिपूर्वक
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प्रजा का पालन करे । जो लोग किमी प्रकार के कुकर्म करें, उनको वह दण्ड दे। निरूपाय व्यक्तियों ज्ञान अथवा किसी भी प्रकार की शिक्षा न प्राप्त करने के कारण आजीविकोपार्जन में असमर्थ दरिंद्र तथा अशरण व्यक्तियों का बह राज्य की ओर से पालन करे, जो शील की मर्यादा को नोड़ें वे राजा के हाथ बड़ा भारी दण्ड पायें ।
जिनसेल प्रथम
जैन परम्परा में जिनसेन नाम के अनेक आचार्य हुये हैं । जिनमेन प्रथम से तात्पर्य हरिवंशपुराण के रचयिता पुन्नार संघ के जैनाचार्य से है। ये महापुराणादि के कता जिनमेन से भिन्न थे। इनके गुरु का नाम कीर्तिपण और दादगुरु का नाम जिनसेन था । महापुराणादि के क.नां जिनमेन के गुरु वीरसेन और दादागुरु आर्यनन्दी थे। पुन्नाट कनाटक का प्राचीन नाम है। इसलिए इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाट संव था । जिनसेन के जन्म स्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवन का कुछ भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण का बहुभाग वर्धमानपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर रचा था और शेष भाग उस शान्तिनाथ मन्दिर के शांतिपूर्ण मन्दिर में रचा जहां दोस्तटिका के लोगों ने एक वृहत्पूजा का आयोजन किया था। उस समय इतर दिशा में इन्द्रायुध, दक्षिण में वृषण के पत्र श्रीवल्लभ तथा पूर्व और पश्चिम में अन्तिनरेश वत्सराज तथा सौरमण्डल (साराष्ट्र) में वीर जयवराह राज्य करते छ । थे उल्लेख बड़े महत्वपूर्ण हैं अंर सभी इतिहास लेखकों ने इनका उपयोग किया है । किन्तु कुछ बातों में उलझन हुई है। एक मत यह है कि यहां पूर्व में अवन्तिराज वत्सराज का और पश्चिम में सौराष्ट्र के नरेश वीर जयवराह का उल्लेख किया गया है। किन्तु दुसरे मतानुसार यहाँ पूर्व में अन्तिराज और पश्चिम में वत्सराज तथा वीर जयवराह का उल्लेख समझना चाहिये । इस बात में मतभेद है कि इन राज्यसीमाओं का मध्यबिन्दु कहा जाने वाला वधमानपुर कौन सा है । डॉ. उपाध्ये के मत से यह वर्धमानपुर काठियावाड् का वर्तमान बढ़वान हैं और वहीं इसी पुन्नाट संघ के हरिवेश ने बृहत्कथाकोष की रचना की थी । किन्तु डॉ.हीरालाल जैन के अनुसार वधमानपुर मध्यभारत के धार जिले का बदनावर होना चाहिए, क्योंकि उसका प्राचीन नाम वर्धमानपुर पाया जाता है, वहाँ प्राचीन जैन मन्दिरों के भग्नावशेष अब भी विद्यमान हैं, वहाँ से दुरिया ( प्राचीन दोस्तटिका) ग्राम समाप है तथा वहां ये उक्त राज्य विभाजन की सीमावे ठीक ठीक इतिहाससंगत सिद्ध होती हैं।
हरिवंश पुराण से राजनीतिविषयक अनेक सूचनायें प्राप्त होती हैं । वहाँ पुरोहित सामन्त महापामन्त, प्रतीहारी', द्वारपाल (द्ववास्थः!", युवराज तथा महामन्त्री के नाम पर हैं : पुरोहित के विषय में ज्ञात होता है कि वह राजा को सलाह देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता : जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तो भरत ने सन्देहयुक्त हो बुद्धिमामर पुरोहित में पृछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश में कर लेने पर भी यह दिव्यचक्र रत्न अयोध्या में प्रवेश स्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है । इस पर पुरोहित ने कहा आपके जो महाबलवान् भाई है वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं" | राजा अपने राज्यकाल में ही अपने किंग पत्र को युवराज बनाकर उसका पट्टबन्ध करता था अथवा राज्यकाब मेकारत होने पर एक को राजा और दूसरे को युवराज बनाता था । महत्वपूर्ण युक्तियाँ भी हरिवंश पुराण में प्राप्त होती हैं, जिनमें से अनेकों का राजनीति को दृष्टि से विशेष महत्त्व है । यथर
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1. भेजे हुये व्यक्ति के कृतार्थ हो चुकने पर उसका कालाप करना निष्कल है। 2. सन्तप्त वस्तु का मेल सन्तप्त से कराया जाता है। 3. सूर्य के पतन का जब काल आता है तो अन्धकार की प्रबलता हो जाती है। 4. पाप में अनुराग रखने वाले किस पुरुष पर सज्जनों का विद्वेष नहीं होता। 5. दीर्घसूत्री मनुष्य नष्ट होता है। 6. संसार में कौन किसे सुख देता है अथवा कौन किसे दुःख देता है ? कौन किसका मित्र है और
कौन किसका शत्रु है ? अपना किया हुआ कार्य ही सुख अथवा दुख देता है।
धनंजय
धनंजय तथा उसके काव्य की विद्वानों ने पर्याप्त प्रशंसा की है। इन्होंने अपने को अकलंक तथा पूज्यपाद के समकक्ष बतलाने के अतिरिक्त अपने विषय में कोई परिचयात्मक जानकारी नहीं दी है। द्विसन्थान महाकाव्य की टोका में नेमिचन्द्र ने द्विसन्धानसर्ग B, श्लो. 146 जिसमें अत्यधिक श्लेष है, के आधार पर परिचयात्मक विवरण निकाला है। तदनुसार वासुदेव तथा श्री देवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था । धनञ्जय के लेखक से भिन्न है । यनंजय अकलंक (7इन्त्रीं शती ईसवी) तथा वीरसेन, जिन्होंने 816 ईस्त्री में अपनी पवला टीका पूर्ण की थी, के मध्य हुए । इस प्रकार धनंजय का समय 800 ईस्वी अनुमानित किया जा सकता है। वह किसी भी प्रकार भोज ( 11वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूप से उनका तथा उनके द्विसन्धान महाकाव्य का उल्लेख किया है, से बाद के नहीं हो सकते । द्विसन्धान महाकाव्य या राघव पाण्डवीय के अतिरिक्त धनंजय की अन्य दो कृतियां प्राप्त होती हैं - (1) विषापहार स्तोत्र (2) नाममाला |
धनंजय राजनीति के गहन अध्येता थे, उनके विचार इस बात की पूर्ण साक्षी देते हैं । उदाहरणत: धनंजय का कहना है कि प्रजा का भली भांति पालन करने हेतु राजा को समस्त प्राणियों की सुरक्षा की व्यवस्था करके आदर्श मर्यादाओं का पालन करना चाहिए तथा विशिष्ट आत्मगौरव की भावना के साध अभय का एक मात्र नारा देते हुए खड्ग धारण व्रत का पालन करना चाहिए। लोगों में इस प्रकार अपवाद नहीं होना चाहिए कि भाग्य से सब कुछ मिलता है.राजा कुछ नहीं देता है । जनता राजा के विषय में यही कहे कि यह राजा सज्जनों का विधाता है और दुर्जनों का काल है। साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि विरूद्ध कार्य दण्डादि द्वारा वैर बढ़ता है, अतएव उसे प्रिय कर्मों के द्वारा शान्त कर देना चाहिए। धान्य सूर्य के आतप में खूब बढ़ता है, किन्तु वृक्ष की छाया के द्वारा दब जाने पर उसमें अंकुर नहीं फूटते हैं" | राजाओं को समस्त पृथ्वी प्रेम के द्वारा वश में करना चाहिये । यहां न तो कोई अपना है और न पराया है । गुणों के द्वारा ही राजाओं के अपने और पराए बनते हैं" । राज्य का भली भांति पालन करने के लिए यत्न करना पड़ता है। यदि राजा के कार्यादि के बिना ही राजा का प्रभाव, महात्म्य आदि राज्य करने वालों के समान हो जाय और कीर्ति को प्राप्त कर ले तो अनेक चिन्ताओं से बाधा युक्त इस राज लक्ष्मी से क्या प्रयोजन है ? राजा के प्रधान लोकप्रिय अधिकारी जिस राज्य की जनता की भली भांति रक्षा करते हैं, उस राज्य के सामन्त राजा भी अपने-अपने नगरों और ग्रामों से होने वाली आय को जनता का धन मानते हैं और उनके विकास में ही व्यय करते हैं। राजा को चाहिए कि वह उचित और
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निश्चित समय पर राजकार्य को देखे, याचकों की बात सुने, अधिकारियों से प्रतिवेदन ले, नागरिकों से मिले सथा नर्तकी का नृत्य आदि भी देखें । उसके राज्य में प्रजा को क्षय, लोभ तथा अप्रोति के कारणों का सामना न करना पड़े तथा कोई परस्त्री पर दृष्टि न डाले।यदि दमन को आवश्यकता हो तो केवल शत्रुओं का दमन करे। .
शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए सबसे पहिले अपने को संयमित करना चाहिए तत्पश्चान् अपनी दिनाको व्यवस्थित कर मनि अति जना माविमासान करना चाहिए । उचित स्थान पर किए गए प्रयत्न सफलता के कारण होते हैं, इसके विपरीत अग्थान पर किए गए प्रयत्न विनाश का ही कारण होते हैं। केवल पुरुषार्थ के आधार पर ही विजय की कामना नहीं करना चाहिए, किन्तु पुरूषार्थ होने पर भी देश, समय, शत्रुबल तथा आत्मबल का विवेक और आक्रमण के पहिले समस्त बातों को परोक्षा भी विचारणीय है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शरीर बल का कुछ भी महत्त्व न हो । देश, काल तथा चातुरी में पूर्ण श्रृगाल क्या कर सकता है? यदि उसके शरीर में शक्ति ही न हो । इसके अतिरिक्त विवेक की भी आवश्यकता है । देश, काल और बल की अनुकूलता से पुष्ट सिंह विवेक विमुख होकर अपने शरीर को क्षतविक्षत कर डालता है। जो अपने अथवा शत्रु के हिताहित बिवेक, आत्मबल, सेना, प्रजा, अधिकारी तथा साधन सामग्री का सब दृष्टियों से विचार नहीं करता है । वह आक्रम्य के ऊपर आक्रमण करते ही विनष्ट हो जाता है । उनका जन्म प्रशंसनीय है जो कायंकृत अथवा जन्मजात स्वयं आए हुए मित्रों को स्वीकार करता है तथा व्यवहार के कारण बने अथवा कुल क्रमागत शत्रु का दूर से हो प्रतीकार करता है। । विजिगीषु की सहायता करने में समर्थ तथा असमर्थ पक्षों का विचारका और उन्हें आश्वासन तथा सहायता देकर अथवा लेकर, अनुगामी बनाकर सब प्रकार से सन्नद्ध हो सेना लेकर शत्र पर आक्रमाग करना चाहिये । इसके पूर्व शत्रु को स्वामी आदि प्रवृतियाँ, पुण्य-पाप, नीति निपुणता अथवा अनीतिमत्ता और कार्य शक्ति का भी विचार कर लेना चाहिए । अस्थिर नीतिवाला, पापनिष्ठ, अवसर का लाभ उठाने में असमर्थ, शिथिल शत्रुमागं के समान प्रमाणिक पुरूषों के चले जाने पर तथा वापिस न आने के कारण जिस किसी के द्वारा तिरस्करणीय हो जाता है । नीचे की ओर देखने वाले शत्रु पर कब यकायक आक्रमण नहीं किया जा सकता है ? अर्थात् सदैव किया जा सकता है । जिस प्रकार विविध वीथियों युक्त धूलिमय (सूखा) और दूर-दूर तक चला गया तथा विश्वस्त लोगों से आया गया मार्ग जिस किसी के जाने योग्य हो जाता है, उसी प्रकार उपर्युक्त लक्षणों से युक्त शत्रु पर भी आसानी से आक्रमण किया जा सकता है। शत्रु द्वारा वश में करणी मन्त्री आदि यदि फूटते है तो शत्रु भेदनीति द्वारा नहीं जीता जा सकता है और यदि अरातिमाह्य मन्त्री आदि में फूट पड़ गयी तो शत्रु को पराजित हो समझिये, फिर भेद के लिए प्रयत्न से क्या लाभ ? क्योंकि गाय फटे खुरों से ही चलती है पर क्या अभिन्न खरों से घोड़ा नहीं दौड़ता है ?
कितनी अपनी शक्ति है और कितनी दूसरों से मिलेगी, इसका विचार करना चाहिए तथा अनुकूल देश और समय की उपेक्षा करके नहीं रहना चाहिए, क्योंकि शय्या से उठकर ही दौड़ते हुओं को सफलता मिलती है । स्वयं बलशाली तथा शत्रु का (आन्वीक्षिकी आदि) विद्याओं को दृष्टि से तथा सम्पत्ति आदि साधनों की अपेक्षा तथा पराक्रम के आधार से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि घिसने और घिसे जाने वाली लकड़ियों के बीच से उत्पन्न स्वाभाविक आग के समानसंग्राम
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भी दोनो पक्षों को महान् कष्टदेता है अपनी अथवा शत्रु की (18) प्रकृतियों की अन्योन्य माधना. उत्कृष्ट स्थिति को उपेक्षा करके, यदि किसी प्रकृति से प्रेरित होकर राजा शत्रु के प्रति अभियान करता है तो नीति शास्त्र के आचार्य उस पर ईष्या ही करते हैं 1 राजा को अपनी आक्रमाग योजना तथा तैयारी गुप्त रखना चाहिए61 । कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा है कि जो राजा अपने गुप्त विचारों या गुप्त मन्त्रणाघों को छिपाकर नहीं रख सकता है, वह उन्नतावस्था में पहुँचकर भी नीचे गिर जाता है । समुद्र में नींव के फट जाने पर जो दशा सवार की होती है, ठीक बहो दशा मन्त्र के फूट जाने पर राजा की होती है ।सर्वथा सन्नद्ध विजय का इच्छुक अपने तथा शत्रु के मित्रों को. मित्रों के मित्रों को, सेना के पीछे व्यूहभृत पाणिग्रह और आक्रन्दकों (आक्रन्दक = कोई राजा जो अपने मित्र राजा को अन्य राजा की सहायता करने से रोके) को एवं दोनों पाश्वों के बीच मलती सेना (आसारों) को लड़ाते हुए (समादि) उपायों के द्वारा, (प्रभु, मन्त्र और उत्साह) शक्ति के द्वारा और विद्या आदि की सिद्धि के द्वारा निश्चित ही शत्रु का नाश करते हैं ।
सद्यपि दूत अवध्य होता है, तथापि उसके कथन को मन में रखकर उसके स्वामी के विनाश का पूर्णचित्त से विचार करना हो चाहिए क्योंकि जहाँ काक और उल्लू खेलते हो तथा मब जगह शव और पोव व्याप्त हो,ठस बन में कौन व्यक्ति निडर होकर जायगा । अर्थात् भय के स्थान श्मसान मार्ग में जिस प्रकार सावधानी से जाले हैं, उसी प्रकार शत्रु के विषय में भी मावधान रहना चाहिए। अपने पुरुयार्थ पर भरोसा रखना चाहिए क्योंकि विजन्म अपने पुरुषार्थ के हो अधीन है । शत्रु दमन कौतिं का कारण होता है । शत्रु से होने वाली मुठभेड़ को आत्मीय जनों से होने वाली स्नेह भेंट से भी बढकर मानना चाहिए. क्योंकि यद्यपि महापुरुषों की मित्रमण्डली विशाल होती है, किन्तु उनकी अनुपम कीति का प्रसार तो श क दमन के कारण हा होता है। राजा को अपने राज्य को इंति भीति आदि विपत्तियों से बचाना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की विपत्तियों के आने पर कोई राज्य समाप्त हो जाता है | राज्यों के साथ दुष्टों के समान व्यवहार न करें, अपने साम्राज्य में दूसरों के साम्राज्य को मिला दे किन्तु दूसरा दण् न दे. ऐसा करने पर रथादि के स्वामी शत्रु विजयी राजा को उपहार आदि प्रदान करते हैं ।
वादीभसिंह
वादीभसिंह बहुत ही प्रतिभाशाली आचार्य थे | आपके वाग्मित्व, कवित्व और गमकत्व की प्रशंसा जिन सैनाचार्य जैसे महाकवि ने की है । बादीभसिंह नाम जो उपाधि जान पड़ता है, मे उनकी तार्किकता सूचित होती है । उपचूडामणि, गचिन्तामणि और स्याद्वादसिद्धि ये तान रचनायें सम्प्रतिवादीभसिंह की उपलब्ध हैं । इनमें से प्रथम दो काम ग्रन्थ तथा अन्तिम स्यद्वादसिद्धि न्याय ग्रन्थ है । प्रमाणनौका और नवपदार्थविनिश्चय ये दो न्याय प्रन्थ भी वादीसिंह द्वारा रचित माने जाते हैं, सम्प्रति ये अनुपलब्ध * 1 स्यावादसिद्धि में जीवसिद्धि, फलभोकृत्वसिद्धि, युगपदनेकान्त सिद्धि, जगद्धि , भोक्सृत्वा भावसिद्धि, सर्वज्ञाभादमिद्धि, जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि, अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि, अर्धापत्ति, प्रामाण्यसिद्धि, वेद पौरुषेयत्वमिद्धि, परत: प्राशयसिद्धि, अभाव प्रमाणदूषणसिद्धि, तर्कप्रामाण्यसिद्धि और गुणगुणी अभेदसिद्धि इन 14 अधिकारों द्वारा प्रतिपाद्य विभयों का निरूपण किया गया है।
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छत्रचूड़ामणि में भगवान महावीर के समकालीन राजा सत्यन्धर की विजयारानी के पुत्र जीवन्धरकुमार का वृत्तवर्णन है। इनका जीवनवृत अनेक घटनाओं से भरा हुआ है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चारों पुरुषार्थों का फल प्रदर्शित करने में अद्वितीय है। ग्रन्थ की रचना ग्यारह लम्भों में अनुष्टुप् छन्द में की गई है । गद्यचिन्तामणि का कथानक छत्रचूडामणि के समान है ! इसको रचना संस्कृत गद्य में की गई है । श्री कुप्पुस्वामी ने गद्यचिन्तामणि के विशिष्ट गुणों को चर्चा करते हुए कहा है -
वादीभसिंह के काव्यपश्च में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों को रचना, अप्रतिहत वाणी, सरल कथासार, चित्त को आश्चर्य में डालने वाली कल्पनायें. हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला धर्मोपदेश, धर्म से अविरूद्ध नीतियों और दुष्कर्म के फल की प्राप्ति आदि विशिष्ट गुण सुशोभित
यादीमसिंह का समय विद्वानों ने आठवीं शती का अन्त और नवीं शताब्दी ईसवी का पूर्वाधं सिद्ध किया है । तत्कालीन राजनैतिक जीवन की झांकी वादीभसिंह के काव्यों में पर्याप्त मिलती है । उदाहरणतः गद्यचिन्तामणि के द्वितीय लम्भ में पदाति, अश्व, हाथी और रथ चार प्रकार की सेना का निर्देश किया गया है । आक्रमण का मुकावरमा करने के लिए अथवा आक्रमण करने के लिए सेना का उपयोग किया जाता था ।सबसे पहले राजा सेनापतियों को आज्ञा देता था, पश्चात सेनापतियों की आज्ञानुसार सेना कार्य करती थी । वादोभसिंह ने मेना के प्रयाण का मुन्दर चित्र खींचा है । गोविन्द महाराज काष्ठांगार के यहाँ ससैन्य जा रहे हैं, उस समय अत्यन्त सफेद वारवाणों से सुशोभित श्रेष्ठ केचुकी वेत्रलताओं से राजा के उपकरण धारण करने वाले लोगों को प्रेरित कर रहे थे। राजा के अत्यन्त दूरवर्ती स्थान तक यह समान भेजना है, यह समाचार सुनने के लिए भण्डारियों का समूह एकत्रित होकर शीघ्रता कर रहा था। गुरुजन विनयपूर्वक नमस्कार करते हुए लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे । लौटने को आशा से रहित भोरू योद्धा गाड़े हुए धन से युक्त कोने दिखला रहे थे। आगे जाने वाले लोग बड़े पेट वाले दासी पुत्रों को बार-बार बुलाने से खिन और पसीने से तर हो रहे थे। भूले हुए आश्चर्यकारक आभूषणों को लाने के लिए भेजे हुए सेवक अस्पष्ट तथा निरोधी वचन कर रहे थे । तेजी से जाने वाले सम्बन्धी पीछे देखने के बाद लौटकर पुन: पीछे . पीछे चलने लगते थे । गोण गिरा देने वाले बैल के द्वारा डरे हुए यात्रियों को भीड़ इकट्ठी हो रही थी । क्रोधी चाण्डाल मजबूत कुल्हाड़ी से वृक्ष चीरकर रास्ता चौड़ा करते जाते थे । खोदने वाले (खनित्रगण) कुयें बनाते जाते थे । तात्कालिक कार्य में निपुण बढ़ई नदियों तैरने के लिए ना तैयार कर देते थे। सेना के कोलाहल से सिंह भयभीत होकर भाग जाते थे। बड़े-बड़े हाथी वृक्षों के लट्टे उखाड़कर मार्ग में रुकावट पैदा करते थे। वनचर हाथियों की रगड से छिटकी हुई वृक्षों की छाल देखकर हाथियों के शरीर का अनुमान करते थे। हाथी की गन्यसूंघकर बिगड़ने वाले जगली हाथियों को पकड़ने वाले योद्धाओं का शब्द चारों दिशाओं में हो रहा था। अन्न और वस्त्र से युक्त सब शस्त्र हाथी, घोड़े, गधे, भैंसे, मेढ़े, बैल, रथ तथा गाड़ी आदि प्रमुख वाहनों पर लाद दिए गए थे। इस प्रकार की सेना जब समीप वसों हेमांगद देश में पहुँचने को उद्यत हुई तब शिस्पिसमाज के प्रमुखों ने पटकुटी बनाई । काष्ठागार के द्वारा सम्मानित गोविन्द महाराज ने उसमें प्रवेश किया।
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शत्रु विजय के विषय में वादीमसिंह का कहना है कि शत्रु मनोरथ की सिद्धि पर्यन्त प्रसन्न करने योग्य होते हैं। अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलता और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रूकावट रहित होते हैं ।
वादीभ सिंह के ऊपर अपने पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव स्पष्ट द्योतित होता है। गद्यचिन्तामणि की प्रस्तावना में पं. पन्नालाल जी ने कतिपय ऐसे प्रसंगों को दर्शाया है। इन प्रसंगों में राजनैतिक प्रसंग भी सम्मिलित है" ।
जिनसेन द्वितीय
आचार्य जिनसेन द्वितीय मूलसंघ के उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय या सेनसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ। पाश्वभ्युदय" के अन्त में आए हुए पद्म से इतना स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य के ये शिष्य थे। विनयसेन इनके गुरुभाई थे। उन्हीं के कहने पर इस काव्य की रचना को गई है। अमोधवर्ष राष्ट्रकूट वंश का राजा था और कर्नाटक तथा महाराष्ट्र पर शासन करता था। यह शक सं. 736 (वि. सं. 871) में राज्यासीन हुआ था। इसकी राजधानी मान्यखेट अथवा मलखेड थी। जिनसेन के उपदेश से यह जैनधर्म में दीक्षित हो गया था। प्रश्नोत्तररत्नमाला से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष अपने पुत्र को राज्य सौंप स्वयं मुनि बन गया था जिनमेन के पाश्वभ्युदय का उल्लेख हरिवंशपुराण (शक सं. 705 सन् 783 ई.) में आया है। अतः पाश्र्वभ्युदय की रचना ई. सन् आठवीं शती में हो चुकी थी। जिनसेन द्वितीय ने वीरसेन द्वारा आरम्भ की गई जयश्रवला की परिसमाप्ति शक संवत् 759 (ई. 837) फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाहण में को थी । अतः जिनसेन की रचनाओं का क्रम घटित करने पर पाश्र्वभ्युदय के अनन्तर जयधवला टीका और उनके पश्चात् आदिपुराण का क्रम आता है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने लिखा है- वोरसेन स्वामी के यह शिष्य सेनसची आचार्य जिनसेन के राजगुरु और धर्मगुरु थे। ये विभिन्न भाषावित् एवं विविधविषयपटु दिग्गज विद्वान थे। लड़कपन से ही उनके साथ अमोघवर्ष का सम्पर्क रहा था और वह उनकी बड़ी विनय करता था । अतएव जिनसेनाचार्य का स्थितिकाल शक संवत् 680765 (सन् 758-837 ई.) होना चाहिये" ।
पाश्र्वभ्युदय मेघदूत के पदों को लेकर समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गये काव्यों में सबसे पहला काव्य है। इस काव्य में चार सर्ग है। प्रथम सर्ग में 118 पद्य, , द्वितीय में 118, तृतीय में 57, चतुर्थ में 71, इस प्रकार कुल 364 पद्यों में काव्य लिखा गया है 1 काव्य की भाषा प्रौढ़ है और मेघदूत के समान ही मन्दाक्रान्ता छन्द का व्यवहार किया है । जिनसेन द्वितीय की दूसरी रचना वर्धमानपुराण है, जिसका उल्लेख जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण में किया है, सम्प्रति यह अनुपलब्ध है ।
कषायप्राभृत के पहले स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर जयधवला नाम की टीका लिखकर जब गुरु वीर सेनाचार्य स्वर्ग को सिधार चुके सब उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने उसके अवशिष्ट भाग पर 40 हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूरा किया। यह टीका जयघवला के नाम से प्रसिद्ध है ।
आदिपुराण कवि की प्रौढ़ावस्था की कृति है। यह महापुराण का एक भाग है। इसमें 47 पर्व हैं, जिनमें प्रारम्भ के 42 और तैतालीस पर्व के 3 श्लोक जिनसेनाचार्य द्वारा रचित है। शेष पर्वो के 1620 श्लोक उनके शिष्यभदन्त गुणभद्राचार्य द्वारा रचित है |
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आदिपुराण में राजनीति के लिए राजाख्यान" और राजविद्या' शब्दों का प्रयोग हुआ है। उस देश का यह भाग अमुक राजा के आधीन है अथवा यह नगर अमुक राजा का है इत्यादि वर्णन करना जैनशास्त्रों में सजाख्यान कहा गया है | राजविधा का परिज्ञान होने से इस लोक सम्बन्धी पदार्थों में बुद्धि दृढ़ हो जाती है । राजर्षि राजविद्याओं के द्वारा अपने शत्रुओं के समस्त गमनागमन को जान लेता है। राजविद्यायें आन्वीक्षिकी त्रयी, वार्ता और दण्डनीति के भेद से चार प्रकार की होती है । मन्त्रविद्या के द्वारा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) को सिद्धि होती है। यह लक्ष्मी का आकर्षण करने में समर्थ है और इसमें बड़े बड़े फल प्राप्त होते हैं ।
गुणभद्र
जिनसेन द्वितीय और दशरथगुरु के शिष्य गुणभद्राचार्य अपने समय के बहुत बड़े विद्वान हुए हैं। ये उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी और भावलिङ्गी मुनिराज थे। इन्होंने आदिपराण के अन्त में 1620 श्लोक रचकर उसे पूरा किया और उसके बाद उत्तरपुराण की रचना की, जिसका 'परिमाण आठहजार श्लोक प्रमाण है । ये अत्यन्त गुरुभक्त शिष्य थे।
उत्तरपुराण महापुराण का उत्तर भाग है । इसमें अजितनाथ को आदि लेकर 23 तोथैकर 1 चक्रवर्ती, 9 नारायाण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण तथा जोवन्यर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषों के कथानक दिए हुए हैं । इसकी रचना कवि परमेश्वर के गद्यात्मक पुराण के आधार पर हुई होगी।
आत्मानुशासन आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित भर्तहरि के वैराग्यशतक की शैली में लिखा हुआ 272 श्लोकों का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है । यह सरस और सरल रचना हृदय पर तत्काल असर करती
जिनदत्तचरित गुणभद्ररचित नवसर्गात्मक छोटा सा काष्य है । अनुष्टुप् श्लोकों में इसकी रचना हुई है। इसकी कथा बड़ी कौतुकावह है । शब्दविन्यास अल्प होने पर भी कहीं कहीं भाव बहुत गम्भीर है।
आचार्य गुणभद्र के अनुसार राज्यों में राज्य यही है, जो प्रजा को सुख देने वाला हो । उत्तरपुराण से देश के जो विशेषण प्राप्त होते हैं उनमें दुर्ग, बन, खाने, अकृष्टपध्यसस्य ( बिना बोए होने वाली धान्य), त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) में विभक्त प्रजाये, तपस्वियों का अतिक्रमण करने वाले कृषक", स्वच्छ जलाशय", अनाज से परिपूर्ण, सबको तृप्त करने वाले राजा के भण्डार के समान खेत तथा घन घान्यादि से परिपूर्ण पास-पास में बसे हुए ग्राम प्रमुख हैं, । राजा का कर्तव्य है कि वह अनेक उपायों से कोष का वर्धन करते रहें । अर्जुन, रक्षण, वर्धन
और व्यय ये वार धनसंचय के उपाय है। इन उपायों का प्रयोग करते समय राजाअर्थ और धर्मपुरुषार्थ को काम की अपेक्षा अधिक माने । उत्तरपुराण में तीन शक्तियों का भी विवरण प्राप्त होता है। पंचाङ्ग मन्त्र (सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और बाधक कारणों का प्रतीकार) के द्वारा मन्त्र का निर्णय करना मन्त्रशक्ति है । राजा को नित्य आलोचित मन्त्रशक्ति से युक्त होना चाहिए। । शुरवीरता से उत्पन्न हुए उत्साह को उत्साहशक्ति कहते हैं। राजा के पास कोश और दण्ड की जो अधिकता है, उसे प्रभुशक्ति कहते हैं । उपर्युक्त तीन शक्तिरूप सम्पत्ति के द्वारा राजा समस्त शत्रुओं को जीत लेता है, युद्ध शान्त कर देता है तथा अर्थ के द्वारा भोगों का उपभोग करता है।
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22 ये तीनों सिद्धियाँ धर्मानुबन्धिनी सिद्धि को फलीभूत करती है। यथार्थ में शक्तियों वही हैं जो दोनों लोकों में हित करने वाली हो राजा को उत्साह, मन्त्र और फल इन तीन सिद्धियों सहित होना चाहिए। सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और वैधीभाव ये राजा के छह गुण हैं। ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेही है । इस प्रकार गुणभद्र की रचनाओं में राजनीति की विपुल सामग्री प्राप्त होती है।
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तीरनन्दि
वीरनन्दि मान्द संघ देशोय गण के आचार्य थे । चन्द्रप्रभकाव्य के अन्त में जो प्रशस्ति आयी है. उससे ज्ञात होता है कि ये आचार्य अभयनन्दि के शिष्य थे।अभयनन्दि के गुरु का नाम गुणनन्दिा था । क्षवणबेलगोल के 47 वें अभिलेख में बतलाया है कि गुणनन्दि आचार्य के 300 शिष्य थे, उनमें 72 सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे।इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक के शिष्य कलधौतनन्दि या कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवतीं थे। कनकनन्दि ने इन्द्रनन्दि गुरू के पास सिद्धान्तशास्त्र का अध्ययन किया था । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने गोमटसार कर्मकाण्ड में अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि और बोरनन्दि इन तीनों आचार्यों को नमस्कार किया है | उनके गोमट्सार कर्मकाण्ड की एक गाथा से यह भी अवगत होता है कि इन्द्रनन्दि इनके गुरु थे। कनकनन्दि भी गुरु के समकक्ष ही रहे होंगे, अत: इन्होंने उन्हें भी गुरु कहा है। एक अन्य गाथा में बताया है कि जिनके चरणप्रसाद से वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्त संसार से पार हुए है. उन अभयनन्दि गुरु को नमस्कार है । उक्त संदर्भ से सिद्ध है कि वीरनन्दि के गुरु अभयनन्दि, दादागुरु गुणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती भी इनके लघुगुरु भाई प्रतीत होते है । डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने वीरनन्दि का समय उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर ई. सन् 950-999 निर्धारित किया है।
आचार्य वीरनन्दि के अनुसार राजा पालन पोषण करने शिक्षा देने और कष्ट दूर करने के कारण सारी प्रजा का स्वामी गुरु और सुहृद है। वह अपनी प्रजा को नववधू के समान सब प्रकार से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है जिस प्रकार पति अपनी नववधूको रतिया सुरसकीड़ा से प्रसन्न करता है उसी प्रकार राजा अपनी प्रजा को रति अर्थात् प्रीति से प्रसन्न करता है और जिस तरह यति तरह-तरह के उज्जवल वर्णों या रंगों की चित्ररचना से वधू के शरीर को अलष्कृत करता है उसी तरह राजा प्रजा को ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्गों को उज्जवल व्यवस्था से शोभित करता है । इस प्रकार समस्त प्रजा उसके वश में हो जाती है |
राजा और प्रजा एक दूसरे के हर्ष और विषाद में समान रूप से सम्मिलित होते थे । जब राजा मुनि वगैरह को वन्दना के लिए जाता था तो यात्रा को सूचना देने के लिए नगाड़े बजाए जाते थे" नगाड़े की ध्वनि सुनकर हजारों पुरुषों का समूह राजद्वार (राजगोपुर) पर एकत्रित हो जाता था । अनन्तर पुरवासी, सुहृवर्ग, बन्धु बांधव, सेना, सामन्त, पुत्र और रानियों सहित राजा अभीसित स्थान पर जाता था । सुयोग्य राजा का प्रकृति भी साथ देती थी। उसके राज्यकाल में कोई अकालमृत्यु से नहीं मरता था और अतिवृष्टि या अनावृष्टि लोगों को व्याकुल नहीं करती थी, कानों के पर्दे फाड़ने वाले कठोर शब्द से युक्त दारुण हवा नहीं चलती थी, रोगों की वृद्धि नहीं होती थी और अधिक जाड़ा या गर्मी नहीं पड़ती थी। सारे जनपद में कभी इति (टिड्डी) मूसे, अनावृष्टि आदि की बाधा नहीं होती थी, पुर के तर हिंस्र पशु भो हिंसावृति को छोड़ देते
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थे। दीन और अनार्थों को राजा की ओर से दान दिया जाता था | अपने आश्रित सामन्तों और राजाओं को भी समय-समय पर राजा प्रसन्नतासूचक वस्त्रों के जोड़े आदि पुरस्कार यथायोग्य देकर सन्तुष्ट करता था। इस प्रकार जनसाधारण से लेकर राज परिवार तक के समस्त लोगों को राजा खुश रखता था । अपनी इस कप का समय-समय पा से ततित पतिदान भी प्राप्त होता था तथा जब कभी वह दिग्विजय वगैरह के लिए जाता तो गोष्ठमहत्तर (गोपों के मुखिया) आदरपूर्वक दही, दूध आदि सामग्री मार्ग में भेंट करते थे और राजा की प्रसन्नता में वृद्धि होती थी ।
___ राजकीय आय का एक बहुत बड़ा साघन कर था" । कर बहुत अधिक न लिया जाता था कोमल लिया जाता था" | सदैव से ही मौलिक कर भूमिकर था जो सामान्य रूप से भाग कहलाता था तथा यह उपज का एक निश्चित अनुपात होता था। ताम्रपत्रों में दान की भूमि को सभी करों से मुक्त करने का वर्णन मिलता हैं । हर्षवर्धन के समय से विभिन्न करों (स्थायो या अस्थायी) के नाम मिलते हैं। भूमिकर नकद या सामान के रूप में दिया जाता था। कुछ अस्थायी कर थे और चुंगो या बेगार के रूप में ग्रहण किये जाते थे । चन्द्रप्रभ चरित में कहा गया है कि राजा को प्रजा अपनी रक्षा के लिए छठा भाग वेतन की तरह देती है । उसे लेता हुआ वह प्रजा के सेवक के समान है। किन्तु मूढ़ मनुष्य अपने को राजा समझकर गर्व करता है।2 । एक स्थान . पर कहा गया है कि पहले कर (हाथ,कर) से सन्न जगह स्पर्श करके फिर समान रति (अथंभोग, अनुराग) प्रदानकर सारो पृथ्वी को राजा अपनी वशवर्तिनी बना लेता है।23 । राजा को अपने अधीन राजाओं से मेंट" (उपायन) के रुप में भी अच्छो आय होतो थो। समस्त दिशाओं (के राजाओं) से कर लेने वाले राजा को दिक्करी कहा जाता था |
बीरनन्दि ने राजकुमार और उनके गुणों की अच्छी जानकारी दी है। जैसे फूल ही वृक्ष की परमशोभा है, जवानी ही शरीर का परम श्रृंगार है, शास्त्र हो शास्त्र के ज्ञाता पण्डित का आभरण हैं, वैसे ही सुपुत्र मनुष्य के वंश का अलंकार है। विशेषकर राजाओं के लिए तो उसकी उपयोगिता
और भी बढ़ जाती है। इसी उपयोगिता को ध्यान में रखकर राजकुमार को श्रेष्ठ गुरूओं से विधाओं (चार विधाओं) और उपविद्याओं की शिक्षा दिलायी जाती थी । शास्त्राभ्यास मे शुबुद्धि वाले कुमार जब पिता के पद को संभालते थे तो लोग स्वभावतः उन्हें आदर देते थे । उनके कार्य विवेक से शुन्य नहीं होते थे। खान से निकले हए रत्न के समान अवस्था के छोटे होने पर भी वे राजकुमार उज्जवल किरणों के समान अपनी कलाओं से बढ़ते हुए गुण के कारण सबसे बड़ेहोते थे । खड्गविधा, हाथी और घोड़े पर सवारी करने की विद्या के जानकार लोग सदा उनकी सेवा करते थे। उनकी उपमा हाथी से दी जाती थी । उनसे मदगलित (नष्ट) हो जाता था, हाथी के भी मदगलित होता है- बहता है। राजकुमार उच्चवंश के होते थे वहाथो का वंश (पोठ को हड्डी) भी ऊंची होता है। (शिक्षित) हाथी जिस प्रकार विनीत, उन्नतिशील और शक्ति युक्त होता है उसी प्रकार वे भी विनीत, उन्नतिशाली और शक्तिवान होतेथोहाथी जिस प्रकार अंकुश से वश में किया जाता है, उसी प्रकार राजकुमारों के लिये उनके माता-पिता और गुरुजन हो अंकुश होते थे। विकार को धारण करने वाले रूप और जवानी की सम्पदा के साथ विग्रह (शरीर, युद्ध) रखने पर भी आन्तरिक (क्रोधादि)शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले उनमनस्वी कुमारों के मन को
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व्यसन नहीं हर पाते थे। कुमार की उदारता का क्या कहना ? उनकी उदारता को देखकर अन्य उदार लोग अपनी उदारता का वृथा अनमान या देते थे सत्तास्ते मा पर पड़ता ही है अत: इनके साथ कायर लोग भी शूर हो जाते थे। इस प्रकार नीति को मानने वाले लोगों के लिए जो अभीष्ट है, ऐसे उदारता, शूरता और सत्य ये तीन गुण आपस में स्पर्धाकर उनमें बढ़ने लगते थे। उसकी नीति इन्द्र से भी बढ़कर होती थी। स्वाभाविक विनीत भात्र और वैभव का अनुगामी. क्षमागुण विनय का अनुगामी और पराक्रम झमागुण को अलंकृत करता था। उसके गुण से निमल, महान् और समस्त तेजस्वियों के उदय का स्थान वंश प्रकाशित होता था' | गुणों के आश्रय राजकुमार केवल अपने ही पक्ष के लोगों को हर्षित नहीं करते थे, अपितु दुष्ट स्वभाव वाले शत्रुओं को भी खुश करते थे, क्योंकि पुण्यात्मा लोगों के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जो असाध्य हो। काम, क्रोधादि छह अन्तरंग शत्रुओं को जीतने वाले, कृतज्ञ और अधिक गुण वालों में श्रेष्ठ कुमार में सय गुणों का वास देखकर ईर्ष्या के कारण दोष उन्हें छूते भी नहीं थे। इस प्रकार के सुयोग्य राजकुमार कोही युवराज बनाया जाता था और अन्त में राजा लोग पुर. वाइन सहित उन्हें राज्य भी दे देते थे। इस प्रकार लोगों की धनधान्य से पूर्ण और महान् गुणों से युक्त बनाते हुए नीतिदशी राजकुमार ही आश्रित लोगों के यथार्थ स्वामी और गुरु होते थे ।
असता
महाकवि अमग द्वारा रचित वर्धमानचरित और शान्तिनाथ चरित को प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम पटुमति और माता का नाम रैति था । माता-पिता अन्यन्स मुनिभक्त थे इसलिए उन्होंने बालक असग का विद्याअध्ययन मुनियों के पास ही कराया था। असग की सिक्षा नागनदी आचार्य और मावकीर्ति मुनिराज के चरणमूल में हुई थौ । असग ने वर्धमारचरित
की प्रशस्ति में अपने पर ममताभाव प्रकट करने वालो सम्पत् श्राविका और शान्तिनाशपुराण की प्रशस्ति में अपने ब्राह्मण मित्र जिनाप का उल्लेख किया है. अतः प्रतीत होता है कि यह दोनों ग्रन्थों के रचनाकाल में गृहस्थ ही थे, मुनि नहीं । बाद में मुनि हुए या नहीं इसका निर्देश नहीं मिलता है । यह चोलदेश के रहने वाले थे और श्रीनाथ राजा के राज्य पे स्थित विरला नगरी में उन्होंने आठ ग्रन्थों की रचना की थी। चूंकि इनकी मातृभाषा कर्नाटक थी; अत; जान पड़ता है कि इनके शेष 6 ग्रन्थ कर्णाटक भाषा के थे और वे दक्षिणभारत के किन्ही भण्डारों में पड़े हो या नष्ट हो गए हों । भाषा की विभिन्नता से उनका उत्तर भारत में प्रचार नहीं हो सका हो ।
वर्धमानचरित की प्रशस्ति के अनुसार इसकाध्यकारचनाकाल संवत 10 है। दक्षिणभारत में शक संवत् का प्रचलन अधिक होने से इसे विद्वान शक संवत मानते आए हैं. किन्तु डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने इसे विक्रम संवत माना है, क्योंकि 95 ई. के पंप, पोन आदि कन्नड कवियों ने असग की प्रशंसा की है।
महाकवि असग के काव्यों में राजनीति के तत्त्व ओत-प्रोत हैं। उदाहरणत: वर्धमानचरित में राजा के दोषों के विषय में असग कहते हैं - मेरो लक्ष्मी दूसरों से अत्यधिक है, मैं दूसरों से दुर्जेय हूँ, इस तरह का गर्व करके जो राजा निष्करण दूसरों का तिरस्कार करता है वह मंसार में अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता है। । जगत के भय का नाश किए बिना जो जगत का
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अधिपति बनाता है, उसको नमस्कार करने वालो भी जनता चित्रगत राजा के समान देखती है 45 | आन्तरिकशत्रु और उनके प्रभाव के विषय में असग ने अपने विचार व्यक्त किये हैं । काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मात्सर्य ये छह अन्तरंग शत्रु कहे गये हैं। जो राजा इन पर विजय प्राप्त करने का प्रश्न करता है उसके समीप जाकर राजलक्ष्मी उसी तरहवृद्धि को प्राप्त होती है जिस प्रकार कल्पवृक्ष के समीप जाकर कल्पलता वृद्धि को प्राप्त होती है। चाहे कोई कितना ही उन्नत क्यों न हो, यदि स्त्री रूपी पाश से बंधा हुआ है तो दूसरे लोग उसे पदाक्रान्त कर देते हैं। जिसके चारों ओर बेल लिपटी हुई है, ऐसे महान तरु (वृक्ष) के उपर बालक भी चढ़ जाता है? | क्रोध तृष्णा को बढ़ाता है, धैर्य को दूर करता है, विवेकबुद्धि को नष्ट करता है मुझ से नहीं करने योग्य कार्यो को भी कराता है एवं शरीर और इन्द्रियों को सन्तप्त करता है । आँखों में लालिमा, शहेर में अनेक प्रकार का कंप, चिन्त में विवेकशून्य चिन्तायें अमार्ग में गमन और श्रम इन बातों को तथा इनसे और नेक काम पन्न करता है या मंदिरा का मद। - संसार में जो आदमी बिना कारण के प्रतिपद क्रोध करता है, उसके साथ उसके आप्तजन भी मित्रता नहीं रखना चाहते हैं। विष का वृक्ष मंद मंद वायु से नृत्य करने वाले फूलों के भार से युक्त रहता है, तो भी भ्रमर उसकी सेवा नहीं करते हैं | यदि कोई अतिबलवान् और पराक्रम का धारक भी अत्यन्त उन्नत हुए दूसरों पर कोप करे तो ऐसा करने से उसकी भलाई नहीं होती। मृगराज मेघों की तरफ स्वयं उछल उछलकर व्यर्थ प्रयास करता है । उत्पन्न हुआ क्रोध कठोर वचन बोलने से और बढ़ता है, किन्तु कोमल शब्दों से वह शान्त हो जाता है। जो किसी कारण कोप करता है यह तो सदैव अनुनय से शान्त हो जाता है, किन्तु जो बिना कारण क्रोध करता है. उसका प्रतीकार कैसे हो सकता है। अतः अभिवाञ्छित कार्यसिद्धी की रक्षा करने वाली अन् आँखों के लिए सिद्धांजन की अद्वितीय गोली और लक्ष्मी रूपी लतावलय को बढ़ाने वाली जलधारा क्षमा ही हैं ७ |
वे व्यक्ति अच्छे माने जाते हैं और उन्हीं की प्रशंसा होती है जो शत्रु के सामने निर्भय रहते हैं तथा सम्पत्ति आने पर भी जो मद नहीं करते हैं । जिसकी बुद्धि मद से मुर्च्छित ही रही है ऐसा उद्धत पुरुष हाथी की तरह तभी तक गर्जता है जब तक वह सामने भीषण आकार के कारक सिंह समान शत्रु को नहीं देखता है । अपने मन में विभूति का गर्व नहीं करना चाहिए। जो लोग इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर सके हैं. वन भूढात्माओं की सम्पत्ति सुख के लिए नहीं हो सकती हैं। फ ।
सोमदेव
सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू के अन्त में अपने विषय में पर्याप्त सूचना दी है। वह देवसंघ के आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और नेमिदेव के शिष्य थे। नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्र देव के लघुभ्राता थे और स्याद्वादचलसिंह, तार्किक, चक्रवर्ती वादीभन वाकल्लोलपयोनिधि तथा कविकुलराज उनकी उपाधियाँ थी। उसमें यह भी लिखा है कि सोमदे यशोधर महाराज चरित, षष्णवतिप्रकरण, महेन्द्रमातलिसंजल्प और युक्तिचिंतामणिस्तव के रचियता थे । 'यशोधरमहाराजचरित का ही दूसरा नाम यशस्तिलक चम्पू है। शक संवत् 881 (959 ई.) मैं सिद्धार्थ संवत्सर में चैत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन जब कृष्णराजदेव पाण्ड्य सिंहल, चोल और चेरम आदि राजाओं को जीतकर मेलपाटी में शासन करते थे, यशक्तिलक समाप्त हुआ ऐसा सोमदेव ने स्वयं लिखा है। सोमदेव का यह उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य है क्योंकि सोमदेव के यशस्तिलक की सामाप्ति से कुछ ही सप्ताह पूर्व मेलपाटी में 9 मार्च सन् 959 ई. के दिन अंकित किये गये महान् राष्ट्रकूट चक्रवर्ती कृष्ण तृतीय के करहार ताम्रपत्र से उसका समर्थन होता है। इस ताम्रपत्र में चोलों के साथ चेरम, पाण्ड्य सिंहल, आदि देशों के राजाओं के ऊपर कृष्णराज तृतीय की विजय का निर्देश है। उसमें यह भी लिखा है कि कृष्णराज ने अपना
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विजयकटक मेलपाटी में स्थापित किया था । सम्प्रति सोमदेव के तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैंयशस्तिलक चम्पू, नीतिवाक्यामृत और अध्यात्मतरंगिणी। पहले में आठ अश्वासों में गद्य और पद्म में राजा यशोधर की कथा वर्णित हैं, इसी से उसे यशोधर महाराज चरित भी कहते हैं। दूसरे ग्रंथ में सूत्र शैली में राजनीति का कथन है, इसमें 32 अध्याय हैं। तीसरा ग्रन्थ 40 पद्यों का एक प्रकरण है । प्राचीन भारत के राजनैतिक आदर्शों वगैरह की जानकारी की दृष्टि से नीतिवाक्यामृत का अत्यधिक महत्व है। इसका विषय क्रम इस प्रकार है -
(1) धर्म समुद्देश धर्म का स्वरूप, अधर्म का दुष्परिणाम, धर्मप्राप्ति के उपाल आगम महात्म, उसकी सत्यता, चंचलचित्त तथा कर्तव्यविमुख को हानि, दान, तप, संयम, धर्म, विद्या व धन संचय से लाभ तथा धामिंक अनुत्साह से हानि आदि ।
(2) अर्थ समुदेश धन का लक्षण, धनिक होने का उपाय, धन विनाश के कारण । (3) कामसमुद्देश- काम का लक्षण, सुखप्राप्ति का उपाय, केवल एक पुरुषार्थ से हानि
आदि।
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(4) अरिषड्वर्ग समुद्देश- अन्तरंग शत्रुओं के नाम लक्षण इत्यादि ।
(5) विद्यावृद्ध समुददेश - राजा का लक्षण, कर्त्तव्य, राज्य का स्वरूप, वर्ण आश्रम के भेद. ब्रह्मचारियों का स्वरूप, राज्य का मूल, राज्य की श्रीषद्धि के उपाय आदि,
1. पद्म 96/50 2. वही 96/48 3924.97/21
( 6 ) आन्वीक्षिकी समुद्देश- अध्यात्मयोग, आत्मा के क्रीड़ा स्थान, आत्मा का स्वरूप, पुनर्जन्म, दुखों के भेद, इच्छा, का स्वरूप आदि ।
(7) यी समुद्देश त्रयोविद्या का स्वरूप आदि ।
( 8 ) वार्ता समुद्देश वार्ता विद्या इससे राजकीय लाभ सांग्ारिक सुख के कारण, राजा की नलप्सा से हानि आदि ।
(9) दंडनीति समुद्देश दण्ड महात्म्य व स्वरूप, दण्डनीति का उद्देश्य, दण्डविधान का दुष्परिणाम |
( 10 ) मंत्री समुद्देश (11) पुरोहित समुद्देश ( 12 ) मेनापति समुद्देश ( 13 ) दूत समुद्देश (14) चार समुद्देश | (15) विचार समुद्देश | ( 16 ) मन समुद्देश (17) स्वामी समुद्देश- राजा का लक्षण, आमात्मा आदि प्रकृति का स्वरूप, लोकप्रिय पुरुष, छुद्र अधिकारियों वाले राजा की हानि आदि । ( 18 ) अमात्म समुद्देश- सचिन महात्मय सचिव कर्त्तव्य, आयव्यय, स्वामी, तन्त्र लक्षण, अयोग्य अधिकारी आदि । ( 19 ) जनपद समुददेश । (20) दुर्गममुद्देश (21) कोश समुद्देश (22) बल समुद्देश - बल (सेना) का अर्थ, प्रधान सैन्य, सैन्य महात्म आदि । ( 23 ) मित्र समुद्देश ( 24 ) राजरक्षा समुद्देश राजा की रक्षा कैसे करना चाहिए। ( 25 ) दिवसानुष्ठान समुद्देश (26) सदाचार समुद्देश ( 27 ) व्यवहार समुददेश ( 28 ) विवाद समुद्देश ( 29 ) भाड्गुण्य समुद्देश (30) युद्ध समुद्देश (31) विवाह ममुद्देश ( 32 ) प्रकीर्णक समुद्देश - ग्रन्थकार प्रशस्ति, अन्त्यमंगल तथा आत्मपरिचय आदि ।
फुटनोट
4. पद्म, 97/23-24
5. पद्. 97/118 6.361 97/126
7. वहीं 97/128
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8. वही 97/129
9. पद्मचरित 7/35,36
10 वहाँ 7/37
11. वही 8/374
12. वही अध्याय 24 13. वहीं 94/10 14 वही 5/84
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15. पद्मचरित 4/67-74 16. घरांगचरित (अनु. प्रो. खुशालचन्द्र
गोरावाला) भूमिका पृ. 25 17. वरांगचरित 1/51 78. वहो 1152 19. वहीं 21/75 20. वही 22/3 21. वसंगचरित 19169 22. हरिसंशपराण ज्ञानपीठ प्रकाशन) प्रस्तावना १.3 23. वही प्रधान सम्पादकीय पृ.३ 24, हरि. 11/59 25. वही 2/149 26. वही 17/17 27 वही 23/1 28, यही 29/17 29. वही 27154 30. हरि.2/149 31. वही 11/57-59 32, वही 43:57 33. बही 27/54 34 हरि. 52/84 35. हरि. 14/98 ॐ. हरि.14/110 37. हरि.45/5B 38 हरि 05/84 39. हरि 062/51 40.दिवसन्धान महाकाव्य (ज्ञानपीठ प्रकाशन)
प्रधान सम्पादकीय पृ. 22 41. वहीं 4/14 42.द्वि.4/17 43. द्वि. म.4/19 44.हि. म.4/20 45. द्व. म. 4/53 46. यही 18/136 47. वही 18/142 48 वहीं 18/144 49.द्वि. म.4/13 50. नश्यन्ति वास्थान कृत प्रयासाः द्वि. म. 5/5 51. द्विसन्धान महाकाव्य 10/28 52. द्वि. म. 10/30 53.हि.म. 10/31 S4, द्वि. म.1114 55, वही 11/16
56.द्वि.म. 11/20 57. द्वि. म. 11/26 58. वि. म. 11/21 59. वि. म. 11/34 60.दि.म. 11/39 61. वहीं 914 62. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 7/13 63.द्वि. म. 11/11 64. द्वि. म. 13/24 65.स्वायांसतन्त्रं हि जयं निराहु: । द्वि.म.16:47 67. द्वि. म. 17/32 86. दि. म, 18/118 69. 70. गद्यचिन्तामणि (ज्ञानपीठ प्रकाशन)
प्रस्तावना पृ. 14-15 11. गद्यचिन्तामणि द्वितीय लम्भ पृ. 124
129, प्रथम लम्भ पृ.65 72. गद्यचिन्तामणि द्वितीय लाभ पृ. 124 73. गद्यचिन्तामणि दशम लम्भ पृ. 353- 356 74.क्ष, चू. 10/22 75. क्ष.चु. 10/18 क्ष. चू. 1012 76. रघुवंश सर्ग, ! श्लोक 24
क्षत्र छुड़ामणि 11:4 रघु. सर्ग 17. श्लोक 49 क्षत्र. 11/7 रघु, 01/30 छत्र. 11/19 रघुवंश, 1745-50 गयचिन्तामणि,
लभ्ये ॥ पैरा. 3 77. पावैभ्युदय 78. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्रोः संस्कृत काव्य
केविकास में जैनकवियों का योगदान पृ.
472-273 79. वही पृ. 472 80.आदिपुराण (ज्ञानपीठ प्रकाशन) प्रस्तावना
पृ. 25 81. वहीं 47 82. वही 42134,412 139 83. वही 47 84. राजवियपरिज्ञानादैहिकेऽथे दृढ़ा मतिः ।
आदि.42/34 85. वहीं 11/81 8. आदि. 41/739,4/136 87, आदि. 11:33 88.आदिपुराण (ज्ञानपीठ प्रकाशन) प्रस्तावना
पृ. 27-28
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89. सदेव राज्य राज्येधु प्रजान पत्सुखधाम । 723. च. च. 4/67 उ.पु.52/40
124. वहीं 17/57,5/52 90. वही 54/10
125. च. च. 3/24 91. यही 54/14
126. चन्द्रप्रभाचरित 5/48 92, वही 54/12
127. वहीं 4/3.5/41 93. वही 54/13 94. नही 54/14
129. यही 1159 95. वही 54/15-16
130. वही 44 96. उत्तपुराण 51/7
137 वही 4/5 97, वहीं 6877,62/512
132. च. च. 1151 98 वही 6861
133. च. च. 1/62 99. वही 66/70
134. वहीं 47 100. वही 50/37
135. यही 4/9 101. वही 48/6
136. वहीं 5/44 102. वहीं 68.66,57
137, वही 5147 103.च, च. श्लोक।
138 वही 4/11 104. गोमट्टसार कर्मकाण्ड दि, सं. बम्बई, || 139. बही 4714 वि. सं1885 गर. 785
140. वहीं 4/16, 5:49 105. वहीं गाथा 396,
141. वहीं 15:145 106. वहीं गाथा 43,
142. वही 4/10 107, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री: संस्कृत काव्य के || 143. वर्धमानचिरित (शोत्नापुर संस्करण)
विकास में जैनकविनों का योगदान पु, प्रस्तावना पृ. 17-18 75-76
144. वहीं 8/34 108. वही पृ. 76-77
145. वही 5175 109. चन्द्रप्रभचरित 3/4
146. वही 4124 110. च.च. 1/52
147. वर्धमानचरित 8/20 111. च. त्र.2/28
148. वहीं 6/46 112, च.च.2/29
| 149. वही 6/47-48 113. च, च, 2/30
150. बही 6/51 114.च.च. 17:54-56
151. वही 7/22 115. वहीं 15/15
152. वही 7/33 116. वही 15/15, 16:54 .
153. वही 6:50 117.च.च. 13.41
154. वहीं 8/35 178. वहीं 1147, 16/53, 4/67
155. वही 7/44 119. वही 6/43
156. वही 4/70,6/23, 14:40 120. ए. एल. बाशम: अद्भुतभारत पृ. 106 157. सोमदेव इति यस्तस्यैध काव्यक्रम । 121. वासुदेव उपाध्याय: प्राचीन भारत के || 158. उपासकाध्यन (प्रस्तावना- पं. अभिलेखों का अध्ययन पृ. 86
कैलाशचन्द्रशास्त्री) पृ. 13, 122. रक्षाये प्रजया दतं पन्नांशं वेतमा 159.घही पृ. 13
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तृतीय अध्याय
: राज्य : राज्य की परिभाषा और उसका क्षेत्र - राज्य की परिभाषा देते हुए आचार्य सोमदेव ने कहा है- राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य ह' । यहाँ पृथ्वीपालनोचित कर्म से तात्पर्य षागुम्य (सन्धि, त्रिग्रह, यान, आसन, संक्षय और वैधोभाव) से है । वर्ग सापक विवान ने लिखा है कि काम विलास आदि को छोड़कर षागुण्व (सन्धि, विग्रहादि) के चिन्तन करने का कार्य राज्य कहलाता है । जो राजा एकमात्र विलासीमन होकर षागुण्य का चिन्तन नहीं करता है, उसका राज्य शीघ्र हो नष्ट हो जाता है ।
अगले सूत्र में सोमदेव कहते हैं - वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य तथा श्रद्र) तथा आश्रम (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति) से युक्त और धान्य, हिरण्य (सोना) पशु एवं कुप्य (लोहा आदि धातुयें) तथा वृष्टि रूप फल को देने वाली पृथ्वी को राज्य कहते हैं । उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार राज्य के लिए निम्नलिखित तत्त्र आवश्यक है - 1, जनसंख्या
2. प्राकृतिक साधन 3. उचित जलवायु
4. राजा का पृथ्वी की रक्षा करने योग्य कर्म । उपर्युक्त चार तत्वों के अतिरिक्त सोमदेव ने दो अन्य तत्वों का उल्लेख किया है। जिनमें राज्य की मूलशक्ति निहित रहती है । वे सत्य हैं - क्रम (आचारसम्पत्ति) और विक्रम ( पराक्रम - सैन और रोग की शकि इ: ग्राम रर के प्रमुख तु. 1. जनसंख्या
2. प्राकृतिक साधन 3. उचित जलवायु . 4. सदाचार 5. राजा का पृथ्वी की रक्षा करने योग्य कर्म 6 पराक्रम (मैन्य और कांश की शक्ति )।
वादीभसिंह ने राज्य को योग और क्षेम की अपेक्षा विस्तार से तप के समान कहा है; क्योंकि तप तथा राज्य से सम्बन्ध रखने वाले योग और क्षेम के विषय में प्रमाद होने पर अध: पतन होता है और प्रमाद न होने पर भारी उत्कर्ष होता है । गुणभद्र के अनुसार राज्यों में राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो ।
___ वरांगचरित में राज्य के लिए देश', जनपद विषय", तथा राज्य" शब्दों का प्रयोग हुआ है । एक राज्य के अन्तर्गत अनेक राष्ट्र आते थे । राष्ट्र शब्द से अभिनाय प्रान्त से था13 । राज्य की परिधि बड़ी विशाल थी और उसके अन्तर्गत राजा के अतिरिक्त सेवक, मित्र, कोश, दण्ड, अमात्य, जनता, दुर्गा, ग्राम, नगर, पत्तन (सामुद्रिक नगर),आकर (खनिकों को बस्तियाँ), मडम्ब, खेट", व्रजा (ग्वालों की बस्तियाँ), पथ, कानन (जंगल) नदी, गिरि (पर्वत, झरनं". समस्त वाहन तथा रत्न आ जाते थे । राज्य का सद्भाव कर्मभूमि में ही बतलाया गया है । भोगभूमि में राज्य वगैरह का सद्भाव नहीं था।
• हरिवंश पुराण के अनुसार देश के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उर्वरा और शालि-ब्रीहि सन्न प्रकार के धान्यों के समूह से सफलता को धारण करने वाली भूमि, सफल वाणिज्य, उत्तम
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गायें तथा भैसों का होना (अर्थात् पशु सम्पत्ति को प्रचुरता) प्रमुख हैं। वही देश उत्तम माना जा सकता है, जहाँ प्रजा सुखपूर्वक निवास करे । देश की सीमा के अन्दर खेट, खवंट. मटम्य, पुटमेदन, द्रोणमुख, खाने, खेत,ग्राम, घोष, पुर, पर्वत, नदी, वन, जिनगृह बज", तथा सरोवर सभी आते थे।
विसंधान महाकाव्य में राज्य की कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं होती है । द्वितीय मग के 'एक वर्णन से राज्य की सीमा को एक झाँकी प्राप्त होती है। राजा दशरथ तथा पाण्डु का वर्णन करते हए कहा गया है कि वह राजा निर्मल तथा पर्याप्त यशरूपी धमको चित करने के लिए व्यवसायों से भरे बाजारों खनिक क्षेत्रों, अरण्यों. समुद्री तौरों पर स्थित पत्तनों (नगरी), पशुपालकों की बस्तियों, दुर्गा तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को नहा रहा था । इससे स्पष्ट है कि राज्य की सीमायें बहुत विशाल थी और उसके अन्तर्गत बाजार, खनिक क्षेत्र, अरण्य, समुद्री तीरों पर स्थित नगर, पशुपालकों की बस्ती, दुर्ग तथा राष्ट्र सभी आ जाते थे । जो राजा जितना अधिक सामथ्यशाली और राजनीति में पटु होला म उस प्रति सन्य. निनार कर लेता था । कृष्ण के विषय में उल्लेख प्राप्त होता है कि उन्होंने अपनी नीति और विशाल रथ के द्वारा दशों दिशाओं के स्वामित्व को प्राप्त किया था ।
आदिपुराण में राज्य के लिए जनपद, विषय देश" तथा राज्य शब्दों का प्रयोग किया गया है । जो राज्य आकार प्रकार में अन्य राज्यों से बड़े होते थे, उन्हें महादेश कहा जाता था। सिंचाई की अपेक्षा राज्य के तीन भेद किए जाते थे (1) अदेवमातृक. (2) देवमातृक, ३। साधारण । नदी, नहरों आदि से सींचे जाने वाले राज्य अदेवमातक, वर्षा के जल से सोंचे जाने वाले देवमातृक और दोनों प्रकार से सींचे जाने वाले राज्य साधारण कहलाते थे । राज्यों की सीमाओं पर अन्तपालों (सीमारक्षकों) के किले बना दिए जाते थे' । राज्यों के बीच कोट, प्राकार, परिखा. गोपुर और अट्टालय से सुशोभित राजधानी होती थी । राजधानी रूप किले को घेरकर गाँव आदि (स्थानीय) की रचना होती थी" | आदिपुराण में जो नामादि की परिभाषायें उपलब्ध होती है, तदनुसार जिनमें बाड़ से घिरे हए घर हों, जिनमें अधिकतर शुद्र और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीर्चा और तालाबों से सहित हो उसे ग्राम कहते हैं । जिसमें सो घर हों उसे निकृष्ट अथवा छोटा गाँध कहते हैं तथा जिसमें पांच सौ घर हों और जिसके किसान धन पप्पन हों, उमे बड़ा गाँव कहते हैं । सामान्यत: गाँव पास-पास बसे होते थे। इनकी निकटता इसमे सहज प्रकट होती है कि गाँव का मुर्गा दूसरे गाँव आसानी से जा सकता था, इसी कारण गाँवों का विशेषण 'कुक्कुटसम्पाल्यान्' मिलता है | नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, श्रीरवृक्ष. कटोले वृक्ष. वन और पुल से गांव की सीमा का विभाग किया जाता था | जो परिखा, गोपुर. अट्टाल. कोट, तथा प्राकार से सुशोभित होता हो, जिसमें अनेक भवन बने हो, जो वाग और तालाबों मे युक्त हो, जो उत्तम रीति से अच्छे स्थान पर बसा हो तथा जिसमें पानी का प्रवाह पूर्वोत्तर दिशा के बीच वाला ईशान दिशा में हो और जो ग्रधान पुरुषों के रहने योग्य हो उसे नगर कहते थे । जो नगर नदो और पर्वत से घिरा होता था उसे खेट और जो पर्वत से घिरा होता था, उसे नर्वट कहते थे । जो पाँच सौ गाँव से घिरा होता था, उसे मदम्ब कहते थे तथा जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ लोग नावों से किनारे पर उतरते हों उसे पत्तन कहते थे । जो नदी के किनारे होता था उसे द्रोणमुख्न और जहाँ मस्तकपर्यन्त ऊँचे-ऊँचे मान्य के ढेर लगे रहते थे यह संवाह कहलाता था । एक राजधानी में आठ सौ, द्रौणमुख में चार सौ तथा खमंट में दो सौ गाँव होते थे । दश गाँव के बीच जो एक
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बड़ा गाँव होता था उसे संग्रह (मण्डी) कहते थे" |
जिस राज्य के स्वामी एक से अधिक होते थे बहदौराज्य" कहलाता था । ऐसे राज्य में स्थिरता नहीं रहती थी इसीलिए कहा गया है कि राज्य और कुलवती स्त्रां इनका उपभोग एक पुरुष कर सकता है। जो पुरुष इन दोनों को अन्य पुरुषों के साथ उपभोग करता है, वह नर हो पशु है ।
चन्द्रप्रभचरित के अनुसार उत्तम देशों के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उपजाऊ और रमणीय जमीन" स्वच्छ सरोवर", दीर्घिकायें, नदियों, खनिक क्षेत्र, उत्कृष्ट धान्य सम्पदा* वृक्षादि वनस्पति" इतियों की बाधा न होना, प्रमुदित" सुचरित्र” नित्र्यंनी प्रजा प्रजापालक राजा", उत्तम जलवायु, उत्तम पथ तथा अभिलाषित वस्तुओं को प्राप्ति होना प्रमुख हि।
राज्य की उत्पत्ति पद्मचरित के अध्ययन से राज्य की उत्पत्ति के जिस सिद्धान्त को सर्वाधिक बल मिलता है, वह है सामाजिक समझौता सिद्धान्त आधुनिक युग में इस सिद्धान्त को सबसे अधिक बस देने वाले हाब्स, रूसी और लॉक हैं। इनमें भी पदमचरित का राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी संकेत आधुनिक युग के रुसी और लॉक के सिद्धान्त से बहुत कुछ मिलता जुलता है । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है, जिसका निर्माण प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है। इस सिद्धान्त के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीन काल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य या राज्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी । सिद्धान्त के विभिन्न प्रतिपादकों में इस प्राकृतिक अवस्था के सम्बन्ध में मतभेद हैं। कुछ इसे पूर्व सामाजिक और कुछ इसे पूर्व राजनैतिक अवस्था मानते हैं। इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छानुसार प्राकृतिक नियमों को आधार मानकर अपना जीवन व्यतीत करते
कुछ ने प्राकृतिक अवस्था को अत्यन्त कष्टप्रद और असहनीय माना है तो कुछ ने इस बात का प्रतिपादन किया है कि प्राकृतिक अवस्था में मानवजीवन सामान्यतः आनन्दपूर्ण था। पद्मचरित में इसी दूसरी अवस्था को स्वीकार किया गया है । प्राकृतिक अवस्था के स्वरूप के सम्बन्ध में मतभेद होते हुए भी यह सभी मानते हैं कि किसी न किसी कारण से मनुष्य प्राकृतिक अवस्था को त्यागने को विवश हुए और उन्होंने समझौते द्वारा राजनैतिक समाज की स्थापना की । पद्मचरित के अनुसार इस अवस्था को त्यागने का कारण समयानुसार साधनों को कमी तथा प्रकृति में परिवर्तन होने से उत्पन्न हुआ भय था" । इन संकटों को दूर करने के लिए समय-समय पर विशेष व्यक्तियों का जन्म हुआ। इन व्यक्तियों को कुलकर कहा गया । राज्य को उत्पत्ति का मूल इन कुलकरों और इनके कार्यों को ही कहा जा सकता है।
T
आदिपुराण के अनुसार पहले भोगभूमि थीं । दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना अर्थात् उन्हें दण्ड देना और सज्जनों का पालन करना, यह क्रम भोग भूमि में नहीं था; क्योंकि उस समय पुरुष निरपराध होते थे" । भोगभूमि के बाद कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ। कर्मभूमि में दण्ड देने वाले राजा का अभाव होने पर प्रजा मात्स्यन्याय का आश्रय करने लगेगी अर्थात् बलवान निर्बल को निगल जायेगा । ये लोग दण्ड के भय से कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेगे इसलिए दण्ड देने वाले राजा का होना उचित है और ऐसा राजा ही पृथ्वी जीत सकता है । जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाये बिना दूध दुहा जाता है और ऐसा करने से वह गाय सुखी रहती है तथा दुरुने श्रा की भी आजीविका चलती रहती है, उसी प्रकार राजा की भी प्रजा से धन वसूल करना चाहिए । सह धन पीड़ा देने वाले करों से वसूल किया जा सकता है। ऐसा करने से प्रजा भी दुःखी नहीं
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होती और राज्य व्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता से मिल जाता है, ऐसा सोचकर भगवान् वृषभदेव ने कुछ लोगों को दण्डधर राजा बनाया; क्योंकि प्रजाओं के योग और क्षेत्र का विचार करना राजाओं के ही आधीन होता है। अच्छे राजा के होने पर अन्याय शब्द ही पृथ्वी पर नष्ट हो जाता है तथा प्रजा को भय और क्षोभ नहीं होते हैं" ।
राज्य के अंग- धनंजय ने राज्य के प्रमुख अंगों को प्रकृति अथवा मूल" कहा है तथा इनकी संख्या सात बतलाई है" । कामन्दकीय नीतिसार के अनुसार इन सात प्रकृतियों के अन्तर्गत स्वामी (राजा) आमात्य, सुहृत, का वर्णन आगे किया जायेगा। यहाँ प्रसंग वशात् राष्ट्र का वर्णन किया जाता है -
राष्ट्र - पशु, धान्य और हिरण्य (स्वर्ण) सम्पदा जहाँ सुशोभित होती है उसे राष्ट्र कहते है । राष्ट्र से मिलते जुलते अन्य नामों की व्युत्पत्ति सोमदेव ने इस प्रकार दी हैं
देश - स्वामी को दण्ड (सैनी) और कोश की जो वृद्धि है, उसे देश कहते हैं"। समस्त पक्षपातों में देश का पक्षपात महान् है ।
fare - अनेक वस्तुएँ प्रदान कर जो स्वामी (राजा) के महल में हाथी और घोड़े बाँ उसे विषय कहते हैं।
मण्डल समस्त प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा राजा के हृदय का जो मण्डल (भूषण) करे उसे मण्डल कहते हैं।
जनपद - वर्ण और आश्रम लक्षण वाले मनुष्य तथा द्रव्य (धन-धान्य) की उत्पत्ति का जो स्थान हो उसे जनपद कहते हैं ।
दारक अपने स्वामी के उत्कर्ष का जनक होने के कारण जो शत्रुओं के हृदयों को विदीर्ण करे उसे दारक कहते हैं ।
निर्गम अपनी समृद्धि के द्वारा जो स्वामी को समस्त आपत्तियों से छुड़ाए, उसे निगम कहते
5 |
1
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जनपद के गुण जनपद (राज्य) के निम्नलिखित गुण है
-
T. अन्योन्यारक्षक जहाँ पर राजा देश को और देश राजा की रक्षा करे ।
-
2. जो खनिक वस्तुयें (सोना, रत्न, चौदी, ताँबा व लोहा आदि ) आकर द्रव्य (गन्धक, नमक आदि ) तथा हाथी रूप घन से परिपूर्ण हो ।
9. जिसके ग्रामों की जनसंख्या न बहुत बड़ी न बहुत कम हो। 4. जहाँ पर बहुत से उत्तम पदार्थ (सार) अनेक प्रकार के
धान्य,
हिरण्य (सोना) और
पण्व (व्यापारिक माल ) पाया जाये ।
5. जो देवमातृक हो अर्थात् जहाँ खेती वर्षा के पानी पर निर्भर न होकर कुवें, तालाब, नहर आदि सिंचाई के साधनों पर निर्भर हो ।
6. जो मनुष्य और पशुओं को हितकर हो ।
7. जहाँ पर शिल्प शूद्र (बढ़ई, नाई, धोबी आदि) अधिकता से वर्तमान हों।
जनपद के दोष जनपद अथवा देश के निम्नलिखित " दोष होते हैं ।
1. घास पानी रोगजनक होने से विष के समान हानिकारक होना |
2. जमीन का ऊसर होना ।
3. जमीन का पथरीली, कंटक मुक्त तथा पहाड़, गड्ढे और गुफाओं से व्याप्त होना। 4. अधिक वर्षा होना ।
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5. सर्प, वहलिए और मलेच्छ की अधिकता । 6. वृक्षों के फलों पर अधिक निर्वाह होना (खेती पर अधिक निर्वाह न होना) 7, कम अन्न उत्पन्न होना ।
वह देश निंद्य है, जहाँ पर जीविका के साधन नहीं है। इसके अतिरिक्त जिस देश में मेघों के जल द्वारा धान्य होता है और खेती कर्षण क्रिया (हल आदि के द्वारा भूमि को जोतना) बिना होती है, वहाँ सदा अकाल रहता है ।
राष्ट्र के कण्टक - चौर, चरट (देश के बाहर निकाले गए अपराधी), अनप र खेतों या मकानों की माप करने वाले), धमन (व्यापरियों की वस्तुओं का मूल्य निश्चित करने वाले). राज्जा के प्रेम पात्र, आरविक (वन में रहने वाले भील या अधिकारी), तलार ( छीदे छोटे स्थानों में नियुक्त किए हुए अधिकारी), भोल, जुआरी, मंत्री और आमात्य आदि अधिकारीगण) आक्षशालिक (जुआरी), नियोगि (अधिकारी वर्ग), ग्रामकूट (पटवारी) और का षिक ( अन्न का संग्रह करने वाले व्यापारी) ये राष्ट्र के कण्टक हैं । उक्त राष्ट्र कण्टकों में से अन का संग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारी लोग देश में अन्याय की वृद्धि करते हैं तथा तंत्र (व्यवहार) एवं देश का नाश कर देते हैं | वा षिकों (लाभवश राष्ट्र का अन्न संग्रह कर दक्षि पैदा करने वाले व्यापारियों) की कर्तव्य अकर्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें सरलता नहीं होती हैं वे कुटिल स्वभाव वाले होते है जिस देश में राजा प्रतापी तथा कठोर शाम करीवाला निदर होता है, उसके राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते है |
राज्य का फल - राज्य का फल धर्म (जिन कर्तव्यों के करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो।), अर्थ ( जिससे मनुष्य के सभी प्रयोजनों की सिद्धि हो") और काम जिसमे समस्त इन्द्रियों स्पर्शन, रमना, प्राण, चक्षु, क्षोत्र में बाधारहित प्रीति हो") की प्राप्ति है । उक्त फल प्रदाता होने के कारण आचार्य सोमदेव ने उसे नमस्कार किया है।
राज्य के कार्य - राजतन्त्र में राजा प्रमुख होता है तथा वह मारे कार्यों का नियमन करता है । अत: राजा के कार्यों को राज्य के कार्य कहा जा सकता है। इस दृष्टि से राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कार्य माने जा सकते हैं
1. गांव आदि के बसाने और उपभोग करने वालों के योग्य नियम बनाना । 2. नवीन वस्तु के बनाने और पुरानी वस्तुओं की रक्षा करने के उपाय करना । 3. प्रजा के लोगों से बेगार लेना । 4. अपराधियों को दण्ड देना । 5. जनता से कर वसूल करना ।
फुटनोट 1. नीतिवाक्यामृत 514
7.छत्र चूड़ामणि 11/8 2. नीतिवाक्यामृत टीका 5/4 .
8. उत्तरपुराण 52/40 3. सोमदेव: नीतिवाक्यामृत 5/6
2. जटासिंहनन्दि : वरांगधरित 12/44, 4. यही 5/7
21/56 5. यही 5/5
10. वहीं 20/27 6. वही 5/28
11. वही 20/62
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72. वही 29/23 13. वही 11/67 14. वही 29140 15.वही 8/50 16. वहीं 17167 17. यही 12144 18. वहीं 21/47 19. यही 16/11 20. वहीं 11/67 21. वही 7/11 27 जिनसेनः हरिवंशपुराण 19/18 23. वही 19/20 24. वही 2/2 25. वही 2/3 26, वही 2/150 27. वही 35/68 28. वही 42183 29. द्वि.म. 2/13 30. द्वि.म. 18/146 31. जिनसेन : आदि पुराण 16/162 32, षही 16/157 33. वही 16/152 34. वहीं 34/52 35. वही 16/151 36. वही 16/157 37. वही 16/160 38,आदिपुराण 16/162 39. वही 16/163 40, यही 16/164 41. वही 16/165 42. वही 26/124 43. वाही 16/166 44. वही 16/167 .45. वही 16/169-110 46. वही 16/171 47. वही 16/172 48, वही 16/173 49. वही 16/175-176 50. आदिपुराप्प 34/47 51. आदिपुराण 34/52 52. धीरनन्दी: चन्द्रप्रभचरित 1/13 53. वहीं 1/14 54, बही 5/6, 1/15 55. वही 1/18 5 वही 1/10 /117 5/4/118
57. वही 5/11 58. वही 2/117
2/122.1/140 60. वही 519 61. वहीं 17153 62. वही 5/7 63. वही 2/12 64. वही 2121 65. पुखराज जैन : राजनीति के विज्ञान के
सिद्धान्त पृ. 100 66. पाचरित 3:49-63 67. पुखराज जैन : राजनीति विज्ञान के
सिद्धान्त पृ. 101 68. पाचरित 3/74 69. वही 3/85 70. वही 3788 71. आदिपुराण 16/251 72. वहीं 16/252-255 73.आदिपुराम 4/169 74, द्विसंधान महाकाव्य 14/1 75. यही 2/22 76. द्वि. म. 2/11 77. कामन्दकीय नोतिसार 4/1 78. नी. वा. 1971 79. नी. वा. 19/2 B0. वहीं 106 81.नी. वा. 19/3 82. वही. 1914 83. बही. 19/5 84. वही 196 85. वही 1917 86. वही 1918 87. नीतिवाक्यामृत 1919 38. नी. वा. 27/8 89. वही 19/10 90. नी. वा. 8/21 91. वही 8/23 92. यही 8/24 93 वहीं 8/22 94. वही 1/1 95. वही 2/1 96. वही 3/1 97. यही 1/मंगलाचरण 98. आदि पुराण 16/168
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चतुर्थ अध्याय
राजा राजा का महत्व - पद्यचरित में समस्त संसार की मर्यादा राजा द्वारा हा सुरक्षित मानो गई हैं । राजा धर्मों की उत्पत्ति का कारण है । राजा के बाहुबल को छाया का आश्रय लेकर प्रजा सुत्र से आत्मध्यान करती है तथा आश्रमवासी विद्वान निगकुल रहते हैं । जिस देश का आश्रय पाकर साधुन तपश्चरण करते है, उसकी रक्षा के कारण राजा तप का छठा भाग प्राप्त करता है । पृथ्वीतल पर मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अभिलार है वट गानाःों दारा मामा भागों में ही प्राप्त होता है। राजा के होने पर जितने श्रावक आदि सत्पुरुष हैं वे भावपूजा करते हैं। वे अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति से रहित पुराने धान्यादि द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करते हैं । निर्ग्रन्थ मुनि शान्ति
आदि गुणों से युक्त होकर ध्यान में तत्पर रहते हैं तथा मोक्ष का साधनभूत उत्तम तप तपने हैं। जिनमन्दिर आदि स्थलों में मिनेन्द्र भगवान् की बड़ी-बड़ी पूजायें तथा अभिषेक होते हैं 1पृथ्वोतल पर ओ कुछ भी सुन्दर, श्रेष्ठ और सुखदायक वस्तु है । राजा ही उसके योग्य है ।
- हरिवंश पुराण के अनुसार जिस प्रकार समुद्र हजारों नदियों और उत्तम रत्नों की खान है. उसी प्रकार राजा भी इस लोक में अनर्थ्य वस्तुओं की खान हैं । वह प्रभु है और पृथ्वी का वश में करने वाला है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओं का जोतने वाला तथा धर्म, अर्थ, कामरूप विवर्ग का प्रवर्तक है" । धर्म, अर्थ और कामविषयक कोई भी वस्तु उसे दुर्लभ नहीं है" | उसे मनुष्यों की रक्षा करने के कारण नृप पृथ्वी की रक्षा करने के कारण धूप और प्रजा को अनुरण्जित करने के कारण राजा कहते हैं। । उतम राजा के राज्य में प्रजा का सब समय आनन्द से बीतता है। घर के उपयोग के लिए साधारण रीति से तैयार किया हुआ थोड़ा सा अन्न भी दान के समय धर्मात्माओं को भोजन में आने से सायंकाल तक भी समाप्त नहीं होता है। जिस प्रकार सूर्य प्रकृष्ट सन्ताप का कारण होता है, उसी प्रकार राजा भी उत्कृष्ट प्रभाव का कारण होता है । जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से दिकचक्र को व्याप्त कर लेता है, उसी प्रकार
राजा भी अपने कर (टैक्स) से दिक्चन को व्याप्त करता है। उत्तम राजा के विद्यमान होने पर । प्रजा शत्रुओं का भय छोड़ देती है । नौतिवेत्ता राजा पृथ्वी को स्त्री के समान वश में कर लेता
है" । न्यायमार्ग का खेत्ता होने के कारण किसी विषय में विसंवाद हो पर लोग उसके पास न्याय के लिए आते हैं। राजा की अध्यक्षता में विद्वानों के सामने लोग जय अथवा एसजय को प्राप्त करते हैं। न्याय द्वारा वाद के समाप्त हो जाने पर वेदानुसारी लोगों की प्रवृत्ति सन्देहरहित एवं मन्त्र लोगों का उपकार करने वाली हो जाती है" । राजा धर्म, अर्थ और काम में परस्पर बाधा नहीं पहुंचाता
वादीभसिंह के अनुसार राजा द्वारा समस्त पृथ्वी एक नगर के समान रक्षित होने पर राजन्नता (श्रेष्ठ राजा वाली) और रत्नस (रत्नों की खान) हो जाती है |
राजा जन्म को छोड़कर सब बातों में प्रजा का मासा-पिता है, उसके मुख-दुःख प्रजा के आधीन है21 राजा अधःपतन से होने वाले विनाश से रक्षा करता है, अत: संसार की मिनि पारी
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36 है, ऐसा न होने पर संसार की स्थिति नहीं रह सकती है" । उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख देती है" । राजा की आज्ञा से भूमण्डल पर कहीं से भी भय नहीं रहता है। राजा की आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करने पर सच्चरित्र व्यक्तियों का चरित्र भी स्थिर नहीं रहता है। इस लोक में राजा देवों को और प्राणियों की भी रक्षा करते हैं, किन्तु देव अपनी भी रक्षा नहीं करते हैं, इसलिए राजा ही उत्तम देवता है" । इस संसार में देव देवों से द्रोह करने वाले प्राणी को ही दुःख देते हैं, किन्तु राजा राजद्रोहियों के वंश और धन दौलत आदि को उसी समय नष्ट कर देता है। राजा समस्त देवताओं की शक्ति का अतिक्रमण करने वाले होते हैं। जो देवताओं का अपकार करता है वह परभव में विपत्ति को प्राप्त होता है और रहीं होता है कि राकेश में से चेष्टा करना चाहते हैं, उन पर विचार करते ही विपत टूट जाती है। समस्त सम्पत्ति के साथ राजद्रोही के कुल का संहार एक साथ हो जाता हैं। दूसरे लोक में भी उस पापी की अधोगति होती है अजनों के जीवन के उपाय को और तिरस्कार करने वालों के नाश को करने वाला राजा अग्नियों के समान सेवन करने योग्य है" । अर्थात् राजा अपने इच्छित कार्य के लिए प्रार्थना करने वालों की तो इच्छा पूर्ण कर देते हैं, किन्तु अपमान आदि करने वालों का नाश कर डालते हैं, अतः जिस प्रकार अग्नि का डरकर सेवन किया जाता है, उसी प्रकार राजा की सेवा भी डरकर करनी चाहिए। राजा लोग चूंकि प्राणियों के प्राण है अतः राजाओं के प्रति किया हुआ अच्छा और बुरा व्यवहार लोक के विषय में किया हुआ व्यवहार ही होता है"। अविवेकी मनुष्यों के यातायात से जो खुदः हुआ है, अपयश रूपी कीचड़ के समूह से जो गीला है, जो दोनों और फैलते हुए दुःख रूपी करोड़ों 'काँटों से व्याप्त है, समस्त मनुष्यों के विद्वेषरूपी साँपों के संचार से जो भयंकर हैं और अनन्त निन्दारूपी दावाग्नि से जो व्याप्त हैं, ऐसे राज विरुद्ध मार्ग का सेवन वे ही लोग करते हैं जो स्वभाव से मूढ़ हैं ऐसे मनुष्य ही सौजन्य को छोड़ते हुए, समस्त दोषों का संग्रह करते हुए, कीर्ति को दूर हटाते हुए, अपकीर्ति को रखीकार करते हुए किए हुए कार्य को नष्ट करते हुए, कृतघ्नता को चिल्लाते हुए, प्रभुता को छोड़कर, मूर्खता को अपनाकर, गौरव को दूरकर, लघुता को बढ़ाकर अनर्थ को भी अभ्युदय, अमंगल को भी मंगल और अकार्य को कार्य समझते हैं"वार्थ में राजा" गर्भ का भार धारण करने के क्लेश से अनभिज्ञ माला, जन्म की कारणपात्रता से रहित पितः, सिद्धमातृका (वर्णमाला) के उपदेश के क्लेश रहित गुरु दोनों लोकों का हित करने में तत्परबन्धु. निद्रा के उपद्रव से रहित नेत्र, दूसरे शरीर में संचार करने वाले प्राण, समुद्र में न उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष, चिन्ता की अपेक्षा से रहित चिन्तामणि, कुलपरम्परा की आगति के जानकार भक्तों के जानकार, सेवकों के प्रेमपात्र, व्रज की प्रजा की रक्षा करने वाले, शिक्षा करने वाले, शिक्षा के उद्देश से दण्ड देने वाले और शत्रुसमूह को दण्डित करने वाले होते हैं।
उत्तरपुराण के अनुसार स्वामिसम्पत् (राज सम्पत्ति) से युक्त राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों का आश्रय है। उसके सत्य से मेघ किसानों को इच्छानुसार बरसते हैं और वर्ष के आदि, मध्य तथा अन्त में बोए जाने वाले सभी धान्य फल प्रदान करते है" । राजा के पृथ्वी का पालन करते समय जब सुराज्य होता है तो प्रजा उसे ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त होती है। जिस प्रकार कोई गोपाल अपनी गाय का अच्छी तरह भरण पोषण कर उसकी रक्षा करता है और गाय प्रसन्नता से उसे दुध देकर सन्तुष्ट करती है, उसी प्रकार राजा भी पृथ्वी का भरणपोषण कर
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उसकी रक्षा करता है और पृथ्वी भी उसे अपने रत्नादि सारपदार्थ देतो हे गुणवान् राजा पटेव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका उपभोग करता है" । राजा जब न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता है और स्नेहपूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित रखता है, तभी उसका भूमृतपना मार्थक होता है जिस प्रकार मेढ़कों द्वारा आस्वादन करने योग्य अर्थात् सजल क्षेत्र अटारह प्रकार के इष्ट धान्यों की वृद्धि का कारण होता है, उसी प्रकार (श्रेष्ठ) राजा गुणों को वृद्धि का कारण होता है | चूँकि वह दुर्जनों का निग्रह और सज्जनों का अनुग्रह द्वेष अथवा इच्छा के वश नहीं करता है, किन्तु गुण और दोष को अपेक्षा करता है, आम नाह करते हुए पीदः प्रतामा पला । बहसमापक्ष के समान इच्छित फल को देता है। जिस प्रकार पणियों का आकर ( खान) समुद्र है, उसी प्रकार वह गुण्यों मनुष्यों का आकर है।
चन्द्रप्रभचरित में राजा सर्वोपरि होने के कारण सर्वदेवमय है । वह शिक्षा प्रदाता होने के कारण गुरु (बृहस्पति), समर्थ होने के कारण ईश्वर, नरक नाशक होने के कारण नरकभित (विष्णु), धन देने वाला होने के कारण अनद (कुबेर), लक्ष्मी के निवास के कारण कमलालय (ब्रह्मा}, शीतलवचन बोलने के कारण शिशिरणु (चन्द्रमा). पंडित होने के कारण बुध (बुधग्रह)
और पूर्णज्ञानी होने के कारण सुगत (बुस) माना गया है। यह न्याय से मनुष्यों की, वैभव में देवताओं को, विनय से पूर्णकाय योगियों को और तेज से अन्य राजाओं को विस्मित करता है। उसके वक्षःस्थल में लक्ष्मी का दोनों भुजाओं में श्रेष्टवीरलक्ष्मी का, शरीर में कान्ति का, हृदय में क्षमा का और मुख में सरस्वती के ऐश्वर्य का निवास स्थान है। वह समुद्र के समान उच्च, विष्णु के समानसमर्थ, चन्द्रमा के समान सुन्दर, मुनीन्द्रों के समान जितेन्द्रिय, सिंह के समान शूर,बृहस्पति के समान बुद्धिमान् और समुद्र के समान गम्भीर होता है । ____ आचार्य सोमदेव के अनुसार जो धर्मात्मा, कुलाबार व कुलीनता के कारण विशुद्ध प्रतापो. नैतिक दुष्टों से कुपित व शिष्टों से अनुरक्त होने में स्वतन्त्र और आत्मगौरव युक्त तथा मम्पत्तिशाली हो उसे स्वामी (राजा) कहते है । एक स्थान पर कहा गया है-जो अनुकूल चलने वालों की इन्द्र के समान रक्षा करता है और प्रतिकूल चलने वालों को सजा देता है उसे राजा कहते हैं । समस्त प्रकृति के लोग (मन्त्री आदि) राजा के कारण ही अपने अभिलषित अधिकार प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, राजा के बिना नहीं"। जिन वृक्षों की जड़े उखड़ गयो हो, उन से पुष्प और फलादि प्राप्ति के लिए किया गया प्रयत्न जिस प्रकार सफल नहीं हो सकता है उसी प्रकार राजा के नष्ट हो जाने पर प्रकृतिवर्ग के द्वारा अपने अधिकार प्राप्ति के लिए किया हुआ प्रयत्न भी निष्फल होता है । जिस मनुष्य से राजा कुपित हो गया है, उस पर कौन कुपित नहीं होता है ? सभी कुपित होते हैं । जो व्यक्ति राज्जा द्वारा तिरस्कृत किया जाता है, उसका सभी लोग अपमान करने लगते हैं और राजसम्मानित पुरुष को सभी लोग पूजा करते हैं। राजा त्रिपुरुष (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) की मुर्ति है अत: इससे दूसरा कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है । स्वामी (राजा) से रहित प्रकृतिवर्ग समृद्ध होने पर भी आपत्ति का पार नहीं पा सकते हैं । परिपालक( रक्षा करने वाला) राजा धर्म के छठे भाग के फल को प्राप्त करता है । वनवासी तपस्वी भी अपने द्वारा संचित घान्यकणों का छठा भाग देकर राजा की उन्नति की कामना करते हैं और यह संकल्प करते हैं कि जो राजा
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तपस्वियों की रक्षा करता है उसको ही हमारे द्वारा आचरण किया हुआ तप या उसका फल प्राप्त हो । लोग यदि अपने अपने धर्म का उल्लघन करने लगे तो राजा ही उनको रोकने में समर्थ होता है । इस प्रकार राजा का अत्यधिक महत्त्व है।
राज्याभिषेक-राजसिंहासन पर अधिष्ठित होने से पहले राजाओं का राज्याभिषेक होता था। इस अवसर पर अनेक राजा उपस्थित रहते थे । अभिषेक के समयशंख दुंदुभि, दक्का. झालर, तूर्य तथा बांसुरो आदि बाजे बजाए आते " तत्पश्चात होने वाली राजा को अभिषेक के आसन पर आरुढ़कर चाँदी, स्वर्ण तथा नाना प्रकार के कलशों से अभिषेक किया जाता था। इसके बाद राजा को मुकुर, अंगद, कैयूर, हार, कुण्डल,आदि से विभूषित कर दिव्य मालाओं, वस्त्रों तथा ठतमोत्तम विलेपनों से चर्चित किया जाता था । राजा के जय जयकार की ध्वनि लगाई जाती थी। राजा के अभिषेक के बाद उसकी पटरानी का अभिषेक होता था।
वरांगचरित के अनुसार किसी शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में जबकि ग्रह सौम्य अवस्था को प्राप्त कर उन्च अवस्था में स्थित होते थे. उस समय राज्य प्राप्त करने वाले राजपुत्र को पूर्व दिशा की ओर मुखकर बैठा दिया जाता था । उस समय आनन्द के बाजे बजाए जाते थे । सबसे पहले अठारह श्रेणियों के प्रधानपुरुष सुगन्धित जल से चरणों का अभिषेक करते थे । उस जल में चन्दन घुला हुआ होता था तथा विविध प्रकार के मणि और रत्न भी छोड़ दिए जाते थे। इसके टपरान्त सामन्त राजा. श्रेष्ठभूपति, भोजप्रमुख( भुक्तियों, प्रान्तों के अधिपति), अमात्य, सांवत्सर (ज्योतिषी, पुरोहित आदि) तथा मन्त्री आनन्द के ग्याथ रत्नों के कलश उठाकर कुमार का मस्तकाभिषेक करते थे । उनके रत्नकुम्भों में भी पवित्र तीर्थोदक भरा रहता था । अन्त में स्वयं राजा युवराज पद का दयोतक पट्ट (मुकुट तथा दुपट्टा) बांधता था । महाराज का आज्ञा से आठ चामरधारिणी युवतियाँ चंबर ढोना प्रारम्भ करती थी । अन्त में राजा बच्चे से लेकर वृद्धपर्यन्त अपने कुटुम्बों और परिचारकों को, राज्य के सब नगरों, राष्ट्रों (राज्यों), पस्तनों (सामुद्रिक नगरी). समस्त वाहनों (रथादि) यानों तथा रत्नों को अपने पुत्र को सौंप देता था। उस समय वह उपस्थित नागरिकों, कर्मचारियों तथा सामन्तों आदि से यह भी कहता था कि आप लोग जिस प्रकार मेरे प्रति स्नेह से बँधे हुए चित्त वाले थे सवा मेरी आज्ञा का पालन करते थे उसी प्रकार मेरे पुत्र पर प्रेम करें और उसके शासन को माने ।
राज्याभिषेक करने वालों की श्रेणी में भोजप्रमुखों ( भोजमुख्याः) का नाम आया है। भोजों की शासन प्रणाली भौयकहलाती थी, जिसका ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। इस शासन प्रणालो में गणराज्य की स्थापना मान्य थी । ऐतरेय के अनुसार यह पद्धति सात्वत राजाओं (यादवों) में प्रचलित थी । महाभारत के अनुसार यादव लोगों का अन्धकवृष्णि नामक संघ था। अत: भौम्य शासान गणराज्य का एक विशिष्ट प्रकार का शासन था।
वादीभसिंह के काव्यसे ज्ञात होता है कि जब वैराग्य आदि के कारण राजा राज्य का परित्याग करता था तब वह बृहस्पति के समान कार्य करने वाले (बुद्धि में श्रेष्ठ) मन्त्रियों, नगरवासियों एवं पुरोहितों को बुलाता था। उनके साथ मन्त्रणा कर यदि भाई अनुकूल हुआ तो भाई से राज्य संभालने की याचना करता था। यदि वह भी विरक्ति आदि के कारण राज्य स्वीकृत नहीं करता था तो वंश
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में ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, गुणों के पात्र पुत्र को राज्य देता था। इस प्रकार राज्य का स्वामी कुल क्रमागत होता था । बलबान शत्रु यदि राज्य को जीत लेता था तो वह भी राज्य का स्वामी होता था । ऐसे शत्रु को भी कभी यदि मूल राजकीय वंश का राजकुमार मार देता था, अथवा युद्ध में परास्त कर देता था तो उस राजकुमार का ही राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के समय समस्त तीर्थों का जल लाकर स्वर्णमय कलशों से सजा का अभिषेक किया जाता था । अभिषेक का जल उत्तम
औषधियों के संसर्ग से निर्मल होता था। इस समय देव, किन्नर तथा वन्दोगण तरह तरह के बाजे बजाते थे। दूसरे राजा लोग अभिषिक्त राजा को प्रणाम करते थे। अभिषिक्त राजा अपने लाभ से प्रसन्नचित पुरवासियों को सोने का कड़ा, कम्बल तथा वस्त्र आदि देकर सन्तुष्ट करता था। अनन्तर महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ कर वह चण्डानाधिकारी के द्वारा निम्नलिखित घोषणा कराता थासमोचीन धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । समस्त भूमि का अधिपतिराजा कल्याण से युक्त हो चिरकाल तक बिघ्नबाधाओं से पृथ्वी मंडल की रक्षा करे । पृथ्वो समस्त इतियों (प्राकृतिक बाधाओं) से रहित और समस्त धान्यों सहित हो । भष्य जीव जिनागम के श्रद्धालु, विचारवान्, आचारवान्, प्रभाद्धान, ऐश्वर्यवान, दयालु, दानी, सदाविद्यमान, गुरुभक्ति, जिनभक्ति, दीर्घआयु और हर्ष से युक्त हो । धर्म पत्नियों धार्मिक कार्य, पातिवृत्य, पुत्र और विनय सहित हो' ।
आदिपुराण से पता चलता है कि यद्यपि सामान्यत: बड़ा पुत्र राज्य का अधिकारी होता था किन्तु मनुष्यों के अनुराग और उत्साह को देखकर राजा छोटे पुत्र को भी राजपट्ट बाँध देता था । यदि पुत्र बहुत छोटा हुआ तो राजा उसे राजसिंहासन पर बैठाकर राज्य की सब व्यवस्था सुयोग्य मन्त्रियों के हाथ सौंप देता था । पिप्ता के साथ साथ अन्य राजा. अन्त:पुर पुरोहित तथा नगरनिवासी भी अभिषेक करते थे । क्रमश: तीधजल,कषायजल,तथा सुगन्धित जल से अभिषेक किया जाता था | नगरनिवासी कमलपत्र के बने हुए दोने और मिट्टी के घड़े से भी अभिषेक करते थे अभिषेक के अनन्तर राजा आर्शीवाद देकर पुत्र को राज्यभार सौंप देता था और अपने मस्तक का मुकुट उतारकर उत्तराधिकारी को पहना देता था । इस प्रकार राज्याभिषेक सम्पन्न होता था 1 चक्रवर्ती के राज्याभिषेक में बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के आने का उल्लेख प्राप्त होता है 1 पट्टबन्ध की क्रिया मन्त्री और मुकुटबद्ध राजा करते थं। पट्टबन्ध के समय युवराज राजसिंहासन पर बैठता था, अनेक स्त्रियां उस पर चंवर ढोरती थी और अनेक प्रकार के आभूषणों से वह देदीप्यमान होता था आदि पुराण के सोलह पर्व में राज्याभिषेक की विधि का सांगोपांग वर्णन किया गया है।
चन्द्रप्रभचरित से ज्ञात होता है कि चक्रवर्ती राजा का पट्टाभिषेकोत्सब बड़े ठाठवाट से होता था । उत्तम गन्ध, धूप, पुष्प, और अनुलेपनों द्वारा वीतराग देव की उपासना कर वे निधियों और रत्नों की पूजा करते थे । उनके पिता अनेक राजाओं के साथ उनका चक्रवर्ती के वैभव के अनुरूप पट्टाभिषेकोत्सव करते थे । उस समय मित्र और पुरनारियो आनन्द मनातं", आकाश से देवगण पुष्पवृष्टि करते सुहृदों के मन्दिरों में ध्वज फहराए जाते, शत्रुओं के घर भावी विनाश के मूनक केतु (बुरेग्रह) उदित होते, पृथ्वी पर वारवनितायें (वेश्यायें) और स्वार्ग में किन्नर बघुयें सुन्दर नृत्य करती और गीत गाती", राजा के मन्दिर में आकर नट और गायक मंगलगान करते तथा नभाङ्गण कोयल के समान मधुर ध्वनि वाले तुम्बरु आदि के गानों से व्याप्त हो जाता है.
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केवल छिड़काव करने वाले (वारिक) लोग ही छिड़काव नहीं करते, अपितु बादल भी वर्षाकार राजमार्गों की धूलि को दबा देता था" |
वर्धमान चरित के अनुसार प्रायः राजा उत्ताराधिकार के रुप में समस्त गुणों के अदिवतीय पात्रस्वरुप पुत्र को सौपता था, क्योंकि उत्तम पुत्र पिता के अनुकूल चेष्टा से युक्त होता ही है। पुत्र के गुणों में विशेषकर आश्रितों के प्रति प्रेम रचना. विभूति का आश्रय होना समस्त राजाओं की प्रकृति को अपनी तरफ अनुरक्त रखना, प्रजा के अनुरागको मतत बढ़ाना, सेना आटि मूलबल की समुन्नति करना, शत्रुओं का विश्वास न करना आदि प्रमुख हैं । संमार से विरक्त पुरुष भी कुलक्रमागत राज्य नष्ट नहीं होने तथा लोकनिन्दा के भय से अनिच्छुक पुत्र पर राज्यभार रखने का प्रयास करते थे। वर्धमानचरित के द्वितीय सर्ग में नन्दिवर्धन अपने राज्य के अनिच्छुक पुत्र से कहता है- तेरे बिना कुलक्रम से चला आया यह राज्य बिना मालिक के यों ही नष्ट हो जायेगा। यदि गोत्र की सन्तान चलाना इष्ट न होता तो माधुपुरुष भी पुत्र के लिए स्पृहा क्यों करते ? नन्दिवर्धन स्वंय मोचला गया और अपने पुत्र को भी ले गया, अपने कुल का उसने विनाश कर दिया, ऐसा कह कहकर लोग मेरी निन्दा करेंगे । अत: हे पुत्र अभी कुछ दिन तक घर में हो रह । इस प्रकार कहकर पिता ने अपने पुत्र के मस्तक पर मुकुट रख दिया ।
राज का उत्तराधिकारी - राजा के उत्ताराधिकारी के विषय में राज्यभिषेक के प्रसंग में कहा जा चुका है कि सामान्यतया राज्य का उत्तराधिकारी राजा के ज्येष्ठ पुत्र को बनाया जाता
को मिवियस पुत्र की अपेक्षा कनिष्ठ पुत्र अभिवा योग्य हुआ तो उसे राजसिंहासनाभिषिक्त. किया आ, था। गधा स बाहों सालारा होता है कि कुमार सुषेण याप वांग से बड़े थे, किन्तु महाराज धर्मसेन ने मन्त्रियों की सलाह से घरांग का ही राजा बनाया. क्योकि कुमार यरांग अधिक योग्य थे। ऐसे समय राजा को गृहकलह का सामना करना पड़ता था । राजा वरांग को विमात्रा को असूया का शिकार होना पड़ा । राजा धर्मसेन ने वरांग को इसलिए युवराज बनाया. क्योंकि राजकुमार वरांग ने सब विद्याओं और व्यायामों को केवल पढ़ा ही नहीं था, अपितु उनका आचरण करके प्रयोगिक अनुभव भी प्राप्त किया था ३ वह नीतिशास्त्र के समस्त अंगो को जानने वाला तथा समस्त ललित कलाओं और विधिविधानों में पारंगत था । वृदधजनों को सेवा का उसे बड़ा चाय था। उसके मन में संसार का हित करने की कामना थी । वह बुद्धिमान और पुरुषार्थी था ।प्रजा के प्रति उदार था | प्रजा समझती थी कि कुमार वरांग, विनम्र, कार्यकुशल, कृतज्ञ और विद्वान है | महाराज धर्मसेन जब लोगों से कुमार के उदार गुणों की प्रशंसा सुनते थे तो उनका हृदय प्रसन्नता से आप्लावित हो उठता था। ऐसे योग्य पुत्र के कारण वे अपने को कृतकृत्य मानते थे, क्योंकि प्रजाओं को सुखी बनाना उन्हें परम प्रिय था।
सोमदेव ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य व्यक्त किया है कि राजपुत्र, भाई. पररानी को छोड़कर अन्य रानी का पुत्र, चाचा, वंश का पुत्र. दौहित्र, आगन्तुक (बाहर से आकर राजा के पास रहने वाला दत्तक पुत्र) इन राज्याधिकारियों में से पहले राजपुत्र को और उनके न रहने पर भाई आदि को यथाक्रम से राजा बनाना चाहिए। अपनी जाति के योग्य गर्भाधान आदि संस्कारों से हीन पुरुष राज्यप्राप्ति व दीक्षाधारण का अधिकारी नहीं है | राजा के मर 'माने पर उसका अंगहीन पुत्र उस समय तक अपने पिता का पद प्राप्त कर सकता है, जब तक कि उसको कोई दूसरी योग्य सन्तान न हो जाय।
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1. कुलकर
3. अर्द्धचक्री
राजाओं को दिनचर्या आदिपुराण के 41 वे पर्व में सम्राट भरत की दिनचर्या का वर्णन किया गया है, इस आधार पर तत्कालीन राजाओं के दैनिक जीवन की क्रियाओं के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। राजा सबेरै उठकर धर्मात्मा पुरुषों के साथ धर्म का अनुचिन्तन करते थे, पश्चात् मन्त्रियों के साथ अर्थ तथा कामरूप सम्पदाओं का विचार करते थे। वे शैय्या से उठते ही देव और गुरुओं की पूजा करते थे और मंगल वेष धारणकर धर्मासन पर आरुढ़ होते थे। वहाँ राजा के दार और विचारकर ने अधिकारियों को अपने अपने काम पर लगाते थे। इसके बाद राजसभा के बीच राजसिंहासन पर विराजमान होकर सेवा का अवसर चाहने वाले राजाओं का सम्मान करते थे। वे कितने ही राजाओं को दर्शन से, कितनों को मुस्कान से कितनों को वार्तालाप से, कितनों को सम्मान से और कितनों को दान आदि से सन्तुष्ट करते थे। वहां वे पर भेट लेकर आए हुए बड़े बड़े पुरुषों तथा दूतों को सम्मानित कर और उनका कार्य पूराकर उन्हें विदा करते थे । नृत्य आदि दिखाने के लिए आए हुए कलाओं के जानकार पुरुषों को बड़े बड़े पारितोषिक देकर से सन्तुष्ट करते थे । अनन्तर सभा विसंजन करते और राजसिंहासन से उठकर कोमल क्रीड़ाओं के साथ इच्छानुसार बिहार करते थे। दोपहर का समय निकट आ जाने पर स्नान, भोजन आदि कर अंलकार धारण करते थे। उस समय परिवार की स्त्रियाँ उन पर चंवर ढोलना. पान देना और पैर दबाना आदि के द्वारा उनकी सेवा करतो थी। भोजन के बाद बैठने योग्य भवन (भुक्तोत्तरस्थान) में कुछ राजाओं के साथ बैठकर चतुर (विदग्ध) लोगों की मण्डली के साथ विद्या की चर्चा करते थे। वहां जवानी के मद से जिन्हें उद्दण्डता प्राप्त हो रही थी ऐसी वारविलासिनी (वेश्यायें) और प्रियरानियाँ उन्हें चारों तरफ से घेर लेती थी उनके साथ आभाषण, परस्पर की बातचीत और हास्यपूर्ण कथा आदि भोगों के साधनों से ने कुछ देर तक सुख से बैठते थे। इसके बाद जब दिन का चौथाई भाग शेष रहता तब मणिजटित जमीन पर टहलते हुए वे चारों और राजमहल की उत्तम शोभा देखते थे। वे कभी कभी क्रोडा सचिव ( क्रोड़ा में महायता देने वाले लोगों) के कन्धों पर हाथ रखकर इधर उधर घूमते थे। रात में योग्य कार्य करते हुए मुखपूर्वक रात्रि बिताते थे । राजा के अन्य विशेष कार्यों में मन्त्रियों केसाथ महाल करना, षाडगुण्य का अभ्यास करना, आवीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति का व्याख्यान, निधियों और रत्नों का निरीक्षण, धर्मशास्त्र के विवाद का निराकरण, अर्थशास्त्र और कामशास्त्र में चातुर्य, हस्तिन्त्र, अश्वतन्त्र, आयुर्वेद, व्याकरण, छन्दशास्त्र, निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तन्त्र, मन्त्र, शकुन, ज्योतिष कलाशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि में निपुणता प्राप्त करना आदि प्रमुख थे
से
राजाओं के गेंद जैन साहित्य में राजाओं के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं.
2. चक्रवर्ती
4. विद्याधर ( खचर"" खेचर" नभश्चर ं )
149
5. महामुकुटबद्ध
6. मुकुटबद्ध" (मौलिबद्ध ६)
7. महामाण्डलिक 176 - यह चार हजार छोटे-छोटे राजाओं का अधिपति होता था " ।
8. मण्डलधिप 10. भूपाल 17 (नृप'", पार्थिव 123 क्षितीश28, भृगोचर २१ )
-
"
נין
1
माण्डलिक "" 9 अधिराज क्षोणीनाथ 124 भूप 125, महीभृत", उर्वीपति,
·
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133
11. युवराज 13. अटवीपति
42
12. द्वीपपति
14. सामन्त 133
कुलकर- कर्मभूमि के आदि में समचतुस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त गम्भीर तथा उदारशीर के धारक चौदह कुलकर हुए। इनको अपने पूर्वजन्म का स्मरण था और इनकी मनु संज्ञा थी । इन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए हा, मा, धिक् इन तीन प्रकार की दण्डनीतियों को अपनाया। ये प्रजा के पितातुल्य और अत्यधिक प्रतिभाशाली थे। प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति था । वह महान् प्रभावशाली था । उसने प्रजा के अनेक प्राकृतिक भय दूर किए उसने बतलाया कि काल के स्वभाव में भेद होने से पदार्थों का स्वभाव भिन्न हो जाता है. उसी से प्रजा के व्यवहार में विपरीतता आ जाती है। अतः स्वजन या भरजन काल दोष से मयांदा का उल्लंघन करने की चेष्टा करता है तो उसके साथ उसके दोषों के अनुरूप हा, मा, धिक् तीन धाराओं का प्रयोग करना हिए। तीन धाराओं से नियन्त्रण को प्राप्त मनुष्य भय से त्रस्त रहते हैं कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाय और इसी भय से वे दोषों से दूर हटते रहते हैं " । जिस प्रकार गुरु के वचन स्वीकृत किए जाते हैं उसी प्रकार प्रजा ने चूंकि उसके वचन स्वीकृत किए अतः पृथ्वी पर प्रतिश्रुति के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रतिश्रुति के अतिरिक्त सन्मति क्षेमङ्कर, क्षेमन्धर, सीमकर, सोमन्थर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ मरुदेव, प्रसेनजित तथा नाभिराज ये तेरह कुलकर और हुए" |
I
चक्रवर्ती - चक्रवर्ती ग्रह खण्ड का अधिपति और संप्रभुता सम्पन्न होता है। बीस हजार राजा इसकी अधीनता स्वीकार करते है 2 | हरिवंशपुराण में छह खण्ड से युक्त, भरतक्षेत्र को जीतने वाले चक्रवर्ती भरत'" का वर्णन मिलता है। वे चौदह महारत्न और नौ निधियों से युक्त हो पृथ्वी का निष्कटंक उपभोग करते थे 44 । चक्र, छत्र, खङ्ग, दण्ड, काकिणी, मणि, त्र, सेनापति, गृहपति, हस्ती, अश्व, पुरोहित, धनपति और स्त्री वे उनके चौदह रत्न थे और इनमें से प्रत्येक को एकएक हजार देव रक्षा करते थे। काल, महाकाल, पाण्डुक, माणव, नौसर्प, सर्वरत्न, शंख पदम और पिंगल ये चक्रवर्ती की नौ निधियाँ थीं। ये सभी निधियों अविनाशी थीं और निणिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं तथा निरन्तर लोगों के उपकार में आती थी । यह गाड़ी के आकार थी. चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों सहित थी। नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, आठ योजन गहरी और वक्षारगिरी के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं। प्रत्येक को एक एक हजार यक्ष निरन्तर देख रेख करते थे ।
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पहली कालनिधि में ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र एवं पुराण का सद्भाव था। दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों द्वारा निर्णय करने योग्य पन्चलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था। तीसरी पाण्डुक निधि में शालि, ब्रीहि, जौ आदि समस्त प्रकार की धान्य तथा कहुए चरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था। चौथी माणवक निधि कवच, ढाल, तलवार, बाण, शक्ति, धनुष, चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य शस्त्रों से परिपूर्ण थौं । पाँचवी सर्पनिधि शय्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर के उपयोग में आने वाले नाना प्रकार के भाजनों की पात्र थी । छठवीं सर्वरत्न निधि इन्द्रनीलमणि, महानीलमणि, बज्रमणि वैड्यमणि आदि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी। सातवीं शंख निधि भेरी, शंख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी, मृदंग आदि आघात से तथा फूँककर बजाने योग्य नाना प्रकार के बाजों
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से पूर्ण थी । आठवौं पद्मनिधि पटाम्बर, बीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा अनेक प्रकार के रंग बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थीं । नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री पुरुषों के आभूषण
और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी, ये नौ निधियाँ कामवृद्धि नामक गृहपत्ति के आधीन थी और सदा चक्रवर्ती के मनोरथों को पूर्ण करती थीं । चक्रवती के तीन सौ साठ रसोइया थे, जो प्रतिदिन कल्याणकारी सीथों से युक्त आहार बनाते थे। एक हजार चावलों का एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्ती का आहार था, चक्रवर्ती की रानीसुभद्रा का आहार एक कवल था और एक कवल अन्य समस्त लोगों की तृप्ति के लिए पर्याप्त था । चक्रवर्ती के निन्यानवे हजार चित्रकार थे, बत्तास हजार मुकुटबद्ध राजा और उतने ही देश थे तथा न्यानवे हजार रानियाँ र्थी । एक करोड़ हल, तीन करोड़ कामधेनु गायें, वायु के समान वेगशाली अट्ठारह करोड़ घोड़े, मत्त एवं धीरे-धीरे गमन करने वाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे | भाजन, भोजन, शय्या. सेना, वाहन, आसन, निधि, रत्न. नगर और नाट्य ये दश प्रकार के भोग थे।
आदिपुराण में चक्रवर्ती के राजराज अधिराट् और सम्राट् विशेषण भी प्राप्त होते हैं। यह छह खण्ड का अविपतिः। और राजर्षियों का नायक सार्वभौम राजा होता था। चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथंग, बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा, बत्तीस हजार देशा* 96000 रानियो', बत्तीस हजार नगर', 96 करोड़ गांव'". 99 हजार द्रोणमुखा, 48 हजार पत्तन". सोलह हजार खेट, 56 अन्तंद्वीप, 14 हजार संवाह"", एक लाख करोड़ हल तीन करोड़ वृक्षा, सात सौ कुक्षिवास, (जहाँ रत्नों का व्यापार होता है), अट्ठाईस हजार सघन वन, अठारह हजार प्लेच्छराजा, नौ निधियाँ, चौदह रत्न और दश प्रकार के भोगों का यह स्वामी होता है । आदि पुराण सैतीसवें पर्व में उसकी नौ निधियां, चौदह रत्न, दश प्रकार के भोग तथा अन्य वैभव का विस्तृत वर्णन किया गया है। उसका शरीर बज्रवृषभनाराच संहनन का होता है तथा शरीर पर चौसठ लक्षण होते हैं । वर्धमान चरित के 14वें तथा चन्द्रप्रभचरित के सातवें सगं में चक्रवती की विभूति का वर्णन किया गया है जो उपर्युक्त वर्णन से मिलता जुलता है।
शुक्रनीति में सामन्त, माण्डलिक, राजा, महाराज, स्वराट्, सम्राट, विराट् तमा सार्व भौम (चक्रवती) राजाओं को तालिका दी गई है । तदनुसार सामन्त जी वार्षिक भूमिकर से आय । लाख, माण्डलिक की आय 4 लाख से 10 लाख तथा राजा की आय 11 लाख से 20 लाख, महाराज की आय 21 लाख से 50 लाख, वराट को आय 51 लाख से 1 करोड़, सम्राट् की आय 2 करोड़ से 10 करोड़, विराट की आव 11 करोड़ से अधिक चाँदी की कापिण होती थी और इमसे ऊपर की आय वाले को सार्वभौम कहा जाता था । कौटिल्य के अनुसार हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यन्त पूर्व-पश्चिम दिशाओं में एक हजार योजन तक फैला हुआ और-पश्चिम की सीमाओं के बीच का भूभाग चक्रवती का क्षेत्र कहलाता था अर्थात इतनी पृथ्वी पर राज्य करने वाला राजा चक्रवर्ती होता था।
अर्द्धचक्री - इस राजा का वैभव चक्रवती के से आधा माना गया है । हरिवंशपुराण में अर्द्धचक्री कृष्ण की विभूति का वर्णन किया गया है, तदनुसार उनके पास शत्रुओं का मुख नहीं देखने वाला सुदर्शनचक्र, अपने शब्द से शत्रुपक्ष को कम्पित करने वास्ता शाङ्गधनुध, सौनन्दक खड्ग, कौमुदी गदा, शत्रुओं पर व्यर्थ नहीं जाने वाली अमोचमूला शक्ति, पाञ्चजन्यशंख और
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विशाल प्रताप को प्रकट करने वाला कोस्तुभमणि ये सात रत्न थे । सोलह हजार प्रमुख राजा
और आठ हजार भक्तगण बद्ध देव उनकी निरन्तर सेवा करते थे और उनकी सोलह हजार स्त्रियाँ थी ।
विद्याधर - विद्याबल से सम्पन्न राजा विद्याधर कहलाते थे । हरिवंश पुराण के शब्दोसवें सर्ग में गैरिक, गान्पार, मानव पुत्रक, मनु पुत्रक, मूलवीर्य, अन्तरमूमिचर,शंकुक, कौशिक, मातंग, श्मसाननिलय, पाण्डुक, कालश्वपाकी, श्वपाकी, पावतेय, वंशालय, तथा वार्शमलिक नामक विद्याधरों का उल्लेख किया गया है । सिद्धकूट जिनालय में वन्दना के लिए गए हुए वमुदेव को मदनवेगर ने इन विद्याघरों का परिचय इस प्रकार कराया -
जो हाथ में कमल लिए तथा कमलों की माला धारण किये हमारे स्तम्भ के आश्रय बैठे हैं वे गौरिक नाम के विद्याधरी हैं । लाला मालायें धारण किये तथा लाल कम्बल के बस्त्रों को पहिने हुए मान्मार खम्मा का आश्रय गान्धार जाति के विधानर बैते हैं। जो नानाषणों से युक्त एवं स्वर्ण के समान पीले वस्त्रों को धारण कर मान स्तम्भ के सहारे बैठे हैं वे मानव पुत्रक विद्याघर हैं। जो कुछ कुछ लाल वस्त्रों से युक्त एवं मणियों के देदीव्यमान आभूषणों से सुसज्जित हो मान स्तम्भ के सहारे बैठे हैं वे पनुपुत्रक विद्याधर हैं। नाना प्रकार की औषधियां जिनके हाथ में हैं तथा जो नाना प्रकार के आभूषण और मालायें पहिनकर औषधिस्तम्भ के सहारे बैठे हैं वे मलवीर्य विद्याधर हैं । सब ऋतुओं के फूलों की सुगन्धि से युक्त, दापय आभरण और मालाओं को धारणकर जो भूमिमण्डप स्तम्भ के समीप बैठे हैं वे अन्तभूपिचर विद्याधर हैं । जो चित्रविचित्र कुण्डल पहने तथा साकार बाजुबन्दों से सुशोभित हो शंकु स्तम्भ के समीप बैठे हैं खे शंकुक नाम विद्याधर हैं । जिनके मुकुटों पर सेहरा बंधा हुआ है तथा जिमके मणिमय कुण्डल देदीप्यमान हो रहे हैं । ऐसे कौशिक स्तम्म के आश्रय कौशिक जाति के विद्याधर बैठे हैं। यह आर्य विद्याघरों का परिचय है। मातंग विद्याधरों के निकायों का परिचय यह हो -
जो नीले मेघों के समान श्यामवर्ण है तथा नीले वस्त्र और नीली मालायें पहिने हैं वे मातंग स्तम्भ के समीए बैठे मांतग विद्याधर हैं । जो श्मसान की हड्डियों से निर्मित आभूषणों को धारणकर भरम से धूलि धूसर हैं वे श्मसान स्तम्भ के आश्रय बैठे हुए श्मसान निलयनामक विद्याधर हैं । ये जो नीलमणी और वैडूर्यमणि के समान वस्त्रों को धारण किए हुए हैं तथा पाण्डुर स्तम्भ के समीप आकर बैठे हैं ये पाण्डुक नामक विद्याधर हैं जो ये कालीमृगचर्म को धारण किए तथा काले नमड़े से निर्मित वस्त्र और मालाओं को पहिने हुए काल स्तम्भ के पास आकर बैठे हैं वे काल श्वपाकी विद्याधर हैं । जो पीले पोले केशों से युक्त हैं, तपाए हुए स्वर्ण के आभूषण पहिने हैं और श्वपाको विद्याओं के स्तम्भ के सहारे बैठे हैं वे श्वपाकी विद्याधर हैं । जो वृक्षों के पत्तों के समान हरे रंग के वस्त्रों से आच्छादित है तथा नाना प्रकार के मुकुट और मालाओं को धारण कर पार्वत स्तम्भ के सहारे बैठे हैं वे पार्वतेय नाम से प्रसिद्ध है । जिनके आभूषण बांस के पत्तों से बने हुए हैं तथा जो सन्त्र ऋतुओं के फूलों की मालाओं से युक्त हो वंशस्तम्म के आश्रय से बैठे हैं वे वंशालय विद्याधर माने गए हैं । जिनके उत्तमोत्तम आभूषण महासों के शोभायमान चिन्हों से युक्त हैं तथा जो वृक्ष मूल नामक महास्तम्भों के आश्रय बैठे हैं वे वार्शमूलक नामक विद्याधर है।।
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उपर्युक्त वर्णन से मार है कि यहाँ विद्यावरों के आर्य और मासंग नामक दावेद थे और इन दो भेदों के भी प्रभेद थे । ये अपने-अपने निश्चित वेष में ही भ्रमण करते थे और आभूषागों को अपने अपने चिन्हों से ऑकत रखते थे | प्रत्येक का अपना अपना स्तम्भ था जिसका आश्रयकर ये बैंठते थे और तत्तत् स्तम्भों के आधार पर ही इनके निकायों के नाम प्रसिद्ध हो गये। ये स्तम्भ विद्या निर्मित होते थे विधुदवेग का गौरी विद्याओं के स्तम्भ का सहारा लेकर बैठने मे यह कथन सिद्ध होता हो । विद्याबल से आकाश में गमन करने की शक्ति के कारण इनके लिए खेचर शब्द का उपयोग हुआ है।
महामाण्डलिक- मण्डल का प्रशासक महामण्डलेश्वर (महामाण्डलिक) कहा जाता था। परन्तु कभी कभी छोटे प्रभेद पर भी हमें महामण्डलेश्वर शासन करते मिलते हैं। सम्भवत: इम्पका कारण यही प्रतीत होता हैं कि ये छोटे प्रदेश या तो इनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थे अधवा राजा की ओर से उपहार दिए जाते थे । जयसिंह के शासनकाल में दधिप्रद मण्डल के महामण्डलेश्वर वपनदेव थे। महामण्डलेश्वर की नियुक्ति केन्द्रिय सरकार द्वारा होती थी । साधारणतया किसी राजवंश का अथवा अत्यन्त विश्वसनीय व्यक्ति ही इस पद पर नियुक्ति किया जाता था । दोहद्र-प्रस्तर लेख से पता चलता है कि महामण्डलेश्वर वपनदेव की कृपा से राणाशंकर सिंह पहान् पद का प्राप्त कर सके । सम्भवत: महामण्डलेश्वरों का स्थानान्तरण एक मण्डल से दूसरे मण्डल में किया आता था और प्रत्येक नए राजा के आगमन पर इसमें साधारणतया या तो परिवर्तन होता था. या उन्हें स्थाया कर दिया जाता था।
मण्डलाधिय (माण्डलिक)- शुक्रनीति के अनुसार माण्डलिक राजा उन कहते थे. जिनको आय 4 लाख से 10 लाख चाँदी के कार्पोपण होती थी। ये मण्डल के स्वामी होते थे मण्डल शामन की सबसे बड़ी इकाई थी जिसको समानता आधुनिक प्रान्त से की जा सकता है।
सामन्त- दौत्यकायं तथा विभिन्न बुद्धों के प्रसंग में सामन्तों का उल्लेख पदमचरित में आया है। एक बार जन्न रावण के मन्त्रियों ने सखण से राम के साथ सन्धि करने का आग्रह किया तय रावण ने बचन दिया कि आप लोग जैसा कहते हैं वैसा ही करुंगा । इसके बाद मन्त्र के जानने वाले मन्त्रियों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त शोभायान एवं नीतिनिपुण सामन्त को सन्देश देकर शोघ्र ही दूत के रूप में भेजने का निश्चय किया।54 4 उस सामन्त दूत का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह बुद्धि में शुक्राचार्य के समान था, महाओजस्वी और प्रतापी था । राजा लोग इसकी बान मानते थे तथा वह कर्णप्रिय भाषण करने में निपुण था। वह सामन्त सन्तुष्ट स्वामी को प्रणाम कर जाने के लिए उद्यत हुआ। अपनी बुद्धि के बल से यह समस्त लोक की गोष्पद के समान तुम्बड़ देखता था' | जब बह जाने लगा तब नाना शास्त्रों से युक्त एक भयंकर सेना जो उसकी बुद्धि से ही मानो निर्मित थी, निर्भय हो उसके साथ हो गई । दूत की तुरहो का शब्द सुनकर वानर पर के सैनिक क्षुभित हो गये और रावण के आने को शंका करते हुए भयभीत हो आकाश की और देखने लगे | सजा अतिवीर्य ने जिस समय भरत पर आक्रमण करने के लिए पृथ्वीधर राजा के पास संदेश भेजा, अपनी तैयारी का वर्णन करते हुए वह लिखता है कि इस पृथ्वी पर मेरे जो सामन्त हैं वे खजाना और सेना के साथ मेरे पास है । इस सब उस्लेखों से सामन्त की महत्ता स्पष्ट होती है।
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कौटिल्य अर्थशास्त्र में सामन्त शब्द पड़ौसी राज्य के राजा के लिए आया है । शुक्रनीति के अनुसार जिसकी वार्षिक आय ( भूमि से) एक लाख चाँदी के कार्षापण होती थी, वह सामन् कहलाता था" । वासुदेवशरण अग्रवाल ने सामन्त संख्या का विकास ऐसे मध्यस्थ अधिकारियों से बतलाने का प्रयास किया है, जिन्हें छोटे मोटे रजवाड़ों के समस्त अधिकार सौंपकर शाहानुशाहिया महाराजधिराज या बड़े सम्राट् शासन का प्रबन्ध चलाते थे । युद्ध के प्रसंग में रक्षा, हाथी, सिंह, सुकर, कृष्णमृग, सामान्यमृग, सामर, नाना प्रकार के पक्षी, बैल. ऊँट, घोड़े, भैंस आदि वाहनों पर सवार, सिंह, व्याघ्र, हाथियों " आदि से जुते रथों पर सवार तथा घोड़ों के वेग की तरह तीव्र गति वाले 5 सामन्तों का उल्लेख पद्मचरित में हुआ है। सामन्तराजा के पास दुर्ग और सेना रहती थी। कभी कभी वह अहंकारवश अपने स्वामी के साथ बगावत कर बैठता था। जयपुर के राजा सिंहकुमार के प्रति दुर्भाति नाम के पड़ौसी आटविक सामन्तराज की बगावत का उल्लेख हरिभद्र ने विस्तार से किया है 197 ।
हरिभद्र के वर्णन से स्पष्ट है कि सामन्त के पास अपनी सेना रहती थी, वह अपने ढंग से राज्य की व्यवस्था करता था और अपने स्वामी को कर देता था । मध्यकाल में सामन्तों की आय बट गई थी। अपराजित पृच्छा के अनुसार लघुसामन्त की आय 5 सहस्त्र, सामन्त की 10 सहस्त्र, महासामन्त या सामन्तमुख्य की 20 सहस्त्र होना चाहिए। समय आने पर प्रायः सामन्त अपनी स्वामी राजाओं की युद्ध में सहायता करते थे और फलस्वरुप पुरस्कार के अधिकारी होते थे। सामन्त और महासामन्तों का राज्य में महत्वपूर्ण स्थान होता था। अपने पति दक्षप्रजापित से रुष्ट होकर इला देवी महासामन्तों से घिरी होकर अपने ऐलेय को ले दुर्गम वन में चली गई (हरिवंशपुरम 17/17) |
द्वीपपति- द्वीपों के स्वामी को द्वीपपति कहते थे ।
भूचरण - विद्याबल से रहित राजाओं को भूचर कहा जाता था। प्राचीन आचार्यों ने प्रकारान्तर से राजाओं के तीन भेद किए हैं१. धर्मविजयी
-
2. लोभविजयी 3. असुरविजयी
1. धर्मविजयी राजा :- जो राजा प्रजा पर नियत किए हुए कर से ही सन्तुष्ट होकर उसके प्राण, धन व मान की रक्षा करता हुआ अन्याय प्रवृति नहीं करता है- उसके प्राण व धनादि नष्ट नहीं करता है, उसे धर्मवजयी राजा कहते हैं ।
2. लोभविजयी राजा :- जो केवल धन से ही प्रेम रखकर प्रजा के प्राण और माल मर्यादा की रक्षार्थ उसके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता, उसे लोभविजयी कहते कृष्
I
3. असुरविजयी राजा :- जो प्रजा के प्राण और सम्मान का नाशपूर्वक शत्रु का वध करके उसकी भूमि चाहता है, उसे असुरविजयी कहते
नीतिविद् अपना कार्य सिद्ध करने के लिए पहले को दान देना, दूसरे के साथ शान्ति का व्यवहार करना और तीसरे के लिए भेद्र और दण्ड का प्रयोग कराना, यहाँ ठीक उपाय बत
छ ।
सोमदेव ने दूसरे के मत के अनुसार कार्य करने वाले और अपराधियों के अर्धमान व प्राणमान की परीक्षा किए बिना प्राणघात करने वाले राजा को असुरवृत्ति कहा है। जिस भूमि का राजा
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असुरवृत्ति नहीं है, वह राजन्वतो ( श्रेष्ठ राजा से युक्त) कही जाती हैं। जिस प्रकार नागार ( चाण्डालगृह) मैं प्रविष्ट हुए हिरण का वध होता है, उसी प्रकार असुरवृत्ति राजा के आश्रय से प्रजा का नाश होता है ।
राजाओं का एक अन्य वर्गीकरण भी मिलता है 1 शत्रु राजा 2- मित्र राजा और 3- उदामीन
राजा ।
शत्रु और मित्र की अपेक्षा राजाओं के भेद शत्रु और मित्र की अपेक्षा राजा चार प्रकार के होते हैं-- (1) शत्रु (2) मित्र (3) शत्रु का मित्र (4) मित्र का मित्र । अच्छे मित्र से सबकुछ सिद्ध होता है 12 । शत्रु का कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय, वह अन्त में शत्रु ही रहता है।
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राजाओं के मित्र - राज्य के सात अंगों में मित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । राजाओं को विजय व पराक्रम बहुत कुछ उसके मित्र राजाओं पर अवलम्बित रहता है। वरुण को पराजित करने के लिए रावण ने विजयार्द्ध पर्वत की दोनो श्रेणियों में निवास करने वाले विद्याधरों को सहायता के लिए बुलाया 14 मित्र और शत्रु राजा की पहचान बड़ी मन्त्रणा और कसौटी के बाद तय की जाती थी। विभीषण जब राम की शरण में आया तब राम ने निकटस्थ मंत्रियों से सलाह की। मतिकान्त नामक मन्त्री ने कहा कि सम्भवतः रावण ने छल से इसे भेजा है, क्योंकि राजाओं की वेष्टा बड़ी विचित्र होती है । परस्पर के विरोध से कलुषता को प्राप्त हुआ कुल जल की तरह फिर से स्वच्छता को प्राप्त हो जाता है। इसके बाद मतिसागर मन्त्री ने कहा कि लोगों के मुँह से सुना है कि इन दोनों भाइयों में विरोध हो गया है। सुना जाता है कि विभीषण धर्म का पक्ष ग्रहण करने वाला है, महानीतिवान् है, शास्त्ररूपी जल से उसका अभिप्राय घुला हुआ है और निरन्तर उपकार करने में तत्पर रहता है. इसमें भाईपना कारण नहीं हैं, किन्तु कर्म के प्रभाव से ही संसार में यह विचित्रता हैं, इसलिए दूत भेजने वाले विभीषण को बुलाया जाय। इसके विषय में योनि सम्बन्धी दृष्टान्त स्पष्ट नहीं होता अर्थात एक योनि से उत्पन्न होने के कारण जिस प्रकार रावण दुष्ट है। उसी प्रकार विभीषण भी दुष्ट होना चाहिए, यह बात नहीं है" । मतिसागर मन्त्री का कहना मानकर राम ने त्रिभीषण को जबकि वह निश्छलता की शपथ खा चुका, यथेष्ट आश्वासन देकर अपनी ओर मिलाया 1* । एक स्थान पर कहा गया है कि दुष्ट मित्रों को मन्त्र दोष, असत्कार, दान, पुण्य, अपनी शूरवीरता, दुष्टस्वभाव और मन की दाह नहीं बतलानी चाहिए"" ।
वरंगचरित के अनुसार इस संसार में किसी भी व्यक्ति को अपने माता, पिता, धर्मपत्नी, औरस पुत्र, अत्यन्त घनिष्ट बन्धु बान्धव या सेवक घर उतना विश्वास नहीं करना चाहिए, जितना कि एक दृढ़ मित्र पर करना चाहिए" । शक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपने प्रति अनुराग रखने वाले मित्र किसी को मिलता ही नहीं है। भाग्य से यदि कोई ऐसा मित्र मिल जाय तो समझिए कि सारी पृथ्वी उसके हाथ लग गई। आपत्ति में पड़े हुए व्यक्ति को चाहिए कि किसी आशा से बन्धु बान्धवों तथा मित्रों के पास न जाय। उसे ऐसी स्थिति में देखकर वे लोग खेद खिन्न होंगे और शत्रुओं की उपहास करने का अवसर मिलेगा। मित्र के प्रति सदैव सद्भाव रखना चाहिए तथा उसके अनुकूल कार्य करने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी की सम्मति के अनुसार विपरीत कार्य करने से मित्र भी शत्रु हो जाय, उसे कार्यज्ञ नहीं कहा जा सकता है। किसी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति
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के साथ पहिले कभी सन्धि न हुई हो, बाद में वह सन्धि करता है तो उसके मित्र उस पर विश्वास नहीं करते तथा सम्बन्ध के प्रयोजन को भी विकृत रूप दिया जाता है । जो व्यक्ति राजा अथवा उसके शासन के विरूद्ध षड्यन्त्र नहीं करता है। अनर्थों को शान्त करता है, युद्ध में स्थिर बुद्धि का परित्याग नहीं करता है, युद्ध में जो सहायता देता है हितकारी प्रवृत्ति हेतु प्रबुद्ध करने के लिए जो युक्तिमती नीति को दशांता है, वही बन्धु है. वह पुत्र है, वही मित्र है तथा श्रेष्ठतम गुरु भी वही है, यह बात लोक में प्रसिद्ध हैं 1 मित्र दो प्रकार के होते हैं - 1. स्वाभाविक 2. कृत्रिम 1 अकृत्रिम स्नेही मम्बन्धी स्वाभाषिक मित्र होता है, किन्तु जो कृत्रिम मित्र होता है वह फलवान होता है, अतः उदार हृदय मित्र बनाना चाहिए 2" |
ऋरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन ने कहा है कि सभी लोग प्राणतुल्य सखा या मित्र के लिए मन का दुःख बौटकर मुखी हो जाते हैं; यह जगत की रीति है। मित्र पर आपत्ति आने के समय मित्र दुखी हो जाता है * । मित्रमंडल के प्रतापरहित हो अस्त हो जाने पर उद्यमाँ मनुष्य भी उद्यम रहित हो जाते हैं । मित्रता दुष्ट मनुष्य से नहीं करनी चाहिए; क्योंकि दुष्ट मनुष्य से की गई मित्रता रागरहित होती है। सज्जनों से मैत्री करना चाहिए; क्योंकि सज्जन से की गई मैत्री उत्तरोत्तर बढ़ती रहती हैं।
दिसंधान महाकाव्य में दो प्रकार के मित्र कहे गए हैं- 1. कार्यकृत 2. जन्मजात ( योनिज) । जो किसी कार्य को पूरा कर देने पर या उसमें सहायता देने के कारण मित्र बन जाते हैं. उन्हें कार्यकृत और जो वंश परम्परागत मित्र हों, उन्हें योनिज या जन्मजात कहते हैं | आचार्य कौटिल्य के अनुसार मित्र ऐसे होने चाहिए जो वंशपरम्परागत हो, स्थानी हो, अपने वश में रह सकें और जिनसे विरोध की सम्भावना न हो तथा प्रभु आदि शक्तियों से युक्त जो समय आने पर सहायता कर सकें ।
उत्तरपुराण में राजा की सात प्रकृतियों में मित्र का स्थान निर्धारित किया गया है। स्वामी, आमात्य, जनस्थान (देश), दण्ड, कोश, गुप्ति (गढ़) और मित्र ये राजा की सात प्रकृतियाँ है।
चन्द्रप्रभचरित में कहा गया है कि वन्य वही है जो संकट में काम आये। वही राज है जो प्रजा का पालन करे, वही मित्र है जो आपत्ति में काम आए। वही कवि है जिसकी उक्ति नीरस न हो" । यथार्थ में मित्र वही है जो मित्र के सुख दुःख को अपना ही सुख दुःख समझे2 34 | इसी को सोमदेव ने इस रूप में कहा है कि जो पुरुष सम्पत्तिकाल की तरह विपत्तिकाल में भी स्नेह करता है, वह मित्र है । मित्र तीन प्रकार के होते हैं - 1. नित्यमित्र 2. सहजमित्र 3. कृत्रिम मित्र ।
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नित्यमित्र - जो कारण के बिना ही आपत्तिकाल में परस्पर एक दूसरे के द्वारा बचाए जाते हैं, वे नित्यमित्र हैं ।
सहजमित्र - वंशपरम्परा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष सहजमित्र हैं ।
कृत्रिम मित्र - जो व्यक्ति अपनी उदरपूर्ति और प्राणरक्षा के लिए अपने स्वामी मे वेतन आदि लेकर स्नेह करता है वह कृत्रिम मित्र हैं 23 ।
मित्र के गुण:- मित्र के निम्नलिखित गुण - 1. संकट पड़ने पर मित्र की रक्षार्थ उपस्थित होना 1 2. मित्र के धन को न हड़पना ।
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3. मित्र की स्त्री के 4. मित्र के क्रोधित
मित्र के दोष :
1. मित्र द्वारा कुछ
3. पित्त में
4. शत्रुओं से
5. गुलकपट
7. मित्र की 9. सदैव
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ना न रखना
अथवा प्रसन्न होने की स्थिति में उससे ईर्ष्या न रखना।
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दोष निम्नलिखित हैं ।
जाने पर स्नेह रखना। 2. स्वार्थता ।
करना ।
जाना ( विश्वासघात करना - नी. वा. 27/10 ) 6. छिपा रखना
दृष्टि रखना 18 विवाद करना ।
करना और स्वयं कुछ न देना ।
10. धनसम्बन्ध रखना ।
11. पदको प्रकट करना(नो. वा. 11 /53)
12. करना ।
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आदर्शमेकी
मित्र नहीं
है, जो मिल मात्र से ही उसकी वृद्धि कर देता हूँ और अग्नि परीक्षा के समय अपना नाश करके भी दूध की रक्षा करता है । इसी प्रकार सच्चा मित्र होना चाहिए। संसार में पशु भी उपकारी के प्रति कृतज्ञ व विरुद्ध न चलने वाले होते हैं, किन्तु मनुष्य प्राय: विपरीत चलने वाले देखे जाते हैं। सोमदेव ने इसका एक उदाहरण दिया है कि किसी धन में घास से ढके हुए कुये में बन्दर सर्प, शेर, एक जुआरी और सुनार गिर पड़े। किसी कांकायन नामक पश्चिक ने उन्हें बाहर निकाला। उनमें से सब जा लेकर बाहर निकल गए किन्तु जुआरी ने उसके साथ मित्रता कर विशाला
नामक नगरी में सात समय उसे मारकर उसका धन छीन लिया ।
मैत्री के अयोग्य पुरुष जिसके व्यवहार से मन फट चुका हो उसके साथ मित्रता नहीं करना चाहिए 43 | एक बार फटे हुए मन को स्फटिक के कंकड़ के समान कोई भी जोड़ने में समर्थ नहीं है244 | महान् उपकार से भी मन में उतना अधिक स्नेह उपकारी के प्रति नहीं होता, जितना अधिक मन थोड़ा सा अपकार करने से फट जाता है | अतः किसी भी अनुकूल मित्र को शत्रु
न बनाए 46 ।
राजा के अधिकार :- राजा कोश, दुर्ग, सेना आदि का उपयोग करता है, वह किसी महाभय केसमय प्रजा की रक्षा करने के लिए धनसंचय करता है और प्रजा को सन्मार्ग में चलाने के लिए योग्य दण्ड देता हैं | राजा अपने देश में सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति है उसकी आज्ञा समस्त मनुष्यों से उल्लघंन न किए जाने वाले प्राकार के समान होतो हे राजकीय ऐश्वर्य का फल प्रजा द्वारा
राजा की आज्ञा का पालन किया जाना है?*
राजा के कर्त्तव्य
1. न्यायपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाले राजा को इस संसार में यश का लाभ होता है, महान् वैभव के साथ साथ पृथ्वी की प्राप्ति होती है और परलोक में अभ्युदय ( स्वर्ग ) की प्राप्ति होती है । वह क्रम से तीनों लोकों को जीत लेता है * । न्याय को धन कहा गया है।
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...-.-- - - - - - - --- -- = = = = न्याय पूर्वक पालन की हुई प्रजा (मनोरथों को पूर्ण करने वालो) कामधेनु के यमान मानो गई है:! न्याय दो प्रकार का है 1. दुष्टों का निग्रह करना 2. शिष्ट पुरुषों का पालन करना । एक स्थान पर कहा गया है-धर्म का उल्लघंन न कर धन कमाना, रक्षा करना बढ़ाना और योग्य पात्र में दान देना, इन चार प्रकार की प्रवृत्ति को मज्जनों ने न्याय कहा है नया जन प्रम के अनुसार प्रवृत्ति करना संसार में सबसे उत्तम न्याय माना गया है। अन्यायपूर्वक आचरण करने में राजाओं की वृत्ति का लोय हो जाता है।
2. कुल पाल्नन - कुलाम्नाय की रक्षा करना और जल के योग्य आचरण की रक्षा कार कुलणलन कहलाता है। राजाओं को आपने कुल की मयांदा पालन करने का प्रयज करना चाहिए जिसे अपनो कुल मर्यादा का ज्ञान नहीं है, वह अपने दुरावारों में कुल का दूपित कर सकता है:द्वेष रखने वाला कोई पाखण्डी राजा के सिर पर विपपग रख दे तो उनका नाश हो सकता है । कोई वशीकरण के लिए उसके सिर पर वशीकरण पुष्प रख दे तो यह मृद के समान आचरण करता हुआ दूसरे के वश हो जायेगा । अतः राजा को अन्य मर वालों के शेषाक्षत, आगीवाद और शान्तिवचन आदि को परित्याग कर देना चाहिए. अन्यथा उगडे कल की हानि हो सकता है ।
3. मत्यनुपालन :- ग़जाओं को वृद्ध मनुष्यों की मंगतिरूपों मभ्पदा में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर धर्मशास्त्र और जयंशास्त्र के. हा ये 3.दीकिकृत काना नाहि । यदि राजा इसमें विपरीत प्रवृत्ति करेगा तो हित हित का जानकार न होने में वृद्धि भ्रष्ट हो जायेगा। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थों के हित अहित का ज्ञान होना अति कहलाती है। विद्या का नाश करने से उस वृद्धि का पालन होता है । मिथ्याज्ञान को अभिशा कहते हैं और अतत्त्वों में तत्त्वद्धि होना मिथ्याज्ञान कहलाता है।
(4) आत्मानुपालन :- इग्य लोक तथा परनोकाम्बन्धी पायों से आत्मा की रक्षा करना आत्मा का पालन करना कहलाता है। राजा की अपनी रक्षा हान पर सबकी रक्षा हो जाती है...। चित्र. शस्त्र आदि अपायों से रक्षा करना तो बुद्धिमान को विसि ही .. मिंक सम्बन्धी अपायों से रक्षा धर्म के द्वारा हो सकती है. क्योंकि धर्म ही समस्त आगियों का प्रतीकार ई. । धर्म हो अपायों में रक्षा करता है. धर्म ही मनचाहा फल देता है अभ हो परलोक में कलााण करने वाला है और धर्म से ही इस लोक में आनन्द प्राप्त होता है । जिम राज्य के लिए पुर तथा सगे भाई भीरता शत्रुता किया करते हैं और जिम जहन में अपाय ( विघ्न बाधायें । हैं, ऐया गज्य त्रुद्धिमान पुरवों को या छोड़ देना चाहिये । मानसिक पेट को बहुलता वाले राज्य में मुग्नुपूर्वक नहीं रहा जा सकता, क्योंकि निराकुलता को ही मुख कहते हैं जिमका अन्न अच्छा नहीं है, जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे इस राञ्च में मुख का लेश भी नहीं है. सब ओर से शंकित रहने वाले पुरुष को इस राज्य में बड़ा भारो दुःख बना रहता है। अत: विद्रान पुरुषों को अपथ्य
औषधि के समान राज्य का परित्याग कर देना चाहिए और पक्ष्यभोजन के समान तप ग्रहण करना चाहिए । राजाराज्य के विषय में पहले हो विर का हाकर भोगोषभोग का त्याग कर दे। यदि वह ऐसा करने में असमर्थ हो तो अन्त समय में उसे राज्य के आडम्बर का अवश्य न्याग कर देना चाहिए। यदि काल को जानने वाला निमित जानी अपने जीवन का अन्त बतला दे अथवा अपने आप ही निर्णय हो जाय तो उस समय से शरीरपरित्याग की बुद्धि धारण करे, क्योंक त्याग ही परमधर्म है । त्याग ही परम तप हैं, त्याग से ही इस लोक में कीति और परलोक में ऐश्वर्य को उपलब्धि
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होती है। आत्मा का स्वरूप न जानने वाला जो क्षत्रिय अपनी आत्मा की रक्षा नहीं करता है.. उसकी विष, शस्त्र आदि से अवश्य ही अपमत्यु होती है, अथवा शत्रुगण तथा क्रोधो. लोभी और अपमानित हुए सेवकां से उसका अवश्य ही विनाश होता है और अपमृत्यु मे मग़ प्राणो दुःखद तथा कठिनाई से पार होने योग्य इस संसार रूपी आवर्त में पड़कर टुर्गतियों के दुःख का पात्र होना
आचार्य सोमदेव ने भी कहा है कि रक्षा होने पर समस्त राष्ट्र सुरक्षित रहता है, अत: उसे स्वकीय और परकीय जनों से मदा अपनी रक्षा करना चाहिए । राजा अपनी रक्षा के लिए ऐसे पुरुष को नियुक्त करे जो कि उसके वंश का हो अथवा वैवाहिक सम्बन्ध से बंधा हुआ हो तथा शिक्षित, अनुरक्त और कर्तव्यकुशल हो । राजा विदेशी पुरुष को, जिसे मान आदि देकर सम्मानित न किया गया हो और पहले सजा पाए हुए स्वदेशवासी व्यक्ति को जो बाद के अधिकारी बनाया गया हो. अपनी रक्षा के लिए नियुक्त न करें, क्योंकि विकृतचित्त (देश्युक्त) पुरुष कौन कौन से अपराध नहीं करता है। विक्रतचित हो जाने पर माता भी राक्षसी हो जाती है । राजा के पास स्त्रियों और पास रहने वाले कुटुम्बी व पुत्र होते है। अत: सबसे पहले उसे इनसे अपनी रक्षा करनी चाहिए। पति द्वारा सौत रखना, पति का मनोमालिन्य, अपमान, सन्तान न होना चिरविरह इनसे स्त्रियां पति से विरक्त हो जाती है। स्वियों में स्वाभाविक गुण या दोष नहीं होते हैं, किन्तु ग्यमुद्र में प्रविष्ट हुई नदी के समान पति के गुणों से गुण या दोषों से दोष उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार मीप की बांबी में प्रविष्ट हुआ मेंढक नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जो राजा स्त्रियों के गृह में प्रविष्ट होते हैं, वे अपने प्राणों को खो बैठते हैं । राजा अपने प्राणों को रक्षा के लिए स्त्री के घर से आयी हुई कोई भी वस्तु का भक्षण न करें | वह स्वंय भक्षण करने योग्य भोजनादि के कार्य में स्त्रियों को नियुक्त न करें-75 | राजा द्वारा जब सजातीय कुटुम्बियों के लिए तंत्र (सैन्य ) व कांश बढ़ाने वालो जीविका दी जाती है तो वे विकारयुक्त हो जाते हैं। जब राजा निकाटती लोगों को सम्मान देकर जीवनपर्यन्त ठनका संरक्षण करता है तो वे अभिमानश (राज्यलोभ से) राजा के घातक हो जाते हैं। राजा को अपने पर श्रद्धा रखने वाले, भक्ति के बहाने कभी विरुद्ध न होने वाले. नम्र विश्वसनीय र अज्ञाकारी सजातीय कुटुम्बी व पुत्रों का संरक्षण करते हुए उन्हें योग्य पदों पर नियुक्त करना चाहिए । जन्न राजा के समातीय कुटुम्बी लोग तंत्र (सैन्य) कोशशक्ति से अलिष्ट हो जाय , उस समय उनके वश करने का उपाय यह है कि वह अपने शुभचिन्तक प्रामाणिक पुरुषों को अग्रसर नियुक्त कर उनके द्वारा कुटुम्बियों को अपने में विश्वास उत्पन्न कराये अथवा उनके पाय गुप्तचर नियुक्त करें । पुत्र. भायां बगैरह कुटुम्बोजनों का मूर्खतापूर्ण दुराग्रह अच्छी युक्तियों द्वारा नष्ट कर देना चाहिए।
(5) प्रजापालन:- वह क्या राजा है, जो अपनी प्रजा को रक्षा नहीं करता है-1 राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजाकार्य को स्वंग ही देखें । जिस प्रकार ग्वाला आलस्य रहित होकर बड़े प्रयत्न से गायों की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। राजा के रक्षणकार्य को कुछ रीतियों निम्नलिखित है, जिन्हें ग्वाले के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है
(क) अनुरुप दण्ड देना:- यदि गायों के समूह में से कोई गाय अपराध करती है तो वह ग्वाला उसे अंगच्छेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता हुआ अनुरुप दण्ड से नियंत्रित कर जैसे उसको
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रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षा करना चाहिए। कठोर दण्ड देने वाला राजा अपनी प्रजा को अधिक उद्विग्न कर देता है । इसलिए प्रजा उसे छोड़ देती है तथा मन्त्री आदि प्रकृतिजन भी ऐसे राजा के विरक्त हो जाते हैं
(ख) मुख्यवर्ग की रक्षा :- जिस प्रकार ग्वाला अपनी गायों के समूह में मुख्य पशुओं के समूह की रक्षा करता हुआ पुष्ट (सम्पत्तिवान्) होता है, क्योंकि गायों की रक्षा करके वह विशाल गोधन का स्वामी हो सकता है. उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्यवर्ग की प्रमुख रूप से रक्षा करता हुआ अपने और दूसरे के राज्य में पुष्टि को प्राप्त होता है जो राजा अपने अपने मुख्य बल ये पुष्ट होता है वह समुद्रान्त पृथ्वी को बिना किसी यत्न के जीत लेता है * ।
(ग) घायल और मृत सैनिकों की रक्षा :- यदि प्रमाद से किसी गाय का पैर टूट जाय तो ग्वाला बाँधना आदि उपायों से उस पैर को जोड़ता है, गाय को बाँधकर रखता है, बंधी हुई गाय को तृण देता है और उसके पैर को मजबूत करने का प्रयत्न करता है तथा पशुओं पर अन्य उपद्रव आने पर भी वह उसका शीघ्र प्रतीकार करता है, इसी प्रकार राजा को चाहिए कि वह सेना में घायल हुए योद्धा को उत्तम वैद्य से औषधि दिलाकर उसकी विपत्ति का प्रतीकार करे और वह खीर जन्न अच्छा हो जाय तो उसकी आजीविका का विचार करे। ऐसा करने से भृत्यवर्ग सदा सन्तुष्ट बने रहते हैं। जिस प्रकार ग्वाला गोठ से गाय की हड्डी विचलित हो जाने पर उस हड्डी को वहीं पैलता हुआ उसका योग्य प्रतीकार करता है, उसी प्रकार राजा को भी संग्राम में किमी मुख्य मृत्य के मर जाने पर उसके पद पर उसके पुत्र अथवा भाई को नियुक्त करना चाहिए। ऐसा करने से नृत्यलोग 'यह राजा बड़ा कृतज्ञ हैं' ऐसा मानकर अनुराग करने लगेंगे और अवसर पड़ने पर निरन्तर युद्ध करने वाले बन जायेंगे 20 |
(घ) सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान :- गायों के समूह को कोई कीड़ा काट लेता है तो ग्वाला योग्य औषधि देकर उसका प्रतीकार करता है, उसी प्रकार राजा को भी चाहिए कि अपने सेवक को दरिद्र अथवा खेदखिन्न जान उसके चित्त को सन्तुष्ट करे ! जिस सेवक को उचित आजीविका प्राप्त नहीं है, वह अपने स्वामी के इस प्रकार के अपमान से विरक्त हो जायेगा. अतः राजा कभी अपने सेवक को विरक्त न करे। सेवक को दरिद्रता को घाव के स्थान में कीड़े उत्पन्न होने के समान जानकर राजा को शीघ्र ही उसका प्रतीकार करना चाहिए। सेवकों को अपने स्वामी से उचित सम्मान प्राप्त कर जैसा सन्तोष होता है, वैसा सन्तोष बहुत धन देने पर भी नहीं होता है । जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओं के झुण्ड में किसी बड़े बैल को अधिक भार धारण करने में समर्थ जानकर उसके शरीर की पुष्टि के लिए नाक में तेल डालना आदि कार्य करता है, उसी प्रकार राजा को भी चाहिए कि वह अपनी सेना में किसी योद्धा को अत्यन्त उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सम्मानित करे। जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करने वाले वीर पुरुष को उसके योग्य सत्कारों से सन्तुष्ट रखता है, उसके भृत्य उस पर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते हैं ।
(ङ) योग्य स्थान पर नियुक्ति :- जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओं को काँटे और पत्थरों से रहित तथा शीत और गर्मी आदि की बाधा से शून्य बन में चराता हुआ बड़े प्रयत्न से उसका पोषण करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपने सैनिक को किसी उपद्रवहीन स्थान में रखकर
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उनकी रक्षा करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य का परिवर्तन होने पर, चोर, डाकू तथा समीपवर्ती अन्य राजा लोग उसके इन सेवकों को पीड़ा देने लगेंगे
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(च) कण्टक शोधन :- राजा को चाहिए वह चोर, डाकू आदि की आजीविका बलात् नष्ट कर दें, क्योंकि काँटो को दूर कर देने से ही प्रजा का कल्याण हो सकता है ।
(छ) सेवकों को आजीविका देना:- जिस प्रकार ग्वाला नवीन उत्पन्न हुए बच्चे को एक दिन तक माता के साथ रखता है, दूसरे दिन दया युक्त हो उसके पैर में धीरे से रस्सी बांधकर खूँटी से बाँधता है, उसकी जरायु तथा नाभि के नाल को बड़े यत्न से दूर करता है, कीड़े उत्पन्न होने की शंका होने पर उसका प्रतीकार करता हैं। और दूध पिलाना आदि उपायों से उसे प्रतिदिन बड़ता है, उसी प्रकार राजा को भी चाहिए कि वह आजीविका के हेतु अपनी सेना के विरुद्ध आये हुए सेवकों को उनके योग्य आदर सम्मान से सन्तुष्ट करे और जिन्हें स्वीकृत कर लिया है तथा जो अपने लिए क्लेश सहन करते हैं ऐसे उन सेवकों की प्रशस्त आजीविका आदि का विचार कर उनके साथ योग और क्षेम का प्रयोग करना चाहिए । अर्थात जो वस्तु उनके पास नहीं है. उन्हें देनी चाहिए और जो वस्तु उनके पास है, उसकी रक्षा करनी चाहिए ।
वह
(ज) योग्य पुरुषों की नियुक्ति :- शकुन आदि का निश्चय करने में तत्पर रहने वाला ग्वाला जब पशुओं को खरीदने के लिए तैयार होता है तब वह ( दुध आदि की) परीक्षा कर उनमें से अत्यन्त गुणी पशु खरीदता है, उसी प्रकार राजा को भी परीक्षा किए हुए उच्चकुलीन पुत्रों को खरीदना चाहिए और आजीविका के मूल्य से खरीदे हुए उन सेवकों को समयानुसार योग्य कार्य में लगा देना चाहिए क्योंकि यह कार्यरूपी फल सेवकों द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। जिस प्रकार पशुओं को खरीदने में किसी को प्रतिभू (साक्षी) बनाया जा सकता है उसी प्रकार सेवकों का संग्रहण करने में भी किसी बलवान् पुरुष को प्रतिभू (साक्षी) बनाना चाहिए ।
(झ) कृषिकार्य में योगदेना:- जिस प्रकार ग्वाला रात्रि में प्रहरमात्रशेष रहने पर उठकर जहाँ बहुत सा घास, पानी होता है ऐसे किसी योग्य स्थान में गाय को बड़े प्रयत्न से चराता है तथा बड़े सवेरे ही वापिस लाकर बछड़े के पीने से बाकी बचे हुए दूध को मक्खन आदि प्राप्त करने की इच्छा से दुह लेता है, उसी प्रकार राजा को भी आलस्यरहित होकर अपने अधीन ग्रामों में बीज देना आदि साधनों द्वारा किसानों से खेती कराना चाहिए। वह अपने समस्त देश में किसानों द्वारा भली भाँति खेती कराकर धान्य संग्रह करने के लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश ले। ऐसा होने से उसके भंडार आदि में बहुत सी सम्पदा इकट्ठी हो जायेगी। उससे उसका बल बढ़ेगा तथा सन्तुष्ट करने वाले धान्यों से उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जाएगा ।
(ज) अक्षरम्लेच्छों को वश में करना :- अपने आश्रित स्थानों पर प्रजा के दुख देने वाले जो अक्षरप्ले हैं। उन्हें कुल शुद्धि प्रदान करना आदि उपायों से अपने अधीन करना चाहिए। अपने राजा से सत्कार पाकर वे फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओं से उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते रहेंगे। जो अक्षरम्लेच्छ अपने ही देश में संचार करते हो, उनसे राजा को कृषकों की तरह कर अवश्य लेना चाहिए * । जो अज्ञान के बल से अक्षरों द्वारा उत्पन्न हुए अंहकार को धारण करते हैं, पापसूत्रों से आजीविका करने वाले वे अक्षरम्लेच्छ
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कहलाते हैं । हिंसा करना, मांस खाने से प्रेम रखना, बलपूर्वक दूसरे का घन अपहरण करना और धूर्तता करना यही म्लेच्छों का आचार है ।
(ट) प्रजारक्षण :- राजा को तृण से समान तुच्छ पुरुष की पी रक्षा करना चाहिए जिस प्रकार ग्याला आलस्य रहित होकर अपने मोघन की व्याघ्र, चोर आदि उपद्रवों से रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षा करना चाहिए जिस प्रकार ग्वाला उन पशुओं की देखने की इच्छा से राजा के आने पर भेट लेकर उनके समीप जाता है और धन सम्पदा के द्वारा उसे सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्य के मम्मुन्न आवे तो वृद्ध लोगों के साथ विचार कर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए कि युद्ध बहुस से लोगों के विनाश का कारण है, उसमें बहुत सी हानियां होती है और उसका भविष्य पी बुरा होता है अतः कुछ देकर बलवान् शत्रु के साथ सन्धि कर लेना ही ठीक है ।
(6) सामजस्य अथवा सपनसत्त्व धर्म का पालन:- राजा अपने चित्त का समाधान कर जो दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करता वही उसका सामन्जस्य गुण कहलाता है जो राजा निग्रह करने योग्य शत्रु अथवा पुत्र दोनों का निग्रह करता है. जिसे किसी का पक्षपात नहीं है, जो दुष्ट और मित्र सभी को निरपराध बनाने की इच्छा करता है और इस प्रकार माध्यस्थ्यभाष रखकर सो सर पर समान दृष्टि रखता है वह समंजस कहलाता है। प्रजा को विषम दृष्टि से न देखना तथा सब पर समान दृष्टि रखना समज्जसत्त्व धर्म है। इस समंजमत्व गुण मे ही राजा को न्यायपूर्वक आजीविका करने वाले शिष्ट पुरुषों का पालन और दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिए । जो पुरुष हिंसा आदि दोषों में तत्पर रहकर पाप करते हैं वे दुष्ट कहलाते हैं और जो क्षमा, सन्तोष आदि के द्वारा धर्म धारण करन में तत्पर रहते हैं वे शिष्ट कहलाते हैं। ___आचार्य सोमदेव ने भी कहा है - अपराधियों को सजा देना (दुष्ट निग्रह ) और सज्जनों की रक्षा करना ( शिष्ट परिपालन) राजाओं का धर्म हैं300 । जो व्यसनी पुरुष के हृदय प्रिय बनकर अनेक नैतिक उपाय द्वारा उसे उन अभिलषित वस्तुओं (मद्यपानादि) से, जिनमें उमे व्यसन (निरन्तर आसक्ति) उत्पन्न हुआ है, विरक्ति उत्पन्न करते हैं. उन्हें योगपुरुष (शिष्ट) कहते है। राजलक्ष्मी की दीक्षा से अभिषिक्त अपने शिष्टमण्डल परिपालन व दुष्टनिग्रह आदि सदगुणों के . कारण प्रभा में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाला राजा विष्णु के समान कहा गया है । साघु पुरुषों के साथ अन्याय का व्यवहार करने वाला अपने हाथों से अंगार खींचने के ममान अपनी हानि करता है। | राजा आज्ञाभंग करने वाले पुत्र पर भी क्षमा न करे जिसकी आज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लघंन की जाती है, उसमें और चित्र के राजा में क्या अन्तर है? जो राजा शिष्ट पुरुषों के साथ नम्रता का व्यवहार करता है वह इसलोक और स्वर्ग में पूजा जाता है ।
(7) दुराचार का निषेध करना - दुराचार का निषेध करने से घमं, अर्थ और काम तीनों की वृद्धि होती है, क्योंकि कारण के विद्यमान होने पर कार्य को हानि नहीं देखी जाती है।
(8) लोकापवाद से भयभीत होना- राजा को लोकापवाद से डरते हुए कार्य करना चाहिए, क्योंकि लोक में यश ही स्थिर रहने वाला है। सम्पत्तियाँ तो दिनाशशील है।
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राजमण्डल के प्रति कर्तव्य :- राजमण्डल निम्नलिखित समूह से बनता है :(1) उदासीन (2)मध्यम (3) विजिगीषु (4) अरि (S) मित्र (6) पाणिग्राह (7) आक्रन्द (8) आसार (9) अन्तर्दिध । राजा को इन्हें अपने अनुकूल रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
उदासीन :- अपने देश में वर्तमान जो राजा किमी अन्य विजिगीषु (विजय के इच्छुक ) राजा के आगे, पीछे या समीपत्रों स्थित हो और मध्यम आदि युद्ध करने वालों के निग्रह करने में और उन्हें युद्ध से रोकने में सामर्थ्यवान् होने पर भी किसी कारण से या किसी अपेक्षानश दूसरे राजा के प्रति जो उपेक्षाभाव रखता है, उससे युद्ध नहीं करता है, उसे उदासीन कहते हैं ।
मध्यम या मध्यस्थ - जो उदासीन की तरह मर्यादातीत मण्डल का रक्षक होने से अन्य राजा की अपेक्षा प्रबल सैन्य शक्तिशाली होने पर भी किसी रणवत्र विजय की कामना करने वाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता है, उसे मध्यस्थ कहते हैं"।
विजिगीषु-जो राज्याभिषेक से अभिषिक्त हो चुका हो तथा भाग्यशाली खजाना आदि द्रव्य से युक्त, मंत्री आदि प्रकृति से संयुक्त, राजनीति में निपुण एवं शूरवीर हो उसे विजिगीषु कहते
अरिं - जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हुआ कभी भी प्रतिकूल आचरण करने से बाज नहीं आता उसे अरिं कहते है।
मित्र - मित्र का लक्षण पहले कहा जा चुका है।
पाणिग्राह - विजिगीषु के शत्रु राजा के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर बाद में जो कूद्ध होकर उसके देश को नष्ट भृष्ट कर डालता है, उसे पाणिग्राह कहते हैं।
आक्रन्द - जो प्राणिग्राह से विपरीत चलता है अर्थात विजगोषु की विजययात्रा में हर प्रकार से सहायता करता है, उसे आक्रद कहते हैं । __ आसार - जो पाणिग्राह से विरोध रखता हो और आनन्द का मित्र हो, वह आसार हं"।
अन्तर्दिय- शत्रु और विजिगीषु दोनों राजाओं से जीविका प्राप्त करने वाला तथा पर्वत और अटवी में रहने वाला अन्तर्धि है। .
शा के कटुम्चियों के प्रति राजकर्तव्य - राजा शत्रु का अपकार करके ठमके शक्तिहीन कुटुम्बियों को भूमिप्रदान कर उन्हें अपने अधीन बनाए अथवा ( यदि बलिष्ट हों तो ) उन्हें क्लेशित करे ।
परदेश में रहने वाले स्वदेशी व्यक्ति के प्रति राजकर्तव्य - राजा का कत्र्तव्य है कि वह परदेश में प्राप्त हुए अपने स्वदेशवासी मनुष्य को, जिससे कि इसने कर ग्रहण किया हो अथवा न मी किया हो, दान सम्मान से वश में करे और अपने देश के प्रति अनुरागी बनाकर उसे वहां से लौटाकर अपने देश में बसाए |
सहायकों के प्रति राजकर्तव्य - कार्य के समय सहायकपुरुषों का मिलना दुर्लभ है। अत: स्वामी को अपने अधीन सेवकों को इतना पर्याप्त घन देना चाहिए, जिससे वे पत्तुष्ट हो
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सके । उपजाऊ खेत में खोए हुए बीज को तरह महायन्त्र-पुरुषों को दिया हुआ धन निःसन्देह अनेक फल देता है सहायक पुरुषों के संग्रह की अपेक्षा धन को उत्कृष्ट नहीं मानना चाहिए | राजदोष तथा स्वंय के अपराधों के कारण जिनकी जी का नष्ट कर दी गई है। वे मन्त्री आदि क्रोधी, लोभी, भीत और तिरस्कृत होते हैं, उन्हें कृत्या के समान महाभंयकर जानना चाहिए। मंत्री और पुरोहित हितैषी होने के कारण राजा के माता पिता अतः उसे उनको किसी भी अभिलषित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिए | समस्त क्रोधों की अपेक्षा मन्त्री और सेनापति आदि) प्रकृत्ति का क्रोध विशेष कष्टदायक होता है । राजाओं को अपने समस्त कार्यों का आरम्भ सुयोग्य मंत्रियों को सलाह से करना चाहिए । जो राजा मंत्रियों की बात का उल्लंघन करता है. उनको बात नहीं सुनता है, वह राजा नहीं रह सकता है। अतः राजा अपने आश्रित ( आमात्य आदि) के साथ अनुरक्त दृष्टि और मधुर भाषण आदि का व्यवहार समान रखें, क्योंकि पक्षपातपूर्ण समदृष्टि से राजतन्त्र की श्रीवृद्धि होती हैं व अमात्य आनंद उससे अनुरक्त रहते हैं । जिनके अपराध कौटुम्बिक सम्बन्ध आदि के कारण दवाई करने के अयोग्य हैं ऐसे अपराधियों को खाई खुदवाना, किले में काम कराना, नदियों के पुल बंधवाना खान से धातु निकलवाना आदि कार्यो में नियुक्त कर क्लेषित करे-2 | कृत्वा के समान राज्यक्षति करने वाले कारणवश शुभ हुए अधिकारियों को वश में करने के निम्नलिखित उपाय हैं।
(1) अधिकारियों की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना । ( 3 ) त्याग - धन देना ।
(2) अभयदान् । (4) सत्कार |
व्यापारियों के प्रति राजकर्तव्य : तालने और नापने के पात्र जहाँ अव्यवस्थित होते हैं, वहाँ व्यवहार नष्ट हो जाता है। जिसके राज्य में व्यापारी (वणिग्जन) वस्तुओं का मूल्य स्वेच्छानुसार बढ़ाकर धनसंचय करते हैं, वहाँ प्रजा को और बाहर से आए हुए लोगों को कष्ट होता हुँ । अतः समस्त वस्तुओं का मूल्य देश काल पदार्थ की अपेक्षा होना चाहिए । राजा को उन व्यापारियों की जाँच पड़ताल करना चाहिए जो बहुत मूल्य वाली वस्तु व अल्पमूल्य वाली वस्तु की मिलावट करते हैं अभवा नापने तोलने के घाटों में कमी बढ़ती रखते हैं | यणिग्जनों को छोड़कर दूसरे कोई प्रत्यक्ष चोर नहीं है" । यदि व्यापारी लोग स्वार्थवश वस्तु का मूल्य बढ़ा दें तो राजा उमे यथोचित मूल्य पर उसे बिक बाए अन्न का संग्रह करके अकाल पैदा करने वाले व्यापारी अन्याय की वृद्धि करते हैं। इससे तन्त्र (सैन्य आदि) तथा देश का नाश हो जाता है। वाधुषिकों लोभवश राष्ट्र का अन्न वगैरह संचित कर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारियों को कार्य, अकार्य के विषय में लज्जा नहीं होती है
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अन्य कर्त्तव्य - राजा मौके पर अपना राजदरबार खुला रखे, जिसमे प्रजा उसका दर्शन सुलभता से कर सके। वह अपना प्रयोजन ऐसे व्यक्ति से न करे जो उसे सिद्ध करने में असमर्थ हो, ऐसा जंगल में रोने के समान है। राजा को अपराधी के साथ कथागोष्टी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग घर में प्रविष्ट हुए साँप की तरह समस्त आपित्तयों के आगमनद्वार होते हैं। बुद्धि, धन और युद्ध में जो सहायक होते हैं, वे कार्य पुरुष हैं। जिस राजा के बहुत से महायक होते हैं उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। राजा को अपने सहायकों की परीक्षा करना चाहिए। जिस तरह भोजन के समय सभी सहायक हो जाते है, उसी प्रकार सामान्य स्थिति में सभी सहायक होते हैं। जो विपत्ति के समय सहायक हो, वही सच्चा सहायक है।
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राजा के गुण - पद्धचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण -रविषेण के अनुसार राजा कोशूरवीर होना चाहिए । शूरवीरता के द्वारा राजा समस्त लोगों की रक्षा करता है । राजा को नीतिपूर्वक कार्य करना चाहिए। जो राजा अहंकार से ग्रस्त नहीं होता, शस्त्रविषयक व्यायाम से विमुख नहीं होता, आपत्ति के समय कभी व्यग्र नहीं होता, जो मनुष्य उसके समक्ष नम्रीभूत होते हैं उनका सम्मान करता है, दोषरहित सज्जनों को ही रत्न समझता है, जिसमें दान दिया जाता है ऐसो क्रियाओं को कार्यसिद्धि का श्रेष्ठ साधन समझता है*, समुद्र के समान गम्भीर होता है तथा परमार्थ को जानता है ऐसा राजा श्रेष्ठ माना गया है। राजा को जिनशासन (धर्म) के रहस्य को जानने वाला, शरणागत वत्सल, परोपकार में तत्पर, दया से आदींचत, विज्ञान विशुरु हृदय वाला. निन्द कार्यो से निवृत्तबुद्धि पिता के समान रक्षक, प्राणिहित में तत्पर, दीन हीन आदि का तथा विशेषकर मातृजाति का रक्षक, शुद्धकार्य करने वाला, शत्रुओं को नष्ट करने वाला. शस्त्र और शास्त्र का अभ्यासी, शान्तिकार्य में शांवट से रहित, परस्त्री को अजगर सहित कूप के समान जानने वाला. मंदार शत के भरा से भार्ग में
समादी और सी तरह मे इन्द्रियों को वश में करने वाला होना चाहिए । जो राजा अतिशय बलिष्ठ तथा शूरवारों की चेष्टा को धारण करने वाले होते हैं वे कभी भी भयभीत, ब्राह्मण निहत्थे, स्त्री, बालक, पशु और दूत पर प्रहार नहीं करते हैं। बहुत बड़े खजाने का स्वामी होकर जो राजा पृथ्वी को रक्षा करता है और परचक्र (शत्रु) के द्वारा अभिभूत होने पर भी जो विनाश को प्राप्त नहीं होता तथा हिंसा धर्म में रहित एवं यज्ञ अादि में दक्षिणा देने वाले लोगो की जो रक्षा करता है, उस राजा को भोग पुनः प्राप्त होते हैं: । श्रेष्ठ राजा लोकतन्त्र को जानने वाला होता है। राजा अस्त्र वाहन कवच आदि देकर अन्य राजाओं का सम्मान करता है । राजा सत्य बोलने वाला तथा जीवों का रक्षक होता है । जीवों की रक्षा करने के कारण राजा ऋषि कहलाने योग्य है, क्योंकि जो जीवों की रक्षा में तत्पर है के हो ऋषि कहलाने
घरांगचरित में प्रतिविम्बित राजा के गुण -वगंगचरित में धर्मसेन और वगंग आदि राजाओं के गुणों का वर्णन किया गया है। इन गुणों को देखने पर ऐसा लगता है कि जटासिंहन्दि उपर्युका राजाओं के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वर्णन कर रहे हैं। इस दुष्टि से एक अच्छे राजा के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं ।
राजा को आख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी. दुढ़ मैत्री रखने वाला, प्रमाद, अहंकार, मोह तथा ईष्यां से रहित. सज्जनों और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर मित्रों वाला, मधुरभाषी, निर्लोभी, निपुण्य और वन्धु वान्धवों का हितेषा होना चाहिए । इसका आन्तरिक और वाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार हो कि वह मौन्दर्य द्वारा कामदेव को, न्यायनिपुणता से शुक्राचार्य को, शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा इन्द्र को. दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गम्भीरता तथा सहनशीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभविक विनय से उत्पन्न उदार आचरणों तथा महान् गुणों द्वारा वह उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैर की दृढ़ गाँठ गाँध ली हो। वह कुल शील, पराक्रम, ज्ञान, धर्म तथा नीति में बढ़ चढ़कर हो । राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें, उसके मित्र समोप में
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हो और वह हर समय सम्बन्धियों से आश्रित न रहे। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है, वही दूसरों को जगा सकता है। जो स्वयं स्थिर है, वह दूसरों की डगमग अवस्था का अन्त कर सकता है। जो स्वयं नहीं जागता है और जिसको स्थिति अत्यन्त डॉवाडोल है, वह दूसरों को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता है* । राजा की कोर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कि वह न्यायनीति में पारंगत, दृष्टों को दण्ड देने वाला. प्रजा का हितैषी और दयावान है। राजा राज सभा में पहिले जो घोषणा करता है, उसके विपरीत आचरण करना आयुक्त तथा धर्म के अत्यन्त विरुद्ध है। इस प्रकार के कार्य का सज्जनपुरुष परिहास करते हैं । राजा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थी का इस ढंग से सेवन करे कि उसमें से किसी एक का अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित क्रम को अपनाने वाला राजा अपनी विजयपताका फहरा देता है 361 | राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह प्रातः काल से सन्ध्या समय तक पुण्यमय उत्सवों में व्यस्त रहे। अपने स्नेही बन्धु, बान्धव, मित्र तथा अर्थिजनों को भेंट आदि देता रहे * । ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा की दृष्टि में प्रामाणिक होती है, अतः वह उस पर अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक आपत्तियों में भी कम नहीं होना चाहिए। संकट के समय भी वह किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे अपने कार्यों का इतना अधिक ज्ञान हो कि कर्तव्य अकर्त्तव्य, शत्रु पक्ष आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रु के स्वभाव को जानने में उसे देर न लगे । जिस राजा का अभ्युदय बढ़ता है उसके पास अङ्गनायें, अच्छे मित्र, बान्धव, उत्तम रत्न श्रेष्ठहाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ आदि हर्ष तथा उल्लास के उत्पादक नूतन-नूतन साधन अनायास ही आते रहते है 65 1 रांजा का यह कतंत्र्य है कि वह राज्य में पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुढों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी भी कार्य के अयोग्य श्रमिकों. अनाथ, अन्धीं, दोनों तथा भंयकर रोगों में फसे हुए लोगों की सामर्थ्य, अमामर्थ तथा उनको शारीरिक, मानसिक दुर्बलता आदि का पता लगाकर उनके भरण पोषण का प्रबन्ध करे। जिन लोगों का एक मात्र कार्य धर्मसाधना हो उसे गुरु के समान मानकर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले किए गए वैर की क्षमा याचना करके शान्त करा दिया हो उनका अपने पुत्रों के समान भरण पोषण करे, किन्तु जो अविवेकी घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ़ चढ़कर चलें अथवा दूसरों को कुछ न समझें उन लोगों को अपने देश से निकाल दे । जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभाव से कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें, अपने कर्त्तव्यों आदि को उपयुक्त समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा पुरस्कार आदि देने में वह अत्यन्त तीव्र हो । राजा को प्रजा का अत्यधिक प्यारा होना चाहिए। वह सत्र परिस्थितियों में शान्त रहे और शत्रुओं का उन्मूलन करता हुआ अपनी ऋद्धियों को बढ़ाता रहे
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द्विसन्धान महाकाव्य में प्रतिबिम्बित राजा के गुण द्विसन्धान महाकाव्य में धनञ्जय ने दशरथ, पाण्डु, राम, कृष्ण आदि राजाओं और उनके गुणों का वर्णन किया है। उक्त वर्णन के आधार पर राजा के गुणों के विषय में निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है -
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राजा को ऋषियों द्वारा प्रणेत धार्मिक संयम के विषय में दिन रात जागरुक, चन्द्रमा को क्रान्ति के समान धवल, नगर लक्ष्मी के मुख की शोभा का विकासक, वृद्धिगत राजलक्ष्मी का स्वामी. भीषण पराक्रमी, गुरु को कुलदेवता मानकर अपनी सम्पत्ति देने वाला, अपने भाई बन्धुओं को
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गुरु के समान बहुत मानने वाला, अपने अनुगामियों को अपने समान समझने वाला तथा अपने वंश के अनुरूप सेवकों को भी मित्र के समान सम्मान देनेवाला होना चाहिए। उपस्थित यथायोग्य समस्त कार्यों को करते समय वह आधीक्षिकी, त्रयो, वाता, दण्डनीति इन चार प्रकार की राजविद्या, व्यवहार तथा सामादि उपायों के विचार को एक क्षण के लिए भी न छोड़े तथा कहीं भी हाथी. स्थ, घोड़ा तथा पदातिमय सेना से अलग न हो । उसे दूसरों की सुखप्राप्ति तथा दु:ख हानि की चिन्ता से प्रेरित होकर स्वयं ही लोकोपकारक कार्यों में लगा रहना चाहिए। अपने वैभव और सम्पत्ति के कारण उसके मन में अहंकार न आए । वह कभी भी प्रमाद में न पड़े और न खेदखिन्न हो हो तथा अपने दिन-रात के कार्यो का विभाजन करके जीवन व्यतीत करे राजा का जन्म हो परमार्थ के लिए होता है । वह संसार के विनाश के भय से शत्रुओं का संहार करता है, सन्तान को इच्छा से कामसेवन करता है, प्रजा से कर भी दूसरों को देने के लिए लेता है। राजा को अप्रमादी होने के लिए आवश्यक है कि वह उस घोड़े या हाथी पर न चढ़े जिस पर अनुगत आत्मीयजन न बैठ चुके हों. उस वन में न जाए, जिसमें पहिले उसके आदमी न घूम आए हों । सिद्ध आदि वेषधारी साधुओ से यकायक भेट न करें और अन्त:पुर में भी अकेला प्रवेश न करे । राजा का आचरण ऐसा होना चाहिए जिसके कारण न तो शत्रु उसको निन्दा कर पायें और न उन्हें इस पर अनुग्रह करने का ही अवसर मिले । उसका आक्रमण न तो सिंह अविपारित और आत्मविनाशक आक्रमण के समान हो और न उसकी कूटनीति का प्रयोग श्रृंगाल के समान अत्यधिक भयभीत होकर चलने का हो । राजा का रोप तथा प्रसन्नता रूपी गुण वटवृक्ष के समान बिना फूल दिए ही फल दें। जब वह शत्रुओं का संहार करना चाहे तभी रुष्ट हो और जब (दूसरों को) धनादि देने को इच्छा करे, तभी प्रसन्न हो । युवकों और वृद्धों के विरोध की वह दूर करे । राजा के वचन सत्य हों, अनुष्ठानों का परिणाम उपयुक्त और अनुकूल हो. कृतज्ञता को यह अपनी विशाल सम्पत्ति से नापे, उसको अभिलाषित विजय की इच्छा समस्त दिशाओं में व्याप्त हो तथा कुटुम्बिता की भावना समस्त संसार के भरणपोषण में समर्थ हो ।
राजा का यह धर्म है कि वह नोतियों का प्रतिपालक व सज्जनों का रक्षक हो तथा उसके राज्य में अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि इलियों की प्रचुरता न हो ।न्यायमार्ग में लीन रहकर सबको सुखकर शर्मिक राज्य द्वारा राजा अपना तथा प्रजा का माहात्म्य प्रकट करे381 1 नीतिशास्त्र का यही प्रश्चम पाठ है कि राजा अपने छिद्रों और शत्रु के आधातों को शान्त कर दे तथा वैभव के द्वारा अपने पक्ष दुर्ग आदि अथवा शत्रु पर किए प्रबल प्रहारो को मुष्ट करे तथा शत्रु की दुर्बलताओं
और समर्थकों को अपने वश में करे। राजा को चंचल नहीं होना चाहिए । स्वयं जो चंचल होता है वह अतिक्रमणशील के सामने नहीं टिक सकता है तथा उसे निराश होकर लौटना पड़ता है । जो राजा वीर होता है यह बाहु से शास्त्र ग्रहण करके प्रिय लोगों के दुःख का विनाश करता है, किन्तु हा हा शब्द से निन्दित वंश परम्परा के उन्मूलक भीरु के द्वारा कुछ भी नहीं होता है। महान् धैर्य, पराक्रम, गम्भीरता तथा समय से अपना कार्य पूरा करने की प्रकृति के धारक राजा और समुद्र में क्षोम के सिवा कोई अन्तर नहीं होता है जिस राजा का अपना सामन्त मण्डल दुर्बल अथवा उदासीन हो तथा प्रबल शत्रु के ग्रहार हो रहे हॉ वह अपने राज्य से च्युत हो जाता है । राजा को अनाचरण नहीं करना चाहिए । निराकरण करने रूप से पापाचरण में लीन लोगों की चर्चा करने पर भी सुनने वालों को शान्ति हो जाती है तथा अनीतिमान् का निर्वाह हो जाता है किन्तु लोकलाज
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छोड़कर यदि देवतास्वरूप नृपति ही अनाचरण करने लगे तो कैसे चलेगा ? जो राजा दुष्ट होता है वह कैचे पदार्थ (या व्यक्ति) को नीचा कर देता है, नीचे से नीचे पदार्थ (या व्यक्ति) उसे ऊँचे प्रतीत होते है16 | इस प्रकार उसे कर्त्तव्य, अकर्तव्य का भेद समझ में नहीं आता है राआओं को राजलक्ष्मी का अहंकार नहीं करना चाहिए तथा लक्ष्मी की प्राप्ति की अभिलाषा को मन्द रखना चाहिए, क्योंकि अन्त में शरीर भी पृथ्वी का पालन करने में असमर्थ होकर नीरस हो जाता है। केवल लौकिक कार्यों में कृत्कृत्य होने से ही जीवन चरितार्थ नहीं होता, जन्मान्तर की साधना भी आवश्यक है जिस प्रकार केवल दुपट्टे (उत्तरीय) से ही शरीर की लज्जा नहीं हैकती है अपितु परिधान (अधरोय) भी आवश्यक होता है । मृत्युकाल उपस्थित होने पर भी राजा को प्रकृति पें स्थिर, महान पराक्रमी तथा मनोभावों का शासी होना चाहिए. मन से व्याकुल होकर कदापि नहीं रहना चाहिए, क्योंकि अन्त समय आने पर मृत्यु भोत पुरुष को भी नहीं छोड़ती है। सम्पत्ति, शिक्षा, न्याय, स्थायित्व और प्रेम के लिए शस्त्र उठाने वाले प्रखर सेजस्ती राजा शत्रुओं को अपने रोष से ही कोलित कर देते हैं जो राजा राजनीति की भूमि के ऊपर आमात्यादि सात राजतन्त्र के मूलों को स्थिर करता हुआ समस्त दिशाओं में अपने कुल के ही शरता राजाओं का प्रसार करता है तथा अनायास ही सुख शान्ति रूप फलों को देता है वह राजा जनता के लिए कल्पवृक्ष के समान होता है।
__ वादीमसिंह के काथ्यों में प्रतिबिम्बित राजा के गुण - वादीसिंह के अनुसार राज्य को प्राप्त कर श्रेष्ठ राजा समस्त गुणों से सुशोभित होता है । हार में पिरोया गया काँच निंदापने का प्राप्त होता है, किन्तु मणिप्रशस्तपने को ही प्राप्त होता है । दु:सह प्रताप के रहने पर भी श्रेष्ट राजा में सुखोपसेव्यता, सुकुमार रहने पर भी आर्यजनों के योग्य उत्तम आचार, अत्यधिक साहसी होते हुए भी समस्त मनुष्यों की विश्वासपात्रता, पृथ्वी का भार धारण करने पर भी अख्त्रिता.निरन्तर दान देने पर भी कोश को अक्षीणता, शत्रुओं के तिरस्कार की अभिलाषा होने पर भी परमकारुणिकता, काम की परतन्त्रता होने पर भी अत्यधिक पवित्रता देखी जाती है। उनको इष्टफल की प्राप्ति, कार्यारम्भ की, विधा को, प्राप्ति बुद्धि को, शत्रुओं का क्षय पराक्रम को, मनुष्यों का अनुराग पर हिततत्परता का,अनाक्रमण प्रताप को, विरुदावली दातको, कवियों का संग्रह काव्यरस को अभिज्ञता को, कल्याण रूप सम्पत्ति दृढ़ प्रतिज्ञा को, लोगों के द्वारा अपने कार्यों को उल्लंघन न होना न्यायपूर्ण नेतृत्व को, धर्मशास्त्र के श्रवण करने की इच्छा तत्वज्ञान को. मुनिजनों के चरणों में नम्रता दुष्ट अभिमान के अभाव को, दान के जल से गोला किया हुआ हाथ माननीयता को. जिनेन्द्रदेव की पूजा परमधार्मिकता को और छुद्र पशुओं का अभाव नीतिनिपुणता को चुपचाप सूचित करता है | जिस प्रकार धान के खेत में बीज बोने वाले किसान आनन्दित होते हैं, उसो प्रकार (उत्तम) राजा को कर देना भी प्रोतिकर होता है । यह पन्दमुसकान से इष्ट कार्य सिद्ध कर आए हुए सामन्तों में, कटाक्षपात से प्रसन्नता को प्राप्त मनुष्यों के लिए हजारों दीनारों के देने में, कर्णदान से अनेक देशों से आने वाले गुप्तचरों के वचन सुनने में, प्रतिबिम्ब के बहाने विशधर राजाओं के मुकुटों में और नेत्र से मित्र के शरीर में निवास करता है। उसके दान गुण के द्वारा कल्पवृक्ष की महिमा मन्द पड़ जाती है19 | वह पराक्रम से राजाओं के शरीर अथवा युद्ध को नष्ट करता है रणरूपी मागर को जीतने के लिए जहाज, तलवार रूपी सर्व के विहार के लिए चन्दन
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वृक्षों का वन और क्षत्रियधर्मरूप सूर्य के लिए उदयाचल स्वरूप उसके द्वारा पृथ्वी खरीद ली जाती है तथा प्रत्येक दिशा में उसके अवस्तम्भ गाड़ दिए जाते हैं । उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त बड़ों की सेवा करना, विशेषज्ञता, नित्य उद्योगी और निराग्रही होना, विद्वानों का एकान्त मेवनीय होना, कानों को आनन्द देने वाले चरित का धारण प्रकृति (मंत्री आदि) को वश में करना, कवियों की मधुर ध्वनि सुनने के लिए लालायति रहना तथा याचकों का मनोरथ पूर्ण करना" राजा के प्रधान गुण हैं |
आदि पुराण में प्रतिविम्बित राजा के गुण राजा अनुराग अथवा प्रेम से अपने मण्डल (देश) को धारण करता है । राजा को अग्रगामी होना चाहिए। यदि राजा आगे चलता है तो अल्प शक्ति के धारक लोग भी उसी कठिन रास्ते से चलने लगते हैं। क्षत्रिय पुत्र को जिसे कोई हरा न कर सके ऐसे यश रूपी धन की ही रक्षा करना चाहिए, क्योंकि इस पृथ्वी में निधियों को गाड़कर अनेक लोग मर चुके हैं। जो रत्न एक हाथ पृथ्वी तक भी साथ नहीं जाते और जिनके लिए राजा लोग मृत्यु प्राप्त करते हैं, ऐसे रत्नों से क्या लाभ है 10 ? राजाओं को वृद्ध मनुष्यों की सलाह मानना चाहिए, क्योंकि उनकी स्थिति विद्या की अपेक्षा वृद्ध मनुष्यों से ही होती है। प्रेम और विनय एन दोनों का मिली तो में ही हो है। यदि उन्हीं कुटुम्बियों के विरोध हो जाय तो उन दोनों की ही गति नष्ट हो जाती है । राजाओं को अपने सम्मान का ध्यान रखना चाहिए | तेजस्वी मनुष्य को जो कुछ अपनी भुजारूपी वृक्ष का फल मिलता है, उनके लिए मोहरूपीलता का फल अर्थात् मोह के इशारे से प्राप्त हुआ चार समुद्र पयंत पृथ्वी का ऐश्वर्य भो प्रशंसनीय नहीं है। जिस प्रकार डुण्डुभ (पनियाँ साँप) साँप इस इस शब्द को निरर्थक करता है. उसी प्रकार जो मनुष्य राजा होकर भी दूसरे की आज्ञा से उपहृत हुई लक्ष्मी को धारण करता है. वह राजा इस शब्द को निरर्थक करता है" । उत्तम राजा पराक्रमयुक्त गम्भीर, उच्चवृत्ति वाला और मर्यादा सहित होता है-", वह केवल प्रजा से कर हो नहीं लेता है, अपितु उसे देता भी हैं। वह प्रजा को दण्ड ही नहीं देता है, अपितु उसकी रक्षा भी करता है। इस प्रकार धर्म के द्वारा उसकी विजय होती है +5 |
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उत्तरपुराण में प्रतिबिम्बित राजा के गुण आचार्य गुणभद्र के अनुसार राजा को आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चार विद्याओं में पारंगत होना चाहिए। जिसकी प्रजा दण्ड के मार्ग में नहीं जाती और इस कारण जो राजा दण्ड का प्रयोग नहीं करता, वह श्रेष्ठ माना जाता है । राजा की दानी होना चाहिए। श्रेष्ठ राजा की दानशीलता से पहले के दरिद्र मनुष्य भी कुबेर के समान आचरण करते हैं। राजा सन्धिविग्रहादि छह गुणों से सुशोभित हो और छह गुण उससे मुशोभित लृ । पुण्यवान् राजा का शरीर और राज्य बिना वैद्य और मंत्री के ही कुशल रहते है" । राजा का धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में, आयु सुख में और शरीर योगोपयोग में वृद्धि को प्राप्त होता रहता है । राजा के पुण्य की वृद्धि दूसरे के आधीन न हो, कभी नष्ट न हो और उसमें किसी तरह की बाधा न आए ताकि वह तृष्णारहित होकर गुणों का पोषण करता हुआ सुख से रहे। जिस राजा के वचन में सत्यता, चित्त में दया, धार्मिक कार्यो में निर्मलता हो तथा जो प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करे, वह राजर्षि है। सुजनता राजा का स्वाभविक गुण हो। प्राणहरण करने वाले शत्रु पर भी वह विकार को प्राप्त न हो *" | बुद्धिमान् राजा सब लोगों को गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाए ताकि सब लोग उसे प्रसन्न रखें 24 । जिस
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प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा जिस प्रकार संस्कार किए हुए मणि सुशोभित होते हैं उसी प्रकार राजा में अनेक गुण सुशोभित होते है 25 1 नीति को जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं, किन्तु इन्द्र के समान राजा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी प्रजा गुणवती होती है और राज्य में कोई दण्ड देने के योग्य नहीं होता है" राजा न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकां के समूह को सन्तुष्ट करें। समीचीन मार्ग में चलने वाले राजा के अर्थ और काम भी धर्मयुक्त होते हैं, अतः वह धर्ममय होता है । उत्तम राजा के वचनों में शान्ति, चित्त में दया, शरीर में तेज, बुद्धि में नीति, दान में धन विभा शत्रुओं में प्रतार रहता है। जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य समानायको वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं, उसी प्रकार समस्त गुण राजाको बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं । राजा का मानभंग नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार दाँत का टूट जाना हाथी की महिमा को छिपा लेता है, दाद का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है, उसी प्रकार मानभंग, राजा की महिमा को छिपा लेता है 31 | नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निकाय करने में राजाका चरित्र उदारण रूप होना चाहिए | उत्तम राजा के राज्य में प्रजा भी न्याय का उल्लंघन नहीं करती है. राजा न्याय का उल्लंघन नहीं करता है, धर्म अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता है और परस्पर एक दूसरे का भी त्रिवर्ग उल्लंघन नहीं करता है। जिस प्रकार वषां से लता बढ़ती हैं. उसी प्रकार राजा की नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ती है। जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बढ़ी होती है, उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बड़ा होता है । उसकी समस्त ऋद्धियाँ है और पुरुषार्थ के आधीन रहती है। यह मन्त्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्यप्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र का विचार करे। तीन शक्तियों और सिद्धियों से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहे साथ. ही सन्धि विग्रह आदि छह गुणों की अनुकूलता रखे। अच्छे राजा के राज्य में प्रजा को अयुक्ति आदि पाँच तरह की बाधाओं में से किसी भी प्रकार की बाधा नहीं रहती हैं। उत्तम राजा का नित्य उदय होता रहता है, उसका मण्डल विशुद्ध (शत्रुरहित) और अखण्ड होता है तथा प्रताप निरन्तर बढ़ता है । ऐसे राजा की रूपादि सम्पत्ति उसे अन्य मनुष्यों के समान कुमार्ग में नहीं ले जाती है। अच्छे राजा के राज्य में प्रजा की अयुक्ति आदि पाँच प्रकार की बाधाओं में कोई बाधः नहीं होती है । शम और व्यायाम राजा के योग और क्षेम की प्राप्ति के साधन है I
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चन्द्रप्रभचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण राजा का माहात्मय और गुण अचिन्त्य होना चाहिए। वह अपने लोगों का आश्रय हो तथा उसकी चेष्ठायें धर्म का नाश करने वाली न हो। राजा की सब सम्पदा परोपकार के लिए होती है। त्याग व दान देने का गुण राजा में स्वाभाविक होना चाहिए"" । राजा के विभिन्न गुणों की उपमा चन्द्रमा से दी जा सकती है। राजा कलाओं से युक्त होता है, चन्द्रमा भी कलाओं से पूर्ण होता है। राजा (अपने) लोगों का अभिनन्दन करता हैं, चन्द्रमा भी सब लोगों का अभिनन्दन या आनन्दित करता है । राजा की श्री संसार की श्री मे बढ़कर होती है, चन्द्रमा की शोभा भी संसार में बढ़कर होती है। इतना होने पर भी चन्द्रमा प्रदोष (सायंकाल, दोष) से संसर्ग रखने के कारण सर्वथा उज्जवल राजा को नहीं जीत सकता है। राजा अत्यधिक दान दे तो भी उसका अहंकार न करे, काम, क्रोध, हर्ष, मान, लोभ और मद इन छह
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शत्रुओं को वश में करें, उत्तम लोगों की संगति करे, चुगल खोरों के संसर्ग से दूषित न हो। जो राजा काम, क्रोधादि न्युट शत्रुओं से अपने मन को नहीं बचा सकता है. उसे मानों तिरस्कार के भय से सब सम्पदायें स्वयं छोड़कर चली जाती है राजा को कोतिं सब जगह प्रसिद्ध हो। वह अपने दुःसह पराक्रम से अभिमानी राजाओं को परास्त कर पृथ्वी से कर वसूल करे* 1 राजा को कठोर वृत्ति वाला होना चाहिए । जिस प्रकार कंचुको अपने तेज से कुलवधुओं को वश में कर लेता है, उसी प्रकार राजा भी अपने तेज से चंचला लक्ष्मी को वश में कर ले 'राजा पक्षपात पूर्ण दृष्टि से दूषित न हो। वह अपने निर्मल और प्रसिद्ध गम्भीरता गुण में समुद्र की गम्भीरता के यशरूपी धन को लूट ले । राजविद्या के अध्ययन से जिसकी बुद्धि विशुद्ध हो गई है ऐसा राजा सोच विचारकर कार्य करे, पशुओं की तरह विधेकी होकर कार्य न करे । उसे पृथ्वी का उद्धार करने वाला, बलयुक्त तथा सत्यानुरक्त होना चाहिए | उसमें निर्वासनता नम्रता तथा निरहंकारता का गुण होना चाहिए, धर्म, अर्थ और काम का अविरोध रूप से सेवन करते हुए उसकी चिन्ता जैसी परलोक साचन के प्रति हो, वैसी चिन्ता किसी अन्य के बारे में न हो । राजा उदारता, धैर्य तथा नियादि गुणों का आश्रय है। धर्म में बुद्धि होगा राजा का बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि धर्म में निाना हो भविध्य अभ्युदय का प्रधान कारण हैं | जन समूह के मन्ताप को दूर करने वाला राजा अपने गुणों से मन्त्र दिशाओं को उज्जवल कर देता है । यथार्थ में महत्व का कारण केबल ऐश्वर्य नहीं होता, गुण सम्पत्ति हो पुरष को गरब देती है । अपने साव की आग में शत्रुओं को स्वाह करने वाले और गुणों से सम्पूर्ण पृथ्वी का मनोरंजन करने वाले राजा के रक्षक होने पर यह पृथ्वी सदा उपद्रव से रहित होकर भरीपुरो होने लगती है। दयालुता, धर्म ही को धन समझना, दूसरे के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए सम्पत्ति अर्पित करना, अनिघंदरिब और तपस्वियों के समान अन्त्ररण आदि गुण अति दूरवर्ती महान्पुरुषों के चित्त में भी अनुराग उत्पन्न करते हैं | | अत: राजा को दयालु, साध्रुवत्सल और मक्षिकामुक बने रहकर इस पृथ्वी का शासन करना चाहिए और अनाथ लोगों का उद्धार करना चाहिए, क्योंकि दोनों का उद्धार करने से बढ़कर
और कोई तपस्या नहीं है16 | प्रजा के समस्त कष्टों को दूर करने के बाद हो पराक्रमी और नोतिज्ञ राजा को शत्रुओं को जीतने की इच्छा से अपने सहायकों के साथ या करना चाहिए । राजा कभी भी मर्यादा का अतिक्रमण न करे राजा और समुद्र में यही अन्तर है कि समुद्र प्रलयकाल में मांदा (सीमा)को छोड़ देता है, किन्तु उत्तम राजा कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता हैन । राजा की शूरता नीति से और प्रभुता उदार क्षमासे शून्य न हो, विद्या निनग मे खाली व हों तथा ठमका धन भी निरन्तर दान और भोग में व्यय होना रहे।
वर्धमानचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण - स्वभाव से शत्रुता रखने वाले बुओं की शरण में आने पर रक्षा करना , परोपकार, निर्मल स्वभाव, राजविधा में प्रवीणता पाठकों को उनकी इच्छा ये अधिक दान देना, विद्वानों से घेष्टित रहना, बुद्धिबल से पृथ्वा रूपी भायों को अपने गुणों में अनुरक्त कर लेना, शत्रुओं को भय से नम्रीभूत बना लेना, मत्सर भावना रखना नौति शास्त्र में निपुण (नयचक्षु) होना, महान् पराक्रमी और विनयी तथा जितात्मा होना पडवर्ग पर विजय प्राप्त करना , साहस, विद्या और प्रभाव में उन्नत होना 4. धैर्य धारण करना, वितय ग्रहण करना, नीतिमार्ग में स्थित रहना, इन्द्रिय और मन के संचार को वश में रखना", सज्जनों से प्रेम
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करना, प्रजा का न्याय करना, गुरुओं की विनय करना मित्रों को चन्दन के समान सुखकर होना", तथा काम के वशवर्ती न होना" ये राजा के प्रमुख गुण हैं । इन गुणों से युक्त राजा अपने कार्य की सिद्धि करता है । प्रशंसनीय गुण किसके कार्य को सिद्ध नहीं करता ? अर्थात् गुणों से सभी कार्य सिद्ध होते हैं । इससे प्रजाओं में सदा निर्दोष प्रेम उत्पत्र होता है। कोई भी व्यक्ति गुणों को छोड़कर प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकता है।
नीतिवाक्यामृत में प्रतिविम्बित राजा के गुण - राजा को सेवकों को आशा को पूर्ति करना चाहिए, नहीं तो उसकी प्रसन्नता कोई लाभ नहीं है । वह मन्त्री आदि में सावधान रहे । जिस प्रकार धनिकों की बीमारी बढ़ाना छोड़कर वैद्यों की जीविका का कोई उपाय नहीं, उसी प्रकार राजा को व्यसनों में फंसाने के सिवाय मंत्री आदि अधिकारियों (नियोगियों) की जीविका का कोई उपाय नहीं है । राजा को नीतिपूर्ण ढंग से कार्य करना चाहिए। नीतिविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले पुरुष की बढ़ती तत्काल बुझते हुये दीपक की बढ़ती के समान जड़मूल मे नष्ट करने वालो होती है | राजाओं को अपने पराक्रम का पूरा प्रयोग करना चाहिए । सिर मुड़ाता और जटाओं का धारण करना राजा का धर्म नहीं है। राजा समय-समय पर प्रजा को दर्शन देता रहे । प्रजा को दर्शन न देने वाले राजा का कार्य अधिकारी वर्ग स्वार्थवश बिगाड़ देते हैं और शत्रु लोग भी उससे द्रोह कर देते है | राजा को यह भी चाहिए कि यदि राजा प्रयोजनार्थियों का इए प्रयोजन नसिद्ध कर सके तो उनकी भेंट स्वीकार न करें । साम दामादि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमी व जिससे आमाता आदि राज कर्मचारी एवं प्रजा अनुरक्त है ऐसा राजा अस्पदेश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती के समान निर्भय माना गया है। लोक व्यवहार जानने वाला मनुष्य सर्वज्ञ समान और लोकव्यवहार शून्य मनुष्य विद्वान होकर भी लोक द्वारा तिरस्कृत समझा जाता है। राजा इतना गुणी हो कि शत्रु की सभा में भी उसका गुणगान किया जाय। जिप्स राजा का गुणगान शत्रुओं की सभा में नहीं किया जाता है, उसकी उन्नति व विजय किस प्रकार हो सकती है | विजिगीषु जैसा वैसा (दुर्बल त्र शक्तिहीन) क्यों न हो यदि वह उत्तम, कर्तव्यपरायण व वीर पुरुषों के सानिध्य से युक्त है तो उसे शत्रु की अपेक्षा बलिष्ठ समझना चाहिए। राजा के प्रमुख गुण
1.अरिषड्वर्गविजय - काम,क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह ये 6 प्रकार के आन्तरिक शत्रु होते हैं, राजा को इनका विजेता कहा गया है। जो इन पर विजय प्राप्त नहीं करता है.अपनी आत्मा को नहीं जानने वाला यह राजा कार्य और अकार्य को नहीं जान सकता है । जीतने को इच्छा रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष क्षमा के द्वारा हो पृथ्वी जीतते है । जिन्होंने इन्द्रियों के समूह को जीत लिया है, शास्त्र रूपो मर्यादा का अच्छी तरह अषण किया है और जो परलोक को जीतने की इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष के लिए सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा हो है राजा रुपी हाथी राज्य पाकर प्रायः मद से कठोर हो जाते हैं । परन्तु श्रेष्ठ राजा मद से कठोर नहीं, बल्कि स्वच्छ बुद्धि का धारक होता है । दूसरे राजा जवानी, रूप, ऐश्वर्य, कुल, जाति आदि गुणों के कारण गर्व करने लगते हैं, किन्तु श्रेष्ठ राजा शान्ति ही धारण करता है । इस प्रकार जो राजा उपर्युक्त छ: शत्रुओं को जीतकर स्वकीय राज्य में स्थिर रहते हैं वे इस लोक और परलोक दोनों में समृद्धिवान होते हैं।
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65 वादीभसिंह के अनुसार नया शत्रु तो अस्थायी और हरती है अतः आन्तरिक ओ(काम क्रोधादि) पर विजय प्राप्त करना चाहिए। क्रोष रूपी अग्नि अपने आपको ही जलातो है. दूसरे पदार्थ को नहीं, इसलिए क्रोध करता हुआ पुरुष दूसरे को जलाने की इच्छा से अपने शरीर पर ही अग्नि फेंकता है अपने आप को भी नष्ट करने वाले क्रोधीजन हर प्रकार का दुष्कर्म कर सकते है | यदि अपकार करने वाले मनुष्य पर कोप है तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के नाशक क्रोध पर ही क्रोध करना चाहिए।
रागासक्त जनों में योग्य-अयोग्य का विचार नहीं रहता है ।समस्त कार्य छोड़कर स्त्रियों में आसक्त रहना समस्त अनर्थ से सम्बन्ध जोड़ने वाला है । समस्त सुर और असुरों के साथ युद्ध की खाज रखने वाले भुजदण्ड की मण्डली से अनायास उठाए हुए कैलाशपर्वत के द्वारा जिसका पराक्रम कष्ठोक्त था और प्रताप के भय से नमस्कार करने वाले अनेक विद्याधरों के मुफुट रूप मणिमय पाद चौकियों पर जिसके चरण लौट रहे थे ऐसा रावण भी स्नेहातिरेक से सीता के विषय में विवश हो रण के अग्रभाग में लक्ष्मण को मारने के लिए छोड़े हुए चक्ररल से मृत्यु को प्राप्त हुआ । इस लोक और परलोक को नष्ट करने वाली तृष्णा और क्रोध में भेद नहीं है । घन से अन्धे मनुष्य सत्पथ को न सुनते हैं, न समझते हैं, न उस पर चलते हैं और चलते हुए भी कार्य की पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सकते है | संसार में एक ही पदार्थ के विषय में इच्छा के कारण स्पर्धा सभी के बढ़ती है, किन्तु मात्सर्य से सभी नष्ट हो जाता है | ईष्या करने वाले व्यक्तियों को क्या-क्या खोटे कार्य रुचिकर नहीं लगते है | मत्सर युक्त पुरुषों के वस्तु के यथार्थस्वरूप का विचार नहीं होता है | प्राणियों में ममत्वबुद्धि से उत्पन्न हुआ मोह विशेष होता है। इसके अतिरिक्त पंचेन्द्रियों से उत्पन्न मोह एक दूसरे से बढ़कर होता है।" | मोह का त्याग करना चाहिए. क्योंकि थोड़ा भी मोह देहधारियों की आस्था को अस्थान में गिरा देता है।
नीतिवाक्यामृत में अन्याय से किए गए काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष ये राजाओं के 6 अन्तरंग शत्रु समूह कहे गए हैं । परपरिगृहीत (वेश्या, परस्त्री) और कन्याओं से विषयभोग करना काम है। कामी पुरुष अत्यन्त बढ़ी हुई कामवासना के कारण संसार में कोई ऐसा अकाय नहीं है, जिसे नहीं करता है। जो व्यक्ति अपनी और शत्रु की शक्ति को न जानकर क्रोध करता है, वह क्रोध उसके विनाश का कारण है | निष्कारण कोप करने वाले राजाके पास सेवक नहीं तहरते हैं । अत्यन्त क्रोध करने वाले मनुष्यों का ऐश्वर्य अग्नि में पड़े हुए नमक के समान सैकड़ों प्रकार से नष्ट हो जाता है | किसी भी क्रोघी पुरुष के सामने नहीं ठहरना चाहिए।" । क्रोथी पुरुष जिस किसी को सामने देखता है, उसी के ऊपर सूर्य के समानरोप रूपी जहर फेंक देता है। अत्यन्त क्रोधी पुरुष बलिष्ठ होने पर भी अष्ठाप' के समान चिरकाल तक जीवित नहीं रहता है। दान करने योग्य धर्मपात्र और कार्यपात्र आदि को धन न देना तथा चोरी, छलकपट और विश्वासघात आदि अन्यायों से दूसरों की सम्पत्ति को हड़प जाना लोप है संसार में धन मिलने से किसे उसका लोभ नहीं होता है | जबकि वृक्ष अपने घन का भोग नहीं करते तथापि वे भो घन के इच्छुक होते हैं तो धन का उपयोग करने वाले मनुष्यों का तो कहना भी क्या है ? (कुटुम्ब आदि के संरक्षण में असमर्थ) केवल उदरपूर्ति करने वाले लोभी पुरुष को उसकी स्त्री छोड़ देतो है, वृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी अधिक लोप, आलस्य व विश्वास करने से मारा जाता
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हैया | उगा जाता है । लोभी के समस्त गुण निष्कान होते हैं" मनुष्या का का प्रन प्रशसभाय है, जो दूसरों द्वारा भोगा जा सके । जिसको धनीपुरुष रोग के समान स्वयं भोगता है वह कृपण धन निन्दय है। जिस धन के द्वारा शरण में आए हुए आश्रितों का भरण पोषण नहीं किया जाता है, वह कृपणधन व्यर्थ है 37 1 शिष्टाचार से विशुद्ध प्रवृत्ति को न छोड़ना, पारकार्यों में प्रवृत्ति करना तथा आप्त पुरुषों की शास्वविहित बात को न मानना मान है। अपने कुल, बल. ऐश्वर्य, रूप, विद्या आदि के द्वारा अहंकार करना अथवा दूसरों की बढ़ती को रोकना मद है । एक अन्य स्थान पर सोमदेव ने मद्यपान व स्त्रीसंभोग से होने वाले हर्ष को मद कहा है। बिना प्रयोजन दूसरों की कष्ट पहुंचाकर मन में प्रसन्न होना या धनादि की प्राप्ति होने पर मानसिक प्रसन्नता ऋ होना हर्ष है।
2. त्रिवर्गका अविरोधरूपसे सेवन - उत्तम राजा के धर्म, अर्थ और काम परस्पर में किमी को बाधा नहीं पहुंचाते हैं। इसके प्रयोग की निपुणता के कारण ये तीनों वर्ग ( धर्म, अर्थ और काम मानों परस्पर भिन्त्रताको प्राप्त हो जाते हैं | आचार्य गुणभद्र के अनुमार भी राजा परस्पर की अनुकूलता से धर्म,अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग की वृद्धि करता है। वादोधसिंह के अनुमार यदि परस्पर विरोध के बिना धर्म, अर्थ और काम सेवन किए जाते हैं ना बाधारहिन मुख मिलता है और क्रम से मोक्ष भी मिलता है। यदि राजा सुख चाहता है तो ( काय के कारण) धर्म और अर्थ पुरुषार्थ नहीं छोड़े, क्योंकि बिना मूल कारण के सुख नहीं हो सकता है । जो अपयश रूपी राष्ट्र को उत्पन्न करने के लिए वर्षा ऋतु के समान है, धर्मरूपी कमलवन को निर्धालित करने के लिा रात्रि के प्रारम्भ के समान है, जो अर्थ पुरुषाधं को नष्ट करने के लिए कठोर राजयक्ष्मा के समान है, मूर्खजनों से जिसमें भीड़-भाड़ उत्पन्न की जाती है और विदेकोजन जिमको निन्दा करते हैं ऐसे काम के मार्ग में बुद्धिमान् अपना पैर नहीं रखते हैं । अतः धर्म और अर्थ का विरोध न कर काम सुख का उपभोग कर राजधर्म को न छोड़ते हुए पृथ्वी का पालन करना चाहिए।
नीतिवाक्यामृत के समान जो व्यक्ति काम और अर्थ को छोड़कर धर्म का ही सतत वन करता है वह पके हुए धान्यादि के खेत को छोड़कर जंगल की जोतता है । अत: (राजा) धर्म . अर्थ और काम का समान रूप से सेवन करे । जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थो में से केवल एक का ही निरन्तर सेवन करता है, वह केवल उसी पुरुषार्थ को वृद्धि करता है और दूसरे पुरुषार्थों को नष्ट कर डालता है। इन्द्रियों को न जीतने वालों को किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती है । इष्टपदार्थ में आसक्ति न करने वाले और विरूद्ध बस्तु में प्रवृत्त न होने वाले व्यक्ति को जितेन्द्रिय कहते हैं। कामी व्यक्ति (को मन्मार्ग पर लाने) को कोई औषधि नहीं है। स्त्रियों में अत्यन्त आसिक्त करने वाले पुरुप का धन, धर्म और शरीर नष्ट हो जाता है । अत: धर्म और अर्थ दो अविरोध पूर्वक काम सेवन करे, उमसे सुखी होगा। जो व्यक्ति काप से जीत जाता है (काम के वशीभूत है) वह राज्य के अंगों (स्वामी, आमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोप और सेना
आदि) से शक्तिशाली शत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ? जो व्यक्ति नोतिशाम्ब से विरूद्ध कामसेवन र वेश्यासेवन, परस्त्रीगमन) करता है, वह समृद्ध होने पर भी चिरकाल तक मुखी नहीं रह सकता है । एक काल में कर्तव्य रूप से प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थों में में पूर्व का पुरुषार्थ ही श्रेष्ठ है । समय (कार्य का समय) का महन न होने से दूसरे पुरुषार्थ को अपेक्षा अर्थपुरुषार्थ श्रेष्ठ है, क्योंकि धर्म और काम पुरुषार्थ का मूल कारण अर्थ है ।
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3.मध्यम वृत्तिकाआश्रय - उत्तम राजा न तो अत्यन्त कठोर होता है और न अत्यन्त कोमल, अपितु मध्यम वृत्ति का आनाय कर जगत् को वशीभूत करता है।
4. कार्य को स्वयं निश्चित करना - श्रेष्ठ राजा स्वयं ही कार्य का निश्चय कर लेता है, मन्त्री उसके निराकार हुए कार को मः प्रम पार है।
5. शान्ति और प्रताप - पृथ्वी को जीतने वाले राजा नम्रीभुत राजाओं को सन्तुष्ट करते हैं और विरोधी राजाओं को अच्छी तरह सन्तपत करते हैं, क्योंकि शान्ति और प्रताप ये हो राजाओं के योग्य गुण है। अहंकारी राजाओं को दण्डित करना और उत्तम कार्य करने वाले राजाओं पर अनुग्रह करना, क्षत्रियों का यह धर्म न्यायपूर्ण कहा गया है।
6. शत्रुओं का विजेता होना - राजा को बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं का विजेता होना चाहिए । श्रेष्ठ राजा कुटिल (वक्र) मनुष्यों को अपने पराक्रम से हो जीत लेता है, ऐसे राजा की सप्तांग सेना केवल आडम्बर मात्र होती है | राजा का राज्य दूसरे के द्वारा तिरस्कृत हो और न वह दूसरों का तिरस्कार करे |आवश्यकता पड़ने पर राजा अपने भुजदण्डों से शत्रुओं के समूह को खण्डित कर दे। वह किसी पुराने मार्ग को अपने आचरण के द्वारा नया कर दे और पश्चाती लोगों के लिए वही मार्ग फिर पुराना हो जायः राजा को प्रताप रूपीबड़वानल की चंचल ज्वालों के समूह से देदीप्यमान होना चाहिए। शत्रुद्धारा जिसका सैन्य नष्ट कर दिया गया है ऐसाशक्तिहीन राजा अपने झुण्ड मे भ्रष्ट हुए अकेले हाथी के समान किसके वश में नहीं किया जाता है अर्थात् सभी के द्वारा किया जाता है । जिसकी समस्त जलराशि निकल चुकी है ऐसे जलशून्य तालाब में वर्तमान मगर आदि जैसे जलसर्प के समान निर्विष तथा क्षीणशक्ति हो जाता है। उसी प्रकार सैन्य के क्षम हो जाने से राजा भी क्षीण शक्ति हो जाता है वन से निकला सिंह जिस प्रकार गीदड़ के समान हो जाता है, उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को स्थिति होती है । अत: शत्रु से युद्ध करना अथवा भाग जाना इन दोनों में जब विनाश निश्चित हो तब प्रहार करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि प्रहार करने में ऐकान्तिक विनाश नहीं होता है | योग्य की गति कुटिल होती है, क्योंकि वह मरने की कामना करने वाले को दीर्घायु देती है व जीवन की आकांक्षा करने वाले को मार डालती है ।अत: राजा को चाहिए कि लड़ाई के समय परचक्र से आए हुए किसी भी अपरीक्षित व्यक्ति को अपने पक्ष में न मिलाए । यदि मिलाना हो तो अच्छी तरह परीक्षा करके मिलाए परन्तु उसे वहाँ ठहरने न दे और शत्रु के कुटुम्बी जो उससे नाराज होकर वहाँ से चले आए हैं, उन्हें परीक्षापूर्वक अपने में मिलाकर ठहराने, किन्तु अन्य को नहीं । इतिहास बतलाता है कि कृकालास नाम के सेनापति ने अपने स्वामी से शुठ कलह कर शत्रु के हृदय में अपना विश्वास कराकर अपने स्वामो के प्रतिपक्षी विश्वास नामक राजा को मार डाला |
7. प्रजापालन - राजा के राज्य में चारों वर्गों और आश्रयों के लोग उत्तम धर्म के कार्यों इच्छानुसार प्रवृत्ति करें। वह अपने राज्य का भाइयों में विभाजन कर सुखपूर्वक राज्य का उपभोग करे । जिस प्रकार कुम्भकार के हाथ में लगी हुई मिट्टी उसके वश में रहती है, उसी प्रकार बड़ेबड़े गुणों से शोभायमान राजा की समस्त पृथ्वी उसके वश में रहती है । प्रजा के अनुराग से राजा को अचिन्त्य महिमा प्राप्त होती है ।
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नीतिवाक्यामृत के अनुसार प्रजापालन ही राजा का यज्ञ है, न कि प्राणियों की बलि देना। राजा प्रजा के लोगों को जो बिना किसी व्यसन के क्षीण धन वाले हो गए हों मूलधन देकर सन्तुष्ट करे 1 समुद्र पर्यन्त पृथ्वी राजा का कुटुम्ब है और अन्न प्रदान द्वारा प्रजा का संरक्षण, संवर्द्धन करने वाले खेत उसकी स्त्रियाँ हैं। यदि राजा राजकीय कार्यों में मृत व्यक्तियों की संतति का पोषण नहीं करता तो वह उनका ऋणी रहता है ऐसा करने से उसके मंत्री आदि भली भाँति सेवा नहीं करते हैं * । प्रजा की वृद्धि करने के निम्नलिखित उपाय है -
1. धन नष्ट होने से विपत्ति में फंसे हुए कुटुम्बी जनों की द्रव्य से सहायता करना। 2. प्रजा से अन्यायपूर्वक सृणमात्र भी अधिक कर न लेना ।
3. समय आने पर यथापराध अनुकूल दण्ड न देना ।
4. यथार्थ में प्रभु वही है जो अनेकों का भरण पोषण करता है । अर्जुनवृक्ष को उस फल सम्पदा से क्या लाभ है जो दूसरों के द्वारा उपयोग्य नहीं होती । राजा को अपराधियों के जुर्माने से आए हुए जुआ में जीते हुए, लड़ाई में मारे हुए, नदी, तालाब और रास्ता आदि में मनुष्यों के द्वारा भूले हुए धन का और चोरों के धन का तथा अनाथ स्त्रियाँ रक्षकहीन कन्या का धन तथा विप्लव के कारण जनता के द्वारा छूटे हुए धनों का स्वयं उपभोग कहाँ करना चाहिए। आांगों की रक्षा करना, शस्त्रधारण कर जीविका निर्वाह करना, शिष्ट पुरुषों की भलाई करना, दीन पुरुषों का उद्धार करना और युद्ध से न भागना ये क्षत्रियों के कर्तव्य है ** ।
8. वीरता राजा को वीर होना चाहिए, क्योंकि यह पृथ्वी वीर मनुष्यों से भोगने योग्य होती है" । इसी का समर्थन करते हुए सोमदेव ने कहा है- कुलपरम्परा से चली जाने वालो पृथ्वी किसी राजा की नहीं होती है, बल्कि वह वीर पुरुष द्वारा हो भोगपने योग्य होती है । राजाओं 'की नौति व पराक्रम की सार्थकता अपनी भूमि की रक्षा के लिए है, न कि भूमि त्याग के लिए " । बढ़ी हुई है प्रताप रूपी तृतीय नेत्र की अग्नि जिसकी, परमैश्वर्य को प्राप्त होने वाला, राष्ट्र के कण्टकशत्रुरूप दानवों के संहार में प्रयत्नशील विजिगीषु राजा महेश के समान माना गया है । जो राजा पराक्रमरहित हैं, उसका राज्य वणिक् की तलवार के समान व्यर्थ है ।
9. जागृति- राजा को अपने हृदय का भी विश्वास नहीं करना चाहिए, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ? स्वभाव से सरल अपने हृदय से उत्पन्न सब लोगों पर विश्वास करने की आदत समस्त अनर्थों का मूल है। राजा लोग नटों के समान मन्त्रियों के ऊपर अपने विश्वास का अभिनय करते हैं, परन्तु हृदय से उन पर विश्वास नहीं करते हैं, क्योंकि चिरकाल के परिचय से बड़े हुए विश्वास के कारण मन्त्रियों पर राज्य का भार रखने वाले राजा उन्हीं मन्त्रियों द्वारा मारे गए हैं। ऐसी लोक कथाऐं सुनने में आती है। सब उपायों को करने में उद्यत सबको शत्रुओं की कपटवृत्ति से प्राप्त होने वाले विनाश के उपाय का सदा निराकरण करते रहना चाहिए। शत्रुओं के वश में पड़ी स्त्रियों और पुरुष निगृह्य (तिरस्कार के पात्र ) होते हैं। कितने ही लोग खाना, सोना, पीना और वस्त्र धारण करते समय कष्ट उत्पन्न करने वाला विष मिलाकर मारने का यत्न कर सकते है ।
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10. नियमपूर्वक कार्य करना राजा को रात्रि और दिन का विभाग करके नियत कार्यों को करना चाहिए, क्योंकि समय निकल जाने पर करने योग्य कार्य बिगड़ जाता है ।
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11.विद्वचा - मनुष्य जिन्हें जानकर अपनी आत्मा के हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करता है, उन्हें विद्यायें कहते हैं । जिस पुरुष द्रव्य में सज्जन पुरुषों द्वारा नीति, आचार सम्पत्ति
और शूरता आदि प्रजापानन में उपयोगी गुण सिखाए जाकर स्थिर हो गए हों, वह पुरुष राजा होने के योग्य है जो राजा न तो विद्याओं का अभ्यास करता है और न विद्वानों की संगति करता है, वह निरंकुश हाथी के समान शीघ्र ही नष्ट हो आता है। जिस प्रकार जल के समीप वर्तमान वृक्षों की छाया कुछ अपूर्व हो जाती है, उसी प्रकार विद्वानों के समीप वर्तमान पुरुषों की कान्ति मी अपूर्व हो जाती है । जिस प्रकार बहादुर मनुष्य भी हथियारों के बिना शत्रुओं से पराजित कर दिया जाता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष नीतिशास्त्र के ज्ञान के बिना शत्रुओं के वश में हो जाता है । जो पदार्थ या प्रयोजन नेत्रों से प्रतीत नहीं होता, उसको प्रकाश करने के लिए शास्त्र मनुष्यों का तीसरा नेत्र है जिस पुरुष ने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया वह चक्षुसहित होकर भी अन्या है: ।अन्धे के समान दूसरे (मंत्री आदि) से प्रेरित राजा को होना अच्छा है, किन्तु जो थोड़े ज्ञान के कग है, उस इंसान नहीं समय में विधान प्रधानधन है, क्योंकि यह चोरों के द्वारा चुराई नहीं जातो है एवं दूसरे जन्म में भी जीवात्मा के साथ जाती है | जिस प्रकार नीचे मार्ग से बहने वाली नदी अपने प्रवाहवर्ती पदार्थों (तृणादि) को दूरवर्ती समुद्र से मिला देती है, उसी प्रकार नीच पुरुष की विद्या भी बड़ी कठिनाई से दर्शन होने योग्य राजा से मिला देती है। विद्या कामधेनु के समान विद्वानों के मनोरर्थ पूर्ण करने वाली है, क्योंकि उससे उन्हें समस्त संसार में प्रतिष्ठा व बोध प्राप्त होता है। जिस प्रकार नवीन मिट्टी के बर्तन में किया हुआ संस्कार ब्रह्मा के द्वारा भी नहीं बदला जा सकता है, उसी प्रकार कोमल बच्चों के हृदय में किया गया संस्कार मी बदला नहीं जा सकता है । अत: जो वंश परम्परा, सदाचार, विद्या और कुलीनता में विशुद्ध हों वे ही विद्वान राजाओं के गुरु हो सकते हैं । जो राजा आध्यात्म विद्या विद्वान होता है यह सहज (कषाय और अज्ञान से होने वाले राजसिक और तामसिक दुःख) शारीर (बुखार, गलगण्ड आदि बीमारियों से होने वाली पीड़ा), मानसिक ( परकलत्र आदि की लालसा से होने वाले कष्ट) एवं आगन्तुक दुःखों ( भविष्य में होने वाले अतिवृष्टि, अनावृष्टि और शयुक्त आकार आदि कारणों से होने वाले दुःख) से पीड़ित नहीं होता है । इहलोक सम्बन्धी व्यवहारों का जो निरुपण करता है उसे लोकायत कहते हैं। जो राजा लोकायत मत को भलीभांति जानता है वह राष्ट्र कष्ट को (चोर आदि) को जड़मूल से उखाड़ देता है । जिस प्रकार उपयोग शून्य बहुत समुद्र जल से कोई लाप्त नहीं है, उसी प्रकार विद्वान के कर्तव्यज्ञान कराने में असमर्थ प्रचुरज्ञान से कोई लाम नहीं है।
12. यथापराध दण्ड - राजा को अपराधियों को उनके अपराध के अनुकूल दण्ड देना चाहिए। जिस कार्य के करने में महान् धर्म की प्राप्ति होती है, वह बाह्य से पापरूप होकर मी पाप नहीं समझा जाता है । जो राजा दुष्टों का निग्रह नहीं करता है, उसका राज्य उसे नरक में ले जाता हैbas | जो मनुष्य सदा केवल दया का व्यवहार करता है वह अपने हाथ में रखे हुए घन को बचाने में भी समर्थ नहीं हो सकता है | सदा शान्तिचित्त रहने वाले मनुष्य का लोक में कौन पराभव नहीं करता है, सभी पराभव करते हैं । अपराधियों पर क्षमा धारण करना साधु पुरुषों का भूषण है, राजाओं का नहीं है | जो मनुष्य अपनी शक्ति से क्रोध और प्रसन्नता नहीं करता है, उसे धिक्कार है जो प्रतिकूल व्यक्ति के प्रति पराक्रम नहीं करता, वह जीवित होता हुआ भी
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मरे के समान है । राख्न के समान तेम शून्य व्यक्ति को सभी नि:शंक होकर पराजित करने को तत्पर रहते हैं।
___13. न्याय परायणता - जब राजा न्यायपूर्वक पिता का पालन करता है तब ममी दिशायें प्रजा को अभिलाषित वस्तुयें देने वाली होती है । न्यायी राजा के प्रभाव से मेघों से यथासमय जलवृष्टि होती है और सभी प्रकार के उपद्रव शान्त होते हैं तथा समस्त लोकपाल राजो का अनुसरण करते हैं । उसी कारण विद्वान् राजा कोमध्यम लोकपाल (मध्यलोक कारक्षक) होने पर भी उत्तम लोकपाल (स्वर्गलोक का रक्षक) कहते हैं। ____14. सत्सङ्गति - दुष्टों की सत्सङ्गति अन्त में दःख देने वाली होती है।" । विद्याओं का अभ्यास न करने वाला मूर्ख मनुष्य भी विशिष्ट पुरुषों की सत्सङ्गति से उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लेता
____15. दान देना - उस मेघ से क्या लाभ जो समय पर पानी नहीं बरसाता, इसी प्रकार यह क्या स्वामी है जो आश्रित व्यक्तियों की संकट के समय सहायता नहीं करता है जो धन या अभिलाषित वस्तु देकर दूसरों की मलाई करता है, वही उदारपुरुष लोगों का प्यारा होता है । संसार में वही दाता श्रेष्ठ है, जिसका मन पात्र (यान्त्रक) से प्रत्युपकार या धनादि लाभ की इच्छा से दूषित नहीं होता है 15 | राजा द्वारा विद्वान ब्राह्मणों को इतनी जमीन दान में दी जानी चाहिए. जिसमें गाय के रम्हाने का शब्द सुनाई न पड़े क्योंकि इतनी भूमि देने से दाता और गृहीता को सुख मिलता है । क्षेत्र, तालाब, कोट, गृह और मन्दिर का दान इन पाँच वस्तुओं के दान में आगेआगे की वस्तुओं का दान पूर्व के दान को बाधित कर देता है अर्थात् आगे-आगे का दान प्रशस्त होता है।
16. प्रत्युपकार - प्रत्युपकार करने वाले का उपकार बढ़ने वाली धरोहर के समान है । जो लोग प्रत्युपकार किए बिना हो परोपकार का उपभोग करते हैं वे जन्मान्तर में उपकारी दाताओं के ऋणी होते हैं ! उस गाय से क्या लाभ है जो कि दूध नहीं देती और न गर्भवती है ? इसी प्रकार उस मनुष्य के उपकार से क्या लाभ है जो कि वर्तमान या भविष्य में प्रत्युपकार नहीं कर सकता ?
17.समयानुसार कार्य करना - योग्य समय प्राप्त न होने तक अपकार करने वाले के प्रति साधु व्यवहार करना चाहिए | मनुष्य ईधन को आग में जलाने के उद्देश्य से अपने शिर पर धारण करते हैं। इसी प्रकार शत्रु को पराजित करने के लिए समय न आने तक उसके साथ ठीक व्यवहार करे । धौरे-धीरे वह उसे पराजित कर देगा । नदी का वेग अपने तट के वृक्षों के चरण (जड़ें) प्रक्षालन करता हुआ भी उन्हें जड़ से उखाड़ देता है । उक्त नीति से विपरीत अभिमानी पुरुष हस्तगत कार्य का भी विनाश कर देता है ।
18. जितेन्द्रियता - जिस मनुष्य की चित्तवृत्ति अन्य धन के समान परस्त्रियों के देखने पर भी लालसा रहित है, वह प्रत्यक्ष देवता है, मनुष्य नहीं |
19. गोपनीयता - अपनी बात को गोपनीय रखना राजा का बहुत बड़ा गुण है। छत्रचूड़ामणि के अनुसार जब सक इस कार्य की सिद्धि नहीं होती है, तब तक शत्रु की आराधना करें। इसी नीति
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71 का अवलम्बन जीवनधरस्वामी के मामा गोविन्दराज ने किया था । यद्यपि वे पापी काष्ठांगार क विनाश हृदय से चाहते थे, फिर भी अनुकूल समय को प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने काष्ठांगार के साथ प्रत्यक्ष रूप से अपने स्नेहभाव प्रदर्शन करने में किसी प्रकार की कमी न की। जिसके प्राणों के वे प्यासे थे, उसके ही पास उन्होंने भेंट भेजकर बाह्य रूप से सम्मान का भाव प्रदर्शित किया था (छ. चू. 10/22, अनेकान्तं वर्ष 5 किरण 3-4 अ मई 1942 पृ. 148 149 ) मुद्राराक्षस में राजनीति की विचित्रता इन शब्दों में वर्णित की गई है कभी तो उसका श्वास स्पष्ट प्रतीत होता है, कभी वह गहन हो जाती है और उसका ज्ञान नहीं हो पाता, प्रयोजनवश कभी वह सम्पूर्ण अंग युक्त होती है और कभी अत्यन्त सूक्ष्म हो जाती है, कभी तो उसका बीज ही विनष्ट प्रतीत होता हैं और कभी वह बहुत फलवाली हो जाती है। अहो ! नीतिज्ञ की नौति देव के सदृश विचित्र आकार वाली होती है। (मुद्राराक्षस 5 ( 3 ) 1
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20. अनीतिपूर्ण आचरण का परित्याग अनीतिपूर्ण आचरण का परिणाम बुरा होता है, इस बात का निश्चय इससे होता है कि राजा को धोखा देने वाला काष्ठांगार जीवन्धर महाराज के द्वारा मारा गया। इस पर आचार्य ने कहा है- 'स्वयं नाशीहि नाशक:' ( रु. चू. 10/50) अन्य का विनाश करने वाले का स्वयं नाश होता है। इस पृथ्वी का शासन दुर्बल व्यक्तियों द्वारा नहीं हो सकता, यह वसुन्धरा वीरों के द्वारा भोगने योग्य है (छ. चू. 10/30 ) । अत्याचारी काष्ठांगार ने प्रजा का उत्पीड़न किया था, उसने बलात् प्रजा का खून चूसा था, इस कारण महाराज जीवन्धर ने राज्य का शासन सूत्र हाथ में लेते ही 12 वर्ष के लिए पृथ्वी को कर रहित कर दिया था। इसका कारण कविवर यह बतलाते हैं कि भैंसों के द्वारा गंदा किया गया पानी शीघ्र निर्मल नहीं होता (छ. . 10/57)
21. धार्मिकता - अनावश्यक हिंसा आदि से भय रखने के कारण क्षत्रिय व्रती माने गए है ( छ. चू. 10/38 ) । धार्मिक नरेश सफलता प्राप्त करने के अनन्तर सफलता के मूल कारण वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के चरणों की आराधना को नहीं भूलते हैं, इसी बात को जानने के लिए जीवन्धर स्वामी के द्वारा युद्ध में विजय होने के पश्चात् राजपुरी में जाकर जिनभगवान् के अभिषेक करने का वर्णन किया गया है, क्योंकि भगवान् की दिव्य समीपता होने पर सिद्धियों बिन बाघा के हो जाती हैं (छ. चू. 10/41 ) 1
राजा के दोष पद्ममचरित में दुराचारी राजाओं का भी उल्लेख हुआ है । उदाहरण के लिए राजा सौदास, जो कि नरमांस में अत्यधिक आसक्त होने के कारण प्रजा द्वारा नगर से निकाल दिया गया था । राजा वज्रकर्ण को दुराचारी सिद्ध करने के लिए उसे अत्यन्त क्रूर, इन्द्रियों का वशगामी, मूर्ख, सदाचार से विमुख भोगों में आसक्त, सूक्ष्म तत्त्व के विचार से शून्य तथा भोगों से उत्पन्न महागर्व से दूषित कहा गया है। आदिपुराण के अनुसार दोषयुक्त राजाओं में प्राय: : निम्नलिखित दोष होते हैं -
1. सदातृष्णा से युक्त होना ।
2. मूर्ख मनुष्यों से घिरा होना ।
3. गुरुओं ( पूज्यजनों) का तिरस्कार करना 14. अपनी जबदस्ती दिखलाना ।
5. अपने गुण तथा दूसरे के दोषों को प्रकट करना* ।
6. अधिक कर लेना ।
7. अस्थिर प्रकृति का होना ।
B. दूसरे के अपमान से मलिन हुई विभूति को धारण करना ।
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9. कठिनाई से दर्शन होना ।
10. पुत्र का कुपुत्र होना ।
11. सहायक मित्र तथा दुर्ग आदि आधारों से रहित होना । 12. चंचल, निर्दयी, असहनशील और द्वेषी होना । 13. बुरे लोगों से घिरा होना ! 15. बिना क्रम के प्रत्येक कार्य में आगे आना ।
14. विषय खोटे मार्ग में चलना ।
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गुणभद्र के अनुसार दोषी या अन्यायी राजा सबको सन्तान देने वाला, कठोर टैक्स लगाने वाला, क्रूर, अनवस्थित ( कभी सन्तुष्ट और कभी असन्तुष्ट रहने वाला) तथा पृथ्वीमण्डल को नष्ट करने वाला होता है । इसके फलस्वरूप वह अनेक प्रकार के दण्डों को पाता है । राजा की अहंकार छोड़ देना चाहिए, अहंकारी लोग क्या नहीं करते। अशुभ कर्म के उदय से कोई राजा द्यूत जैसे व्यसनों में आसक्त हो जाता है । मन्त्रियों और कुटुम्बियों के रोकने पर भी वह उनसे प्रेरित हुए के समान उन व्यसनों में आसक्त रहता है, फलस्वरूप अपना देश, धन, बल, रानी सब कुछ हार जाता है" । क्रोध से उत्पन्न होने वाले मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्यसनों में तथा काम से उत्पन्न होने वाले जुआ, चोरी वेश्या और परस्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुआ खेलने के समान नीच व्यसन नहीं है । सत्य जैसे महान् गुण को जुआ खेलने वाला सबसे पहले हारता हैं, पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, , माता-पिता, बाल बच्चे, स्त्रिय और स्वयं अपने आपको हारता नष्ट करता है। जुआ खेलने वाला मनुष्य अत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन आवश्यक कार्यों का रोध हो जाने से रोगी हो जाता हैं। जुआ खेलने से धन प्राप्त होता है, यह बात भी नहीं है, जुआरी व्यक्ति व्यर्थ ही क्लेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द कार्य कर बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगों की याचना करने लगता है और धन के लिए नहीं करने योग्य कार्यों में प्रवृत्ति करने लगता है । बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं एवं राजा की ओर से उसे अनेक कष्ट प्राप्त होते हैं । राजा सुकेतु इसका दृष्टान्त है, वह जुआ के द्वारा अपना राज्य ही हरा बैठा था इसलिए उभय लोक का कल्याण चाहने वाला व्यक्ति जुआ को से छोड़ दे ।
दूर
आचार्य सोमदेव ने राजा के निम्नलिखित दोष बतलाए हैं.
-
-
1. मूर्खता संसार में राजा का न होना अच्छा है, किन्तु मूर्ख राजा का होना अच्छा नहीं
40, क्योंकि संसार में अज्ञान को छोड़कर दूसरा कोई पशु नहीं है। मूर्ख और हठी (दुर्विदग्ध ) राजा के अभिप्राय को नीले रंग में रंगे हुए वस्त्र के समान कोई बदलने में समर्थ नहीं हो सकता है । जब मनुष्य द्रव्य प्रकृति (राज्य पद के योग्य राजनैतिक ज्ञान और आचार सम्पत्ति) आदि सद्गुण को त्यागकर अद्रव्यप्रकृति (मूर्खता, अनाचार, कायरता आदि दोष) को प्राप्त हो जाता है, तब वह पागल हाथी की तरह राज्यपद के योग्य नहीं रहता है। शिव के कण्ठ में लगा विद विष ही है उसी प्रकार उच्चपद पर आसीन मूर्ख मूर्ख ही है" । मूर्ख मनुष्य जो कार्य करते हैं, उसमें उन्हें बहुत क्लेश उठाना पड़ता है और फल थोड़ा मिलता है । मूर्ख मनुष्य का शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता है ।
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2.दुष्टता - जो योग्य अयोग्य के विचार से रहित तथा विपरीत बुद्धि से युक्त है, उसे दुष्ट (दुविनीत) कहते हैं। दुविनीत या दुष्ट राजा से प्रजा का विनाश ही होता है, कोई अन्य उपद्रव नहीं होता है |
3. दुराचार - दुराचार विषभक्षण की तरह समस्त गुणों को दूषित कर देता है राजा का प्रजा के साथ अन्याय करना समुद्र का मर्यादा उल्लंघन, सूर्य का अँधेरा फैलाना तथा माता का अपने बच्चे के भक्षण करने के समान किसी के द्वारा निवारण न किया जाने वाला महाभयंकर अनर्थ है, जिसे कलि काल का प्रभाव कहना चाहिए।
चलचित्र-जिकाशितया किली गीगार्य को सिद्ध नहीं कर सकता
5.स्वतन्त्रता - स्वतन्त्र रहने वाला (मंत्री आदि से पूछकर कार्य न करने वाला) यकायक किसी कार्य को करने के कारण सब कुछ विनष्ट कर देता है |
6.आलस्य - आलसी पुरुष समस्त कार्यों के योग्य नहीं होता है। वह अवश्य ही शत्रुओं के वश में हो जाता है |
7.अपनी शक्ति को न जानना - अपनी शक्ति को न जानकर (शत्रु के साथ युद्ध करना) विनाशकाल में पतंगों के पंख उठने की तरह अपना विनाश कर डालता है।
8. अधार्मिकता - राजा के अधार्मिक होने पर कौन अधर्म में प्रवृत्त नहीं होता है।
9.बलात्कारपूर्वक प्रजा सेवन ग्रहण- जो राजा बलात्कारपूर्वक प्रजा से धन ग्रहण करता है, उसका आर्थिक लाभ महल को नष्ट करके लोहे की कील को प्राप्त करने के समान हानिकारक होता है। ऐसे राजा के राज्य में किसका कल्याण हो सकता है? किसी का भी नहीं हो सकता है । यदि देवता मी चोरी से मिल जाय तो प्रजा का कुशल कैसे हो सकता है ? रिश्वत आदि घृणित उपाय द्वारा प्रजा का धन अपहरण करने वाला राजा अपने देश, कोश, मित्र व तन्त्र (सैन्य) को नष्ट कर देता है ।
10. अन्याय - अन्यायी पुरुष की सम्पत्तियाँ चिरकालीन नहीं होती । जो अन्याय की उपेक्षा करता है उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है । जो राजा या वैध अपनी जीविका के लिए प्रजा के दोषों का अन्वेषण करता है, वह राजा या वैद्य नहीं है । जो राजा पकी हुई धान्य की फसल काटते समय अपने राष्ट्र के खेतों में से सेना निकालता है, उसका देश अकाल पीड़ित हो जाता है।
11, यथापराध दण्ड न देना - जो राजा अज्ञान अथवा काम और क्रोध के वशीभूत होकर अनुचित दण्ड देता है उससे सब द्वेष करने लगते हैं । चिकित्सा शास्त्र के अनुसार दवाई करने से जैसे रोग शान्त हो जाता है, उसी प्रकार अपराधियों को उचित दण्ड देने पर अपराध नष्ट हो जाता है । लगान न देने के कारण किसानों की संपरिपक्व धान्यमंजरी ग्रहण करने वाला (राजा) अपनी प्रजा को दूसरे देश में भगा देता है।
12. क्षुद्र अधिकारी रचना- जिसकी सभा में अमात्य आदि सभासद क्षुद्र होते हैं वह राजा सपैयुक्त गह के समान महा भंयकर होता है । उसका कोई सेवन नहीं करता है। ___13. स्वेच्छाचारित- स्वेच्छाचारिता आत्मीयजनों अपवा शत्रुओं द्वारामार दिया जाता है।
14. ब्रह्मघात - जो व्यक्ति संग्रामभूमि में अपने पैरों पर पड़े हुए भयभीत व शास्त्रहीन शत्रु की हत्या करता है; वह ब्रह्मघाती ।
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1. रविषेण: पद्मचरित 66/10
2. पद्मचरित्र 27/27
3. चरित्र 27/28
4. पद्मचरित 27/26
5. वही 27/20
6. वही 27/21
7. वही 27/22
8. वही 74/92
9. हरिवंशपुराम 17/12 , वही 17/1
11. वही 14/56
12. हरिवंशपुराण 19/16
13. हरिवंशपुराण 19/22
14. वही 19/21
15. वही 14/6
16. वहो 2/14
17. वही 17/54
18. वही 17/94
19. वही 17/96-97
20. वही 14/10
21. क्षत्रचूडामणि 11/9
22. वही 11/4
23. छ. चू. 8/28
24. वही 10/54
25. छ. चू. 3/42 26. क्षत्रचूड़ामणि 1/48
27. क्ष. खू. 1749
28. चिन्तामणि प्रथम लम्भ पृ.60
29. . चू. 1/50
30. क्ष. चू. 1746
31. गद्यचिन्तामणि प्रथम लभ्भ प. 60, 61 32. वही द्वितोयसम्म पू. 131
33. उत्तरापुराण 50/3
34. वही 52/5
35. वही 54/117 36. वही 55/5
74
फुटनोट
37. वही 56/6 38. वही 57/5
39. वह 53/25
40. वही 61/26
41. वही 59/3
42. उत्तरपुराण 62/30
43. वही चन्द्रप्रभुचरित 520
. वही 11 /52
44.
45. वही 3/9
46. वही 1/42
47. नीतिवाक्यामृत 17/1-3
48. वही 5/1
49. वही 17/4
50. वही 17/5
51. वही 17/28
52. वही 17/31
53. नीतिवाक्यामृत 29/16
54. वही 24/5
55. वही 7/23
56. वही 7/24-25
57. वही 7/22
58. पद्मचरित 88 / 20, 25
59.981 88/26,27
60. वही 88/30
63. वही 88/31
62. वही 88/32
63, वही 88/33
64. वरांगचरित 11/61-68
65. वही 11/64
66. बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और संस्कृति पृ. 472
67. गद्यचिन्तामणि एकादश लम्भ पृ. 424. 68. गचिन्तामणि दशम लम्भ पृ. 375-377 69. वही पृ. 381
70. वही पृ. 382-383
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. वहीं दशमलम्भ पृ. 383-384
71.
72. आदिपुराण 5/207
73. वही 8/254
14. वही 16/224
75. वही 37/3
76.96 16/227-228
77.
वही 16/225
70 ही 1/45
79 वही 16/232
80. आदिपुराण 7/318, 6/195
81. आदिपुराण 11/39 82. वही 11/40
83. वही 11/44
B4. चन्द्रप्रभचरित 7/29
85. वही 7/30 86.461 7/31, 32
87. वहीं 7/33
88. वही 7/34
89. वही 7/35
90. वही 7/36
91. वही 7/37
92. असग : वर्धमानचरित 2/1
93. वही 2/19
94. वही 2/20
95. असग : वर्धमानचरित 2/28
96. वही 2/30
97.98 2/31
98. वरांगचरित 12/6 99. वहीं 2/16
100. वही 2/47
101. वही 11/55 102. वही 11/53
103. बरांगचरित 24 / 88
104. वही 24/71
105. वही 24/72
106. आदिपुराण 41 /120-135
107. वही 41 / 136-154
108 उत्तरपुराण 64/30
75
109. वही 57/91 110. चनद्रप्रभचरित 14/24
111. वर्धमानचरित 6/20
112. गद्यचिन्तामणि - तृतीय लम्भ पृ. 160
113. आदिपुराण 26 / 75
114, वही 44 / 107
115. वही 41/16
11 उत्तरपुराण 64/29
117 आदिपुराण 16/ 257
118. आदिपुराण 31/65
119. उत्तरपुराण 64/29
120 आदिपुराण 16/262 121. यही 4/70
122. चन्द्रप्रभचरित 13/8
123. वही 7/29
124. वही 7/91
125. वही 16/54
126. वही 12/2
127. वही 16/21
128. वही 4 / 39 129. वर्धमानचरित 6/23
130. चन्द्रप्रभचरित 5/52
131. वर्धमानचरित 10/4 132. वही 7/84
133. उत्तरपुराण 68786
134 हरिवंशपुराण 77173
135. वही 7/176
136. वही 7/125
137. हरिवंशपुराण 7/130-139
138. वही 7/141, 142
139, वही 7/143
140. हरिवंशपुराण 7/147
141. वही सर्ग 7
142. आदि. 6/196 हरि. 11/56, 126 143. हरिवंशपुराण सर्ग 11
144. वही 11/103
145. वही 11/108 109
146. वही 11 / 110, 111
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76
147. वही 11/112-113
184. पाचरित 66/11-12 148, हरिवंशपुराण 11/114-125
185. पद्मचरित 66/15-16 149. वही 11/126-129
186. वही 66/17-18 150. वहीं 11/131
787. वही 37170 151. आदिपुराण 37/20
188. हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 152, वही 41/155
217 153. यही 37/23
189. वही पू. 219 154. वहीं 37/24
190. यही पृ. 217 155. वहीं 37/32
191. पद्मचरित 57/66 156. वहीं 37/33
192 वही 57144 157. वही 37/34-36
193. वही 57152 158. वहीं 37/60
194. वही 57158 159. वही 37/61
195. वही 102/195 160..वहीं 37162
196. सामन्तगादुग्यभूमिबलगव्यिओ हरिभद्रः 161, वहीं 37/63
समराइकहा पृ. 147 162. बही 37/64
197. वही पृ. 147-148 153. वही 37/65
-98 डॉ.पीचन्द्र शास्त्री : हरिभद्र के प्राकृत 164. वहीं 37166
कथा साहित्य का आलोचनात्मक 1165. वहो 37168
परिशोलन पृ. 261 166. वही 37169
199. अपराजितपृच्छा पृ. 203. 8215-10. 167. वही 37/70
___ हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन प्र. 168. आदिपुराण 37171
220 169. वही 37172
200. चन्द्रप्रमचरित 15/15 170, वहीं 37/13
201. हरिवंशपुराण 53/47 171. शुक्रनीति 1/182-786
202. उत्तरपुराण 68/383 172, कोटिलीय अर्थशास्त्रम् 9/1
203. नीतिवाक्यामृत 3070 173. हरिवंशपुराण 60/136
204. वही 30071 174. वही 53/49-50
205, वही 30772 175. वही 53152-53
206. उत्तरपुराण 68/384 176, हरिवंशपुराण 26/6-14
207. नीतिवाक्यामृत 29/98 177. बही 26/15-22
208. वही 29/97 178. वही 26/23
209. वही 3013 179. हरिवंशपुराण 2614
210. उत्तरापुराण 58/383 180. वहीं 53/47
211, आदिपुराण 34136 181.डॉ.सस्यप्रकाश :कुमारपाल चौलुक्य पृ. | 212 वही 43/214
213. अरिविश्रेमभितोऽप्यरिः ।। आदिपुराण 192. शुक्रनीसि 1/183
43/322 183.डॉ.सत्यप्रकाश :कुमारपाल चौलुक्य पृ. | 214. पदाचरित 1971
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215. पपचरित 55/51-70 276. वही 55/13 217. पद्मचरित 47/15 218, वरांगचरित 2/28 219. षरांगचरित 2/29 220. बही 1373 221. वही 2/25 222, वही 2/24 223. वरागंचरित 17/5-6 224. वही 2/22 225. हरिवंशपुराण 14/57 226, यही 14/74 227. वही 14/71 228. वही 7/82 229. बही 7/82 230, द्विसंधान महाकाव्य 1119 231. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 6/1 232, उ.पु.68771-72 233, च, च. 12/108 234, वही 12/107 235. वही 23/1 236. नीतिवाक्यमृत 23/2 237. वही 23/3 238. वहीं 23/4 239. वही 23/5 240. वहीं 23/6-7 241. नीतिवाक्यमृत 23/9 242. वही 23/10-11 243. वही 10/111 244. वही 10/12 245. वही 10/113 246. नीतिवाक्यामृत 10/146 247. उत्तरपुराण 66/4-5,67/341 248. नीतिवाक्यमृत 17/22 249. आज्ञाफलमैश्वर्यम् ॥ वही 17/21 250. आदिपुराण 36/263 251. यही 38/269 252. वही 38/259
253. षही 42/13-14 254, आदिपुराण 387258 255. वही 4215 256. वही 38/274 257. बही 42121-23 258. बहो 38/272 259. वहीं 38/273 260. आदिपुराण 42131 261. आदिपुराण 42132 262. वही 42/113 263. वही 36:275 264. वहीं 42/114-115 265. वही 42/116 266. वहीं 42/118 267. की::1:3--125 26B, यही 421134-135. 38/276 269. नीतिवाश्यामृत 24/1-7 270. वहीं 24/7 271. वही 24/24 272, वही 24/25 273. वही 24/31 274. वही 24/32 275. वही 24133 276. वही 24159 277. वही 24/58 278. वही 24/62 279. नीतिवाक्यामृत 24165 280.,वही 24166 281. बही 7/21 282. वही 17/32 283. आदिपुराण 42/139 284. वही 42/184-142 285. वही 42/143-144 286, वही 42/143 287. आदिपुराण 42/146-152 288, वहीं 42/153-160 299. आदिपुराण 42/161-163 290, आदिपुराण 42/164
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291. वही 42/165-169 292. वही 42/170-173 293. आदिपुराण 42/074-178 294. वाही 42/179-180 295. वहीं 42/181 296. वहीं 42/183-184 297, वही 44/45 298. आदिपुराण 42/193-196 299. वही 42/199-203 . 300 नीतिवाक्यामृत 5/2 301, वही 16/4 302. वहीं 29/18 303. वही 24/67 304. वही 17/23 305. नीतिवाक्यामृत 17/24 306. वही 5/69 307. आदिपुराण 44166 308. वही 34/86 309. नीतिवाक्यामृत 29/20 310, वहीं 29/31 311, वही 29/22 312. वही 29/23 313, वही 29/24 314. वही 29/26 315. नीतिवाक्यामृत 29127 316. वहो 29/28 377. वही 29/84 318. यही 19/13 379. वही 10/83 320. वही 22/20 321. वही 10/86 322. वहीं 10/85 323. वही 10/164 324. वहीं 11/2 325. यही 10/167 326. वही 70/22 327. नीतिवाक्यामृत 10/58 328. वही 11/37
329, वही 10/167 330. वही 10/165 331. वही 8/13 332. वही 8/14 333. वही 8/15 334, पहा । 335. वही 8/17 336. वही 818 337. सही 8/23 336. वहीं 8/24 339. नीतिवाक्यामृत 17133 340. वही 11/39 341. यही 10/69-70 342. वही 10/87 343. वही 10/80 344. वही 10/88 345. पाचरित 2/53 346. वही 2/54-56 347. वही 58/20-24 348. वही 66/90 349. पद्मचरित 27/24, 25 350. वही 72/88 351. वही 55/89 352. वही 11/58 353. वरांगचरित 1/48-49 354. वही 1/50 355. यही 1/54 356. वही 2/10 357. वही 2:30 358. वरांगचरित 13:34 359. वाही 22/4 365. वही 21/76 366. वही 2215 367. वरांगचरित 2216 368, वही 2218 369. वही 22/21 370, द्विसंधान महाकाव्य 2/1 371. हि.प.27
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-::-::--::-:--:---:- 372. द्वि. म. 2/8
408. वहीं पृ. आदिपुराण 35/175 373. द्वि. म. 279
409. वही 46/49 .' 374. द्वि. म. 2/10
410. वही 35:130-131 375.द्वि. म, 2/18, 20
411. वहो 28/137,4/124 276. वि. म. 2/21
412. वही 35/106 377. द्वि. म. 2/26
413. वही 35/112-113 378. द्वि. म. 2/27
414. वही 28/91 379. दि. म. टीका 2/29
415. आदिपुराण 43/729 380. द्वि. म.2/29
416. उत्तरपुराण 51/5 381, द्वि. म. 2/30
417. वही 52/6 382. वि. म.4/16
418. वही 5279 383. घही 6/14
419. उत्तरपुराण 53/4 384. वही 7/50
420. वही 54/112 385. बही 7/22
421. वही 54/113 386. दि.व. म. 10/25
422. वही 542114 387. दि.म. 12/37
423. वही 54/115 388, द्वि. म. 13/34
424. वही 5516 389. वहीं 17133
425. बही 55/ 390. वहीं 183
426, वही 55/10 391. यही 18/4
427. वही 56/7 392. द्वि, म. 13/15, 18/5
428. वहीं 57/6 393. द्वि. म. 18/123
429. वही 574 394. वहीं 2/22
430, उत्तरपुराण 58/26 395. क्षत्र चूड़ामणि 11/2
431.वही 58/74 396. वादीभसिंह : गधचिन्तामणि पृ. 30- || 432. वहीं 59:4 31
433. वहो 62/31 397. क्षत्र चुडामणि 1/5
434. बही 62/33 398. गद्यचिन्तामणि तृतीय लम्भ पृ. 159- 435. वही 62/34-65 160
436. वहीं 66:69 399. गनिन्तामणि एकादशलम्भ पृ. 429 437. वही 76/112 400. वही पृ. 28
438. वही 5/8 401, अहो पृ. 28
439, वही 66/69 402, छ.चू, 1/6
440. उत्तरपुराण 5714 403, गद्यचिन्तामणि प्रथमलम्भ पृ. 28 441, चन्द्रप्रभचरित 1142 404. वही पृ. 29
442. वही 1/43 405. वही पृ. 27
443. चन्द्रप्रभचरित 1/44 406. नहीं पृ. 28
444. चन्द्रप्रभवरित 1/46 407. वही पृ. 27-29 .
445. चन्द्रप्रभचरित 12/15
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446. वही 1147 447. वही 1/48 448. चन्द्रप्रमचरित 1/49 449. वहीं 1/50 450. वही 1/51 451, बही 1157 452. वहीं 1/35 453, वही 3/35, 2/37 454. वही 3/8 455. वही 11/54 456. वही 3/12 457, वही 3/59 458. वही 5/24 459. चन्द्रप्रभचरित 5/26 450, चन्द्रप्रमचरित 5:30 461, चन्द्रप्रचरित 11/60, 1216 462. वही 11/61 463. यही 13/1 464. वही 16/13 465. चन्द्रप्रभचरित 16/14 466. वर्षमान चरित 1/40 467. वही 1/44 468. वही 1/39 469, वर्धमान चरित 23 470. वही 2/40 471, वही 2/42 472. वहीं 4/12 473. वही 4/24 474,वही 5/21 475. वही 5/47 476, वही 5/48 477. यही 12/35 479. वही 7/17 480. यही 12134 481. नीतिवाक्यामृत 17/12 482, वही 17/35 483. वही 10/161 484. वही 5/3
485, वही 17/34 486. नीतिवाक्यामृत 17/34 487. वही 29168 488. वही 13160 489. नीतिवाक्यामृत 26/36 490, मी. वा. 3074 29: आदिपुराम 492. आदिपुराण 34175 493: आदिपुराण 3416 494, आदिपुराण 407 495. आदुिपारम 4/166 496. आदिपुराण 4/167 497, वही 39/280 498. गधाचिन्तामणि पृ. 399 499, क्षत्रचूड़ामणि 2/43 500. क्षवचूड़ामणि 2/38 501. क्षत्रचूड़ामणि 2/42 502. क्षत्रचूड़ामणि 4138 503. गधाचिन्तामणि प्रथमलम्भ पृ. 39 504.क्षत्रचूडामणि 3/22 505. शत्रचूडामणि 2156 506. क्षत्रचूड़ामणि 4/16 507. क्षत्रचूड़ामणि 4/17 508. क्षत्रचूड़ामणि 4/18 509. क्षत्रचूड़ामणि 10734 510. क्षत्रचूड़ामणि 8164 511. क्षवचूड़ामणि 9/23 512. क्षत्रचूडामणि 10/35 513. नीतिवाक्यामृत 4/1 514. वही 4/2 515. सोमदेव: नीतिवाक्यवामृत toms 516. नीतिवाक्यामृत 43 517. वही 26/25 518, वही 10/138 519, बही 10/171 520. वही 10/172 521, अष्टा पद मेघगर्जना को हाथी की गर्जना
समझ पहाड़ से कूदकर नष्ट हो जाता है।
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522. वही 30/11 523. नीतिवाक्यामृत 4/4 524. वही 10/118 525. बही 10/117 526. वहीं 17/16 527, वही 24/1 528. वही 27/43 529. वही 11/52. 530. वही 1/15 531. नीतिवाक्यामृत 415 532, नीतिवाक्यामृत 416 533. नीविताक्यामृत 10/38 534. यही 47 535. वही4/165. 536. वही 51/8,53/5 537. क्षवचूड़ामणि 1/16 538. क्षत्रचूड़ामणि 1/17 539, गद्याचिन्तामणि पृ. 40 540. नौतिवाक्यामृत 1/46 541. यही 33 542. वही 3/4 543. वही 7 544. नौतिवाक्यामृत 3/8 545. यही 3/12 546. वही 2/13 547. वही 312 548. यही 3/11 549. वही 3/14 550. वही 3/15 551, वही 3/16 552, षही 3/17 553, आदिपुराण 4/163 554. वही 4/195 555. वही 29136 556. वही 29127 557. उत्तरापुराण 52/3 558. वहीं 52/4 559. वही 5279
560. उत्तरपुराण 5514 So,वही 5615 562. वही नीतिवाक्यामृत 30/34 563, वहीं 30135
4. नीतिवाक्यामृत 30/336 565. वही 30/12 566. बही 30/13 567. यही 30/50 568. उत्तरापुराण 70/215-216 569. उत्तरापुराण 65/3 570. वही 57/3 571. नीतिवाक्यामृत 26/68 572. वही 17/48 573. नीविवाक्यामृत 17149 574. नीतिवाक्यामृत 30/93 575. वही 19/20 576. वही 31/31 57. वही 95 578. बही718 579. क्षत्रचूड़ामणि 10/30 580. नीतिवाक्यामृत 29169 581. वही 30/3 582. वहीं 29/19 583. वही 10160 584. ग. चि. प्रथम लम्भ पृ. 38-39 छ. चू.
585. ग. चि, लम्भ-8, पृ. 312 586. क्षत्रचूड़ामणि in 587. नीतिवाक्यामृत 5/55 588. वही 5142 589. वही 5165 590, बही 5167 "591 वही 5/34 592. वही - 35 993. वही 5/36 594. वही 575 595, वही 17156 596. वही 17/57
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597. वही 17/59 598. वहीं 574 599. वही 5168 600. नीतिवाक्यामृत 6/2 601, वहीं 6/34 602, वही 6/35 603. बही 17/62 604 वही 6/43 605. यही 6/44 606. वहीं 6/27 607. वही 6/38 608. वही 6/39 609, षही 6/40-42 610. नीतिवाक्यामृत 14/45-47 611, वही 6146 612. वही 5/66 613. वहीं 22/23-24 614. वही 17/8 615. वही 1719 616. वही 19/24 617. वहीं 19/25 618. वहीं 17/10 619. वही 17/11 620. वही 10/149 621. वही 10/150 622. नीतिवाक्यामृत 10/151 623, घहो 10/152 . 624. वही 10/119 625. पद्यचरित 22/131-144 626. वहीं 33/81,82 627. आदिपुराण 28/30 628. वही 35:94 629. वही 3/62 630. वही 3/145 631. वही 35/114-116 632, वहीं 44/268-271 633. उत्तरपुराण 76/111
634. वहीं 74/62 635. उत्तरपुराण 48/117 636, वही 59/73 637. वही 59/75 638. वही 59776-80 640. नीतिवाक्यामृत 5/38 641. वही 5/38 642. नीतिवक्यामृत 5/76 643. वही 5/43 644, वही 10796 645. वहीं 10196 646. यही 17/15 647. वही 541 648. बहो 5/40 649. वही 10/20 650. वही 17/44 651. वही 10/142 652, वही 10/142 653, वही 10/144 654. वही 10/145 655, वही 10/148 656. वही 17/29 657. वहीं 17140 658. नीतिवाझ्यामा 17141 659, वही 17:42 660. वही 17143 661. वही 17/19 662. यही 8/20 663, वहीं 9/4 664. वही 19/16 665. वही 9/6 666. यही 9/1 667. वहीं 19/15 668. वहो 17/ 13 669. वही 17120 670. वही 30775
בכם
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पञ्चम अध्याय
राजकुमार राजकुमार - राजपुत्र के गर्भ में रहने के समय ही वंश के वृद्ध पुरुष इस प्रकार की कापना करते थे कि वैभव की दृष्टि से बह इन्द्र और बुद्धि को अपेक्षा वृहस्पति होगा। इस विश्वास ये युक्त होकर वंश के वृद्ध पुरुष बीमाक्षर मन्त्रों के उच्चारण सहित सिद्ध परमेष्ठी को नेवैध समर्पित करते थे और नागरिक आनन्दमंगल मनाते थे' । वृद्धों के उपर्युक्त विश्वास को मार्थक करने के लिए राजा अपने पुत्र को अत्यन्त बुद्धिमान, उत्तम कुल में उत्पन्न वीर पुरुषों के साथ कर देते थे, क्योंकि नूतन पात्र में जिस वस्तु का संसर्ग होता है, उसकी गन्ध निश्चय से बनी रहती है। पहिले चूड़ाकरण, उसके बाद यज्ञोपवीत संस्कार को प्राप्त राजपुत्र क्रमश: वर्णमाला तथा अंकगणित की. शिक्षा प्राप्त कर सोलह वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और वृद्धजनों की सेवा
करते हुए समस्त विधाओं को सीखते थे । प्रिय राजपुत्र अपने-अपने विषय के प्रतिष्ठित विद्वानों सिद्ध पुरुषों से आत्मविद्या की शिक्षा ग्रहण करते थे, ऋषियों से धर्म, अधर्म का ज्ञान प्राप्त करते थे, अधिकारियों से लाभ-हानि का शास्त्र पढ़ते थे तथा न्यायाधीश और शासकों से दण्डनीति को समझते थे । समय पूरा हो जाने पर राजा अपने कुल के देवताओं की सर्वािघ पूजा करके राजपुत्र के ब्रह्मचर्य आश्रम के समाप्ति का संस्कार करते थे । अनन्तर गुरु तथा पिता को प्रणाम करके राजपुत्र धनुषविद्या सीखते थे तथा लोकविरूद्ध कुविद्याओं को छोड़ देते थे, क्योंकि गुरुजनों की साक्षीपूर्वक ही ग्रहण करना और छोड़ना उचित होता है । जिस राजा के पुत्रों की उपयुक्त शिक्षादीक्षा नहीं होती है, उसका राज्य घुन से खाए काष्ठ की तरह क्षणभर में टूट जाता है। शिक्षा दीक्षादि से सम्पन्न पुत्र कुल को पवित्र करता है। कुल को पवित्र करने वाले को ही वास्तविक पुत्र कहते है । जो राजपुत्र लक्ष्मी के अहंकार से चंचल नहीं होते हैं तथा गणित आदि कलाओं से युक्त तथा विनम्र होते हैं ऐसे अवि (मेष) के द्वारा ले जायी जाने वाली अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र जिस राज्य में होते हैं, यह राज्य घुन से खायी लकड़ी के समान साधारण धक्के से नहीं टूट सकता है। उपर्युक्त गुणों से युक्त राजपुत्र कच्ची अवस्था में भी राष्ट्र के भार को सहनकर सूर्य के समान देदीप्यमान हो यश और प्रताप के अधिपति होकर अपनी नीतिनिपुणता के कारण पृथ्वी पर समुद्र के समान शोभित होते हैं । जिन राजाओं के पुत्र धन और जय के इच्छुक होते हैं उन राजाओं को संसार में कुछ भी असाध्य नहीं हैं।
आदिपुराण के अनुसार कलाओं में कुशलता, शुरवीरता, दान, प्रज्ञा (बुद्धि). क्षमा, दया. धैर्य, सत्य और शौच (पवित्रता) ये राजकुमार के स्वाभाविक गुण हैं । जितेन्द्रिय राजकुमार काम का उद्रेक करने वाले यौवन के प्रारम्भ में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह. मद और मात्पर्य इन छह आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह कर देता है । योग्यता को प्रकट करने वाले इस प्रकार गुणों से युक्त किसी राजकुमार को राजा राज्य दे देता था और किसी को पदसहित युवराज बनाना था।
आचार्य गुणभद्र के अनुसार राजा को चाहिए कि वह उपयोग तथा क्षमा आदि मच गुण को पूर्णता हो जाने पर राजकुमार को व्रत देकर विद्यागृह में प्रवेश गए । विध माध्यम करते समय उसका अभिजात्य वर्ग से सम्पर्क हो।दास, हस्तिपक (महावत ) आदि को वह अपने मम्पर्क
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करकृत
से दूर करे " राजकुमार इन्द्रियों के समूह को इस प्रकार जीते कि ये इन्द्रियाँ सब प्रकार से अपने विषयों के द्वारा केवल आत्मा के साथ प्रेम बढ़ायें" । बुद्धिमान् राजकुमार विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगने शास्त्र से और स्वभाव से ही विनय करना स्वाभाविक विनय है। जिस प्रकार पूर्णचन्द्रमा को पाकर गुरू और शुक्र गृह अत्यन्त सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण कलाओं को धारण करने वाले सुन्दर राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार के विनय अतिशय सुशोभित होते हैं 19 । राजकुमार कलावान हों पर किसी को हमें नहीं, प्रताप सहित हो परन्तु किसी को दाह न पहुँचावें जो राजपुत्र विरूद्ध शत्रुओं को जीतना चाहते हैं, उन्हें बुद्धि, शक्ति, उपाय, विजय, गुणों का विकल्प और प्रजा अथवा (मन्त्री आदि) प्रकृति के भेदों को अच्छी तरह जानकर महान् उद्योग करना चाहिए। इनमें से बुद्धि दो प्रकार की होती है एक स्वभाव से उत्पन्न हुई और दूसरी विनय से उत्पन्न" । जिस प्रकार फल और फूलों से रहित आम के वृक्ष पक्षी को छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपदिष्ट मिथ्या आगम को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उत्साहहीन राजपुत्र को विशाल लक्ष्मी छोड़ देती है, यहां तक कि अपने योद्धा, सामन्त और महामात्य आदि भी उसे छोड़ देते हैं ।
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र्धमान चरित में राजकुमार के जिन गुणों का संकेत किया गया है, उनमें राजविद्या का अभ्यास, राजाधिरोहण, घोड़े की सवारी अस्त्र-शस्त्र चलाने की कुशलता, अन्तः स्थित शत्रुओं पर विजय, सौन्दर्य, यौवन, नवीन हृदय, राजलक्ष्मी प्राप्त होने पर मद न होना" नीति, वीरश्री और शक्तिरूप सम्पदा में अधिक होना, अपनी सेवा में संलग्न राजपुत्र, कार्यटिक (वस्त्र व्यवस्थापक) तथा (मन्त्री आदि) मूलवर्ग को वैभवयुक्त" करना प्रमुख हैं। ऐसा राजपुत्र ही अपने पिता को गति, नेत्र तथा कुल का दीपक होता है।
नीतिवाक्यामृत के अनुसार राजा अपने राजकुमार को सर्वप्रथम समस्त प्रकार की बातचीत में निपुण बनाए अनन्तर समस्त लिपियों (भाषाओं ), गणित, साहित्य, न्याय, व्याकरण, नीतिशास्त्र, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्रविद्या (प्रहरण) और वाहनविद्या में निपुण बनाए । विद्वान गुरुओं की परम्परा पूर्वक किए हुए शास्त्राभ्यास से शास्त्रों का यथार्थ बोध होता है, जिससे मनुष्य कर्त्तव्यपालन में निपुणता प्राप्त करता है"। जो राजपुत्र कुलीन होने पर भी संस्कारों का अध्ययन और सदाचार आदि सद्गुणों से रहित है उसे शिष्ट पुरुष शरण पर न चढ़ाए हुए रत्न के समान युवराज पद पर आरूढ़ होने योग्य नहीं मानते हैं। व्रत, विद्या और आयु में बड़े पुरुषों के साथ नमस्कारादि नम्रता का व्यवहार करना बिनय है" । जिन राजपुत्रों को साधुपुरुषों ने विनय की शिक्षा दी है, उनका श और वृद्धिगत राज्य (अभ्युदय) दूषित नहीं होता है। पुण्य की प्राप्ति होना, शास्त्रों के रहस्य का ज्ञान होना, शिष्ट पुरुषों द्वारा सम्मान मिलना ये विनय के फल है । जिस प्रकार घुन से खाई हुई लकड़ी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अविनीत राजकुमार का वंश नष्ट हो जाता है । जो राजकुमार प्रमाणिक विद्वानों की शिक्षा से सम्पन्न किए जाते हैं तथा जिनका सुखपूर्वक लालनपालन होता है, वे पिता से द्रोह नहीं करते हैं”। माता- पिता राजपुत्रों के उत्कृष्ट देव हैं तथा उनकी प्रसन्नता से ही उन्हें शरीर और राज्य की प्राप्ति होती है। जो ( राजपुत्र) माता-पिता का मन से भी अनादर करते हैं, उनसे प्रसन्न होकर समीप में आने वाली लक्ष्मी भी विमुख हो जाती हैं" । अतः राजपुत्र किसी भी कार्य में पिता की आज्ञा का उल्लंघन न करें"। इसके समर्थन में सोमदेव ने क्रम (राजनैतिक ज्ञान) और विक्रम (शूरवीरता) से युक्त राम का दृष्टान्त दिया है, जो पिता की आज्ञा
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से बन में गए । वे राजपुत्र अवश्य ही सुखी है, जिनका पिता राम का भार संभाले हुए है। जिसने प्रथमाश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम) को स्वीकार किया है, जिसकी बुद्धि परब्रह्म (परमात्मा या ब्रह्मचर्य) में आसक्त है,जो गुरुकुल की उपासना करता है तथा समस्त विद्याओं का जिसने अध्ययन किया है, ऐसा क्षत्रिय पुत्र कुमारावस्था को अलंकृत करता हुआ ब्रह्मा है" इस प्रकार नीतिवाक्यामृत के अनुसार राजपुत्र के निम्नलिखित गुण अथवा योग्यतायें मानी जा सकती हैं :
1. विधाओं में प्रवीणता । 2. विनय । 3. ब्रह्मचर्यपालन।
4. परमात्मा का स्मरण । 5. आकार ।
6. प्रभाव ।
7. पराक्रम। राजकुमारों को दी जाने वाली शिक्षा - राज्याभिषेक के समय, शिक्षा प्राप्ति के बाद अधवा अन्य विशेष अवसर पर माता-पिता अथवा गरुजन राजपुत्र को शिक्षा देते थे। जो गुरुजन स्वयं गुणी तथा विद्वान होते हैं, उनका पुत्र को उसके ही कल्याण के लिए अपनी बहुजता के अनुकूल उपदेश देना स्वाभाविक है | राजा वगंगकुमार सुगाव का राज्याभिषेक करने से पहिले शिक्षा देते हैं
हे सुगात्र ! अपने पूर्व पुरुष, गुरुजन, विद्वान, उदारविचारशील, दयामय कार्यों में लीन तथा आर्यकुल में उत्पन्न समस्त पुरुषों का विश्वास तथा आदर करना । प्रत्येक अवस्था में इनसे मधुरवचन कहना । इनके सिवा जो माननीय है, उनको सदा सम्मान देना शत्रुओं पर नीतिपूर्वक विजय प्राप्त करना, दुष्ट तथा अशिष्ट लोगों को दण्ड देना । अपराध करने के पश्चात् जो तुम्हारीशरण में आ जोग, उनकी उसी प्रकार रक्षा करना, जिस प्रकार मनुष्य अपने सगे पुत्रों की करता है | जो लँगड़े लूले हैं, जिनकी आँखें फूट गई हैं. मूक हैं, बहिरे हैं. अनाथस्त्रियाँ है, जिनके शरीर जीर्ण शीर्ण हो गए हैं, सम्पत्ति जिनसे विमुख है, जो जीविकाहीन हैं, जिनके अभिभावक नहीं है, किसी कार्य को करते-करते जो श्रान्त हो गए हैं तथा जो सदा रोगी रहते हैं, इनका बिना किसी भेदभाव के भरण पोषण करना। जो पुरुष दूसरों के द्वारा तिरस्कृत हुए है अथवा अचानक विपत्ति में पड़ गए हैं, उनका भली भांति पालन करना । धर्ममार्ग का अनुसरण करते हुए सम्पत्ति कमाना, अर्थ की विराधना न करते हुए कामभोग करना । उतने ही धर्म का पालन करना जो तुम्हारे काम सेवन में विरोध न पैदा करता हो । तीनों पुरुषार्थों का अनुपात के साथ सेवन करने का यह शाश्वत, लौकिक नियम है । जब कभी दान दो तो इसी भावना से देना कि त्याग करना तुम्हारा कर्तव्य है । ऐसा करने से गृहीता के प्रति तुम्हारे मन में सम्मान की भावना जाग्रत रहेगी । जबजब तुम्हारे सेवक अपराध करें तो उनके अपराधों की उपेक्षा कर उनको स्वामी मानकर क्षमा कर देना । जो (अकारण ही) वैर करते हैं, अत्यन्त दोषयुक्त हैं तथा प्रमादी हैं, नैतिकता के पथ से प्रष्ट हो जाते हैं, जिन पुरुषों का स्वभाव अत्यन्त चंचल होता है तथा जो व्यसनों में उलझ जाते हैं ऐसे पुरुष को लक्ष्मी निश्चित रूप से छोड़ देती है. ऐसा लोक में कहा जाता है । इसके विपरीत जो पुरुषार्थी हैं, दीनता को पास तक नहीं फटकने देते हैं, सदा ही किसी न किसी कार्य में जुटे रहते हैं, शास्त्रज्ञान में जो पारंगत हैं, शान्ति और दया जिनका स्वभाव बन गया है तथा जो सत्य, शौच, दम तथा उत्साह से युक्त हैं ऐसे लोगों के पास सम्पत्तियाँ दौड़ी आती है।
उपर्युक्त शिक्षा से राजकुमार के निम्नलिखित गुण निर्धारित होते हैं - 1. पूज्य पुरुषों से मथुर भाषण करना तथा उनकी विनय करना । 2. शत्रुओं पर नीतिपूर्वक विजय प्राप्त करना । 3. दुष्टय को दण्ड देना तथा शरणागत की रक्षा करना |
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4. दुःखी प्राणियों की सहायता करना 1 5. त्रिवर्ग का अविरोध रूप से सेवन। 6. कर्त्तव्य को भावना से दान देना । 7.सेवकों के प्रति क्षमा भाव धारण करना । 8. गुणों को ग्रहण करना, दोषों को छोड़ना ।
वादीमसिंह के अनुसार समस्त कार्यों की प्रवृत्ति उपदेशमूलक होती है । पुरुष सुनना, ग्रहण करना, घारण करना और बारबार स्मरण करना आदि नाना प्रकार के उपायों से जो शास्त्रज्ञान प्राप्त करते हैं, उसका प्रयोजन हेय और उपादेय तत्त्व के परिज्ञान रूप आत्मतत्व की सिद्धि करना है, क्योंकि मोक्ष प्राप्ति का मूल कारण वहीं है । यदि आत्मतत्त्व की सिद्धि नहीं हुई तो चावलों का त्याग करने वाले के धान के कूटने के समान, जल से निरपेक्ष मनुष्य के कुमां खोदने के समान, शास्त्रश्रवण की इच्छा से विमुख मनुष्य के कणाद की वक्ति के अध्ययनजन्य श्रम के समान.दानगुण से अनभिज्ञ मनुष्य के धनोपार्जन के कलेश के समान, अनात्मवादी, के तपस्या के श्रम के समान, जिनेन्द्र भगवान के चरणों में प्रणाम करने की सद्बुद्धि से रहित मनुष्य के शिर का भार धारण करने से उत्पन्न थकावट के समान और इन्द्रियों के पास के दीक्षा के प्रारम्भ के समान समस्त प्रयास व्यर्थ है। इस संसार में कोपलबुद्धि को धारण करने वाले कितने ही लोग बुद्धिमानों के द्वारा निन्दित, नश्वर शरीर की जीविकामान और सभा को वश में करने में चतुर चार प्रकार के पाण्डित्य को प्राप्ति कर लेना ही शास्त्रज्ञान का प्रयोजन समझते हैं। ऐसे लोग केवल मुट्ठी भर अन्न के लिए बहुमूल्य मुक्ताफलों को बेचने वाले किरातों के समान निष्पल प्रयत्न होते हुए विद्वानों की उपेक्षा को स्वीकार करते हैं । यथार्थ में हेय और उपादेय के परिज्ञान रूप फल से युक्त शास्त्रज्ञान का निश्चय करने वाले विद्वान दुर्लभ है |
यौवन से उत्पन्न पोहरूपी महासागर हजारों अगस्त्य ऋषियों के द्वारा भी नहीं पिया जा सकता और प्रलयकालीन सूर्यों के समूह से भी नहीं सुखाया जा सकता । लक्ष्मी के कटाक्षों के प्रसार से फैलने वाला गर्व रूपी अपर समस्त औषधियों के प्रयोग की निष्फलता करने में समर्थ है । अत्यधिक ऐश्वर्य से उत्पन्न गर्दरूपी काय (व्याधिविशेष) से जिनको कान्ति रूक गई है. ऐसे नेत्र सामने रखी हुई भी वस्तु को देखने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रभावरूपी नाटक के अभिनय के लिए सूत्रधार का काम देने वाला, गर्वरूपी अपसार (मिरगी) मणि, मन्त्र और औषधि के प्रभाव को फीका कर देने वाला है । पाताल के गड्ढे में पृथ्वी के उद्धार में समर्थ बराह रूप के पारक नारायण भी फलकाल में विषय विषयाभिलाषा रूपी अत्यधिक शेवाल के जाल में फंसे हुये मन का उद्धार करने में समर्थ नहीं है । सीवरागरूपी धूलिपट्ल के समागम से उत्पन्न होने वाली मलिनता समस्त जाल के प्रवाह से भी नहीं घोयी जा सकती और राजलक्ष्मी रूपी नागिन अवस्थाओं में विषयविष के छोड़ने में भयंकर है, अत: (राजकुमारों को) कुछ शिक्षा दी जाती है जिसका एक रूप निम्नलिखित है। यहाँ जीवन्धर कुमार को प्रबोधित करते हुए गुरु आर्यनन्दी कहते हैं -
अविनयरूपी पक्षियों के क्रीडापन स्वरूप यौवन, कामरूपो सर्प के निवास के लिए रसातल स्वरूप सौन्दर्य, स्वछन्दाचरण रूप नट के नृत्य को रंगभूमिस्वरूप ऐश्वर्य और पुग्यपुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने वाली क्षुद्रता को जन्म देने वाली बलवत्ता में एक-एक भी मनुष्यों के अनर्थ के लिए पर्याप्त हैं, फिर इन चारों का एक-एक स्थान पर समागम होना समस्त अनर्थों का घर है, इसमें क्या संशय है अर्थात् कोई संशय नहीं है । मनुष्यों का मन बटिक पाषाण के समान निर्मल.
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होने पर भी यौवनरूप लक्ष्मी के चरण रूपी पल्लवों के पड़ने से ही मानों राग (लालिमा) को धारण करने लगता है । शास्त्र रूपी कसौटी के पत्थर पर पिसने से जिसकी चिकनाई दूर हो गई है, ऐसी बुद्धि भी उतरती हुई नवयौवनरूपी स्त्री के चरणों से उठी हुई घुलि से हो मानों मटमैली हो जाती है। बड़े बड़े बुद्धिमान पुरुषों को भी मनोवृत्ति यौवन के समय वास्तविक नशा से युक्त मदिरा के पीने से उन्मत होकर हो मानों हित और अहिंत को नहीं समझती है। कुछ थोड़े ही पुरुष किसी तरह विवेक को कर्णधार बनाकर यौवन सम्बन्धी उत्कण्ठा रूप तरंगों से युक्त एवं कामरूपी भंवरों से दुस्सर यौवनरूपी सागर को तैर पाते हैं । यौवनरूपी शरद के आने से पत्त, विवेकरूपी बेड़ियों को तोड़ देने वाले और विषयरूपी वन में बिहार करने वाले इन्द्रियरूपी हाथियों को वश में करने के लिए गुरूओं के उपदेश अंकुश का काम देते हैं। आप जैसे भव्य ही गुरुओं के तथाविप उपदेश रूपी बीजों की उत्पत्ति भूमि है । नई कलई के लेप से सफेद कान्ति को धारण करने वाले पहल की छत पर जिस प्रकार चन्द्रमा को किरणे सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार स्वभावसुलभ विवेक से जिसका मोह दूर हो गया है ऐसे मन में गुरुओं के वन्नन सुशोभित होते हैं । अत्यन्त तीव्र मोहरूपी काले लोह से निर्मित कवच से युक्त मूर्ख मनुष्यों के हृदय में प्रविष्ट कराए जाने वाले हितोपदेशी जमों के बचन खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।
मनुष्यों के लिए उपदेशरूपवचन मन्दराचल के मथन से उत्पन्न परिश्रम के बिना हो प्राप्त होने वाला अमृतपान है। हृदयरूपी गुहा के भीतर अत्यधिक रूप से बढ़ते हुए मलिनमोह रूपी अन्धकार के समूह को दूर करने में समर्थ, सूर्य से भिन्न पदार्थों की किरणों का समूह है। अविवेक रूपीवन को भस्म कर बालं पाण्डित्या ना आन से भिन्न पदार्थ का व्यापार हैं। परिपाक रूपी सागर की वृद्धि का प्रमुख कारण चन्द्रमा से भिन्न पदार्थों किरणों का समूह है और रत्नमयी शिलाओं से निमित्त आभूष्णों का भार धारण करने के खेद से रहित दूसरा आभूषण है । परन्तु यह उपदेश रूप वचन राजाओं के लिए विशेषकरदुर्लभ है, क्योंकि उनके लिए हित अहित का उपदेश देने वाले सज्जन मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ रहते हैं । राजाओं के सभा मण्डपों के प्रदेश दुर्जनरूपी कांटों से व्याप्त रहते हैं । अत: सज्जनपुरुष नि:शंक होकर उनमें पैर रखने के लिए कैसे समर्थ हो सकते हैं? यदि समर्थ भी होते हैं तो अपने कार्य की परवशता से उनका विवेक नष्ट होने लगता है और वे वृहस्पति के तुल्य होने पर भी किसी तरह राजाओं के समीप आश्रय पाने के लिए अग्नि को भी अतिक्रान्त करने वाली शक्ति से प्रज्वलित अनवसर क्रोध से भयंकर उन्हीं के वचनों का तोताओं के समाय स्वयं अनुवाद करने लगते हैं। (उन्हीं के स्वर में अपना स्वर मिला देते है) यदि कोई तेजस्वी मनुष्य सम्ब ओर से परहित में तत्पर होने के कारण निराकरण प्रधान वचनों की उपेक्षाकर उपदेश के वचन कहते भी हैं तो निन्दा का भार धारण करने में समर्थ राजा, पृथ्वीतल की प्राप्ति के समय चढ़े हुए प्रताप रूप ज्वर के वेग से कान बहरे हो जाने के कारण ही मानों उसे सुनते नहीं हैं। किसी तरह सुनते भी हैं तो मदिरा के नशा से मत्त सुन्दरी स्त्रियों के मुख की मदिरा के सम्पर्क से चित्तवृत्ति शिथिल हो जाने के कारण मानों उस ओर ध्यान नहीं देते और अपने लिए हित का उपदेश करने वाले विद्वानों को खेद खिन्न करते हुए उनके कहे अनुसार आचरण नहीं करते । यदि करते भी हैं तो फल को प्राप्ति पर्यन्त कार्य नहीं करते और क्या कहा जाय ? राजाओं की प्रकृति स्वाभाविक अहंकार रूपी अत्यधिक सूजन से उत्पन्न कंपकँपी से विश्वल हुआ करतो हैं । स्वभाव से हो खल-दुर्जन जैसा आचरण करने वाले राजाओं को दुराचार से प्रेम रखने वाली लक्ष्मी और भी अधिक खल (दुर्जन) बना देती है। यह लक्ष्मी कल्पवृक्ष के साथ उत्पन्न होकर भी लोभियों में प्रमुख है, चन्द्रमा की बहिन होकर भी दूसरों के लिए सन्ताप उत्पन्न करने वाले
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88 कार्यों में तत्पर है, कौस्तुभमणि के साथ उत्पन्न होकर पी पुरुषोत्तम-नारायण से द्वेश करने वाली है। यह पाप की द्धि बढ़ाने में शिकार है, परवशता उत्पन्न करने में वेश्या है, ठगने में जुआ के समान है और तृष्णा बढ़ाने में मृगमरीचिका है। यह लक्ष्मी रात्रि के समान है, क्योंकि जिस प्रकार रात्रि तम-अन्धकार सेसहित और दूसरे प्रकाश को नहीं सहने वाले स्वभाव से युक्त है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी तमोगुण सहित और दूसरे के वैभव को नहीं सहने वाले स्वभाव से युक्त है अथवा यह लक्ष्मी कुलटा स्त्री के समान है, क्योंकि जिस प्रकार व्याभिचारिणी स्त्री पुरुष से द्वेष रखती हुई दूसरे पुरुष जी योग में तत्पर रहती की एका भागी पी एमजाले साथ द्वेष रखती हुई दूसरे पुरुष की खोज में रहती है । अथवा लक्ष्मी पानी के बबूला के समान है, क्योंकि जिस प्रकार पानी का बबूला जल के ऊपर प्रभाव रखता है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी जड़प्रभवामूर्खअनों पर प्रभाव रखती है। जिस प्रकार बबूला क्षणमर के लिए अपनी उन्नति दिखलाता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी क्षणभर के लिए अपनी उन्नति दिखलाती है । अथवा यह लक्ष्मी किपाकफल के समान है, क्योंकि जिस प्रकार किंपाकफल भोगों की इच्छा को प्रवृत्त करता है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी भोगों की इच्छा को करती है- बढ़ाती है। किपांकफल जिस प्रकार कटुकफला - मृत्युरूप फल से युक्त है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी पो दुःखदाई परिणामसहित है।
इस प्रकार परगतिविरोधिनी - दूसरे की उन्नति से विरोध रखने वाली, फलदायक व्यय से दूर रहने वाली, पृथ्वी आदि भृतचतुष्टय से निर्मित शरीरमात्र पोषण में तत्पर रहने वाली और श्रेष्ठ चरित्र को नष्ट करने वाली, चावांकमत के सदृश राजलक्ष्मो से परिगृहीत राजपुत्र उसीक्षण नैयायिकों के द्वास निर्दिष्ट मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त हुए के समान पूर्ववती- गुणसमूह को भी नए कर केवल जड़स्वरूपता को अपने आधीन करते हैं और सांख्यदर्शन में कल्पित पुरुष के समान सदा अहंकार संगत प्रकृति से युक्त होते हैं तथा प्रकृति के विकार को सूचित करने वाले स्वभाव के विकार को प्रकट करने वाले वचन बोलते हैं।
राजाओं का जो स्वरूप है, उसके वर्णन करने में इन्द्र को भी असंख्य मुखों का धारक होना चाहिए । वे सज्जनों से सेवित नहीं होते हैं । वे धर्म शब्द को न सुनने वाले, मन्त्रियों की बात न मानने वाले, तेजस्वी मनुष्यों को सहन न करने वाले, शास्त्रों से रहित, काम में इच्छा रखने वाले, निर्दय अभिप्राय से युक्त, अदूरदर्शी, भविष्य के विचार से रहित, नाम का उन्मूलन करने वाले, अपने कुल को नष्ट करने वाले, भयंकर सजा देने वाले प्रष्ट, विचारशक्ति से रहित तथा योग्य निर्णय से विमुख रहते हैं।
इस प्रकार जो अत्यन्त क्षुद्र है, अनेक क्षुद्रतर मनुष्यों के समूह से भोगकर छोड़े हुए पृथ्वी के जरा से टुकड़े की प्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाले पट्टबन्ध से जो अन्ये हो रहे हैं, जो विषयरूपी अन्धकार में संचार करने वाले हैं, जो गलत रूप स्वभाव से युक्त शरीर को, विनश्वर ऐश्वर्य को, दावानल से युक्त वन के समान यौवन को, विचार करने पर नष्ट होने वाले पराक्रम को, इन्द्रधनुष के समान सौन्दर्य को और तण के अग्रभाग पर स्थित पानी की बूंद की सदृशता को प्रख्यापित करने वाले अस्थायी सुख को स्थायी समझ रहे हैं और जो सम्पन्नता के कारण उत्पन मूढ़ता से स्वयं ही मानों पतन कर रहे हैं ऐसे उन क्षुद्र राजाओं को लाठियों से घायल करते हुए के समान होने से कपटपूर्णवृत्ति को धारण करते हुए सजन की तरह चेष्टाकर चलते फिरते लक्ष्य को भेदन कराने की सामर्थ्य करने के लिये शिकार खेला जाता है, संकट में पड़े कार्य के विस्तार करने की चतुरता प्राप्त करने के लिए जुआ खेला जाता है, शरीर की दृढ़ता के लिए मांस खाया जाता है,
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चित्त को प्रसन्न रखने के लिए मदिरा पान किया जाता है । रतिसम्बन्धी चतुराई प्राप्त करने के लिए वेश्याओं के साथ समागम किया जाता है, नूतन स्त्री के साथ रतिरस में आदरभाव दूर करने के लिए परस्वी को स्वीकृत किया जाता है, शूरवीरता को बढ़ाने के लिए चोरी की जाती है, क्रीड़ा सम्बन्धी रस की प्राप्ति के लिए चंचलता धारण करना ठीक है, पूज्य पुरुषों का तिरस्कार करना महापवंता है, वन्दनीय मनुष्यों की वन्दना नहीं करना महानुभावता है और तेजस्वी मनुष्यों का तिरस्कार करना महातेजस्वीपन है, ऐसा उपदेश दे अपने अधीन कर लेते हैं।
धन के पद ने जिसके विवेक को चाट लिया है, ऐसा प्राणी भी उस प्रकार उपदेश देने वाले अधिक पापी, कुमार्गदर्शी, अहितोपदेशी, कुकृत्यकारी, कहे हए का समर्थन करने वाले. उत्कोच (रिश्वत) से जीवित रहने वाले, दूसरे की पीड़ा से प्रसन्नचित, दूसरे का अभ्युदय देखकर खिन्नचित्त, चुगलखोर और धूर्तमनुष्यों का भारसीखने में निपुण लोगों को अत्यन्त चतुर एवं अत्यन्त स्नेही समझकर अपना शरीर, अपनी स्त्री, अपना धन, अपना आचाय, सब उनके आधीन कर देते है और सम्जनों के समागत रूपी द्वार को बन्द कर देते हैं। इस प्रकार की कुशिक्षा के बल से अपनी चपलता से राजपुत्र प्रायः अविनय को पहले और यौवन को पीछे, आय शीत को पहले और अभिषेक को बाद में, अहंकार को पहले और सिंहासन पर अधिष्ठान को पीछे, कुटिलता को पहले और मुकुट को बाद में प्राप्त करते हैं । अतः ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे विद्वानों की सेवा से प्रशस्त, मनहूसी से रहित, साता साहित, बिलासानानिए डोर जागरण से युज अचल और अनुपम वृत्ति को यथार्थ में प्राप्त करने के लिए सजग हो सके । सौजन्यरूपी सागर से उत्पन्न, प्रत्युपकार की भावना से निरपेक्ष, मनुष्यमात्र के लिए दुर्लभ, पूवोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप सज्जनों के वचनरूपी अमृत के लाभ से व्यक्ति चिरकाल तक सन्तुष्ट और परिपुष्ट होते रहते हैं।
राज्य देने के बाद पिता भी पुत्र को उपयोगी शिक्षा देता था। अपने सत्यंघर नामक पुत्र को राज्य देते हुए जीवन्धर कहते हैं - हे पुत्र । तुझे धर्म के साथ स्नेह रखने वाला, प्रजा के साथ अनुराग रखने वाला, मन्त्रियों को प्रसन्न रखने वाला स्थान देने वाला, न्यायपूर्ण अर्थ की खोज करने वाला. निरर्थक कार्य से द्वेष रखने वाला, मन्द मुस्कान पूर्वक बोलने वाला, गुणों से वृद्धजनों की सेवा करने वाला, दुर्जनों को छोड़ने वाला, दूर तक विचार करने वाला, हित-अहित का विवेक रखने वाला, शास्त्रविहित कार्य को करने वाला शक्य कार्य का प्रारम्भ करने वाला, शक्यफल की इच्छा रखने वाला, किए हुए कार्य की देखरेख करने वाला. किए हुए कार्य को स्थिर रखने के व्यसन से युक्त, बीती बात के पश्चाताप के साथ द्रोह करने वाला, प्रमाद से किए हुए कार्य को दूर करने वाला, मन्त्रियों के वचनों को अच्छी तरह से सुनने वाला, दूसरे के अभिप्राय को जाने खाला, परीक्षित व्यक्ति को स्वीकृत करने वाला, परिभव को नहीं सहने वाला, शिक्षा को सहन करने वाला, देह की रक्षा को धारण करने घाला, देश की रक्षा करने वाला, उचित दण्ड की योजना करने वाला. शत्रु समूह के हृदय को भेदने वाला, देश और काल को जानने वाला, चिन्हों से अज्ञेय अभिप्राय को धारण करने वाला, यथाधता को जाननेवाले गुप्तचरों सहित, इन्द्रियों को पराधीनता को दूर करने वाला तथा गुरुभक्ति सहित होना चाहिए ।
उपर्युक्त विचारों को दृष्टि में रखते हुए वादीभसिंह के अनुसार राजकुमारों के कर्त्तव्य प्रमुख रूप से निम्नलिखित अवधारित होते हैं -
1. सदुपदेशों का भली-भांति अवधारण करना ।
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2. यौवन, सौन्दर्य, ऐश्वर्य और बलवत्ता को मनुष्य का अनर्थकारी मानना । 3. सज्जनों की संगति करना और दुर्जनों से दूर रहना । 4, अहंकार न करना। 5. लक्ष्मी के स्वरूप को समझकर उसमें आसक्ति न रखना। 6. सद्गुणों का पालन करना ।
चन्द्रप्रभुचरित से ज्ञात होता है कि संसार की परम्परा बनाए रखने वाली लक्ष्मी से विरक्त वर्तमान राजा राज्य प्राप्त करने वाले कुमार को कहता था कि मेरा चित्त पहले ही संसार से विरक्त है, मैं केवल तुम्हारे अभ्युदय की अपेक्षा करता हुआ राजपद पर स्थित था । अब तुम विपत्तिरहित और शान्तचित्त होकर अपने तेज से शाओं के उदय को मिटाते हुए इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वीमण्डल का पालन करो | जिस आचरण से सारी प्रजा तुम्हारे अभ्युदय से खेदरहित और सुखी हो वहीं आचरण करो, गुप्तचरों के द्वारा भली-भांति देखों" । नीति के ज्ञाता कहते हैं कि प्रजा को प्रसन्न रखना ही वैभव का मुख्य कारण है जो राजा विपत्ति रहित है. उसे ही नित्य सम्पति प्राप्त होती है। जिस राजा का अपना परिवार वशवी है, उसके ऊपर कभी विपत्तियों नहीं आती । परिवार के वशीभूत न होने पर भारी विकास का सामना करना पड़ता हूं।" । परिवार को वश में करने के लिए कृतज्ञता का सहारा लेना चाहिए । कृतघ्न पुरुष में सब गुण होने पर भी छह सब लोगों को विरोधी बना लेता है । कलि दोष अथवा पापाचरण से मुक्त होकर धर्म से विरोध न करते हुए अर्थ और काम को बढ़ाना चाहिए । इस मुक्ति से जो राजा त्रिवर्ग का सेवन करता है, वह इसलोक और परलोक दोनों को अपना बना लेता है। अप्रमादी होकर सदा वृद्धों की सलाह से कार्य करना चाहिए।गुरु की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्र को शोभा या वैभव को प्राप्त करता है । प्रजा को पीड़ा पहुँचाने वाले मृत्यों (कर्मचारियों) को दंड देना तथा प्रजा के अनुकूल कर्मचारियों को सम्मान देना चाहिए । ऐसा करने से वन्दोजन स्तुति करते हैं और कीर्तिसमस्त दिशाओं में व्याप्त हो जाती है | अपनी चित्तवृत्ति को सदा छिपाए रखना चाहिए । काम करने से पहले यह प्रकर न हो कि क्या किया जा रहा है । जो पुरुष अपने मन्त्र (गुप्तवार्ता) को छिपाए रखते हैं और शत्रुओं के मन्त्र को फोड़कर जान लेते हैं वे शत्रुओं के लिए सदा अगम्य रहते हैं। जैसे सूर्य तेज से परिपूर्ण है और सब दिशाओं को व्याप्त किए रहता है तथा पर्वतों का सिर का अलंकार रूप है तथा उसकी किरणें (कर) बाधाहीन होकर पृथ्वी पर पड़तो है वैसे ही तुम भी तेजस्वी बनकर सब दिशाओं को परिपूर्ण कर राजाओं के सिरताज बनो तथा तुम्हारा कर पृथ्वी पर बाधाहीन होकर प्राप्त हो।
उपर्युक्त विचारों को दृष्टि में रखते हुए पीरनन्दी के अनुसार राजकुमारों के निम्नलिखित कर्तव्य अवधारित होते हैं -
1. जिस आचरण से प्रजा खेद रहित और सुखी हो, वहीं आचरण करना। 2. परिवार को वशवर्ती करना। 3. कतज्ञहोना । 4. धर्म से विरोध न करते हुए अर्थ और काम को बढ़ाना । 5. पृद्ध जनों की सलाह से कार्य करना । 6. प्रजापोड़कों को दण्ड देना । 7. अपनी चित्तवृत्ति को छिपाए रखना ।
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फुटनोट
1. द्विसंधान महाकाव्य 3/2 2. द्विसंधान महाकाव्य 3/23 3. वही 3/24 4. द्विसंधान महाकाव्य 3/25 5, वही 3/26 6. वही 3/35 7. द्विसंधान महाकाव्य 3/40 8. द्विसंधान महाकाव्य 3/30 9. द्विसंधान महाकाव्य 3/40 10. वही 3/41 11. वही 3/43 12. आदिपुराण 4/134 13. वही 10/141 14. वही 4/138,46/340 15. उत्तरपुराण 54/132 16. वहीं 54/133 17. वही 54/134 18. घही 54/135 19. वही 54/126 20. उत्तरपुराण 62/417 21. वही 68/58-59 22. बहो 68/75-76 23. वर्धमानचरित 1151 24, वही 1/64 25. वहीं 4/25 26. यही 1/61 27. वहीं 10/64 28. नोतिवाक्यामृत 11/4 29. वही 1778 30. वही 5/39 31. नीतिवाक्यामृत 11/6 32. वही 24/73 33. वही 110
34. वही 24/74 35. वही 2475 १. उदी 24776-7: 7. वही 24/78 38. वही 24/80 39. वही 24/81 40. वही 24/84 41. वही 29/17 42. वरांगचरित 29/42 43. घरांगचरित 29133 44. वहीं 29:34 45. रांगचरित 29/35 46. वरांगचरित 29/39 47. गद्यचिन्तामणि द्वि. लम्म पृ. 102 48. गधचन्तामणि, द्वितीय लम्प, पृ. 102 - 102 49. वही द्वितीय लम्भ पृ. 106-107 50. गद्यचिन्तामणि, द्वितीय लम्भ, पृ. 107- Pos 51. गद्यचिन्तामणि, द्वितीय लष्म पृ. 109-115 52. गधचिन्तामणि, द्वितीय लम्भ पृ. 115-116 53. गद्यचिन्तामणि, पृ. 116-177 54, वही. एकादशल्भ पृ. 424-425 55. चन्द्रप्रभचरित 4.33 56. वही 4/34 57. वही 4/35 58. वहीं 4.36 59. वही 4:37 60. वही 4149 61, वहीं 4/39 62. वही 4:40 63. वहीं 4/41 64. वही 4:42 65, चन्द्रप्रभचारित 4/43
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षष्टअध्याय
मन्त्रिपरिषद और अन्य अधिकारी मन्त्रिपरिषद का महल-मन्त्रिवित् राजा को पन्त्रशाला में मन्त्रियों के साथ विचार करना चाहिए। विचार किए बिना किसी कार्य का निश्चय नहीं करना चाहिए तथा (किसी कार्य के विषय में) निश्चय हो माने पर मन्नणा नहीं काना चादि । पन्त्रिाये के नननों का उल्लघंन करना अभाग्य को निमन्त्रण देना है। समय आ पड़ने पर अपने स्वामी के प्रति गाढ़ भक्ति रखने वाला सचिव (मन्त्री) अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता है और अपने प्राणों का नाश करने वाले वचन बोलता है । गद्यचिन्तामणि के प्रथमलम्भ से पता चलता है कि राजा के प्रतिनिष्ठा रखने वाले कितने ही मन्त्रियों को मार डाला गया कितने ही को काले लोहे की बेड़ियों से बदबरण कर चोर के समान कारागृह में डाल दिया गया । मन्त्री के गणों से प्रभावित होकर कभी कभी राजा उन पर शासन का भय रखकर अपने दिन सुखपूर्वक बिताते थे इसका परिणाम अच्छा और कभी कभी बुरा भी होता था। सत्यंघर राजा द्वारा काष्ठांगार के ऊपर शासन का भार रखना उनकी मृत्यु और राज्यापहरण रुप अनिष्ट का कारण बना । गद्यचिन्तामणि के प्रथमलम्म में काष्ठागार के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है - राजा सत्यंधर काष्ठांगार नामक उस मन्त्री पर राज्य का भार रखने को तैयार हो गया, जिसने अपने स्वभाव से इन्द्र के पुरोहित बृहस्पति को तिरस्कृत कर दिया था, जो राजनीति के मार्ग को अच्छी तरह जानता था, सफलता को प्राप्त हुए साप आदि उपायों के द्वारा जिसका यश बढ़ रहा था, पराक्रमरूप सिंह के निवास करने के लिए जो चलता, फिरता वर्णन था, गाम्भोर्य रुपगुणों से जिसने समुद्र को निन्दित कर दिया था, अपनी स्थिरता से जिसने कुलाचल की खिल्ली उमाई थी, जिसका पन पत्र के समान कठोर था, जो संकट के समय भी खेदखिन नहीं होता था, जो समस्त शत्रुदल पर आक्रमण करने को तैयार बैठा था एवं अनुस्साह को जिसने दूर भगा दिया था।
उपर्युक्त विवरण से मन्त्रियों के निम्नलिखित सामान्य गुणों पर प्रकाश पड़ता है1- तीक्ष्ण बुद्धि होना 2- राजनीति के मार्ग को अच्छी तरह समझना । ३- साम आदि उपाय से सफलता प्राप्त कर यश की वृद्धि करना । 4- गाम्भीर्य और स्थैर्य गुणों से युक्त होना 1 5- संकट के समय न घबराना । 6- शत्रु पर आक्रमण करने के लिए तैयार होना । 7- उत्साही होना।
एक अन्य स्थान पर सुयोग्य मन्त्रियों के राजनीति में कुशलता, सरल बुद्धि, कुल क्रमागत मोटे कार्यों से त्रिमुखता एवं वृद्धावस्था में विद्यमान होना रुप गुणों का कथन हुआ है।
आदिपुराण के अनुसार जिस प्रकार मन्त्रशक्ति के प्रभाव से बड़े बड़े सर्प सामर्थ्यहीन होकर विकाररहित हो जाते हैं, उसी प्रकार मन्त्रशक्ति (मन्त्रापाशक्ति) के प्रभाव से बड़े बड़े शत्रु सामथ्यहीन होकर विकाररहित हो जाते हैं।
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93 राजा पन्चियों के द्वारा चर्चा किए जाने पर शत्रुओं का सब प्रकार आना जाना आदि जान लेता है और उनके द्वारा उसका आत्मबल सन्निहित रहता है । इस प्रकार यह जगत को जीतने में समर्थ होता है-1
उत्तरपुराण के अनुसार राजी प्रजा का रक्षक है, इसलिए जब सक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ होता है तभी तक राजा रहता है। यदि राजा इससे विपरीत आचरण करता है तो सचिवादि उसे त्याग देसे हैं। राजा मन्त्रियों से मिलकर किसी समस्या के समाधान का उपाय खोज लेता है बुद्धिमान व्यक्ति उपाय के द्वारा बड़े बड़े पुरुष की भी लक्ष्मी का हरण कर लेते हैं। अपने विश्व मन्त्रियों पर राज तन्त्र (स्वराष्ट्र) तथा अवाप (परराष्ट्र) की चिन्ता रखकर स्वंय शास्त्रेक्त मार्ग से धर्म तथा काम में लीन हो जाता है |
नौसिवाक्यामृत के अनुसार पुष्पमाला के आकार को धारण करने वाले तन्तु सुगन्धिरहित होने पर भी ( जिस प्रकार) पुष्पों को संगति से देवताओं के सिर पर धारण किए जाते हैं" , इसी प्रकार मूर्ख एवं असहाय राजा सुयोग्य मन्त्रियों की अनुकूलता से शत्रुओं द्वारा अजेय हो जाता है। जो राजा मन्त्री पुरोहित और सेनापति के कहे हुए योग्य सिद्धान्तों का पालन करता है, उसे आहार्यबुद्धि कहते हैं । अचेतन पत्थर महापुरुषों से प्रतिष्ठित होकर देव बन जाता है तो मनुष्य की तो बात ही क्या है ? अर्थात मनुष्य विशिष्ट पुरुषों के संसर्ग से अवश्य ही महत्व को प्राप्त हो जाता है । इतिहास से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने स्वंय राज्य का अधिकारी न होने पर भी विष्णु गुप्त चाणक्य के अनुग्रह से साम्राज्य पद को प्राप्त किया" ।
मन्त्रियों की संख्या- मन्त्रियों की संख्या अनेक होती थी, सामान्य मन्त्रियों के अतिरिक्त बहुत से मुख्य मन्त्री भी होते थे | सभी मन्त्रियों को मिलाकर मन्त्रिमण्डल बनता था मन्त्रिमण्डल को पद्मचरित में मन्त्रिवर्ग कहा गया है। हरिवंश पुराण में भी मन्त्रियों की कोई निश्चित संख्या का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । राजा श्री धर्मा के बृहस्पति, बलि, नुमुचि और प्रहलाद ये चार मन्त्री थे । इससे यह अनुमान होता है कि सामान्यतः राजा के चार ही मन्त्री हुआ करते थे। आदिपुराण से मन्दियों की संख्या प्रायःचार होने से समर्थन होता हैये चारों राज्य के चार चरणों के समान होते थे। इनकी उत्तम योजना के कारण राजा का राग्य समवृत्त (जिसके चारों चरण समान लक्षण के धारक हों) के समान विस्तार को प्राप्त होता था राजा आवश्यकतानुसार इन मन्त्रियों में से कभी तीन के साथ कभी दो के साथ, कभी एक के साथ कभी चारों के साथ मन्त्रणा करता था आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा को केवल एक मन्त्री नहीं रखना चाहिए क्योंकि अकेला मन्त्री स्वतन्त्र होने से निरकुंश हो जाता है और कठिनता से निश्चय करने योग्य कार्यों मे मोह को प्राप्त हो जाता है ।अकेला व्यक्ति अपने को अनेक कार्यों में नियुक्त नहीं कर सकता है । जिस प्रकार एक शाखा वाले वृक्ष से अधिक छाया नहीं हो सकती, उसी प्रकार अकेले मन्त्री से राज्य के महान् कार्य सिद्ध नहीं हो सकते है ।राजा कोदो मन्त्री भी नही रखना चाहिए, क्योंकि दो मन्त्री आपस में लड़कर राज्य को नष्ट कर डालते हैं। यदि दोनो मन्त्रियों का निग्रह किया जाता है तो वे दोनों मिलकर राजा को नष्ट कर देते हैं। दो बलिष्ठ बैल जिस प्रकार अधिक भार होने में नियुक्त किए जाते है, उसी प्रकार दो गुणी मन्दियों के रखने में कोई हानि नहीं है। इसी का समर्थन करते हुए सोमदेव कहते हैं यथोक्तगुण (सदाचार आदि) वाले एक या दो मन्त्रियों को नियुक्ति में कोई दोष नहीं है । सामान्यतया राजा को तीन, पाँच या सात मन्त्री नियुक्त करना
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चाहिए। परस्पर में ईर्ष्या रखने वाले बहुत से मन्त्री राजा के समक्ष अपनी बुद्धि का उत्कर्ष प्रकट करते हैं (अपना अपना मत पुष्ट करते हैं) बहुत से अन्धों का समूह रुप को नहीं जान सकता, इसी प्रकार बहुत से गुणहीन मन्त्री यथार्थ निश्चय नहीं कर सकते।
मन्त्रियों की योग्यता - मन्त्री को अर्थतत्वका जानने वाला हितकर और प्रिय सम्मति देने वाला, अपने राज्य को सब प्रकार से सम्पन्न बनाने में तत्पर*, इष्ट कार्य को करने वाला पक्षपात की भावना से रहित ,स्वामी के प्रति सदैव भक्ति रखने वाला. सदबुद्धि से युक्त". युक्ति संगतवचन बोलने वाला. सब दृष्ट्रियों से हितकर संक्षिप्त तथा सारपूर्ण वचन बोलने वाला तथा हिताहित के विचार में दक्ष होना चाहिए।जो बुद्धिमान नहीं होते हैं, उनके द्वारा सोची गई योजनायें निश्चित रुप से विनाश को प्राप्त करती हैं। वर्तमान तथा भविष्य में उपस्थित होने वाले कार्य को प्राप्त करता है स्वंय समझे बिना हा केवल दूसरों की बुद्धि और तकणा से जो व्यक्ति समझने का प्रयत्न करते हैं, उन मूढ़ो को अपने कार्य में सफलता नहीं मिलती है। बुरी सपति मानने के कारण वे उन सम्मति देने वालों के साथ नष्ट हो जाते हैं" । मन्त्रियों के विशेषण में एक विशेषण 'मन्त्रमार्गविद्' आता है' अर्थात् मन्त्री को मन्त्रमार्ग का ज्ञाता होना चाहिए । भरत और बाहुबली राजा समान बलशाली थे । उनका यदि युद्ध होता तो जनपद का क्षय होता, अत: हरिवंशपुराण के 11वें सर्ग में कहा गया है कि दोनों ओर के मन्त्रियों ने परम्पर सलाह कर कहा कि देशवासियों का क्षयन हो, इसलिए दोनों राजाओं में धर्मयुद्ध होना चाहिए । भरत और बाहुबली दोनों ने मन्त्रियों की बात मान ली | आदिपुराण अच्छे मन्त्री को सरल, दूरदर्शी, शीघ्र ही कार्य करने वाला, शास्त्र माग के अनुसार चलने वाला , छल रहिस, स्वच्छ हृदय को प्रकट करने वाला, अन्तरंग अनुराग को प्रकट करने वाला, सर्वस्वसमर्पणकारी, अपना गुप्त घन राजा के पास रखने वाला और उदार होना चाहिए।
मन्त्रियों की योग्यता की परीक्षा - मन्त्रियों को परीक्षा चार प्रकार की उपधाओं (गुप्त उपायों) तथा जाति आदि गुणों से करना चाहिए" । चार उपघायें ये हैं, 1- धर्मोपचा।
2- अर्थोपधा। 3- कामोपचा।
4- भयोपधा । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इनका विस्तृत वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है
1.थोपधा - धर्मोपधा से राजा पुरोहित को किसी नीच जाति के यहां यज्ञ करने तथा पढ़ाने के लिए नियुक्त करे। जब पुरोहित इस कार्य के लिए निषेध करे तो राजा उसको उसके पद में ज्युत कर दे । वह पदच्युत पुरोहित गुप्चतर स्त्री पुरुष पुरुषों के माध्यम से शपथपूर्वक प्रत्येक अमात्य को राजा से भिन्न कराए । वह कहे - यह राजा बड़ा अधार्मिक है । हमें चाहिए कि उसके स्थान पर उसके ही वंशज किसी श्रेष्ठ पुरुष को, किसी धार्मिक व्यक्ति को, समीर के किसी सामन्त को, किसी जंगल के स्वामी को या जिसको भी हम एकमत होकर निश्चित कर लें, उसको नियुक्त करें । मेरे इस प्रस्ताव को सबने स्वीकार कर लिया है बताओ तुम्हारी क्या राय है ? पुरोहित की यह बात सुनकर आमात्य यदि उसे स्वीकार न करे तो उसे पवित्र हृदय वाला समझना चाहिए । इस प्रकार गुप्त धार्मिक उपायों द्वारा अमात्य के हदय की पवित्रता की परीक्षा को धर्मोपधा कहते
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2. अर्थोपा अर्थोपधा से राजा किसी निन्दनीय या अपूज्य व्यक्ति का सत्कार करने के लिए सेनापति को आदेश दे। राजा की इस बात से जब सेनापति रुष्ट हो जाय तो राजा उसकी भी पदच्युत कर दे। वह पदच्युत अपमानित सेनापति गुप्त भेदियों द्वारा अमात्य को धन का प्रलोभन देकर उन्हें पूर्वीक्त विधि से राजा के विनाश के लिए उकसाए। वह कहे मेरी इम युक्ति को सभी
स्वीकार कर लिया है। बताओ, तुम्हारी क्या सम्पति है ? सेनापति को यह बात सुनकर अमात्य यदि इसका विरोध करे तो समझ लेना चाहिए कि वह पवित्र हृदय वाला है। इस प्रकार गुप्त आर्थिक उपायों द्वारा अमात्य के हृदय की पवित्रता की परीक्षा को अर्थोपा कहते हैं ।
3. कामोपधा- कामोपधा से राजा किसी सन्यासिनी का वेष धारण करने वाली विशेष गुप्तन्नर स्त्री को अन्तःपुर में ले जाकर उसका अच्छा स्वागत सत्कार करे और फिर वह एक एक अमात्य के निकट जाकर कहे कि महामात्य महारानी जी पर आसक्त है। आपके समागम के लिए उन्होंने पूरी व्यवस्था कर दी है। इससे आपको यथेष्ट धन भी प्राप्त होगा। अमात्य यदि उसका विरोध करे तो उसे पवित्रचित्त समझना चाहिए। इस प्रकार गुप्त काम सम्बन्धी उपायों द्वारा अमात्य के हृदय में पवित्रता की परीक्षा को कामोपघा कहते हैं।
4. भयोपधा - नौकाविहार के लिए एक अमात्य दूसरे अमात्य को बुलाए। इस प्रस्ताव पर राजा उत्तेजित होकर उन सबको दण्डित कर दे तदन्तर राजा द्वारा पहले अपकृत हुआ कपटवेषधारी छात्र (छात्र के रूप में गुप्तचर) उस तिरस्कृत एवं दण्डित अमात्य के निकट जाकर उससे कहे यह राजा बहुत ही बुरा है । इसका वध करके हम किसी दूसरे राजा को उसके स्थान पर नियुक्त करें। सभी अमात्यों को यह स्वीकृत हैं कहिए, आपकी क्या राब है ? अमात्य यदि उसका विरोध करे तो उसको शुचिचित्त समझना चाहिए। इस प्रकार गुप्तमय सम्बन्धी उपात्रों द्वारा अमात्य की शुचिता की परीक्षा को भयोपधा कहते है* ।
जाति आदि गुणों से तात्पर्य मन्त्री का स्वदेशोत्पन्ना, सत्कुलीन, अवगुण शून्य, निपुणमवार एवं ललितकलाओं का ज्ञाता, अर्थशास्त्र का विद्वान, बुद्धिमान, स्मरणशक्ति सम्पन्न, चतुर, वाकपटु प्रगल्भ ( दबंग) प्रतिवाद तथा प्रतीकार करने में समर्थ, उत्साही, प्रभावशाली, सहिष्णु, पवित्र, मित्रता के योग्य, दृढ़, स्वामिभक्त, सुशील, समर्थ, स्वस्थ, धैर्यवान, निरभिमानी, स्थिरप्रकृतिः प्रियदर्शी और द्वेषवृत्तिरहित होना है" । मन्त्री पद की प्राप्ति, राजा की प्रसन्नता व शस्त्रों से जीविका करना, इनमें से प्राप्त हुई एक एक वस्तु भी मनुष्य को उन्मत्त बना देती है। इन तीनों का समुदाय उपस्थित हो तो कहना ही क्या" ? अतः राजा को योग्यता देखकर मन्त्रियों को नियुक्ति करना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में से एक वर्ष का स्वदेशवासी, सदाचारी, कुलीन, विशुद्ध. निर्व्यसनी, अव्यवाभिचारी, समस्त व्यवहारों का ज्ञाता, युद्धविद्धा में प्रवीण तथा छलकपट से रहित व्यक्ति को मन्त्री बनाना चाहिए"। नीच कुल वाला मन्त्री राजा से द्रोह करके भी मोह के कारण किसी से लज्जा नहीं करता है । कुलीन पुरुषों में विश्वासघात आदि का होना अमृत का विय होने के समान है। जिस प्रकार नेत्र की सूक्ष्मदृष्टि उसके महत्व का कारण होती है, उसी प्रकार राजमन्त्री की भी यथार्थ दृष्टि उसको राजा द्वारा गौरव प्राप्त कराने में सफल होती है ।
मन्त्रियों की नियुक्ति गुप्तचर रूपी नेत्रों से युक्त राजा के मन्त्री ही निर्मल चक्षु है" । अतः योग्य मन्त्रियों की नियुक्ति होना चाहिए। मन्त्रियों की नियुक्ति राजा करता था । गद्यचिन्तामणि
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के दशम लम्भ में राजा द्वारा महामात्र (महामन्त्री) की नियुक्ति का उल्लेख हुआ है। उत्तरपुराण में इसी का समर्थन करते हुए कहा गया है- राजा मन्त्रियों की नियुक्ति करता और बढ़ाता है। मन्त्री अपने उपकारों से राजा को बढ़ाते हैं ।
नोतिवाक्यामत के अनुसार (मन्त्री,सेनाध्यक्ष आदि) करण की नियुक्ति अनेक पुरुषों सहित तथा अस्थायी होना चाहिए । अस्थायी करते समय स्वदेश व परदेश का विचार नहीं करना चाहिए।
मन्त्रियों के अर्थ - मन्त्रिगण राजा के प्रत्येक कार्य में सलाह दिया करते थे । राजा मय की पुत्री मन्दोदरी जब तारुण्यवती ही गई तब उसके योग्य वर की खोज के लिए राजा ने मन्त्रियों से सल्लाह की" | मन्त्र करने में निपुण मारीच आदि सभी प्रमुख मन्त्रियों ने बड़े हर्ष के साथ राजा को उचित समानी ! राजा महेन्द्रकी की संभाजन मियाह योग्य उस सपय महेन्द्र ने भी मन्त्रिजनों से योग्य पर बतलाने के लिए कहा और विचारविमर्श कर योग्य वर की तलाश की। यम नामक लोकपाल के द्वारा रावण की प्रशंसा किए जाने पर अब इन्द्र (इन्द्र नामक रामा) युद्ध के लिए उद्यत हुआ, तब नीति की यर्थाथता को जानने वाले मन्त्रियों ने उसे रोका" । राजा जन विभिन्न प्रकार के वाद विवादों का निर्णय करता था, उस समय मन्त्रिगण भी वादस्थल में उपस्थित रहते थे । मृगांक आदि मन्त्रियों ने रावण को समझाया कि सीता को छोड़कर राम के साथ सन्धि करो।नौतियुक्त बात कहने के कारण रावण उसकी बात टाल नहीं सका और उसने सन्धि के लिए दूत भेजा, परन्तु दृष्टि के संकेत से रावण ने अपना दुरभिप्राय समझा दिया। इसके बाद पुन: मन्दोदरी ने रावण को समझाने के लिए मन्त्रियों को प्रेरित किया तब मन्द्रियों ने स्पष्ट कह दिया कि दशासन का शासन यमराज के शासन के समान है । वे अत्यन्त मानी और अपने आपको ही प्रधान मानने वाले हैं । मन्त्रियों के इस कथन से ही उनकी विज्ञता सूचित होती है।
मन्त्रिगण हृदय से राजा के प्रति प्रेम घारण करने वाले होते थे। जब हनुमान दीक्षा लेने का विचार व्यक्त करते हैं तो मन्त्रि लोग शोक से व्याकुल हो जाते हैं और कहते हैं- देव । आप हम लोगों को अनाथ न करें । राजा को अनुपस्थिति में या अन्य किसी आपत्ति में मन्त्रि लोम अन्तः पुर को यत्नपूर्वक रक्षा करते है। जब साहसगति विद्याधर ने सुग्रीव का वेष धारणकर लोगों को वास्तविक सुग्रीव के विषय में भ्रम में डाल दिया। तब मन्त्रियों ने सलाह की कि निर्मल गोत्र पाकर हो शीलादि आभूषण से विभूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अन्तःपुर की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।
हितकारी कार्य में प्रवृत्त करना और अहितकारी कार्य का निषेध करना मन्त्री के ये दो कार्य है । मन्त्री को चाहिए कि वह परिपाक में पध्यरूप वचन कहे। क्योंकि जो बुद्धिमान होते हैं ये अकार्य को कभी नहीं बतलाते हैं । मन्त्री नीति का परित्याग न करने वाले, विपाक में रमणीय विद्वानों को हितकर कानों को रसायन के समान लगने वाले वचन कहकर विराम ले ले।
बिना जाने या बिना प्राप्त किए हुए शत्रु सैन्य वगैरह का जानना या प्राप्त करना, जाने हुए कार्य का निश्चय करना, निश्चित कार्य को दृढ़ करना, किसी कार्य में सन्देह होने पर निवारण करना, एकोदेश प्राप्त हुए भूमि आदि पदार्थों का प्राप्त करना अथवा एकदेश जाने हुए कार्य के शेषमाग को जान लेना ये सन कार्य राजा को मन्त्री आदि की सलाह से सिद्ध करना चाहिए।
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मन्त्री को राजा के लिए दुख देना उत्तम है, किन्तु अकार्य को उपदेश देकर उसका विनाश करना उत्तम नहीं है । जब बच्चा दूध नहीं पीता है तब माता उसके गाल पर थप्पड़ लगाती है. इसी प्रकार मन्त्री को भी राजा की भलाई के लिए भविष्य में हितकारक और तत्काल कठोर व्यवहार करना चाहिए । मन्त्री लोग राजा के दूसरे बुदय होते हैं, अत: उन्हें किसी के साथ स्नेहादि सम्बन्य नहीं रखना चाहिए। राजा द्वारा किया हुआ निग्रह (दण्ड) और अनुग्रह मन्त्रियों द्वारा किया हुआ हो समझना चाहिए । जो मन्त्री राजकार्य में सावधान रहते है, फिर भी उनका कार्यसिदध नहीं होता तो उनका कोई दोष नहीं है, राजा को पूर्वजन्य सम्बन्धी भाग्य का दोष है ।
राजा और मन्त्री का पारस्परिक व्यवहार - मन्त्रियों के प्रति राजा बहुत सम्मान की भावना रखता था। एक स्थान पर मन्त्रणा के लिए बुलाए हुए मन्त्रियों से बातचीत करता हुआ राजा कहता है - हम र राजा) भी नीति में निपुण हो गए. यह आप ही लोगां की महिमा है । दिवम जो पब संसार को प्रकाशित करता है वह सूर्य का ही प्रताप है" । माता पुत्र को अपने कौशल से बढ़ाती है, चतुरता सिखाती है, अप्रमादी होकर रक्षा करती है, यही सब व्यवहार आप लोगों की बुद्धि भी हमारे साथ करती है । जिसके आप (मन्त्रिगण)सदृश गुरु सन्न कार्यों की देखभाल करते हैं वह मैं (राजा) सुमेरु केसपान प्रयोजन ( अत्यधिक कठिन कार्य) आ पड़ने पर भी व्याकुल होने वाला नहीं । यदि अंकुशतुल्य आप जैसे गुरु सिर पर न होता गजसदृश होने के कारण पग पग पर विचलित होने वाले जो हम लोग है. उन्हें कुपथ पर ले जाने से कौन रोके? आप ही लोगों की बुद्धि के सहारे मेरा पराक्रम आगे बढ़ाकर शत्रुओं पर आक्रमण करता है । इसके उत्तर में मन्त्री भी शिष्टाचारपूर्वक राजा से निवेदन करता है- आप ही के प्रसाद से हम ऋद्धि और बुद्धि(मति) के पात्र बने है । अतएव आप ही इस पृथ्वी पर हमारे गुरु, ईश (स्वामी) सुहृद और एक मात्र बन्धु हैं । कार्य को समझने वाले और परम्परा को देखे हुए जो आप लोग हैं, उनके आगे नीतिशास्त्र का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति का लज्जित होना ही स्वाभाविक है।कार्य को समझने वाले के आगे शास्त्रज्ञ का बोलना अच्छा नहीं लगता है तथापि अन्डे अधिकार पर स्थित लोगों का धर्म है कि वे अपनी शक्ति पर प्रभु को सलाह दें। इसी में पड़े चावल की तरह कभी कभी बालक से भी थोड़ी सी अच्छी बात मिल जाती है । इस प्रकार लम्बी बातचीत होती थी। अन्त में राजा हितकर वचन स्वीकार कर लेता था ।
अमात्य और उनका महत्व - जो राजा द्वारा दिया हुआ दान सम्मान प्राप्त कर अपने कर्तवय पालन में उत्साह व आलस्य करने से क्रमश: राजा के साथ सुखी दुखो होते हैं, उन्हें अमात्य कहते है । जब शतरंज का राजा मंत्री के बिना चतुरग सेना सहित होकर भी उसका राजा नहीं हो सकता, तो वास्तविक राजा को तो बात ही क्या है ? अकेला राजा (अमात्य आदि की सहायता के बिना) कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है । जिस प्रकार (रथ आदि का) एक पहिया नहीं चल मक्रता है, उसी प्रकार मन्त्री आदि की सहायता के बिना राज्यशासन नहीं चल सकता है । जिम प्रकार अग्नि ईधन युक्त होने पर भी हवा के बिना प्रज्वलित नहीं हो सकती । उसी प्रकार मन्त्री के बिना बलिष्ठ व सुयोग्य राजा भी राज्यशासन करन में समर्थ नहीं हो सकता है । अमात्य को पद्मचरित में सचिव तथा मन्त्रि" नाम से उल्लिखित किया है । यहाँ इन्हें मत्रकोविद" (मन्त्र ज्ञाता), महाबलवान, (महावला), नीति की यर्थाथता को जानने वाले (नय याथाल्यकेदिना),
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98 सदभिप्राय से युक्त (तमानस:),सब कुछ जानने वाले विद्वान", निभीक उपदेश देने वाले, निज और पर की क्रियाओं को जानने वाले प्रेम से भरे, (राजा के परम अनुयायी आदि विशेषणों से भूषित किया गया हैं।
. अमात्यों का अधिकार क्षेत्र - अमात्यों के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत चार बातें आती हैं। (1) आय, (2) ध्यय, (3) स्वामिरक्षा, (4) तन्नपोषण ।
चतुरंग सेना को तन्त्र कहते हैं । अमात्य के दोष- अमात्य के निम्नलिखित दोष हैं। (1) भक्षण ( राजकीय धन खाना), (2) उपेक्षण (राजकीय सम्पत्ति नष्ट करना),
(3) प्रज्ञाहीनता (बुद्धि नष्ट होना),(4) उपरोध (प्रभावहीनता), (5) प्राप्ताप्रिवेश (करादि से प्राप्त धन जपा न करना), (6) द्रव्यविनिमय (राजकीय बहुमूल्य अल्पमूल्य में निकालना)
अमात्य होने के अयोग्य पुरुष - राजा को (१)तीक्ष्वा (अत्यन्त क्रोधी) (2) बलवान पक्ष वाला (३) मलिन (अशुचि) (4)व्यसनी (5) नाचकुलवाला (6) हठी (7 अधिक व्यय करने वाला (३) परदेशी और (9) कृपण व्यक्ति को अमान्य नहीं बनाना चाहिए।
___ क्रांची व्यक्ति दण्डित किए जाने पर या तो स्वंय मर जाता हैं या स्वामी को मार डालता हैं। प्रबलपक्ष वाला व्यक्ति मन्त्री पद पर नियुक्त होकर नर्दापुर के समान राजा रूपी वृक्ष का जड़ से उखाड़ देता है । जो आमदनी अल्प करता है और म्यय अधिक करता है वह राजकीय धन खा जाता है । थोड़ी आय घाला ( अमात्य) दरिद्रता के कारण देश व राजकुटुम्ब को पीड़ित करता है । विदेशी पुरुषों को धन के आय-व्यय का अधिकार और प्राणरक्षा करने का अधिकार नहीं देना चाहिए, क्योंकि वे राज्य में कुछ समय सक टहरकर अपने देश को प्रस्थान कर जाते हैं और समय पाकर राजद्रोह करने लगते हैं। अपने देशवासी पुरुषोद्वारा ग्रहण किया हुआ धन कुएं में गिरी हुई ( धनादि) वस्तु के समान धोड़े समय बाद प्राप्त हो सकता है । अत्यन्त कृपण व्यक्ति जब धन ग्रहण कर लेता है, तब उससे धन वापिस लेना पापाण से वत्कल (छाल) छोलमें के समान कठिन है''। यदि थालो अन्न आदि का भक्षण करने लगे तो भोजन करने वाले का भोजन कैसे मिल सकता है": ? इसी प्रकार अमात्य आदि धन को हड़पने लगे तो राज्य का कार्य नहीं चल सकता है । जब कोई मनुष्य किसी कन्या से विवाह करने का इच्छुक होकर किसी अन्य व्यक्ति को (सन्देश आदि के माथ) उसके पास भेजता है और वह जाने वाला व्यक्ति इस कन्या से स्वयं विवाह कर लेता है तो उस भेजने वाले व्यक्ति का तप करना ही श्रेयस्कर है। इसी प्रकार धनरक्षा के कार्य में नियुक्त अमात्य आदि स्वयं धन भक्षण करते हैं तो राजा को राज्य छोड़कर तप करना ही श्रेष्ठ है । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस राजा के मन्त्री की बुद्धि धनग्रहण करने में आसक्त होती है, उस राजा का न तो कोई कार्य हो सिद्ध होता है, न उसके पास धन ही रह सकता है।
मन्त्रियों के दोष
(1) राधा की इच्छा के अनुसार अकार्य की कार्य के रूप में शिक्षा देना - जो मन्त्री राजा की इन्ठा मे उसकी आज्ञा के अनुसार चलने के उद्देश्य से अकार्य की कार्यरुप में शिक्षा देता है, वह राजा का शत्रु हैं ।
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(2) व्यसनता -जिस राजा का मन्त्री व्यसन (जुआ, मधपान. पर स्त्रीसेवन आदि) में फैमा हुआ है वह राजा पागल हाथी पर चढ़े हुए मनुष्य के समान शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
(3) युद्धयोद्योग अथवा भूमित्याग का उपदेश देना - यह क्या मन्त्री या मित्र है जी (शव द्वारा आक्रमण किए जाने पर) प्रथम ह्री (सन्यि आदि उपाय को छोड़कर) युद्ध करने अथवा भूमि का परित्याग करने का उपदेश देकर निश्चित रुप से महान अनधं उत्पन्न करता है।
(4) हितोपाय तथा अहितप्रतीकार न करना - जो मन्त्री अपने स्वामी को उन्नति के उपाय और दुखों के प्रतीकार को नहीं जानता है, केवल भक्ति दिखाता है. उसको भक्ति से क्या लाभ
(5) अकुलीनता : अकुलीन ( मन्त्री आदि) अपनी अपकीर्ति मे नहीं डरते हैं। मीन कल वाले (व्यक्ति)समय आने पर पागल कुत्ते के विष की तरह विरुद्ध हो जाते है ।
(6) स्वेच्छाचारिता - स्वेच्छाचारी (पुरुष) आपस की उचित सलाह नहीं मानते हैं।" ।
(7) व्यावहारिकता का अभाव - जिस ज्ञान के द्वारा दूसरों को समझाकर सन्मार्ग पर न लगाया जाय वह मन्त्री या विद्वान का ज्ञान घर में रखे हुए दीपक के समान व्यर्थ है। 1 जिसका शस्त्र अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं है ऐसे शस्त्रविद्या में प्रवीण मन्त्री से क्या लाभ हो सकता हैं। ? कुछ भी लाभ नहीं हो सकता है । शस्त्र या शास्त्र व्यर्थ है जो विरोधी व्यक्तियों के आक्रमण को नहीं रोकता है।
(8) मूर्खता - जो मनुष्य धार्मिक क्रियाकाण्डों का विद्वान नहीं है, उसको जिम्य प्रकार श्राद्धक्रिया कराने का अधिकारी नहीं है, उसी प्रकार राजनीतिविज्ञान से शून्य मुर्खमन्त्री को भी मन्त्रणा का अधिकार नहीं है। जिस प्रकार अन्धा मनुष्य देख नहीं सकता है, इसी प्रकार मुम्न मन्त्री भी मन्त्र का निश्चय नहीं कर सकता। यदि अन्य मनुष्य को दूसरा अधा ले जाये तो वह सन्मार्ग को नहीं देख सकता", इसी प्रकार मूर्ख मन्त्री द्वारा मार्ग दिखाया गया मूखं राजा अभीष्ट स्थान को नहीं पा सकता है । मुर्ख मन्त्री से यदि कभी कार्यसिद्ध हो जाय तो वह काकतालीयवत् (अन्धे के हाथ बटेर) होती हैं। 1 मूर्ख मनुष्य जो कार्य करते हैं, उसमें उन्हें बहुत क्लेश उठाना पड़ता है और फल थोड़ा मिलता है।। । मूखं मनुष्य का शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता है120 1 मूर्ख मनुष्य को मन्त्रणा का ज्ञान घुणाक्षरन्याय के समान हो जाता है जो राजा मूर्ख मन्त्रियों को राज्यभार समर्पण करता वह अपने नाश के लिए की गई मन्त्रसिद्धि के समान अपना नाश कर डालता है।
(9) विषमता - विषम (परस्पर ईष्यां के कारण मतभिन्न हाले) पुरुषों के समूह में एक सम्मति होना कठिन है।3।।
(10) शस्त्रोपजीविका - शस्त्रों से जीविका करने वाले (क्षत्रिय) को कलह के बिना म्याया हुआ भोजन नहीं पचता । अतः शस्त्रसंचालन करने वाले मन्त्रिपद के योग्य नहीं है।" । सत्रिय को रोकने पर भी केवल कलह सूझता है105 |
मन्त्रणा और उसका माहात्म्य - आचार्य विशालक्ष का कहना है कि एक हो यक्ति दाग सोचा विचारा हुआ मन्त्र सिद्धिदायक नहीं हो सकता । सभी राजकार्य प्रत्यक्ष और परिक्ष दो पता के होते हैं, उनके लिए मन्त्रियों की अपेक्षा होती है । न जाने हुए कार्य को जानना. जाने हुए काय
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100 का निश्चय करना, निश्चित कार्य को दृढ़ करना और किसी कार्य में सन्देह उत्पन्न हो जाने पर विचारविमर्श द्वारा उस संशय का निराकरण करना, आंशिक कार्य को पूरी तरह विचारना इत्यादि सभी बातें मन्त्रियों के सहयोग से ही पूरी की जा सकती हैं, इसलिए विजिगीशु राजा को अत्यन्त अजिमार और पर्याप्त मानवी पवित मान लेटर र टिना डरना चाहिए'" । घनन्जय के अनुसार जिस कार्य में योजना में सज्जनों का सहयोग हो, दण्डनीति द्वारा जिसका रक्षण हो तथा उच्चस्थान पर गत शुभग्रहों की जिस पर दृष्टि हो वह योजना लक्ष्मी मन्दिर के प्रवेशद्वार के समान होती है। जो ऐसी योजना में मुढ़ है, उसे नीतिकार दिग्भ्रान्त ही कहते है | प्रारम्भ न करने से, प्रारम्भ करके भी अनुभवहीनता के कारण, चातुरी होने पर भी स्थान परिवर्तन के कारण अबसर बीसा कार्य अथवा यौवन पुनः हाथ नहीं आता। अतएव प्रवृत विषय पर अर्थसाधक अर्थ, अनर्थकारी अर्थ, अर्थबाधक अनर्थ और अनर्थकारी अनर्थ इन चार दृष्टियों से विचार करना चाहिए ।
मन्त्रणा करते समय ध्यान देने योग्य वातें - पन्त्रणा करते समय न बहुत थोड़ा बोलना चाहिए, न बहुत अधिक बोलना चाहिए. थोड़ा कहे जाने पर मूखों की समझ में नहीं आता, बहुत बोलना विशेषज्ञ विद्वानों को उद्वेजित कर देता है,अत: समुचित सुझावरुप अर्थ से परिपूर्ण वाणी का प्रयोग करना चाहिए । ऐसी वाणी विद्वानों की युक्ति के समान होती है । विचारणीय विषयों में प्रत्येक जो सामने आता है, उसको एक एक ही दृष्टि से ऐसा बैठाना चाहिए जो भविष्य में इष्टसाधक हो, जैसे कि सामने आये हुए ग्रास एक मुख से ही एक-एक करके लेने से पथ्य होते हैं अथवा एक साथ उपस्थित विचारणीय विषयों को अनेक अवयवों की दृष्टि से वैसे विचारना चाहिए जैसे विविध दृष्य भोगों को इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं | जो व्यक्ति कार्य के प्रारम्भ में ही नोति से काम नहीं लेता है, उसके राज्यादिभोग सरस नहीं होते हैं, इसलिए विधाता ने लोगों के पुख में जिव्हा बनाई है, पेट में जिम्हा नहीं बनाई है।47 । यदि प्रतीक्षा को जा सकती हो तो समस्त आरय कार्य को थोड़ा करके ही हाथ लगाना चाहिए, जैसे गाय परमप्रिय भोजन को एक बार में ही पूरा तथा जी भरकर खाकर बाद में धीरे धीरे जुगाली करती है कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसके अत्यन्त मित्र होते हों अथात्रा जिसके सर्वथा शत्रु ही होते हों, अतएव जिसका आरम्भ करने से मित्रता का अतिक्रमण न होता हो अथवा शत्रु समूह के साथ वैर का अपलाप न होता हो वहीं कार्य करना चाहिए143 ।मन्त्रणा पौरुष के पुट से व्याप्त तथा अर्थ में महान् होना चाहिए । बहुत वचन और थोड़े अर्थ वारली वाणी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि थोड़े से दर्पण में भी बहुत बड़े पदार्थ को परछाई दिख जाती हैं | मन्त्री को विश्वस्त होना चाहिए यदि मन्त्री फूट जाय तो पराजय का सामना करना पड़ सकता हैं।
मन्त्रणा करने का स्थान - मन्त्रणा एकान्त स्थान में होनी चाहिए तथा दृढ़ता और गम्भीरता से युक्त होनी चाहिए । मन्त्रणा करने के लिए अलग एकान्त गृह होता था, जिसे मन्त्रगृह कहते थे। यहाँ युवराज तथा मन्त्रियों से राजा बातचीत करता था। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा हैजिस स्थान पर बैठकर मन्त्रणा को जाय, वह चारों ओर से इस प्रकार बन्द होना चाहिए, जिससे वहाँ पक्षी तक न झौंक सके और कोई शब्द बाहर सुनाई न दे, क्योंकि अनुश्रुति है कि पुराकाल में किसी राजा की गुप्तमन्त्रणा को तोता और मैना ने सुनकर बाहर प्रकट कर दिया था। इसी प्रकार कुत्ते और अन्य पशुपक्षियों के विषय में भी सुना जाता है । इसलिए राजा की आज्ञा के बिना कोई
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भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में मन्त्रणा स्थल न जावे । यदि गुप्तमन्त्रणा के भेद को कोई फोड़ दे तो तत्काल ही उसको मरवा दे । सोमदेव के अनुसार जो स्थान चारों तरफ से खुला हो तथा चारों तरफ से प्रतिध्वनि गुंजती हो ऐसे (पर्वत गुफा आदि स्थानो में) मन्त्रणा नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति दिन या रात्रि में मन्त्रणा करने के योग्य स्थान की प्रतीक्षा किए बिना ही मन्त्रणा करता है। उसका गुप्त मंत्र प्रकाशित हो जाता है।
मन्त्रणा के अयोग्य व्यक्ति - राजा ने जिनके बन्धु आदि कुटुम्बियों का अपकार किया है, उसे उन विरोधियों के साथ मन्त्र (गुप्त सलाह ) नहीं करना चाहिए | कोई भी व्यक्ति राजा को आज्ञा के बिना मन्त्रणा के समय बिना बुलाया हुआ उस स्थान पर न तहरे । सुना जाता है कि तोता, मैना ने तथा दूसरे पशुओं ने राजा की गुप्त मन्त्रणा को प्रकाशित कर दिया था।
मंत्रभेद (गुप्त मन्त्रणा के प्रकाशन) से हानि - गुप्त मंत्रणा के प्रकाशन (मन्त्रभेद) से उत्पन्न संकट को कठिनाई से नष्ट किया जा सकता है |
__ मन्त्रभेद के कारण - इंगित (मुखचेष्टा) 2-आकार (शरीर की सौप्य या रौढ़ आकृति) 3-मद 4-प्रमाद 5-निद्रा तथा प्रतिध्वनि' से मन में रहने वाले गुप्त अभिप्राय को चतुर लोग जान लेते हैं।
मन्त्रणा की सुरक्षा और उसका प्रयोग - जब तक कार्य सिद्ध न हो जाय तब तक अपने मन्त्र ( गुप्त बातचीत) की रक्षा करनी चाहिए" । मन्त्रियों को मन्त्रणा के समय परस्पर में कलह करके बाद विवाद और स्वछन्द बातचीत नहीं करना चाहिए। विचार निश्चित हो जाने पर शीघ्र ही कार्यरुप में परिणत करने का यल करना चाहिए, इसमें आलस्य नहीं करन चाहिए । कर्तव्यपालन (अनुष्ठान) के बिना केवल निश्चित विचार से (आलसी: विकयाों को तरह कोई लाभ नहीं होता है । जिस प्रकार कि औषधि के ज्ञानमात्र से रोग की शान्ति नहीं होती।
पंञ्चांग मन्त्र - धनञ्जय ने पंचाग मन्त्र का निर्देश किया है । ये पाँच अंग है(1) कार्य आरम्म करने का उपाय । (2) पुरुष तथा दव्य सम्पत्ति । (3) देशकाल का विभाग ।
(4) विनप्रतीकार । (5) कार्यसिद्धि ।
(1) कार्य आरम्प करने का उपाय - अपने राष्ट्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिये उसमें खाई, परकोटा और दुर्ग आदि के निर्माण करने के सामनों पर विचार करना और दूसरे देश में शत्रुभूत राजा के यहाँ सन्यि व विग्रह आदि के उद्देश्य से गुप्तचर व दूत भेजना आदि कार्यों के साधन पर विचार करना मन्त्र का प्रथम अंग हैं ।
(2) पुरुष तथा द्रव्य सम्पत्ति - यह घुरुष अमुक कार्य करने में निपुण है, यह जानकर उसे उस कार्य में नियुक्त करना तथा द्रष्यसम्पत्ति इतने धन से अमुक कार्य सिदध होगा। यह क्रमश: पुरुषसम्पत् तथा द्रव्यसम्पत् नाम का दूसरा मन्त्र का अंग है।
(3) देश और काल - अमुक कार्य करने में अमुक देश का अमुक काल अनुकूल एवं अमुक देश और काल प्रतिकूल है, इसका विचार करना मन्त्र का तीसरा अंग है।।
(4) विघ्नप्रतीकार - आयी हुई विपत्ति के विनाश का उपाय चिन्तन करना । जैसे अपने
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102 दूर्ग आदि पर आने वाले अथवा आए हुए विघ्नों का प्रतीकार करना यह मन्त्र का विघ्न प्रतीकार नाम का चौथा अंग है।
(5) कार्यसिद्धि - उन्नति, अवनति और समवस्था यह तीन प्रकार की कार्यसिद्धि है। जिन समादि उपायों से विजिगीषु (जीतने का इच्छुक) राजा अपनी उन्नति, शत्रु को अवनति या दोनों की समवस्था प्राप्त हो, यह कार्यसिद्धि नामकपाधवा अंग है। उधपदाधिकारी
अठारह श्रेणियों के प्रधान - वरांगचरित में अठारह श्रेणियों के प्रधानों का अनेक स्थानों पर उस्लेख हुआ है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में इन अटारह श्रेणियों के प्रधानों का नाम इस प्रकार दिये गये हैं -
__1-मंत्री,2- पुरोहित, समाति, 4- युक्सज, 5-बजारिक,6-अन्तर्वशिक,7-प्रशास्ता, B-समाहर्ता, 9-सन्निधता, 10-प्रदेष्टा, 11-नायक, 12-पौरच्यावहारिक, 13-कार्मास्तिक, 14मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष, 15-दण्डपाल, 16-दुर्गपाल, 17-अन्तपाल, 18-आटत्रिक।
मन्त्री - सामान्यतया मन्त्री के लिए, अमात्य और मन्दि शब्दों का प्रयोग होता था किन्तु विशेषतया मन्त्री और अमात्य दो एथक पृथक पर होते थे वरांगचरित में मन्दिवर्ग और अमात्य को पृथक पृथक गिनाया है। कौटिल्य और सोमदेव के वर्णन के आधार पर ज्ञात होता है कि अमात्य पन्त्रिपरिपद के सदस्य होते थे किन्तु उनको सत्रागा का अधिकार प्राप्त नहीं था । मन्त्रणा केवल सर्वगुणसम्पन्न, पुर्णरुपेण परीक्षित एवं विश्वसनीय मंत्रियों से की जाती थी । मन्त्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या तो बहुत होती किन्तु अन्तरंग परिषद में केवल तीन या चार मन्त्री होते थे और उन्हीं के साथ राजा गूढ़ विषयों पर मन्त्रणा करता था । वरांगचरित में राजा धर्मसेन द्वारा अनन्तसेन, चित्रसेन, अजिससेन और देवसेन नामक चार मन्त्रियों को मन्त्रणा हेतु बुलाए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है । मन्त्रियों में एक प्रधानमन्त्री (मन्त्रिमुख्य) का भी पद होता था 1 बुद्धिमान मन्त्री के वाक्य कर्तव्य वस्तु के लिए कसौटी के समान होते थे । प्रत्येक मन्त्रो की सलाह मानना आवश्यक नहीं था, क्योंकि प्रत्येक पुरुष की मति भित्र-भित्र होती है । मन्त्री अपनी सम्मति को कहने का स्वामी है, परन्तु उसको करना, न करना स्वामी के अधीन है।
पुरोहित - पुरोहित को राज्य का आधाअंश माना गया है। वैदिक काल से लेकर बाद तक उसका अस्तित्व पाया जाता है । उसे राष्ट्र का रक्षक कहा गया है । वह राजपरिवार और उसके धार्मिक अंश के अतिरिक्त लौकिक विषयों पर भी अपना मत देना था वह राजा और प्रजा के बीच शक्ति का माध्यम था । पुरोहित लोग चेष्टा से हदय की बात समझने वाले और शकुन को जानने वाले होते थे | किसी प्रकार की कोई बाधा उपस्थित होने पर पुरोहित उसके कारण का विचार करता था, क्योंकि बिना विचार किए हुए कार्यों की सिद्धि न तो इस लोक में होती है और न परलोक में होती है ।
एक स्थान पर पुरोहित को दिव्यचक्षु और कार्य का ज्ञाता कहा गया है।' | पुरोहित सपनों का फल जानने वाला भी होता था12 1 पुरोहित प्रयाण आदि के समय राजा के साथ रहता था तथा राजसभा में सम्मानित स्थान पाता था । सामरिक स्थलों पर सेनापति पुरोहित के साथ विचारविमर्श करता था । मंगल कार्य के पहले पुरोहित राजा को आशीर्वाद देकर मंगल द्रव्य धारण कर
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स्वस्तिवाचन करता था । जब राजा क्रोधित होता था तो अनुकूल वचनों के द्वारा वह उसे शान्त करता था 185 | राजा जब इष्टदेवतादि से सिद्धि के लिए उपवासादि करता था तो पुरोहित भी उसका साथ देता था ।
I
शास्त्रपूजा, जिनेन्द्रपूजा तथा आर्शीर्वाद प्रदान करना पुरोहित के प्रधान कार्य थे और इन सबके द्वारा वह राजा को आनन्दित करता था । जो कुलीन सदाचारी और छहवेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरक्त, छन्द व ज्योतिष) चार्वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद अथवा प्रथमानुयोग, कारणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग), ज्योतिष निमित्तज्ञान और दण्डनीतिविद्या में प्रवीण हो एवं दैवी (उल्कापात, अतिवृिष्टि और अनावृष्टि आदि) तथा मानुषी आपत्तियों के दूर करने में समर्थ हो ऐसे विद्वान पुरुष को राजपुरोहित राजगुरु बनाना चाहिए। मन्त्री पुरोहित हितैषी होने के कारण राजा के माता-पिता हैं, इसलिए उसे उनको किसी भी अभिलक्षित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिये
167
सेनापति सेनापति को सेनानी " और चमूनाथ" भी कहते थे। इसका विधिपूर्वक अभिषेक होता था। सभा में मन्त्री पुरोहित, राज श्रेष्ठ तथा अन्य अधिकारियों के साथ सेनापति भी राजसभा में योग्य स्थान प्राप्त करता था । जब राजा युद्ध के लिए प्रण करता था तो सेनापति सारी सेना का संचालन करता था और प्रत्येक स्थिति में राजा का साथ देता था। सेनापति के लिए प्राचीन काल में चमूचर, चमूपति % बलनायक 197 बलाग्रणी, महानायक" बलाध्यक्ष तथा बाहिनीपति" राज्यों का भी हो च
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सेनापति के गुण कुलीन, आचार व्यवहार सम्पन्न, विद्वान, अनुरागयुक्त पवित्र शौर्यसम्न, प्रभाववान्, बहुपरिवारयुक्त, समस्त नैतिक उपाय (साम, दाम, दण्ड, भेद) के प्रयोग में कुशल, समस्त वाहन, आयुद्ध, युद्ध लिपि, भाषा, व आत्मज्ञान का अभ्यस्त, समस्त सेना और सामन्तों द्वारा अभिमत (इष्ट) योद्धाओं से लोहा लेने की शक्ति से युक्त और मनोज्ञ, स्वामी द्वारा अपने समान सम्मानित व धन देकर प्रतिष्ठित किया हुआ, राजचिन्हों से युक्त और समस्त प्रकार के कष्ट और खेदों के सहन करने में समर्थ होना ये सेनापति के गुण है ।
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सेनापति के दोष जिसकी प्रकृति आत्मीयजनों व शत्रुओं से पराजित हो सके, अप्रभावी. स्वीकृत उपद्रवों से वश में किया जाने वाला, अभिमानी, व्यसनी, निरन्तर व्यय करने वाला, परदेशवासी, दरिद्र, सैनयापराधी, सबके साथ विरोध रखने वाला, दूसरे को निन्दा करने वाला,
कठोरवचन बोलने वाला, अनुचित बात बोलने वाला, अपनी आय को अकेला खाने वाला, स्वच्छंद प्रकृति से युक्त, स्वामी के कार्य व आपत्तियों का उपेक्षक बुद्ध महायक योद्धाओं का कार्यविघातक और राजहितचिन्तकों से ईर्ष्या रखने वाला व्यक्ति सेनापति के दोषों से युक्त होता हैं ।
सेनापति का कार्य - जब राजा युद्ध करने के लिए प्रस्थान करे उस समय उसका सेनापति आधी सेना सदा तैयार रखे, इसके पश्चात शत्रु पर चढ़ाई करे। जब राजा शत्रु के आवास की और प्रस्थान करे तब उसके चारों और सेना रहना चाहिए और डेरे में भी सेना रहनी चाहिए । स्थायी शत्रुराजाओं को अन्य बंन्दी राजाओं से मिलाना सेनापति के अधीन है 205 1.
युवराज- राजा प्राय: अपने औरस पुत्र को ही युबराज पद देता था। युवराज पद प्रदान
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करते समय वद्ध महाराज उसके कत्तर्व्यमार्ग का उपदेश देते थे। युवराज धनमद या प्रभुतामद से अपने माता पिता या अन्य परिवार के व्यक्तियों को अवेहलना नहीं करता था। परिवार के साथ प्रजा को भी सन्तुष्ट बनाए रखने का कार्य युवराज करता था। राष्ट्र के महाजनों को अपमान तथा पीड़ा न पहुँचाने के कार्य से सदा दूर रहता था । विद्या, कर्म और शोल से वह प्रजा का अनुरंजन करता था। इस प्रकार राजा के प्रत्येक कार्य में वह सहायक था ।
दौवारिक दौवारिक से तात्पर्य राजमहल के निरीक्षक से है। प्राचीन काल में राजाप्रमाद मैं आने जाने वालों पर बड़ा ध्यान रखा जाता था । कौटिल्य का कहना है कि राजमहल की चौथी कक्षा में राजा को रक्षा दौवारिक हाथ में माला आदि लिए हुए करे । राजमहल निरीक्षक की चार श्रेणियाँ थी । ( 1 ) प्रतीहार, ( 2 ) महाप्रतोहार (वर्ध. च. 2/64) (3) दौवारिक (वर्ध. च. 9/95) (4) महादौवारिक पूर्व पूर्व की उपेक्षा उत्तरोत्तर पर अधिक अधिकारमुक्त था। प्रतीहार लोग राजसी ठाटबाट और दरबारी प्रबन्ध की रोढ़ थे ।
प्रतीहारों के ऊपर महाप्रतीहार होते थे और दन महाप्रतीहारों में भी जो मुखिया था, उसका पद दौवारिक का था। ये प्रतीहार लोग राजकुल के नियमों और दरबार के शिष्टाचार में निष्णात होते थे। उसयुग में सामन्त, महासामन्त, मांडलिक, राजा, महाराजा, महाराजाधिराज, चक्रवर्ती, सम्राट आदि विभिन्न कोटि के राजाओं के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के मुकुट और पद होते थे, जिन्हें पहचानकर प्रतीहार लोग दरबारियों को यथायोग्य सम्मान देते चन्द्रप्रभचरित में आमदरबार में बैठे राजागण का प्रधान दौवारिक के द्वारा आने की सूचना पाकर अन्दर (दीवाने खास में) प्रवेश करने का उल्लेख किया गया है। नाम और कुल बतलाने के बाद ही अन्दर प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी " । आदिपुराण से ज्ञात होता है कि दूसरे देश से जो राजा और दूत वगैरह आते थे वे अपने आने का सन्देश महाद्वारपाल के द्वारा राजा से निवेदन करते थे ।
अन्सर्वशिक यह राजा की अंगरक्षक सेना का प्रधान होता था। राजा को चाहिए कि अंशपरम्परा से अनुगत, उच्चकुलेत्पन्न, शिक्षित, अनुरक्त, और प्रत्येक कार्य को भली भाँति समझने वाले पुरुषों को अपना अंगरक्षक नियुक्त करे, किन्तु धन सम्मानरहित विदेशी व्यक्ति को तथा एक बार पृथक होकर पुनः नियुक्त स्वदेशी व्यक्ति को राजा अपना अंगरक्षक कदापि नियुक्त न करे। राजमहल की भीतरी सेना राजा और रनिवास की रक्षा करें? 12
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प्रशरता सेना सम्बन्धी एक प्रधान अधिकारी था। श्री उदयवीर शास्त्री ने इसे कंटकशोधनाध्यक्ष लिखा है। श्री एन. एन. ला. का मत है कि इस अधिकारी से उसी तीर्थका आशय है, जिसे महाभारत में कारागृहाधिकारी कहा गया है2 13 1
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समाहर्त्ता यह राजकीय आय प्राप्त करने वाला सर्वोच्च अधिकारी था। आय प्राप्ति के अतिरिक्त यह जनपद के शासन सम्बन्धी विविध प्रकार के कार्यों का निरीक्षण भी करता था । समाहर्त्ता के आधीन बहुत से अधिकारी तथा विविध विभागों के अध्यक्ष काम करते थे । अध्यक्षां में मुख्य निम्नलिखित है
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आकाराध्यक्ष खनिज विभाग का मुख्य अधिकारी ।
पण्याध्यक्ष
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व्यापार तथा क्रय विक्रय विभाग का अधिकारी ।
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कुपाध्यक्ष - जंगल विभाग का अधिकारी | आगुधागाराध्यक्ष - अस्त्र-शस्त्र विभाग का अधिकारी | गौयताध्यक्ष - तोल-माप विभाग का अधिकारी। मानाध्यक्ष - भूमि तथा समय की माप का अधिकारी । शुल्काध्यक्ष - कर विभाग का अधिकारी । सुत्राध्यक्ष - वस्त्र और कवच आदि विभाग का अधिकारी । सीताध्यक्ष - कृषि विभाग का अधिकारी। सुराध्यक्ष - आबकारी विभाग का अधिकारी। सुनाध्यक्ष - बृचड़खाने का अधिकारी । गणिकाध्यक्ष - वैश्याओं की व्यवस्था करने वाला अधिकारी । नावाध्यक्ष - नाव और जहाज विभाग का अधिकारी । गोध्यक्ष - पशु विभाग का अधिकारी। अश्वाध्यक्ष - घुड़शाला का अधिकारी । हरत्यध्यक्ष - हाथी विभाग का अधिकारी ! स्थाध्यक्ष - रथ विभाग का अधिकारी। मुद्राध्यक्ष - मुद्रा विभाग का अधिकारी । विवीताध्यक्ष - गोचर भूमि का अधिकारी । लक्षगाध्यक्ष - टकसाल विभाग का अधिकारी । देवलाध्यक्ष - देवालय विभाग का अधिकारी ।
सनिषाता - कौटिल्य के अनुासर सन्निपाता (कोषाध्यक्ष) को चाहिए कि वह कोषगृह, पाण्यगृह (राजकीय विक्रेन यस्तुओं का स्थान), कोषागार (भण्डार गृह) कुप्यगृह ( अन्नागार), शस्यागार और कारागार का निर्माण कराए । उसे जनपद तथा नगर से होने वाली आय का ज्ञाता होना चाहिए । इस सम्बन्ध में उसे इतनी जानकारी होनी चाहिए कि यदि उससे मौ वर्ष पोछे को आय का लेखा जोखा पूछा जाय तो तत्काल ही वह उसको समुचित जानकारी दे मके" ए. एल. वाशम ने सन्निधाता और समार्ता के पदको सन्धिविग्राहक के पद से अधिक महत्वपूर्ण माना है।
प्रदेष्ट्य - प्रत्येक कष्टकशोधन नामक न्यायालय का न्यायधीश प्रदेष्टा कहलाता था, परन्तु यहाँ इस प्रकार के सत्र न्यायालयों के प्रधान न्यायाधीश से अभिप्राय है।
'नायक - यह सेना का मुख्य संचालक था और आवश्यकतानुसार विविध प्रकार का छावनियाँ खाई कोट और अटारी आदि बनवाता था।
पौरव्यावहारिक - यह धर्मस्थीय नामक अदालतों का मुख्य न्यायाधीश था । मनुस्मृति में इमे धर्मवक्ता और मानसोल्लास में इसे धर्माधिकारी कहा है। न्यायाधीश की नियुक्ति राजा करता था, लेकिन उसकी पदुन्मुक्ति के प्रकार के विषय में उल्लेख नहीं प्राप्त होता है । उत्तरदायित्व के प्रश्न पर स्पष्ट है कि न्यायाधीश राजा के विधान के प्रति नहीं, शास्त्र के प्रति उत्तरदायी थे । राजा के शासन का स्वयं विधान शास्त्र करते थे । राज शासन का विधान शास्त्र के आधार पर ही हो सकता था, राजा की इच्छा पर नहीं।
कामान्तिक - यह अधिकारी खान, जंगलों और खेतों से मिलने वाले कल्चे पदार्थों का तैयार
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माल बनाने वाले विविध प्रकार के कारखानों का प्रधान निरीक्षक तथा संचालक था। इसके अधीन बहुत से कर्मचारी थे ।
मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष - मन्त्रि परिषद का अध्यक्ष ।
दण्डपाल - वरांगचरित में दण्डपाल से ही मिलते जुलते दो शब्द दण्डनाथ और दण्डनायकर आये हैं तथा प्रसंगानुसार इन्हें युद्ध के लिए तैयार होने तथा गुमे हुए युवराज को खोजने के लिए कहा गया है। सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार इसका काम सेना की स्थिति सम्पादित करना तथा सेना को सब आवश्यकताओं को पूरा करना एवं उसके लिए सब भाँति का प्रबन्ध करना है | ए. एल, बाशम के अनुसार दण्डपाल स्वयं राजपाल भी होते थे ।
दुर्गपाल - दुर्गों का अध्यक्ष ।
अन्तपाल- राज्य की सीमा के दुगौ का संरक्षण करने वाला अधिकारी अन्तपाल कहा जाता था । जनपद की सीमा पर अन्तपाल की अध्यक्षता में द्वारभूत स्थानों का निर्माण होता था |
आटविक - यह जंगलों तथा जंगली जातियों की देखरेख करने वाला प्रधान अनिकारो था । सम्भवत: इसी के लिए रांगचरित में अटवीश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके विपरीत होने पर भली भाँति के सम में करने या नाटकाने का काम किया जाता था !
श्रेणियों का महत्व - प्राचीन भारत में राजा कानून का निर्माता नहीं था, वह केवल दण्डका के रूप में धर्म सम्बन्धी नियमों का पालन और व्यवस्था कराता था । मित्र-भिन्न श्रेणियों और जातियों के लोग स्वयं अपने लिए नियम बनाते थे । कृषि, उद्योग धन्धे, वाणिज्य और व्यवहार के क्षेत्र में संगठित श्रेणियाँ स्थानीय स्वशासन का उपभोग करती थी।वशिष्ट ने इस रोचक प्रकरण में बतलाया है कि लेखों की प्रमाण सामग्री का विरोध होने पर स्थानीय श्रेणियों की बात का विश्वास मानना चाहिए2 (16/15)
स्थपति - आजकल के इंजीनियर के समान तकनीकी ज्ञान में कुशल व्यक्ति को स्थपति कहा जाता था । यह पुल बांधने आदि का उपाय करता था।
राजश्रेष्ठी - राजश्रेष्ठी एक प्रमुख पद था जो बुद्धि और वैभव से युक्त किसी वणिक को दिया जाता था। राजा कभी-कभी तन्त्र (अपने राष्ट्र को रक्षा करना) और अवाय ( परराष्ट्र से सम्बन्ध का विचार करना) इन दोनों को बड़ा भारी भार राजश्रेष्ठी को सौंपकर निद्वन्द धर्म और काम पुरुषार्थ का अनुभव करता था। घरांगचरित में इसे प्रधान श्रेष्ठी कहा गया है । (वरांगचरित 11157)|
पीठमध - विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में नायक के बहुदूरव्यापी चरित में नायक के सामान्य गुणों से कुछ न्यून गुण वाले नायक के सहायक को पीतमदं कहा है । जैसे रावण के सुग्रीव ।
अन्तःपुर के अधिकारी - अन्तःपुर की शुद्धता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था और इस हेतु दासी, भृत्य के रूप में बौने, कुबड़े, वृद्धपुरुष तथा स्त्रियों में धात्री और परिचारिकायें नियुक्त होती थीं । अन्तःपुर में एक महामात्य को नियुक्ति की जाती थी, जिसे अन्त:पुरमहत्तर कहते थे। इसके अतिरिक्त कंचुकी भी नियुक्त किया जाता था । अन्त:पुर की स्त्रियों में रहकर अंगरक्षा का कार्य करने वाले वृद्ध व्यक्ति को कंचुकी कहा जाता था। कंचुकी को सौविदल्ल" भी कहा जाता था।
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नैमित्तिक ग्रहों के शुभोदय आदि का निरूपण करने वाला अधिकारी, जो राजा के प्रयाण ate का समय बतलाता था ।
भाण्डागारिक - कोष्ठागार अथवा भाण्डागार में नियुक्त अधिकारी ।
पौर - पौर शब्द का अर्थ सामान्यतया नगरवासी किया जाता है, किन्तु वस्तुतः पौर तथा जनपद परिभाषिक शब्द हैं और इन नामों की हमारे देश में सुसंगठित संस्थायें थीं। इनका मुख्य कार्य व्यवस्था सम्बन्धी था। इन्हें तत्कालीन भारतवर्ष का व्यवस्थापक मण्डल कहा जा सकता है । डॉ. जायसवाल ने इन संस्थाओं के व्यवस्था सम्बन्धी सम्मिलित कार्य मुख्यतया निम्नलिखित बतलाए हैं -
(1) युवराज को नियुक्ति पर विचार ।
(2) राजा का अभिषेक करना, अयोग्य व्यक्ति को राजा न बनने देना और अन्यायो राजा को सिंहासन से उतारना ।
(3) प्रधानमंत्री को निर्वाचित करना तथा उसके व्यवहार पर दृष्टि रखना ।
(4) राजनीति सम्बन्धी विषयों का विचार तथा विशेष अवस्थाओं में असाधारण करों की स्वीकृति ।
यहत्ता - प्रमथनों को पहचर कहा जाता था। ग्राम के मुखिया लोगों को ग्राममहत्तर और शहर के प्रधान पुरुषों को पौरमहत्तर कहने की परिपाटी प्राचीन साहित्य में मिलती है।
गृहपति चक्रवतों की निधियों और रत्नों में शामिल होने वाला राज्य का अंगभूत अधिकारी 243 ।
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ग्राममुख्य गाँव का मुखिया 1
लेखवाह - ( पत्रवाहक) एक स्थान से दूसरे स्थान पर सन्देश भेजने के लिए राजा लोग लेखवाह (पत्रवाहक) रखा करते थे। उन्हें उस समय भी भाषा में लेखहारि245 कहा करते थे । ये लोग मस्तक पर लेख को धारण करते थे, इस कारण उन्हें मस्तकलेखक भी कहा गया है 2-0 लेखक - पत्र को पढ़ने, लिखने आदि के लिए लेखक नियुक्त किए जाते थे। राजा पृथ्वीवर के यहाँ सन्धिविग्रह को अच्छी तरह जानने वाला एवं लिपियों को जानने में निपुण लेखक था। भोजक 269 प्रान्तों के शासक ।
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गोष्ठमहत्त२२० - गोपों का मुखिया ।
पुररक्षक कोतवाल ।
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पालक 250 - रक्षक |
धर्मस्थ[s] - धर्माधिकारी ।
आयुधपाल - आयुधशाला की रक्षा करने वाला अधिकारी 1
याममहत्तर 235 -
अधिकारियों की नियुक्ति जो व्यक्ति जिस कार्य में कुशल हो, उसे उस कार्य में नियुक्त करना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय व सम्बन्धियों को अधिकारी नहीं बनाना चाहिए। ब्राह्मण अपनी जाति स्वभाव के कारण ग्रहण किया हुआ धन बड़ी कठिनाई से देता है जो राजा अपने उपकारो पुरुष को अधिकारी पद पर नियुक्त करता है यह पूर्वकृत उपकार राजा के समक्ष प्रकट कर समम्त राजकीय धन हडप लेता है। क्षत्रिय अधिकारी विरुद्ध होकर तलवार दिखलाता है 260 सम्बन्धी
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तीन प्रकार के होते हैं - श्रौत, मौख्य और यौना कुलक्रमागत अथवा सहपाठी को श्रोत कहते हैं। मौखिक वार्तालाप के कारण जो मित्र हुआ हो वह मौख्म और राजा के भाई आदि यौन बन्धु है। सम्बन्धी बन्धुपने के गर्व से दूसरे अधिकारो को तुन्छ समझकर स्वयं समस्त धन हड़प लेते है। राजा यदि मान्य पुरुष को अधिकारी बनाए तो वह अपने को राजा द्वारा पूज्य समझकर निडर व उच्खल होता हुआ राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है व राजकीय धन का अपहरण आदि मनमानी प्रवृत्ति करता है । पुराना सेवक अधिकारी होने पर अपरान करने पर भी निडर रहता है । अत: पुराने सेवक को अधिकारी नहीं बनाना चाहिए । बाल्यकाल में राजा के साथ खेला हुआ व्यक्ति अतिपरिचय के कारण (अभिमानवश) राजा के समान आचरण करता है। क्रूर हृदय वाला पुरुष अधिकारी बनकर समस्त अनर्थ उत्पत्र करता है। शकुनि (दुर्योधन का पामा) और शकटास (नन्द राजा का मंत्री) वे दोनों क्रूर हुदय वाले व्यक्ति के उदाहरण है।' | मित्र को अधिकारी बनाने से राजकीय धन और मित्रता की क्षति होती है । राजा ऐसे किसी भी व्यक्ति को नियुक्त न करे, जिसे अपराधवश कड़ी सजा देने पर पछताना पड़े । यही व्यक्ति अधिकारी पद के योग्य है जो अपराध करने पर सरलता से दण्डित किया जा सके । वार्तालाप आदि के द्वारा जिसके साथ मैत्री हो गई हो, उसे किसी पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए । इस प्रकार निम्नलिखित व्यक्ति अधिकारी पद पर नियुक्ति के अयोग्य हैं -
(1) ब्राह्मण, क्षत्रिय और सम्बन्धी (2) राजपान्य पुरुष । (3) पुराना सेवक ।
(4) राजा का बाल्यकालीन मित्र । (5) कुरदय वाला व्यक्ति ।
(6) मित्र । (7) अपसधवश जिसे कड़ी सजा देने पर पळताना पड़े।
अधिकारियों का राजा के प्रति व्यवहार - जो अधिकारी स्वायो के प्रमन्न होने पर भी किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता है, वह चिरकाल तक सुखो रहता है। राजा को उन मंत्री आदि अधिकारियों से कोई लाभ नहीं हैं, जिनके होने पर भी उसे कष्ट उठाकर अपने आप राजकीय कार्य करना पड़े । सम्पत्ति अधिकारियों का चिन्त विकारयुक्त करती है, यह सिद्धपुरुषों का वचन है.74 सभी अधिकारी अत्यन्त धनादय होने पर भविष्य में स्वामी के वशक्तों नहीं होते हैं अथवा कठिनाई से वश में होते हैं या स्वामी के पद की प्राप्ति के इच्छुक होते हैं | जो अधिकारी देश को पीड़ित नहीं करता वह अपनी बुद्धिपटुता और उद्मोगशीलता द्वारा राष्ट्र के पूर्वव्यवहार को विशेष उन्नतिशील बनाता है, उसे स्वामी द्वारा धन व प्रतिष्ठा मिलती हैंस्वामी के प्रमत्र रहने से ही सेवक लोक कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर मकते है, किन्तु जब बुद्धि और पुरुषार्थ गुण होंगे तभी वे सफलता प्राप्त कर सकते हैं। शास्त्रवेता विद्वान पुरुष भी जिन कर्तव्यों से परिचित नहीं हैं, उनमें मोह प्राप्त करता है । असह्य संकट को दूर करने सिवाय दूसरा कोई मो कार्य स्वामी से बिना पूछे नहीं करना चाहिए । सेवक को प्राणनाशिनी तथा लोगों से वैरविरोष उत्पन्न करने वाली एवं पाप में प्रवृत्त करने वाली स्वामी को आज्ञा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की आज्ञा का पालन करना चाहिए। जो सेवक कृतघ्नता के कारण अपने स्वामी के राजपद की कामना करते हैं उनका विनाश होता है । चित्रगत राजा का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए । राजा में क्षात्रतेज महान् देवता रूप से विद्यमान रहता है।
राजा का अधिकारियों के प्रति कर्तव्य - राजा के समीप जाने पर कौन सज्जन नहीं हो जाता है ? अत: राजा को अधिकारियों की परीक्षा करना चाहिए । जिस प्रकार घास का बोझर
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109 वहनकर उसका भक्षण करने वाला हाथी सुखी नहीं हो सकता, उसी प्रकार मंत्री आदि सहायकों के बिना स्वयं राजकीय कार्य को वहन करने वाला सुखी नहीं हो सकता है । क्षुद्रप्रकृति वाले कार्य में नियुक्त पुरुष सैन्धव जाति के घोड़ों के समान विकृत हो जाते हैं । जिस प्रकार बिलादों से दूध की रक्षा नहीं हो सकती है, उसी प्रकार अधिकारियों (नियोगियों) से (राज कोष की) रक्षा नहीं हो सकती । अतः राजा को सदा उनकी परीक्षा करते रहना चाहिए।
फुटनोट
1. क्षत्रचूड़ामगि 10/11 2. क्षत्रचूड़ामणि 1/35 3. क्षत्रचूड़ामणि 1/45 4. गधचिन्तामणि प्रथमलम्भ पृ. 63 5. गधचिन्तामणि प्र. लम्भ प.37 - 38 6. गद्यचिन्तामणि पृ.68 7. आदि पुराण 4/161 १. वही 18/14 9. वही 3/251 10. आदिपुराण 4/189 11. उत्तरपुराण 62/201 12. यही 68/112 13. उत्तरपुराण 70/17 14. नीतिवाक्यामृत 10/2 15. वहीं 10/1 16. वही 10/3 17. वही 10/4 18. पाचरित 1136 19. वही 8/487 20. हरिवंशपुराण 2014 21. आदिपुराण 41191 22. वही 4/192 23. आदिपुराण 4/194 24. नीतिवाक्यामृत 10/67 25. वही 10/81 26, वही 10/82 27, यही 10/68-69 28. वही 10/70 29. वही 1079 30. नीतिवाक्यामृत 10777 31. नीतिवाक्यामृत 1017 32. वही 10/78
३३. वसंगचरित 2/14 34. वहीं 11/56 35. वहीं 11/57 36. वही 12/16 37. वही 16/52 38. वही 20/26
9. वसंगचरित 23165 40. यही 12/20 41. वरांगचरित 12179 42. हरिवंशपुराण 2014 43. हरिवंशपुराण 11/80 44. वही 11/81 45. आदिपुराण 44/120 46. वही 29/168 47. उत्तरपुराण'557 48. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् (अनुवाचस्वति
गैरोला) प्रकरण 5 अध्याय १ पृ. 31-33 49. वही प्रकरण 4 अध्याय 8 पृ. 28 50. नोतिवाक्यामृत 10/104 51, वहो 10/5 52. वही 10/8 53. वहीं 10/17 54. वहीं 10/100 55. हरिवंशपुराण 50/11 55, गद्यचिन्तामणि दशम लम्म पृ. 382 57. उत्तरापुराण 70/17 58. नीतिवाक्यामृत 1848 59. पद्मचरित 8/12 60. वही 8/16 61. वही 8/487 62. वही 11165 63. वही 66/8
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64. वही 66/13 65 . ਕਈ 73/25 66. वही 113/5
67.74/65
68. उत्तरपुराण 68/115
69. वर्धमानचरित 6/71
70. वही 4:44
71. नीतिवाक्यामृत 10/23
72. यही 10/53
73. वही 10/54
74. वहीं 10/55
75. वहीं 10/56
76. वही 10/57
77. चन्द्रप्रभचरित 12 / 58
78.96 12/59
79. चन्द्रप्रभचरित 12/60
80. चन्द्रप्रभचरित 12/61
81. वही 12/62
B2. चन्द्रप्रभचरित 12/68
83. वही 12/69-71
बही 12/111
$4.
85. नीतिवाक्यामृत 18/5
86. वही 18/1
87. वही 18/2
88. वही 18/3
89. नीतिवाक्यामृत 18/4
90. पद्मचरित 113/4
91.6766/2, 73, 22, 816 92. वहीं 8/16
93. वही 8/17
94. वही 8:487
95. वहीं 15:36
96. वही 15/26
97. वही 15/31
98. वही 66/3
99.67 73/23 100. वही 113/4
101, ਕਵੀ 113:6
102 नीतिवाक्यामृत 18/4
110
103. वही 18/12 104. वही 18/47
105, वहो 18/14
106.18/15
107. वही 18/16
108.
नीतिवाक्यामृत 78/17
709.
15:18
110. यही 18/19
11. वही 18/20
112. वहो 10 / 108 113.
वही 10/107 114. वहीं 10/106
115. वहीं 10/52
116. वहीं 10/9
17. नौतिवाक्यामृत 30/1
118. वही 10/12
119. ਕਵੀ 10/15
120. वहीं 10:16
121. वहीं 10/74
122. ही 10/18
123, वही 10/13
124. ਕਵੀ 10/20
125, वहीं 10/89
126. at 10/90
127. वही 10/91 128.61 10/92
129.6 10/121 130. वही 17/15
131. नीतिवाक्यामृत 10/97
132, वही 10/72
133. 10/103
134. सही 10/101
135. वहीं 10/102
136. कौटिलीय अर्थशास्त्रे 1/14
137. द्विसंधान महाकाव्य 11/4 38. द्विसंधान महाकाव्य 11/3 139. 11/23
140. द्विसंधान 11/5
141. वही 11/7
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142. वहीं 11/6
राज्य और न्यायपालिका पृ. 147-148 143. वहीं 11/8
179. आदिपुराण 45/141 144. वही 11/14
180. वही 34/28 145. यही 11/26146, वरांगचरित 12/24 181. वहीं 34/29 147. चंद्रप्रभचरित 12/57
182. यहीं 471333-334 148. कौटिलीय अर्थ
183. वही 32/14 149. नोतिवाक्यामृत 10/26
184, वही 28/60 150, वही 10/29
185. वही 34/87 151. नीतियाक्यामृत 10/31
186. वहीं 32/85-86 152. वहीं 10/32
187, वही 30/120-121 153. वही 10/33
188. नीतिवाक्यामृत 111 154. वही 10/34
189. वहीं 11/2 155. नीतिवाक्यामृत 10/35
190. वरांगचरित 8/4 156. वही 10/27
191. हरिवंशपुराण 18/10 157. वही 10/28
192. वही 23/92 158. वहीं 10/49
193. वहो 57/12-13 159. वहीं 10:42
194. आदिपुराण 5/7 160. वही 10/43
195. वहाँ 38/207 161. वही 10/144
196. वही 8/225 162. द्विसंधान महाकाव्य 11/2
197, वही 32/1 163. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 7/14 798. वही 32/39 164, डॉ. एम. एल. शमां : नीतिवाक्यामृत में | 199. वहीं 15/15 राजनीति पृ. 97
200. बहो 31/20 165. वरांगचरित 14/71, 19/18, 19125, 201, चन्द्रप्रभचरित 7/57 ___18/714, 14/75, 11/63
202. नीतिवाश्यामृत 12/1 166. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 1/17 203. नौनियाक्यामृत 12:2 167, चन्द्रप्रभचरित 16/24
204. वहीं 30:96 168. वही 1/83
205. वही 30:77 169. वही 12/57
206.डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : मंस्कृत काव्य के 170. वरांगचरित 11757
___ विकास में जैन कवियों का योगदान पृ. 171. डॉ.एम.एल.शर्मा : नीतिवाक्यामृत में 524 राजनीति, पृ.90
207. चतुथ्यों मन्त्रिभिः दौवारिकेच 172. वरांगचरित 2/24
__ प्रासपाणिभिः ॥ कौटिलीय अर्थशास्त्रम : 173. चन्द्रप्रभचरित 12/111 174, वधीमानचरित 7/54
208. वासुदेवशरण अग्रवाल : हर्षचरित एक 175. वही 4:47
सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 44 176, वरांगचरित 4
209. चन्द्रप्रभचरित 11/2 177. ऋग्वेद 760/12 वरांगचरित 30:95 ||| 210. वही 17657 178, हरिहरनाथ त्रिपाठी : प्राचीन भारत में || 2]]. आदिपुराण 8/136. 35144
20
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212. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 1/20 213. भगवान दास केला : कौटिल्य की
शासनप्रद्धति पृ. 77 78
214 भगवानदास केला: कौटिल्य की शासनपद्धति पृ. 78 215. वही पृ. 78-80
216. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 2/5 217. det 2/5
218. ए. एल. बाशम अद्भुत भारत पृ. 98 219. भगवानदास केला : कौटिल्य की शासन
पद्धति पृ. 81 220. वही पृ. 82
221. मनु. 8 / 20 मानसोल्लास 2/2/93 222. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 3/1
223. भगवानदास केला : कौटिल्य की शासन
पद्धति पृ. 83
224. वरांगचरित 17/10
225. वही 15/2
226. भगवानदास केला : कौटिल्य को शासन
पद्धति पृ. 83
227 अद्भुत भारत पृ. 102
228. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 2/1
229. वरांगचरित 28/67
230. राधाकुमुद मुकर्जी हिन्दू सभ्यता पृ. 36
231. आदिपुराण 32/27
232. वही 46 / 72
233. वही 22/26
234. साहित्य दर्पण 3/39
235. वरांगचरित 15/54, 15/36
236 आदिपुराण 8/128
237. गद्यचिन्तामणि पु. 72 प्रथम लम्भ
238. आदिपुराण 8/134
239. वहो 5/182
240. चन्द्रप्रभचरित 4/52
241. भगवानदास केला : कौटिल्य की शासन
112
पद्धति पृ. 8
242. आदिपुराण 26/ 127
243. आदिपुराण 11/57 244, पद्मचरित 26/123 245, वही 19/1
246. वहीं 19/4
247. वही 37/3
248. वही 3774
249. वरांगचरित 11/57, 15/2 250. चन्द्रप्रभचरित 13/41
251 आदिपुराण 46/356 252. वही 38/206
253. वही 24/3
254, वही 24/3
255. चन्द्रप्रभचरित 4/52
256, नीतिवाक्यामृत 18/60 257. वही 18/22
258. वही 18/23
259. वही 18/34 260, वही 18/24
261. नीतिवाक्यामृत 18/26-2
262. वही 18/25
263. वही 18/32
264. वही 18/33
265. वही 18/35
266. वही 18/36
267. वहीं 18/37 268. वही 18/38
269. वही 18/31
270, वही 18/21
271, वही 18/30
272. नीतिवाक्यामृत 18/40
273. वही 18/41
274. वही 18/45 275.967 18/46
276. वही 18/59
277. वही 18/61
278. वही 18/62
279. वही 18/63 280,67 24/63
281. वहाँ 10/162
282. यही 31/66
283. यही 11:34
284. वही 18/48
285. वही 18/43
286. वही 18/44
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सप्तम अध्याय
कोष एवं दुर्ग कोष की उपयोगिता - कोष ही राजाओं का प्राण है। इस लोक में पर्याप्त सम्पत्ति संकलित करने से धर्म, अर्थ, काम सम्भव हो सकेंगे। यहाँ धर्म संचय करने से परलोक में तीनों निभ जायेंगे। काम पुरुषार्थ के द्वारा दोनों लोको में सबका विमाग होगा, अत: वही करना चाहिए, जिससे दोनों लोकों में तीनों पुरुषार्थों का साधन हो सके । राजा दशरथ के पास इतनी सम्पत्ति थी कि उनको दानशीलता को याचक नहीं सम्हाल सके । वे निर्मल तथा पर्याप्त यशरूपी धन को संचित करने के लिए व्यवसायियों से भरे बाजारों, खनिक क्षेत्रों, अरण्यो, समुद्री तीरों पर स्थित पत्तनों, पशुपालकों की बस्तियों, दुर्गों तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को बढ़ाते थे। वादीभसिंह के अनुसार दरिद्रता जीबों का प्राणों से न छुटा हुआ मरण है । मनुष्य को यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे पिता और पितामह द्वारा संचित बहुत धन विधमान है, क्योंकि वह प्रन अपने हाथ से संचित धन के समान उदात्तचित्तमनुष्य के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न नहीं करता अथवा को होगी से हि धनीही हसास है । निरन्तर उपभोग होने पर पर्वत भी क्षय हो जाता । निर्धनता से बढ़कर मर्मभेदक अन्य वस्तु नहीं हो सकती है। निर्धनता शस्त्र के बिना की हुई हृदय की शल्य है, अपनी प्रशंसा से रहित हास्य का कारण है, आचरण के विनाश से रहित उपेक्षा का कारण है, पित्त के उदेक के बिना ही होने वाला उन्माद सम्बन्धी अन्धपन है और रात्रि के अविभधि के बिना ही प्रकर होने वाली अमित्रता का निमित है। दरिद्र का न वचन जीवित रहता है, न उसकी कुलीनता जागृत रहती है, न उसका पुरुषार्थ देदीप्यमान रहता है, न उसकी विद्या प्रकाशमान रहती है, न शील प्रकट रहता है, न बुद्धि विकसित रहती है, न उसमें धार्मिकता की सम्भावना रहती है, न सुन्दरता देखी जाती है, न विनय प्रशंसनीय होती है, न या गिनी जाती है, निष्ठा भाग जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है अथवा क्या नष्ट नहीं होता अर्थात सब कुछ नाष्ट हो जाता है। इसके विपरित धन का संचय रहने पर दोनों लोकों के योग्य पुरुषार्थ भी प्रार्थना किए बिना स्वयं आ जाता है । अत: धन के लिए यस्न करना चाहिए । यही अभिप्राय छत्रचूडामणि में भी व्यक्त किया गया है । पिता के द्वारा कमाया हुआ बहुत सा धन विद्यमान रहे, फिर भी पुरुषार्थी जनके लिए अन्योपार्जित द्रव्य से निर्वाह करने में दीनता प्रिय नहीं लगती। यदि स्वस्वाभिक धन आयरहित होता हुआ खर्च होता है तो बहुत होता हुआ भी नष्ट हो जाता है। प्राणियों को निर्धनता से बढ़कर कोई दूसरा हार्दिक दुःखदायक नहीं है । गरीब का प्रशंसनीय गुण प्रकर नहीं रहता। निर्धन के विद्यमान ज्ञान भी शोभायमान नहीं होता । निर्धनता से ठगाया गया दरिंद्र पुरुष किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और चाह के अभिप्रायपूर्वक लक्ष्मीवानों के भी मुख को देखता
नीतिवाक्यामृत के अनुसार कोषविहीन राजा पौर और जनपद को अन्याय से ग्रसित करता है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रशून्यता हो जाती है । जो राजा सदा कौड़ी-कौड़ी जोड़कर भी अपने कोश की वृद्धि नहीं करता, उसका भविष्य में कल्याण कैसे हो सकता है? कोश ही राजा कहा
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जाता है, न कि राजा का शरीर" । जिसके हाथ में धन है, वह जयशील होता है" । निर्धन को उसकी पत्नी भी छोड़ देती है, अन्य की तो बात ही क्या है? पुरुष कुलीन और सदाचारी होने से ही मनुष्य को श्रेष्ठ या सेवायोग्य नहीं समझते हैं, बल्कि धन के कारण ही उसे श्रेष्ठ मानते हैं। जिसके पास प्रचुर धन विद्यमान है, वहीं महानू और कुलीन कहलाता है। जो आश्रितों को सन्तुष्ट नहीं कर पाता हैं, उसकी निरर्थक कुलीनता और बड़प्पन से कोई लाभ नहीं है। उस तालाब के विस्तीर्ण होने से क्या लाभ है, जिसमें पर्याप्त जल नहीं, इसी प्रकार कुलीनता आदि से बड़ा होने पर भी यदि कोई दरिद्र है तो उसका बड़प्पन व्यर्थ है" । जो मनुष्य अपने मूलधन की व्यापार आदि द्वारा वृद्धि नहीं करता है और उसे व्यय करता है, वह सदा दुःखी होता है"। धनी लोगों को यति लोग भी चाटुकारी करते हैं" । अतः गृह में आई हुई सम्पत्ति का कभी भी किसी कारण से तिरस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिस समय लक्ष्मी का होता है की निधि व नक्षत्र शुभ और ग्रह कलिष्ठ माने जाते हैं"। जिस प्रकार हाथो से हाथी बाँधा जाता है, उसी प्रकार धन से धन कमाया जाता है" । दरिद्र मनुष्यसे धन लेना मरे हुए को मारने के समान कष्टदायक है "। संसार में कौन ऐसा मनुष्य है जो धनहीन होने पर लघु न हो" ।
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कोष का लक्षण जो विपत्ति और सम्पत्ति के समय राजा के तंत्र (चतुरंग सेना) की वृद्धि करता है और उसको सुसंगठित करने के लिए धनवृद्धि करता है, उसे कोश कहते हैं" । कोष के लिए आदिपुराण में 'श्रीगृह' शब्द आया है। मणि, नर्म और काकिणी ये तीन रत्न चक्रवर्ती के श्रीगृह में उत्पन्न होते हैं ।
कोषाधिकारी (1) आदायक (आय जमा करने वाला) (2) निबन्धक ( हिसाब लिखने वाला) (3) प्रतिबन्धक (वस्तुओं पर राजकीय मुहर लगाने वाला) (4) नीवीग्राहक (राजकीय द्रव्यको कोष में जमा करने वाला और (5) राजाध्यक्ष उक्त चारों की देखरेख करने वाला पुरुष ये पाँच कोषाधिकारी (करण) हैं। आमदानी में उपयुक्त खर्च करने के पश्चात् बची हुई और जाँच पड़ताल पूर्वक कोषागार में जमा की हुई सम्पत्ति को नीवी कहते हैं।
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कोषविहीन राजा की स्थिति पुरुष का पुरुष दास नहीं है, अपितु पुरुष धन का दास है" । जो राजा अपने राज्य में धनसंग्रह नहीं करता और अधिक धन व्यय करता है, उसके यहाँ सदा अकाल रहता है" क्योंकि नित्य स्वर्ण का व्यय होने पर मेरु भी नष्ट हो जाता है"। जो राजा सैनिकों का भरणपोषण करने के लिए समय पर ( धान्यादिका) संग्रह नहीं करता है. उसके राज्य कर्मचरियों को अत्यधिक आनन्द होता है (क्योंकि ये लोग धान्यादि खरीदकर उसे तेज भाव में बेच देते हैं और बहुत सा धन हड़प लेते हैं) तथा राजा का विशाल खजाना नष्ट हो जाता है" ।
आय और व्यय - द्रव्य (सम्पत्ति) की उत्पत्ति के साधन (कृषि, व्यापार, कर आदि) कां आय कहते हैं" । स्वामी की आज्ञानुसार श्रम व्यय करना व्यय है"। जिस प्रकार मुनि कमण्डलु में जल शीघ्रता से ग्रहण होता है, परन्तु उसका व्यय (टौटी से) धीरे धीरे होता है, उसी प्रकार आय अधिक और व्यय कम करना चाहिए" । जो मनुष्य आय का विचार न कर अधिक व्यय करता है, वह कुबेर (वैश्रमण) के समान (असंख्य धन का स्वामी) होकर भी श्रमण (भिक्षुक ) के समान आचरण करता है । राजा नीवीग्राहक (राजकीय धन को कोष में जमा करने वाला) .से उस पुस्तक (वही, रजिस्टर) को जिसमें राजकीय द्रव्य के आय व्यय का हिसाब लिखा है,
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लेकर अच्छी तरह जाँच पड़ताल कर आय-व्यय को विशुद्ध करे। जब आय - व्यय करने वाले अधिकारियों में विवाद हो जाय तब राजा जितेन्द्रिय व राजनीति प्रधान पुरुषों से परामर्श कर उसका निश्चय करें |
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राजकीय आय के साधन कर जिस राज्य में दूसरे देश की वस्तुओं पर अधिक कर लगाया जाता है तथा जहाँ के राजकर्मचारी बलात् थोड़ा मूल्य देकर व्यापरियों से वस्तु छीन लेते वहाँ अन्य देशों से माल आना बन्द हो जाता है* । क्योंकि लकड़ी की हांडी में एक ही बार पदार्थ पकाया जाता है" । समुद्र यदि प्यासा हो तो संसार में जल कहाँ से हो सकता है ? इसी अधिक बढ़ने की वृद्धि नहीं होती है। जो राजा व्यापरियों से से थोड़ा भी अधिक धन लेता है, उसे महान् हानि होती है"। राजा ने जिनको पहले करमुक्त किया है, उनसे पुन: कर न लेकर वह उनको अनुगृहीत करे" । न्याय से सुरक्षित (जहाँ योग्य कर लिया जाता है और व्यापारियों के क्रय-विक्रय योग्य वस्तुओं से व्याप्त नगरी राजाओं के मनोरथपूर्ण करती है। कहने का तात्पर्य यह कि राजा को प्रजा से देशानुरूप कर ग्रहण करना चाहिए।
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2. अधिकारियों से प्राप्त धन -
(1) नित्यनिरीक्षण (सदा जाँच पड़ताल करना ),
(2) कर्मविपर्यय ( उच्चपदों से साधारण पदों पर नियुक्त करना)
(3) प्रतिपतिदान (छत्र, चमर आदि बहुमूल्य वस्तुयें भेंट में देना इन तीन उपाय से राजा राज्यधिकारियों से (रिश्वत द्वारा संचित धन प्राप्त कर सकता है" । केवल एक बार धोया हुआ वस्त्र जिस प्रकार स्निग्धता (चिकनाई) को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार अधिकारी लोग भी पके हुए फोड़े के समान (बिना ताडन, बन्धन आदि किए) गृह में रखे हुए (रिश्वत के ) धन को नहीं बतलाते हैं"। अधिकारियों को बार-बार ऊँचे पदों से पृथक करके साधारण पदों पर नियुक्त करने से राजाओं को (उनके द्वारा गृहीत) धन मिल जाता है"। अधिकारियों में आपसी कलह होने पर राजाओं को खजाने के मिलने के समान महालाभ होता है"। अधिकारियों को सम्पत्ति राजाओं का दूसरा कोश है" ।
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3. व्यापारियों से प्राप्त धन जब व्यापारी लोग बर्तनों आदि के व्यापार में मूलधन से अधिक धन कमाते हों तब राजा को व्यापारियों के मूलधन से दूना धन देकर अधिक धन जब्त कर लेना चाहिए" |
4. अन्य देश के राजाओं से प्राप्त धन विजय प्राप्त होने पर अन्य देश के राजा लोग उपहार के रूप में धन देते थे । इस प्रकार उपहारस्वरूप रत्नों का समूह" क्षौम (रेशमी वस्त्र ), अंशुक, दुकृत्म, चीनी वस्त्र, हाथी, तुरूष्क, कम्बोज, वाल्ट्रीक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, बनायुज, गान्धार और वापि आदि देश में उत्पन्न कुलीन घोडे, केशर, अगरु, कपूर, स्वर्ण, मोती औषधियों का समूह, गोशीर्षचन्दन आदि वस्तुयें प्राप्त होती थीं।
कोववृद्धि के उपाय राजा को चाहिए कि अपने समस्त देश में किसानों द्वारा भली भाँति खेती कराए और धान्य आदि का संग्रह करने के लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश ले । ऐसा होने पर उसके भण्डार आदि में बहुत सी सामग्री इकट्ठा हो जायगी और उसका देश भी पुष्ट होगा" । जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए दूध दुहा जाता है.
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उसी प्रकार राजा को भी अधिक कष्ट न देने वाले करों से प्रजा से धन वसूल करना चाहिए * । जिस राजा के कारण प्रजा कर के भार से अधिक दुःखी रहती है, उस राजा के स्थान पर किसी न्यायपूर्ण राजा के बैठने की सम्भावना रहती है ।
आचार्य सोमदेव ने राजा की कोषवृद्धि के निम्नलिखित चार उपाय बतलाए हैं(1) राजा विद्वान् ब्राह्मण और व्यापारियों से उनके द्वारा संत्रित किए हुए धन में से क्रमशः धर्मानुष्ठान, ज्ञानानुष्ठान और कौटुम्बिक पालन के अतिरिक्त जो धनराशि शेष बच्चे उसे लेकर अपनी कोशवृद्धि करे । .
(2) श्रनाय पुरुष, सन्तानहीन धनाढ्य विधत्रायें, धर्माध्यक्ष आदि ग्रामीण अधिकारी वर्ग, वेश्याओं का समूह और पाखण्डी लोगों के धन पर कर लगाकर उनकी सम्पति का कुछ अंश लेकर अपने क्रोश की वृद्धि करे ।
(3) अचल, सम्पत्तिशाली मन्त्री, पुरोहित और अधीनस्थ राजा लोगों की अनुनय और विनय करके उनके घर जाकर उनसे धन याचना करे और उस धन से अपनी कोष वृद्धि करे । (4) सम्पत्तिशाली देशवासियों की प्रचुर धनराशि का विभाजन करके उनके भली भाँति निर्वाह योग्य छोड़कर उनसे शान्ति के साथ लेकर अपने कांध की
वृद्धि करे ।
संचय करने योग्य पदार्थ समस्त संग्रहों में अन्न संग्रह उत्तम माना गया है, क्योंकि वह प्राणियों के जोवन निर्वाह का साधन है और उसके कारण मनुष्यों को सम्पूर्ण प्रयास करने पड़ते हैं। जिस प्रकार भक्षण किया हुआ धान्य प्राणरक्षा कर सकता है, उस प्रकार मुख में रखा हुआ बहुमूल्य सिक्का नहीं कर सकता है" । समस्त धान्यों में कोदों (कोद्रव) चिरस्थायी होते हैं (अतः उनका संग्रह करना चाहिए) पुरानी धान्य देकर नवीन धान्य के द्वारा आय बढ़ाना चाहिए और पुरानी धान्य व्यय करते रहना चाहिए"। समस्त रसों में नमक का संग्रह उत्तम है, क्योंकि नमक के बिना सब रसों से युक्त भोजन भी गोबर के समान लगता है ।
कोषवृद्धि के कारण राजा अधिक धान्य की उपजवाले बहुत से ग्राम जो कि उसकी चतुरंग सेना की वृद्धि के कारण है, किसी को न दे। बहुत सा गोममुक्त, स्वर्ण और शुल्क द्वारा प्राप्त भी कोषवृद्धि का कारण है ।
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कोष के गुण कोष के निम्नलिखित गुण हैं।
(1) जिसमें अधिक मात्रा में सोना चाँदी हो ।
(2) जिसमें व्यवहार में चलने वाले सिक्कों का अधिक संग्रह हो ।
(3) जो व्यय करने में अधिक समर्थ हो ।
अर्थ और उसकी महत्ता जिससे सभी प्रयोजन सिद्ध हों, उसे अर्थ कहते हैं। अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्ति की रक्षा और रक्षित घन की वृद्धि करना अर्थानुबन्ध है । जो मनुष्य सदा अर्थानुबन्ध से धन का अनुभव करता है (धन के संचय में प्रवृत्ति करता है) वह धनाढ्य हो जाता
* धर्म और काम पुरुषार्थ का मूलकारण अर्थ है "। जिस गृहस्थ के यहाँ खेती, गाय, भैंस और शाकतरकारी के लिए सुन्दर बाग तथा घर में मीठे पीनी का कुआँ होता है, उसे संसार सुख प्राप्त होता है" 1 (गाय, भैंस आदि) जीवधन की देखभाल न करने वाले व्यक्ति की बहुत बड़ी हानि
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तथा मानसिक सन्ताप होता है एवं भूखा प्यासा रखने से पापबन्ध होता है । बूढ़े, बालक, रोगी एवं कमजोर पशुओं का अपने बान्धवों के समान पोषण करना चाहिए। तादात्विक, मूलहर एवं कदर्य को संकट सुलभ हैं74 । जो मनुष्य कुछ भी विचार न कर कमाए हुए धन का व्यय करता हैं, उसे तादात्यिक कहते हैं । जो व्यक्ति अपने पिता और पितामह की सम्पत्ति को अन्याय से ( कुव्यसनों से) भक्षण करता है, उसे मूलहर कहते हैं। जो व्यक्ति सेवकों तथा अपने को कष्ट में पहुँचाकर धन का संचय करता है, उसे लोभी कहते हैं" । तादात्विक और मूलहर मनुष्यों का भविष्य में कल्याण नहीं होता है" । लोभी का संचित धन राजा, कुटुम्बो और चोर इनमें से किमी एक का है" । अतः मनुष्य को अपनी आय के अनुरूप व्यय करना चाहिए।
अर्थलाभ के तीन भेद अर्थलाभ तीन प्रकार का होता है - (1) नवीन (2) भूतपूर्व (3)
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पैतृक" ।
राजग्रा धन - राजा कोष बढ़ाता हुआ (न्यायोचित उपायों द्वारा ) प्राप्त धन का उपयोग करे। जो राजा अपनी प्रजा को सब प्रकार कष्ट देता है, उसका कोष रिक्त हो जाता है | अतः राजा को इस प्रकार धनग्रहण करना चाहिए, जिससे प्रजा को पीड़ा न हो और उसके घन को क्षति न हो" । राजा यकायक मिले हुए धन को कोष में स्थापित कर उसकी वृद्धि करें" ।
सुर्ग
दुर्ग की परिभाषा : जिसके पास प्राप्त होकर या जिसके सामने युद्ध के लिए बुलाए गए शत्रु लोग दुःख अनुभव करते हैं अथवा जो दुष्टों के उद्योग द्वारा उत्पन्न होने वाली आपत्तियाँ नष्ट करता है, उसे दुर्ग कहते हैं ।
दुर्ग का महत्व दुर्ग राजा और उसकी सेना वगैरह के बचाव के उत्तम आश्रय स्थल थे. उन्हें शत्रु द्वारा अलंघनीय" कहा गया है। किले में सुरक्षित राजा पर विजय प्राय: चारों ओर से उसका आवागमन रोककर की जाती थी। शत्रु द्वारा आक्रान्त होने के साथ-साथ कभी-कभी शत्रु पर आक्रमण करने के लिए भी दुर्ग का आश्रय लेना पड़ता था। राजा कुण्डलभण्डिल दुर्गापगढ़ का अवलम्बन कर सदा राजा अनरण्य को भूमि को उस तरह विराधित करता रहता था जैसे कुशील मनुष्य कुल की मर्यादा को विराधित करता रहता है । वर्धमान चरित के चीधे सर्ग से ज्ञात होता है कि विशाखनन्दी ने विश्वनन्दी के साथ युद्ध में विजय प्राप्त करने की इच्छा से उसके धन को भंयकर दुर्ग बना दिया। इस प्रकार दुर्ग का महत्व दो दृष्टियों से था -
(1) आक्रमण से रक्षा |
(2) शत्रु पर आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्त करना ।
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दुर्ग रचना दुर्ग के चारों ओर कोट तथा गहरी परिखा (खाई) होती थी। चारों ओर नाना प्रकार के यन्त्रों से उसे घेरा जाता था तथा शूरवीरों का समूह उसकी रक्षा करता था उसके बीचबीच में पताकायें फहरा दी जाती थी ।
'आचार्य सोमदेव ने दुर्गरचना के लिए निम्नलिखित बातें" आवश्यक बतलाई हैं (1) दुर्ग की जमीन विषम (ऊँची नीची) और पर्याप्त अवकाश वाली हो।
(2) दुर्ग ऐसे स्थान पर बनाया जाय जहाँ स्वामी के लिए घास, ईंधन और जल बहुतायत से प्राप्त हो सकें, किन्तु शत्रु के लिए इनका अभाव हो ।
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(3) जहाँ पर अनेक प्रकार के धान्य और रसों (बी, तेल आदि) का संग्रह हो। (4) जहां पर धान्य और रसों का प्रवेश तथा निकासी हो। (5) जहाँ वीर पुरुष निवास करते हों। उपर्युक्त लक्षणों से युक्त दुर्ग यथार्थ रूप से दुर्ग है। शेष दुर्ग तो बन्दिशाला के समान है। दुर्ग के भेद - दुर्ग दो प्रकार के होते हैं - (1) स्वाभाविक (2) आहार्य ।
(1) स्वाभाविक दुर्ग - स्वयं उत्पन्न हुए युद्धोपयोगी और शत्रु द्वारा आक्रमण करने के अयोग्य पर्वत, स्वाई आदि विकर खानों को स्वाभाविक दुर्ग कहते हैं।
(2) आहार्य दुर्ग - कृत्रिम उपायों के द्वारा बनाए हुए दुर्ग को अहार्यदुर्ग कहते हैं । दुई के प्रकारान्तर से अन्य दो भेद प्राप्त होते हैं - (1) पर्वतीय दुर्ग (2) निम्न दुर्ग । पर्वतीय दुर्गों के लिए गिरीदुर्ग तथा अन्य के लिए निम्नदुर्ग शब्द का प्रयोग होता था । किन्हीं विशेष अवसरों पर राजा लोग पहाड़ी दुर्गों (गिरि दुर्गों) का आश्रय कर शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध उठ खड़े होते थें । ऐसी दशा में शत्रु को पकड़ना या वश में करना बहुत बड़ी सफलता मानी जातो थी । क्योंकि यह कठिन कार्य था । इस प्रकार स्पष्ट है कि गिरि दुर्ग का विशेष महत्व था । क्षेयपुरी नगर का वर्णन करते हुए गद्यचिन्तामणि में कहा गया है - 'यह पहाड़ी दुर्ग है, यह समझकर कल्याण के अभिलाषी मनुष्य इस नगर की सेवा करते हैं ।
दुर्ग जीतने के उपाय - दुर्ग जीतने के निम्नलिखित उपाय हैं |
(1) अधिगमन - सामादि उपायपूर्वक शत्रु दुर्ग पर शस्त्रादि से सुसज्जित सैन्य प्रविष्ट कराना।
(2) उपजाप - विविध उपाय द्वारा शत्रु के आमात्य आदि अधिकारियों में भेद करके शत्रु के प्रतिद्वन्द्वी बनाना।
(3) चिरानुबन्ध - शत्रु के दुर्ग पर सैनिकों का चिरकाल तक घेरा डालना । (4) अवस्कन्द - शत्रु दुर्ग के अधिकारियों को प्रचुरसम्पत्ति और मान देकर वश में करना। (5) तीक्षणपुरुष प्रयोग - घातक गुप्नरों की शत्रु राजा के पास भेजना।
दुर्गन होने से हानि - प्राचीन काल में दुर्ग राजाओं की सुरक्षा के सुदृढ़ सायन थे, जो यथास्थान रखे हुए यन्त्र, शस्त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकों से भरे रहते थे बलवान शत्रु का मुकाबला दुर्गों का आश्रय कर किया जा सकता था, क्योंकि अपने स्थान पर स्थित खरगोश भी हाथी से बलवान हो जाता है | दुर्गविहीन देश किसके तिरस्कार का स्थान नहीं होता है ? अर्थात् सभी के तिरस्कार का पात्र होता है। दुर्गशून्य राजा का समुद्र के मध्य जहाज से गिरे हुए पक्षी के समान कोई आश्रय नहीं है।
दुर्ग की सुरक्षा के उपाय - जिसके हाथ में राजमुद्रा नदी गई हो अथवा जिसकी मले प्रकार परीक्षा न की गई हो, ऐसे व्यक्ति को अपने दुर्ग में प्रवेश नहीं देना चाहिए। इतिहास से ज्ञात होता है कि हूणदेश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रययोग्य वस्तुओं को धारण करने वाले व्यापारियों के वेष में दुर्ग में प्रविष्ट कराया और उनके द्वारा दुर्ग के स्वामी को मरवाकर चित्रकूट देश पर अपना अधिकार कर लिया । किसी शत्रु राजा ने कांची नरेश की सेवा के बहाने भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण होने से तलवार धारण करने में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा, जिन्होंने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भद्र नाम के राजा को मारकर अपने स्वामी की कांची देश का अधिपति बनाया।
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फुटनोट)
SyGR'
1. नीतिवाक्यामृत 21/5 2. द्विसंधान महाकाव्य 2/18 3. वही 2/4 4. वही 2:13 5. क्षत्रचूड़ामणि 315 6. गद्ययचिन्तामणि - द्वितीय लम्भ पृ. 124 7. छत्रचूडामणि 3/4-8 8. नीतिवाक्यामृत 21/5 9.21/4 (वही) 10, नीतिवाक्यामृत 2117 11. वही 21/8 12. वही 21/9 13. वही 21/10 14. वही 21/11-12 15. वही 21/13 16. नीतिवाक्यामृत 26/20 17. वही 27/47 18. वही 29794 19. बही 29/95 20. वहीं 11/36 21. वही 17/55 22. वहीं 21/7 23. आदिपुराण 37185 24. नीतिवाक्यामृत 18/51 25. वहीं 18/52
वहा Asa 28, वहीं 8/5 29. वहीं 84 30. नीतिवाक्यामृत 18/8 31. नोतिवाक्यामृत 18/9 32. वही 18/7 33. वही 18/10 34. वही 18/53 35. वही 18/54 ॐ. वही 8/11
37. यही 8/12 38. वही 87 39. वही 8/7 40. वहीं 19/14 41. वही 19118 42. वही 19721 43. वही 26/42 44. नीतिषाक्यामृत 18/55 45. वही 18158 46. वही 18/56 47. नही !37 48. वही 18/66 49. वहीं 18167 50. वहीं 18165 51. आदिपुराण 29/25 52. वही 32/182 53. वही 30/103 54. वहीं 30/105-105, 30/107-108 55. वहीं 31/61 36. वही 32/98 57. वहीं 42/177-178 58. आदिपुराण 16/254 59. वहीं 29126 60. नीतिवाक्यामृत 21/24 61. वही 18/68-69 62. वही 18/71 63. वहीं 18/72 64. नौतिवाक्यामृत 19/22 65. वही 19/23 66. वही 21/2 67. वही 21 68. वही 23 69. यही 212 70. वही 3/17
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71. वही 8/3 72. वही 8/8
73. वही 8/9
74. वही 2/6
75.961 2/7
76. वही 2/8
77. बले 2/9 78. वही 2/10
79. वहीं 2/11
80.467 26/44
81. नीतिवाक्यामृत 29/103
82. वही 21/3
83. वही 19/17
84.61 29/101
85. वही 18/64
86. नीतिवाक्यामृत 20/1
87. आदिपुराण 28/92
88. वही 31/139 89. पद्मचरित 43 / 28
120
90. वही 43/28
91. वही 26/40
92. वर्षमानचरित 4/62-63
93. वर्धमानचरित 4/75
94. नीतिवाक्यामृत 20/3
95. वही 20/2
96. आदिपुराण 29/76
. हरिवंशपुराण 43/ 162
97.
98. वहीं 20/17
99. गद्यचिन्तामणि षष्ठ लम्भ पृ. 261
100 नीतिवाक्यामृत 20/4
101. उत्तरपुराण 54/24
102. क्षत्रचूड़ामणि 2/64 103. नीतिवाक्यामृत 20/4
104. वही 20/5
105. वही 20/7
306. वही 20/8
107. वही 20/9
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अष्टम अध्याय
बल अथवा सेना
सेना की परिभाषा :- जो शत्रुओं का निवारण करके घन-दान मधुर भाषण द्वारा स्वामी को सभी अवस्थाओं में शक्ति प्रदान करती है, उसका कल्याण करती है, उसे सेना कहते हैं। सेना के भेद - चतुरंग बल प्राचीन ग्रन्थों में प्राय: चतुरंग बल का उल्लेख हुआ है चतुरंग बल के अन्तर्गत निम्नलिखित सेना आती है :
I
1. हस्ति सेना ।
2. अश्वसेना । 4. पदाति सेना ।
3. रथ सेना ।
1. हस्ति सेना योद्धाओं के वाहन होकर जाने वाले हाथी के ऊपर के सीने के झूल तथा होदे विशेष सुशोभित होते थे तथा उन पर श्वेत चँवर होते थे। युद्ध में लिप्त हाथियों के शरीर कवचों से ढके होते थे । महाबत जब उन्हें हाँकते थे तब वे एक दूसरे से भिड़ जाते थे । तथा सन्नाह (कवच ) के कारण शरीर में कही भेल स्थान न मिलने के कारण लोहे से मढ़े हुए उनके विशाल दांत एक दूसरे के मुखों में पूरे के पूरे पैंस जाते थे। तोमर आदि शस्त्रों के आघात से हाथियों का शरीर फट जाता था, घात्रों में से रक्त की मोटी धारायें निकलती थीं, किन्तु ये मदवाले होकर शत्रुओं का घात करते थे । महान् योद्धाओं के द्वारा भारी गदावें, विशाल परिध तथा अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाली शक्तियों के आघात से परिजात हाथी अपने महावतों को भी परास्त कर देते थे। रोष के कारण हाथी एक दूसरे के दांतों को उखाड़ लेते थे और उन दाँतों को उन्हीं के ऊपर मार देते थे।
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'जल प्रदेश को हस्तिसेना के द्वारा सुगमता से पार किया जाता था पानी को पार करके व्यूह रचना से चलते हाथियों का समूह ऐसा लगता था, मानों सेना के जाने के लिए पुल ही बना दिया गया हो । नीतिवाक्यामृत के अनुसार सेना में हाथी प्रधान अंग माने जाते हैं। अपने अव्यवों ( अंगों) के द्वारा वे अष्टायुद्ध (चार पैर, दो दाँत, पूंछ और सूँड़ एवं अस्त्र वाले ) होते हैं । राजाओं को विजय के प्रधान कारण हाथी होते हैं। एक हाथी भी युद्ध में हजारों प्रहारों से व्यथित न होकर हजारों योद्धाओं से युद्ध करता है। हाथी जाति, कुल, वन और प्रचार के कारण ही प्रधान नहीं माने जाते हैं, अपितु शरीर, बल, शौर्य, शिक्षा और युद्धोपयोगी (कर्त्तव्यशीलता आदि ) सामग्री से प्रमुख माने जाते हैं। अशिक्षित हाथी केवल धन और प्राणों का हरण करने वाले ही होते हैं। हाथियों के निम्नलिखित' गुण होते हैं।
:
1. सुखपूर्वक जाना ।
3. शत्रु के नगर को तोड़ना फोड़ना ।
5. जल में पुल बांधना |
6. बोलना छोड़कर अपने स्वामी के लिए सभी प्रकार के आनन्द उत्पन्न करना । 2. अश्वसेना- अश्वसेना अपनी वेगशीलता के लिए प्रख्यात रही है। इसकी वेगशीलता
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का धनञ्जय ने बहुत ही सुन्दर चित्र खींचा है पूरी की पूरी चंचल अश्वसेना का वेग वायु के समान था, चित्त वेगमय था, शरीर चित्रमय था तथा चित्र और शरीर एकमेक हो जाने के कारण • वह अश्वारोहियों की प्रेरणा से जल राशि को पार कर गई थी।
2. आत्मरक्षा |
4. शत्रु के व्यूह का नाश करना ।
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122 आचार्य सोमदेव के अनुसार अश्वबल सेना का चलता फिरता (जङ्गम भेद है" | जिस राजा के पास अश्वसेना प्रधानता से विद्यमान है, उस पर युद्धरूपी गेंद से क्रीड़ा करने वाली लक्ष्मी प्रसन्न होती है और दुरषी शत्रु भी निकटवर्ती हो जाते हैं 1 इसके द्वारा यह आपत्ति में समस्त मनोरथ प्राप्त करता है । शत्रुओं के सामने जाना, वहां से भाग जाना, उन पर आक्रमण करना, शत्रुसेना को छिन्न छिन्न कर देना ये कार्य अश्वसेना द्वारा सिद्ध होते हैं जो विजिगीधु जात्यश्व पर आरूढ़ होकर शत्रु पर आक्रमण करता है उसकी विजय होती है तथा शत्रु उस पर प्रहार नहीं कर सकता। जात्यश्व के 9 उत्पत्तिस्थान है" |(1) सर्जिका (2) स्वस्थलाग्गा (3) करोखरा (4) गाजिंगाणा (5) केकाणा (6) पुष्टाहारा (7) गातारा (8) सादुपारा (9) सिन्धुपारा ।
3. रथसेना - जब धनुर्विद्या में प्रवीण योद्धा रथारूढ़ होकर (शत्रु पर) प्रहार करते हैं सब राजाओं के लिए क्या असाध्य रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी असाभ्य नहीं रह जाता है । रथों के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट की हुई शनुसेना आसानी से जीत जाती है । रथों पर सवार योद्धाओं के सिर पर मुकुट बंधा रहता था। वे अपने शरीर को कवच द्वारा सुरक्षित रखने का यत्न करते थे तथा उनका प्रमुख अस्त्र धनुष, बाण होता था" रथ अनेक प्रकार की चित्रकारी से विभूषित होते थे। उन पर उत्तम रत्न तथा सोने का जड़ाव होता था तथा हिलती हुई चमकती हुई छोटी-छोटी बजाओं को शोभा अनुपम होती थी।
4. पदाति सेना - हस्ति, अश्व तथा रथमय सेना के आगे पदातिसेना चलती थी।
5.सप्ताङ्ग सेना- हरिवंशपुराण में हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सैनिक,बैल, गन्धर्व और नतंकी इन सात प्रकार को सेनाओं का उल्लेख मिलता है। 38 वें सर्ग में भगवान् नेमिनाथ के जन्मोत्सव के समय देव, वृषभ, रथ, हाथी, गन्धर्ष और नर्तकी इन सात प्रकार की सेना के आने का वर्णन प्राप्त होता है । सबसे पहले देवों की सेना थी, इसने सात कक्षाओं का विभाग किया था और गोल आकार बनाया था। यह स्वाभाविक पुरुषार्थ से युक्त थी और शस्त्र धारण किए हुए थी । इसके पश्चात् वेग में वायु को जीतने वाली घोड़ों की सेना थी । तदनन्तर बेलों को वह सेना चारों ओर खड़ी थी, जो सुन्दर मुख, सुन्दर अण्डकोश, नयनकमल, मनोहर कांदोल, पूँछ,शब्द, सुन्दर शरीर, सारना, स्वर्णमय खुर और सींगों से युक्त था । चन्द्रमा के समान उसको उज्जवल कान्ति थी । वृषभसेना के पश्चात् बलयाकार रथसेना सुशोभित थी । इसके पश्चात् विशालकाय हाथियों को सेना थी । हाथियों को सेना के बाद गन्धर्षों की सेना सुशोभित थी। इसने मधुर मूछना, कोमल वीणा, उत्कृष्ट बांसुरी, ताल का शब्द और सातों प्रकार के स्वरों से संसार के मध्यभाग को पूर्ण कर दिया था । यह सेना, देव, देवाङ्गनाओं से सुशोभित और सबको आनन्दित करने वाली थी। गन्धवों की सेना के बाद उत्कृष्ट नृत्य करने वाली नर्तकियों की वह सेना थी जो नितम्बों के भार से मन्द-मन्द गमन कर रही थी, समस्त रसों को पुष्ट करने वाली थी तथा वलयों से सुशोभित होने के कारण देवों के.मनों को आकर्षित कर रही थी। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षायें थी। प्रथम कक्षा में चौरासी हजार घोड़े, बैल आदि थे। दूसरी तीसरी आदि कक्षाओं में ये क्रमशः दुनेदूने थे।
आदिपुराण में हाथी, घोड़ा, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पियादे और बैल के रूप में सात प्रकार की सेना का उल्लेख किया गया है। विशेषकर, हस्ति, अश्व, रथ और पदाति सेना अधिक काम करती थी।
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123 षडङ्ग सेना - चक्रवर्ती की सेना के हाथी, घोड़े, रथ, पदाति, देव और विद्याधर ये छह अंग थे । पैदल सैनिकों की अपेक्षा रथसेना का गौरव अधिक होता था29 । संख्या में पैदल सेना अधिक होती थी, क्योंकि स्त्रियाँ भी युद्ध में चतुर होने के कारण योद्धाओं के समान आदरण करती थी।
उत्तरपुराण में षडङ्ग सेना का उल्लेख किया गया है । इस सब सेना की शोभा स्वापी से होती थी । स्वामी की सफलता असफलता की नीति पर बहुत कछ सेना की सफलता, असफलता निर्भर थी । सैनिक लोग कूट-युद्ध करने में भी निपुण होते थे । सैनिकों का यह विश्वास था कि युद्ध करने में एक तो सेवक का कर्तव्य पूरा हो जाता है, दूसरे यश की प्राप्ति होती है और तीसरे शूरवीरों की गति प्राप्त होती है । मन्त्रिगण अभ्युदय प्राप्त अनेक मित्रों से युक्त होने के कारण महान् और अजेय पराक्रम के धारक राजा से युद्ध करना श्रेष्ठ नहीं समझते थे, क्योंकि बलवान् के साथ युद्ध करने का कोई कारण नहीं है ।
घनब्जय के अनुसार जो राजा छह प्रकार के अन्तरंग श (काम, क्रोध, मान, लोभ, हर्ष तथा मद) को जीत लेता है, उसकी छह प्रकार की सेना उसे नहीं छोड़ती है" द्विसन्धान महाकाव्यके संस्कृत टीकाकार नेमिचन्द्र ने ग्रह प्रकार की सेना के अन्तर्गत मौल, भृतक, श्रेण्य, अरण्य, दुगं तथा मित्र सेना को माना है । अपने कथन की पुष्टि में उन्होंने एक श्लोक भी इसी आशय का उद्धृतकिया है । कोटिल्य ने दुर्गबल को न गिनाकर उसके स्थान पर अमित्रबल गिनाकर छह संख्या की पूर्ति की है. साथ ही एक सातवें प्रकार की सेना, जिसे उन्होंने औत्साहिक बल कहा है, का अलग से कथन किया है |
1.मौलबल - मूल स्थान अर्थात् राजधानी की रक्षा के लिए जितनी सेना की अपेक्षा हो उसके अतिरिक्त सेना को युद्ध में ले जाना चाहिए अथवा मौलबल के विद्रोह कर देने की सम्भावना हो तो उसको युद्ध आदि कार्यों में साथ ले जाना चाहिए या मुकाबले में आये हुए शत्रु पर मौल बल के अनुराग की सम्भावना जान पड़े तो उसका साथ ले जाना चाहिये अथवा शत्रु किसी शक्तिशाली सैन्य को लेकर युद्ध करने के लिए आया है तब भी मौलबल को साथ ले जाना चाहिए या दूरदेश, दोर्घकालीन युद्ध क्षय-व्यय की अवस्था में भी मौलबल को साथ रखना चाहिए। स्वामिभक्त शत्रु के दूत मेरी सेना में भेद डालने का यत्न करेंगे, ऐसी सम्भावना होने पर तथा दूसरी सेनाओं पर पूरा विश्वास नहोने की स्थिति में भी मौलबल को युद्ध करना चाहिए, क्योकि मौलबल अत्यन्त स्वामिभक्त होने के कारण फोड़ा नहीं जा सकता है। अन्य सेनाओं के प्रधान पुरुषों का नाश हो जाने पर यदि विजिगीषु की सेना के क्षेत्र छोड़कर भाग जाने का भय हो तो मौलबल को युद्धक्षेत्र में साथ ले जाना चाहिए ।
2. भूतक बल- यदि विजिगीषु राजा यह समझे कि मौसबल को अपेक्षा मेरा भृतकबल अधिक है अथवा शत्रु का मौलबल थोड़ा तथा अविश्वासी है अथवा शत्रु का भृतकबल कमजोर या न होने के बराबर है अथवा इस समय शत्रु के साथ तृष्णी युद्ध करना पड़ेगा, अथवा थोड़े ही बम से कार्य सम्पन्न हो जायगा अथवा युद्ध का गन्तव्य देश दुर नहीं है, समय भी थोड़ा ही लगेगा
और अधिक क्षय, व्यय की सम्भावना नहीं है, अध्यवा शन्नु के गुप्तचर मेरी सेना में बहुत कम प्रवेश कर सकेंगे और वे भी भेद न डाल सकेंगे, यदि उन्होंने भेद डाल दिया तो अपनी विश्वस्त सेना को काबू में न डाल सकूँगा अथवा शत्रु के थोड़े ही कार्यों की क्षति करना है तो ऐसी स्थिति में एवं ऐसे अवसरों पर भृतकवल को साथ लेकर उसको युद्ध में आना चाहिए ।
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3. श्रेणीवल- यदि विजिगीषु को यह विश्वास हो कि मेरे पास श्रेणीवल इतना अधिक है कि उसको राजधानी की रक्षा में लगाया जा सकता है और शत्रु के साथ युद्ध करने के समय भी उसको साथ लिया जा सकता है अथवा सफर कम है, मुकाबले को सेना भी प्रायः श्रेणोबल के साथ युद्ध करने योग्य है अथवा शत्रु तृष्णायुद्ध (मन्त्र) अथाका प्रकाशयुद्ध (ध्यायाम) से मुकाबला करना चाहता है अथवा दण्ड से डरा हुआ होने के कारण शत्रु अपनी सेना को किसी प्रकार दूसरे राजा के अधीन करके युद्ध करने की सोच रहा है, ऐसी स्थिति में एवं ऐसे अवसरों पर श्रेणीबल को साथ लेकर युद्ध करना चाहिए।
4.अरण्यबल - यदि विजिगीषु राजा यह समझे कि गन्तव्यस्थान को बताने के लिए पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होगी अथवा आटविक सेना शत्रु की युद्धभूमि में लड़ने योग्य आयुधों की शिक्षा में निपुण है अथाव विजिगीषु की आज्ञा बिना ही आदक्षिक सेना शत्रु सेना के साथ युद्ध में प्रवृत्त हो सकेगी, जैसे एक बिल्वफल को दूसरे बिल्वफल के साथ टकराकर फोड़ा जाता है वैसे ही शत्रु सेना से आटविकसेना ही मुठभेड़ करने में समर्थ है अथवा शत्रु भी आटविक सेना को लेकर ही युद्धभूमि में उतर रहा है अथवा शत्रु के अल्प अनिष्ट के लिए अरण्य सेना ही उपयुक्त होगी । ऐसी स्थितियों एवं ऐसे अवसरों पर आटविक (अरण्य) सेना को लेकर ही युद्ध करना चाहिए।
___5. मित्रवल - यदि विजिगीषु राजा यह समझे कि उसका मित्रबल इतना मजबुत है कि यह राजधानी की रक्षा करने में और शत्रु पर चढ़ाई करने में भी समर्थ है अथवा सफर भी कम है, तृष्णीयुद्ध की अपेक्षा वहाँ प्रकाशयुद्ध ही अधिक होगा, जिससे क्षय, व्यय की कप सम्भावना है अथवा शत्रु सेना या शत्रु के देश में सभी आटविक सेना या मित्रसेना को पहिले अपनी मित्र सेना से भिड़ाकर फिर अपनी सेना से लड़ाऊंगा अथवा इस युद्धादि कार्य में मित्र का तथा अपना सपान प्रयोजन है, इस कार्य की सिद्धि मित्र के हाथ में है अथवा अपने समीपस्थ अन्तरंग मित्र का अवश्य ही उपकार करना है अथवा अपने मित्र से द्रोह रखने वाली सेना (दृष्य सेना) को शत्रु सेना के साथ भिड़ाकर मरवा डालूंगा, ऐसे अवसरों या ऐसी स्थिति में मित्रसेना को युद्ध में साथ ले जाना चाहिए।
6. दुर्गरल - दुर्ग के अन्तर्गत रहने वाली सेना ।
द्विसन्धान महाकाव्य के टीकाकार नेमिचन्द्र के अनुसार राजधानो की सेना को मोल तथा पैदल सेना को भृतक कहते हैं। श्रेणीबल के इन्होंने अठारह पेद किए हैं - सेनापति, माणक, राजश्रेण्ठी, दण्डाधिपति, मन्त्री, महत्तर, तलवर, चारवर्ण, चतुरंग सेना, पुरोहित, आमात्य और महामात्य । जंगल में रहने वाली सेना आरण्य, धूलि कोटपर्वतादि पर स्थित सेना दुर्गसेना तथा मुहृत् सेना मित्र सेना कहीं जाती है ।
नीतिवाक्यामृत में सेना के छह भेद बतलाए गए हैं - 1, मौलबल - वंशपरम्परा से चली आई प्रामाणिक, विश्वासपात्र पैदल सेना । 2. मृत्य बल - सामान्य सेवक ।।
3. धृत्यक बल - अधिकारी सेना । 4. श्रेणीबल ।
5. पित्रयल । 6. आटविक।
इन छह प्रकार की क्रमश: पहले-पहले की सेना को युद्ध में लगाना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार की सेनाओं के अतिरिक्त सातवें प्रकार की औत्माहिक सेना भी होती है, जो विजिगीषु की
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विजययात्रा के साथ शत्रु राष्ट्र को नष्ट करने के लिए उसकी सेना में मिल जाती है । क्षात्रतेज, शस्वविद्या में निपुणता शार्य तथा (स्वामी के प्रति) अनुराग ये औत्साहिक सेना के गुण है । राजा मौलबल के अविरोधपूर्वक उत्साही सेना को दान-सम्मान के द्वारा अनुग्रहीत करे | मौल सेना आपत्ति में साथ देती है, दण्डित किए जाने पर भी द्रोह नहीं करती तथा शत्रुओं द्वारा फोड़ी नहीं जा सकती है।
सेना की गणना - गणना की दृष्टि से सेना के आठ मेद किए जाते थे - (1) पत्ति (2) सेना (3) सेनामुख (4) गुल्म (5) वाहिनी (6) पृतना (7) चमू और (8) अनीकिनी ।।
पति - जिसमें एक रथ, एक हाथी, पंच प्यादे और तान बड़े होते हैं, वह पत्ति कहलाती
सेना - तीन पति की एक सेना होती है । सेनामुख - तीन सेनाओं का एक सेनामुख होता है । गुल्म - तीन सेनामुखों का एक गुल्म होता है। वाहिनी - तीन गुल्मों की एक वाहिनी होती है। पृतना - तीन वाहिनियों की एक पृतना होती है । चमू - सीन पृतनाओं की एक चमहोती है। अनीकिनी - तीन चमू की एक अनीकिनी होती है। .
अक्षोहिणी - अनीकिनी की गणना के अनुसार दस अनीकिनी की एक अक्षोहिणो होतो है । इस प्रकारण अक्षोहिणी में रथ इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर, हाथी इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर, पदाति एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास, घोड़े पैसठ हजार छ: सौ चौदह होते हैं । हरिवंशपुराण के अनुसार जिसमें नौ हजार हाथी, नौलाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ सौ करोड़ पैदल सैनिक हो उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं जरासन्ध के पास इस प्रकार की अनेक अक्षौहिपी सेना थी।
सैनिक प्रयाण - किसी विशेष अवसर पर नगर से बाहर निकलती हुई सैना को शोमा महानन्दी के समान होती थी | सेना की रक्षा के लिए सेनापति को नियुक्त किया जाता था। सबसे पहले घोड़ों का समूह जाता था उसके पीछे रथ चलता था, हाथियों का समूह बीच में जाता था और पैदल सैनिक सब जगह चलते थे। चतुरंगणी सेना के साथ देव और विद्याधर चलते थे। इस क्रम में अन्यत्र व्यतिक्रम दृष्टिगोचर होता है। 36वें पर्व में सबसे आगे पैदल सैनिक, उससे कुछ दूर घोड़ों का समूह, उससे कुछ दूर हाथियों का समूह, सेना के दोनों और रथों का समूह तथा आगे पीछे और ऊपर विद्याधर तथा देवों के चलने का उल्लेख किया गया है । शत्रु समूह के पराक्रम को नष्ट करने वाला तथा दूसरे के द्वारा अलंघनीय चक्ररस्न और शत्रुओं को दण्डित करने वाला दण्डरल चक्रवर्ती की सेना में सबसे आगे रहता था दण्ड रत्न को आगे कर सेनापति सबसे आगे जाता था । आगे चलने वाला दण्डरल सब मार्ग को राजमार्ग के समान विस्तृत और सम करता जाता था। इस प्रकार सेना स्खलित न होती हुई जाती थी । राजाओं और सैनिकों के साथ उनकी स्त्रियां भी जाती थी ।
चन्द्रप्रभचरित से ज्ञात होता है कि प्रयाण के समय पटह की ध्वनि की जाती थी, जिससे समस्त सैनिकों को चलने की सूचना प्राप्त हो जाती थी । पुर के बाहर गोपुर से निकलते समय
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बोड़ों की कसामसी देखने योग्य होती थी । हयों के महावतों को वे कारण झुकाकर निकलना पड़ता था तथा पताकायें (केतु) झुका झुकाकर निकाली जाती थी घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूलि से आकाश छिप जाता था। घोड़े इतने शक्तिशाली होते थे कि उन्हें दोनों हाथों से रास कसकर रोका जाता था । हस्तिपद (महावत ) की डिण्डिम ध्वनि से लोग सचेत होकर इधर-उधर हट जाते थे । मस्त हाथी कुपित और निडर दृष्टि डालते हुए चले जाते थे । रथों के पहियों से पृथ्वी खुरचकर ऐसी लगने लगती थी मानों उसे जोत डाला गया हो" । रथों के शब्द से दिशायें बहिरी हो जाती थी। लोहे का कवच पहनने के कारण नीले रंग की दिखाई पड़ने वालो सेना राजा के आस-पास रहती थी। मौलबल को राजा मध्य में रखता था और आटविक सेना को सबसे आगे रखता था। मध्य में प्रबल सेना सहित सामन्तों को रखा जाता था। राजा के पीछे युवराज, युवराज के पीछे अन्य कोई बड़ा राजा चलता था और चतुरंग सेना से युक्त अन्य राजा लोग राजा को घेरकर चलते थे। रनिवास भी साथ चलता था भार ढोने के लिए कुलियों" (वैवधिकों) कैटों तथा बैलगाड़ियों का प्रयोग किया जाता था राजा श्री वर्मा की सेना का एक कैंट हाथी से डरकर कर्णकटु शब्द करता हुआ, लम्बी गर्दन किए बोझा फेंककर भागा और इस तरह नट के समान उसने हास्यरस की अवतारणा की। सेना के प्रस्थान करने पर भीड़-भाड़ में जनता को हानि भी उठानी पड़ती थी । वीरनन्दी ने उसका सच्चा चित्र खींचा है - एक ग्वालिन जा रही थी। अचानक हाथी के आ जाने से डर के मारे वह हिल उठी। सिर पर से बड़ा भारी दही का पात्र (मटका ) गिरकर फूट गया। क्षण भर खड़ी खड़ी वह इस हानि के लिए सांच करती रही और उसके बाद सड़क पर से लौट गई। हाथी की फुफकार से बिचककर राह में बैल भागे तो शकट (छकड़े) के दोनों घुरे टूट गए। बड़े लाभ के लिए घुमते हुए बनिए के घी के घड़े उसके मन के साथ ही फूट गए ” ।
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सैनिक प्रमाण के समय देशवासी आपस में चर्चा करते थे यह प्रभु का सुन्दर अन्तःपुर है, यह मदोन्मत्त हाथियों की घटा है यह तेज घोड़ा है, यह ऊँट है, यह देदीप्यमान गणिका है और यह मार्ग में राजाओं की पंक्ति से घिरा हुआ पुत्रसहित प्रजापति है। इससे स्पष्ट है कि गणिकायें भी साथ में चला करती थी। मार्ग में धान्य वगैरह कूटकर साफ करते हुए किसान गौरस वगैरह भेंट करते थे ।
सैन्य शिविर - बहुत सारा रास्ता पार करने के बाद विश्राम के लिए बीच में शिविर लगाए जाते थे। शिविर के चारों और दूष्यकुटी” (तम्बू) और विस्तृत पटमण्डप बनाए जाते थे । तम्बुओं के चारों और कटीली बाडियों लगाई जाती थीं 1 स्कन्धावर (शिविर) के बाहर अनेक आवास (डेरे) बने होते थे, जहां पर घोड़ों के प्लान आदि (पर्याणादि) लटका दिए जाते जाते थे* । शिविर में प्रवेश करने के लिए एक बढ़ा दरवाजा (महाद्वार) बनाया जाता था । शिविर में एक बड़ा बाजार लगाया जाता था, जिसको तोरण और ध्वजा आदि से अच्छी सजावट को जाती थी। राजा का आँगन रथ, घोड़े, हाथी, सामन्त, कर्मचारी (नियोगी), द्वारपाल तथा अन्य अनेक निधियों से भरा रहता था, जिसे देखकर राजा को भी कुछ-कुछ आश्चर्य होता था । राजा के सिन्निवेश की रचना स्थपति करता था। जिस समय आवस्थों (तम्बुओं) में मनुष्य की भीड़ का क्षोभ शान्त हो जाता था घोड़ों का समूह जल पीकर पटमण्डप में इच्छानुसार वास खाने लगता था, हाथी के समूह सरोवर
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में स्नान कराकर वन में बाँध दिए जाते थे, उस समय सेना ऐसी जान पड़ती थी मानों सदैव से वहां रह रहो हो83 | इस प्रकार जहां राजा पड़ाव डालता था वहाँ एक छोटा नगर सा बस जाता था ।कपड़ों से राजा का निवास, वेश्याओं के डेरे तथा दुकानों से शोभित बाजार बनाया जाता था841 राजाधिराज पद्मनाम के मन्दिर, घुड़साल, वेश्याओं के ढेरे और बाजार आदि को देखकर पीरले आने वालो ग्रजा ने समझा कि यही हमारे रहने का स्थान है । राह में चलने से थके हुए परिचित पुरुषों के सत्कार के लिए पटमय निवास ( कमाता कहार पर खड़ी हुईवश्यायें भनियों को वहाँ की रहने वाली जान पड़ों ।
सेना को ऐसे स्थान पर ठहराया जाता था, जहाँ बाँस, लकड़ी तथा जल सुलभता से पिल सके । सेनापति पहले से ही जाकर ऐसी जगह देख लेता था | शीघ्र ही आगे गए हुए सेवक उस भूमि को साफ कर सब और निर्मित कपड़ों के सामान्य डेरे (पटमण्डप) तथा राजाओं के ठहरने योग्य बड़े-बड़े तम्बुओं से युक्त कर देता था और प्रत्येक डेरे पर पहिचान के लिए अपनेअपने चिन्ह खड़े कर दिए जाते थे । ऊँट के ऊपर से हथियारों का बोझा उतारो । इस जमीन को साफ करो, ठण्डा पानी लाओ, महाराज के रहने की इस जगह से डेरे को उखाड़कर इसके चारों तरफ कनात (काण्डपट) लगाकर उसे फिर सुधारो, यहाँ से रथ को हटाओ और घोड़े को बाँधो, बैलों को जंगल में ले जाओ, तू घास के लिए जा, इत्यादि रूप से अधिकारी सेवकों को आजा देते थे।
युद्ध कालीन स्थिति - शत्रु सेना का जब आक्रमण होता था तब वह समस्त देश को नष्टभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती थी । वह शिष्ट नागरिकों का भी अपमान करती हुई आगे बढ़ती थी । विशेषकर उसका लक्ष्य राजधानी पर अधिकार करना होता था, क्योंकि शत्रुओं की मेना से भयभीत प्रजा हरणकिए धन से बचे हुए बहुमूल्य पदार्थों तथा पुत्रकला आदि के साथ राजधानी में आ जाती थी । युद्ध के समय कभी-कभी राजधानी चारों और से घिर जाती थी और नगर में घास, फूस, ईंधन और पानी का पहुँचना दुर्लभ हो जाता था । विजय प्राप्ति के लिए सेना की व्यूह रचना होती थी । व्यूह रचना के कारण सेना की पंक्ति को किसी दिशा से तोड़ना बहुत कठिन होता था । सैन्य संचालन में राजा का महत्त्वपूर्ण योग होता था । जिस ओर सैनिकों का उत्साह शान्त दिखाई देता था उस और पुरस्कार आदि के द्वारा राजा ठन्हें उत्तेजित कर देता था तथा कहीं शिथिलता दिखाई दी तो उसे साम, दान आदि उपायों से शान्त किया जाता था सजा के समस्त राजपुत्र भी सैन्य संचालन में योग देते थे । जो सेना अत्यधिक बलशाली और साहसी होतो थी तथा जिसके राजा का कोष विशाल होता था, उसको जोतना कठिन होता था96 ।
युद्ध करते समय नायक अपनी सारी शक्ति को दाव पर लगा देते थे। उनके मन में यह भावना रहती थी कि हमारे ग्राम, आकर (खनिज क्षेत्र),पुर तथा जितने पो देश हैं तथा दोनों सेनाओं के पास जो भी सम्पत्ति है वह उसी की हो जाय जो संग्राम के बाद बचा रहे" । युद्ध में अनेक देश तथा भाषा वाले सैनिक भाग लेते थे । योद्धाओं में युद्ध करते समय आज्ञापालन, कृतज्ञता
और स्वाभिमान ये तीन भावनायें प्रमुख रूप से होती थी। कुछ लोग अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करने के लिए ही लड़ना चाहते थे।कुछ सोचते थे देश, ग्राम.नगर तथा आकरों का शासन देकर तथा उत्तम वस्त्र, आभूषण, पान आदि देकर जिस राजा ने हमें ही नहीं, हमारी स्त्री तथा बच्चों
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का सम्मानपूर्वक भरणपोषण किया, उस अप्रतिम शासनकारी के सामने मान में उद्धृत शत्रुओं के सिरों को काटकर चढ़ादेंगे और इस प्रकार उनके ऋण मे उऋण हो जायेंगे | अन्य स्वाभिमानी यौनाओं में कुछ ऐसे होते थे जिनको शत्रु राजा अथवा सेना ने कष्ट दिया था तथा अपमान किया था । वे सोचते थे - जो अत्यन्त दयाहीन हैं, न्यायपथ से दूर हैं, हमारे देश का विनाश करके जिन्होंने स्वजनों को लूटा है उनके शरीर को गदाओं से चूर्ण कर युद्ध स्थल में सुखा देंगे ।
सेना के विविध कर्मचारी - सेना में अनेक प्राकर के कर्मचारी रहते थे, जिनमें हनियों को सजाकर लाने वाले खच्चरियों की जीन कसने वाले, स्त्रियों की पालको ले जाने वाले (कार्यवाह) 15, घोड़ों पर पर्याणक (जीन) बाँधने वाले, दासियों को बुलाने वाले अंगरक्षक, सेना के आगे जाकर निवास की व्यवस्था करने वाले, भोजनशाला में नियुक्त कर्मचारी, गोरक्षक, कंचुकी, बाद का कार्य करने वाले, देश के अधिकारियों के पास सन्देश ले आने वाले,हस्तिपालक,अश्वपालक,गोपालक, उष्ट्रपालक,पुजारी, अभिषेककर्त,आर्थीर्वाददाता और नैमित्तिक नाम प्रमुख है।
युद्ध - युद्ध चार प्रकार के होते थे ! (1) दृष्टि युद्ध (2) मल्ल युद्ध (3) जल युद्ध (4 शस्त्र युद्ध ।
प्रथम तीन युद्ध धर्मयुद्ध कहलाते थे । शस्त्र युद्ध में विभिन्न उपाय प्रयोग में लाये जाते थे। यहां तक कि कूटयुद्ध भी होता था । कूटयुद्ध करने वाले सवारी सहित, प्रताप से उग्न तथा युद्ध में सहसा और शीघ्र आगे जाने वाले होते थे" | शत्रु पर विजय प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार को व्यूह रचना की जाती थी, जिनमें चक्रव्यूह" दण्डव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह, असंहसव्यूह"" तथा मकरव्यूह प्रधान थे । सेनायें राजा से न तो बहुत दूर जाती थी और न स्वछन्दता पूर्वक इधरउधर ही घूमती थी | इस प्रकार उनका अनुशासन कायम रहता था। इस अनुशासन में बलाध्यक्ष का बहुत बड़ा योग रहता था | राजा जिन सुभटों (शूरवीरों) की हाथियों के पैरों की रक्षा के लिए नियुक्त करता था ये अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते थे और हाथियों के चारों ओर विद्यमान रहते थे। ऐसे लोग सिर पर टोप तथा शरीर पर कवच धारण करते थे और हाथ में तलवार उठाये रहते थे। युद्ध के समय लामसास्त्र (चन्द्रप्रभवरित 6/103) तपनास्त्र (चन्द्रप्रभचरित6/104). शरशक्ति, चक्र, कुन्त(चन्द्रप्रभचरित6/101) भुजगास्त्र, गरूडास्त्र, वहास्व, अब्दास्त्र (बारूमास्त्र) अचलास्त्र (पर्वतास्व), कुलिशास्त्र (वज्रास्त्र), उद्यमास्त्र, तन्द्रास्त्र (मोहनास्त्र), पषनास्त्र, पयोधरास्त्र, सिद्धयस्त्र, विघ्नविनायकास्त्र (चन्द्रप्रभचरित6/105), असि (चन्द्रप्रभचरिता। 110), शिलीमुख (चन्द्रप्रभचरित15/125) प्रास (चन्द्रप्रभचरित15/125) अर्धचन्द्र" (बाण), मुद्गर (चन्द्रप्रभचरिता5/127),गदा(चन्द्रप्रमचरित15/128),वभुष्टि, परशु, (चन्द्रप्रभचरिता 125) शंकु (चन्द्रप्रभचरित15/130) आदि शस्त्रों का व्यवहार किया जाता था।
सैन्य शक्ति का उपयोग- राजा को अपनी प्रभृतशक्ति का उपयोग शरणागतों की रक्षा के लिए करना चाहिए, निरपराध प्राणियों की हत्या में नहीं करना चाहिए। जो मनुष्य निहत्थे व्यक्ति पर शस्त्रप्रहार करता है अथवा अशास्त्रज्ञसे विवाद करता है वह पंचमहापातकों (स्त्रीवध, बालवध, ब्राह्मणवध, गोवध व स्वामीवध) के कटुकफल भोगता है। जिस प्रकार नौका के बिना केवल मुजाओं से समुद्र पार करने वाला मनुष्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है, उसी प्रकार कमजोर पुरुष
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129 बलिष्ठ पुरुष के साथ युद्ध करने से शीघ्र नष्ट हो जाता है।2। ओ जार से उत्पन्न हो, जिसके देश का पता मालूम न हो, लोभी, दुष्ट हृदय युक्त, जिससे प्रजा ऊब गई हो, अन्यायौ, कुमार्गगामी, व्यसनी, अमात्य, सामन्त सेनापत्ति अदि जिसके विरूद्ध हो ऐसे शत्रु पर आक्रमण कर देना चाहिए | जज विजिगीषु बुद्धियुद्ध द्वारा जीते जाने में असमर्थ हो तब उसे शस्त्रयुद्ध करना चाहिए" बुद्धिमानों की बुद्धियाँ जिस प्रकार शत्रु के उन्मूलन में समर्थ होती है, उस प्रकार वीरपुरूष द्वारा प्रेषित वाण समर्थ नहीं होते हैं धनुधारियों के बाण निशाना साधकर चलाए जाने पर भी प्रत्यक्ष
मान हमारे कम्गे में कनकर हो जाते हैं, बुद्धिमान पुरुष बुद्धिबल से बिना देखे हुए पदार्थ भी भली-भांति सिद्ध कर लेता है | अनुश्रुति है कि माधव के पिता ने दूरवती स्थान में स्थित होने पर भी कामन्दकी (नामक वेश्या) के प्रयोग से अपने पुत्र माधव के लिए मालती प्राप्त कर ली । इस प्रकार कुशल बुद्धि वालों की बुद्धि ही अमोघ अस्त्र है जिस प्रकार या के प्रहार से ताड़ित पहाड़ पुन: उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार विद्वानों की बुद्धि द्वारा जीते हुए शत्रु भी पुनः शत्रुता करने का साहस नहीं करते हैं। | जब युस भूमि में दीपक की प्याला में पतंग की तरह अपना विनाश निश्चित हो तब बिना सोचे विचारे ही युद्ध के लिए प्रयाण कर देना चाहिए।जब मनुष्य दीर्घायु होता है तब भाग्य के बल से निर्बल होने पर भी बलिष्ठ शत्रु को मार डालता है।
युद्धकालीन राबकर्तव्य - राजा को प्रतिग्रह के बिना युद्ध में नहीं जाना चाहिए। राजचिन्ह आगे कर पश्चात् राजा से अधिष्ठित प्रधान सैन्यसुसज्जित कर युद्ध के लिए तैयार करना व स्थापित करना प्रतिग्रह है।३ । प्रतिग्रह युक्त बल भले प्रकार युद्ध के लिए उत्साहित होता है । युद्ध के अवसर पर सेना के पीछे दुर्ग व जल सहित पृथ्वी रहने से उसे काफी जीवन सहारा रहता है। क्योंकि नदी में पहले वाले पुरुष को तटवती मनुष्य का दर्शन उसको प्राणरक्षा का साधन होता है । युद्ध के समय सेना को अन्न न मिलने पर भी यदि जल मिल जाय तो वह अपनी प्राणरक्षा कर सकती है । राजा को चाहिए कि वह अपनी शक्ति को न जानकर शत्रु से साथ युद्ध न करे। अपनी शक्ति को न जानकर शत्रु से युद्ध करना शिर से पर्वत तोड़ने के समान है।* | जिस प्रकार बड़े हुए मृणाल तन्तुओं से दिग्गज भी वश में किया जाता है, उसी प्रकार सैन्य द्वारा शक्तिशाली व्यक्ति शत्रु को परास्त कर देता है।" | राजा अकेला अनेकों के साथ युद्धन करे, क्योंकि मदोन्मत्त जहरीला साँप बहुत सी चीटियों द्वारा भक्षण कर लिया जाता है।" | राजा समान शक्ति वाले के साथ युद्ध न करे । समान शक्ति वाले के साथ युद्ध करने पर निश्चित रूप से मरण होता है और विजय में सन्देह रहता है। कच्चे घड़े यदि परस्पर टकराये तो दोनों नष्ट हो जाते हैं । अधिक शक्ति वाले के साथ भी युद्ध नहीं करना चाहिए, क्योंकि बड़ों के साथ युद्ध करना हाथी के साथ युद्ध करने वाले पैदल सैनिक के समान है। संग्राम भूमि से भागने वाले शत्रु जो पकड़ लिए गये हो, उन्हें वस्त्रादि से सम्मानित कर छोड़ देना चाहिए |
युद्ध की रीति- युद्ध शास्त्र की शिक्षा के अनुसार युद्ध न कर शत्रु द्वारा किये जाने वाले प्रहारो के अभिप्रायानुसार युद्ध करना चाहिएजब शत्रु व्यसनों अथवा आलस्य में फंसा हो तब सैन्य भेजकर उसके नगर का घेरा डालना चाहिए । सर्वसाधारण के आने जाने योग्य स्थान में सेना का पड़ाव डालने व स्वयं ठहरने से प्राण रक्षा नहीं हो सकती है। अत:अपना पड़ाव ऐसे स्थान पर डालना चाहिए जो मनुष्य की ऊँचाई बराबर ऊँचा हो, जिसमें थोड़े आदमियों का प्रवेश. घूमना तथा निकास हो, जिसके आगे विशाल सभी मण्डप के लिए स्थान हो ।
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व्यूह रचना सेना, बुद्धि, भूमि, ग्रहों की अनुकूलता, शत्रु द्वारा किया जाने वाला युद्ध का उद्योग और सैन्यमण्डल का विस्तार ये सुसंगठित सैन्यव्यूह की रचना के कारण * अच्छी तरह से रचा हुआ भी व्यूह तब तक स्थिर रहता है, जब तक शत्रु की सेना दृष्टिगोचर नहीं होती है "" । प्राचीन काल में अनेक प्रकार के व्यूहों की रचना की जाती थी। इनमें से कतिपय व्यूहों का विवरण हरिवंशपुराण में इस प्रकार प्राप्त होता है
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चक्रव्यूह - इसमें चक्राकार रचना को जाती थी । चक्र के एक हजार आरे होते थे। एकएक आरे में एक-एक राजा स्थित होता था, एक-एक राजा के सौ-सौ हाथी, दो-दो हजार रथ, पाँच-पाँच हजार छोड़े और सौलह-सौलह हजार पैदल सैनिक होते थे। चक्र की धारा के पास छह हजार राजा स्थित होते थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़ा आदि कः परिवार पुत्रवत परिमाग से चौथाई भाग प्रमाण था । पाँच हजार राजाओं के साथ में प्रधान राजा उसके मध्य में स्थित होता था। कुल के मान को धारण करने वाले धीर-वीर पराक्रमी पचास-पचास राजा अपनी-अपनी सेना के साथ चक्रधारा की सन्धियों पर अवस्थित होते थे आरों के बीच-बीच के स्थान अपनीअपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं सहित होते थे। इसके अतिरिक्त व्यूह के बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित होते थे ।
गरुडव्यूह - चक्रव्यूह को भेदने के लिए गरूड़ व्यूह की रचना की जाती थी। उदात रण में शूरवीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र शास्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख योद्धा उस गरूड़ के मुख पर खड़े किये जाते थे। प्रधान राजा उसके मस्तक पर स्थित होते थे। मुख्य राजा के रथ की रक्षा करने के लिए अनेक राजा उनके पृष्ठरक्षक माने जाते थे। एक करोड़ रथों सहित एक राजा गरूड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित होता था। उस राजा की पृष्ठ रक्षा के लिए अनेक रणवीर राजा उपस्थित होते थे । बहुत बड़ी सेना के साथ एक राजा उस गरूड़ के दायें पंख पर स्थित होता था और उनकी अगल बगल की रक्षा के लिए चतुर शत्रुओं को मारने वाले सैकड़ों प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों के साथ स्थित होते थे। गरूड़ के बायें पक्ष का आश्रय ले महाबली बहुत से योद्धा अथवा राजागण युद्ध के लिए खड़े होते थे। इन्हीं के समीप अनेक लाख रथों से युक्त शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करने वाले राजा स्थित होते थे । इनके पीछे अनेक देशों के राजा साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित होते थे । इस प्रकार ये बलशाली राजा गरूड़ की रक्षा करते थे । इनके अतिरिक्त और भी अनेक राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मुख्य राजा के कुल की रक्षा करते थे ।
केतुरचना - प्रत्येक राजा के रथ पर उसकी विशिष्ट ध्वजा होती थी, जिससे वह पहचाना जाता था । हरिवंशपुराण में गरूड़ ध्वजः वृषकेतु'' (बैल चिन्ह से अंकित पताका), ताल ध्वज' बानर ध्वज'' हाथी ध्वज, सिंह ध्वज, कदली ध्वज, हरिणध्वज शुशुमाराकृतिध्वज, पुष्करध्वज" ( कमल को ध्वजा ) तथा कलशध्वज 0 इस प्रकार अनेक ध्वजाओं का उल्लेख मिलता है ।
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कूटयुद्ध - दूसरे शत्रु पर आक्रमण कर वहां से सैन्य लौटाकर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्रु का घात किया जाता है, उसे कूटयुद्ध कहते हैं " ।
तृष्णयुद्ध विषप्रदान घातक पुरूषों को भेजना, एकान्त में शत्रु के पास जाना व भेदनीति इन उपायों द्वारा जो शत्रु का घात किया जाता है उसे तुष्णीयुद्ध कहते हैं ।
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श्रेष्ठ सेना - सारहीन अधिक सेना की अपेक्षा सारयुक्त थोड़ी सेना उत्तम है। राजन-सारहीन सेना नष्ट हो जाती है तो शत्रु सारयुक्त सेना का भी नाश कर देता है । सैनिकों के प्रति व्यवहारजो युद्ध में सबसे अधिक पराक्रम दिखलाता था, उसे राजा वीरानणी" पद पर नियुक्त करता था। ऐसे व्यक्ति को वीरपट्ट बांधा जाता था जो अत्यधिक वीर सैनिक राजाओं के साथ युद्ध करते थे, उन्हें पैदल सेना का नायक (पत्तिनायक) और इस प्रकार के जो वीर घुड़सवार होते थे उन्हें घुडसवार सेना का नायक बना दिया जाता था | सजा को चाहिए कि जिस योद्धा में शूरवीरपत्रे की सम्भावना हो, उसके विषय में जानकारी प्राप्त कर उसका भी सम्मान करना चाहिए।
जिसका पराक्रम देखा जा चुका है और जिसने अत्यन्त असाध्य कार्य सिद्ध कर दिया है, उसकी तो बात ही क्या है ? राजा सामन्तों को भी प्रसन्नता सूचक उपहार देकर सन्तुष्ट करे। राजा पद्मनाभ ने भीमराज को चमकदार कपड़े, सुभीम को मणिकङ्कण, महासेन को मुकुट, सेन को मोलियों की माला, चित्राङ्क को चूडामणि, परन्तप को स्वर्ण का यज्ञोपवीत..कण्ठराजा को रत्न को कण्ठी, सुकुमण्डल को कुण्डल तथा पीपरथ को अनर्थ (कोमती) मणि देकर प्रसन्न किया सथा अन्य राजाओं को भी यथायोग्य कवच, घोड़ा, रथ तथा हाथी देकर सन्तुष्ट किया।
राजा को सैनिकों की देखरेख स्वयं करना चाहिए। जो राजा स्वयं अपनी सेना की देखभाल न कर दूसरों से कराता है, वह धन और तन्त्र (सेना) से रहित हो जाता है | राजा किसी अकेले व्यक्ति को सैन्याधिकारी न बनाए । ऐसा व्यक्ति शत्रु द्वारा फोड़े जाने के अपराधवश अपने स्वामी के प्रतिकूल होकर महान् अनर्थ करता है ।
सैनिकों क, ६, . सैनिकों को किस स्वामी को लोहकर न जाया युद्ध में स्वामी को छोड़कर जाने वाले सैनिक का ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कल्याण नहीं हो है। पैदल, पालकी (दोला) पर सवार अथवा घुड़सवार ( व्यक्ति ) शत्रुको भूमि में प्रवेश न करें। युद्ध में अपने स्वामी से आगे आने वाले सैनिक को अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है |
सेना के राजविरूद्ध होने के कारण - स्वयं सैनिकों की देखरेख न करना, उनके वेतन में से कुछ अंश हड़प जाना, वेतन विलम्ब से देना, विपत्ति में सहायता न करना एवं विशेष अवसरों पर सैनिकों का सम्मान न करना, इन सन्न कारणों से सेना राजविरूद्ध हो जाती है।
युद्ध में जीत न होने का कारण - जिसके पास थोड़े समय ठहरने वाली सेना है. यह युद्ध में नहीं जीत सकता है।
जय पराजय के सूचक शकुन - तत्कालीन जनता शकुनों में विश्वास करती थी। शुभाशुभ सपनों के द्वारा ही जय-पराजय की सूचना मिल जाती थी । चन्द्रप्रभचरित में सियारी का काई और शब्द करना, बायीं ओर गधे का मृदु शब्द करना, भारद्वाज पक्षी का परिक्रमा करना. मिरनी के वृक्ष पर कौआ बोलना, सहसा हाथियों के कपोलों से मद झरना, जय का सूचक तथा दार
ओर सिपाहियों का बोलना, बार-बार छींक आना, साँप का राह काट जाना, कटिले वृक्ष पर बैटर कौए का कर्कश शब्द करना, घोड़ों की पूंछों में जलन होना. गधे का आर्त शब्द करना, प्रतिक हवा चलना, मन उदास होना व आकाश से रूधिर की वर्षा होना पराजय का सूचक मान्य गर
पराजय के बाद की स्थिति - पराजित होने या शत्रु के तेज से अभिभूत होने पर ग़जारण बड़ी विपत्ति में पड़ जाते थे । कुछ अनुगामी बनकर उपायन (भेंट ले ज ब शादी
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सेवा में उपस्थित होते थे कुछ महागवं रूपी हाथी पर चढ़कर अपनी शोर्य के मद में भरी हुई सेना के साथ बलशाली राजा के शस्त्रों की अग्नि शिखा में भस्म हो जाते थे"। कुछ प्रतापी राजा की सेना के द्वारा दले मले जाने के भय से स्त्री और पुत्रादि को छोड़कर अपने शरीर की रक्षा को ही बहुत मानते हुए जंगल में भाग जाते थे। बहुत से भयविह्वल हो कठोर घास वाले कुठार को कंठ से लगाकर शरण में आ जाते थे। कुछ दर्पहीन होकर वाहन, धन, धान्य और सम्पूर्ण रत्न कलाओं की राजसभा में ऐसे राजाओं की भीड़ लगी 'रहती थी । द्वारपालों के द्वारा अपना नाम और कुल कहलाकर फिर भीतर जाकर वे वृथ्वी पर सिर रखकर प्रणाम करते थे। शत्रुओं के हाथ जुड़वाकर, उनका मान मिटाकर तथा उनसे सारांशस्वरूप रत्नादि लेकर उनका राज्य वापिस कर दिया जाता था। किसी कारण अब प्रतापी राजा का शासन शिथिल पड़ जाता था तब समस्त मण्डल स्वतन्त्र हो जाते थे, क्योंकि आलस्य सभी की अवनति या तिरस्कार कर कारण होता है ।
शत्रुविजय अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलता और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रूकावट रहित होते हैं । शत्रु यदि अत्यन्त छोटा भी हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। आंख में पड़ी हुई धूलि के कण के समान उपेक्षा किया हुआ शत्रु भी पीड़ा देने वाला हो जाता है। काँटा यदि अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसे बलात् निकाल देना चाहिए, क्योंकि पैर में लगा काँटा यदि निकल नहीं जाता तो वह अत्यन्त दुःख देने वाला हो जाता है । जिस प्रकार दुष्ट सर्पों को मन्त्र के बल से उठाकर बामी में डाल देते हैं, उसी प्रकार भोग विलासी राजाओं को बलवान राजा मन्त्र के जोर से उखाड़कर किले में डाल देते हैं । जिस प्रकार वृक्ष की शाखाओं के अग्रभाग की रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वत का विघात करने वाली होती है, उसी प्रकार भाई आदि अन्तरंग प्रकृति से उत्पन्न हुआ कोप राजा का विघात करने वाला होता है" । सजातीय लोग परस्पर के विरूद्ध आचरण से अंगारे के समान जलते रहते हैं और वे ही लोग अनुकूल रहकर नेत्रों को आनन्दित करते हैं । तेजस्वी पुरुष बड़ा होने पर भी अपने सजातीय लोगों द्वारा रोका जाता है। प्रणाम करने वाला शत्रु स्वामी के मन को उतना अधिक दुःखी नहीं करता है, जितना कि अपने को झूठमूठ चतुर मानने वाला और अभिमान से प्रणाम नहीं करने वाला भाई करता है | अतः बाह्यमण्डल के समान अन्तर्मण्डल को भी वश में करना चाहिए। बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रु के बाकी रहे हुए थोड़े से भी अंश की उपेक्षा नहीं करते
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महाकवि असग का भी कहना है कि परिपाक में पथ्य को चाहने वाला शत्रु की बढ़ी हुई वृद्धि को जरा भी नहीं चाहता । शत्रु और रोग दोनों को यदि थोड़ेकाल तक सहसा बढ़ते रहने दिया जाय तो ये थोड़े ही काल में प्राणों के ग्राहक हो जाते हैं। बहुत भारी तिरस्कार करने वाले विरूद्ध शत्रु पर भी जो पौरुष नहीं करता है वह पोछे अपनी स्त्री के मुखरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित कलंक को देखता है। अर्थात् स्त्रियों के समक्ष उसे लज्जित होना पड़ता है। जो उदारबुद्धि हैं वे एक क्षण के लिए भी तेज को नहीं छोड़ते हैं। तेजस्वियों का कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। जो सिंह मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भस्थलों के विदारण करने में अतिदक्षता रखता है, यदि उसको आँख निद्रा से सुंद जाये तो भी उसकी सटा (गर्दन के बल) को गीदड़ नष्ट नहीं कर सकते
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133 हैं। जो राजा दैव और बलप्रयोग से रहित है, उसे शत्रु जीतकर राजधानी के साथ-साथ राज्य को ले लेते हैं 202 ।
आचार्य सोमदेव के अनुसार (शत्रु विनाश के) उपाय को जानने वाले व्यक्ति के सामने हीन और महान के पाले शत्रु नहीं टहर सकते हैं प्रकार नदीपूर तटवर्ती तृण व वृक्षों को एक साथ उखाड़कर फेंक देता है, उसी प्रकार शत्रुविनाश के उपायों को जानने वाला विजिगोषु भी अनेक सफल उपायों से महाशक्तिशाली व हीनशक्ति युक्त शत्रुओं को परास्त कर देता है। शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाने के सिवाय कोई दूसरा शत्रुसेना को नष्ट करने वाला मन्त्रनहीं हैं । अतः जिस शत्रु पर (राजा) चढ़ाई करे उसके कुटुम्बियों को अवश्य ही अपने पक्ष में मिलाकर शत्रु से युद्ध करने के लिए प्रेरित करे। कोटे से काँटा निकालने को तरह शत्रु द्वारा शत्रु को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिए। जिस तरह बैल से बैल फोड़े जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं, उसी प्रकार शत्रु से शत्रु लड़ाने पर दोनों का अथवा एक का नाश होता हैं। अपराधी शत्रु पर विजय प्राप्त करने में क्षमा या उपेक्षा कारण नहीं, किन्तु विजिगीषु का कोष व सैन्यशक्तिरूप तेज ही कारण है। जिस प्रकार छोटा सा पत्थर शक्तिशाली होने के कारण घड़े को फोड़ने की क्षमता रखता है, उसी प्रकार विजय का इच्छुक सैन्यशक्ति युक्त होने के कारण महान् शत्रु को नष्ट करने की क्षमता रखता है। महापुरुष दूरवर्ती शत्रु से भयभीत होते हैं, परन्तु शत्रु के निकट आ जाने पर अपनी वीरता दिखलाते हैं। जिस तरह कोमल जलप्रवाह विशाल पर्वतों को उखाड़ देता है, उसी प्रकार कोमल राजा भी महाशक्तिशाली शत्रु राजाओं को नष्ट कर देता है। प्रियवादी पुरुष मोर के समान अभिमानी शत्रु रूपी सर्पों को नष्ट कर देता है । शत्रु पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, शत्रु पर विश्वास करना अजाकृपाणीय न्याय के समान घातक 26 | शत्रु के राष्ट्र में प्रविष्ट होने पर अपनी सेना को विशेष परिभ्रमण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे खेदखिन्न सेना शत्रु द्वारा सरलता से जीती जा सकती है 2091 बलिष्ठ शत्रु द्वारा आक्रमण किए जाने पर मनुष्य को या तो अन्यत्र चला जाना चाहिए अथवा उससे सन्धि कर लेना चाहिए, अन्यथा उसके कल्याण का कोई उपाय नहीं है। अपनी शक्ति को बिना सोचे समझे पराक्रम करने से सभी की हानि होती है।" । शत्रु पर आक्रमण करने से ही वह वश में नहीं होता, अपितु युक्ति के प्रयोग द्वारा ही वह वश में किया जा सकता है 12 बलवान की शरण लेकर जो उससे उद्दण्डता का व्यवहार करता है, उसकी तत्काल मृत्यु होती है । जो शत्रु आश्रयहीन है अथवा दुर्बल आश्रय वाला है, उससे युद्ध कर उसका विनाश कर देना चाहिए। यदि कारणवश शत्रु से सन्धि हो जाय तो अपना मार्ग निष्कण्टक बनाने के लिए उसका धन छीन ले या उसे इस तरह शक्तिहीन करे, जिससे वह पुनः सिर न उठा सके । अपने ही कुल का पुरुष राजा का स्वाभाविक (सहज) शत्रु है 21" ( क्योंकि वह ईश्यवश राजा के पतन की बात सोचता है) । जिसके साथ विरोध उत्पन किया गया है तथा जो स्वयं आकर विरोध करता है, ये दोनों राजा के कृत्रिम शत्रु हैं। दूरवती मित्र और निकटवर्ती शत्रु होता है, यह शत्रु-मित्र का सर्वथा लक्षण नहीं माना जा सकता, क्योंकि कार्यं ही मित्रता और शत्रुता के कारण है, दूरपना और निकटपना कारण नहीं है 218 | दो बलवानों के मध्य घिरा हुआ शत्रु दो सिंहों के मध्य में फैंसे हुए हाथी के समान सरलता से जीता जा सकता
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वीरनन्दि के अनुसार मदादि छह अन्तरंग शत्रुओं पर जो राजा शासन कर लेता है, वह पृथ्वी का शासन करता है 220 | नाश को प्राप्त कराने वाले व्यसनों से युक्त अथवा भाग्यहीन शत्रु सरलता
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से जीता जा सका बुद्धिमान सा अधीमा सोनमिन्दार काही कार्य करता है अथवा कार्यारम्भ नहीं करता है, क्योंकि जल्दी काम करना पशुओं का धर्म है मनुषयों का नहीं । यदि पशु और मनुष्य दोनों अविवेक पूर्वक कार्य करने लगे तो दो सींगों को छोड़कर दोनों में अन्तर ही क्या रह जायेगा ? जब तक शत्रु आक्रमण नहीं करते तब तक मनुष्य स्वर्ण के समान भारी रहता है । वही जब शत्रुओं से तोला जाता है तब तत्क्ष्ण तृण के समान हलका होकर गिर जाता है | जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा नीति और प्रराक्रम रूपी वृक्षों को पकड़े रहना चाहिए । इनको छोड़कर फल सिद्धि का दूसरा कारण नहीं है । अधिक माग्य सम्पति की इच्छा रखने वाले को अपने से छोटे या बराबर वाले के साथ विरोध करना चाहिए, बलवान के साथ नहीं मैं बलवान है यह अहंकार भी सब जगह सुखदायी नहीं होता। बादल को लांघने की कामना करने वाले सिंह का अधिक उछलना ही उसकी मृत्यु का कारण होता है । न्याय और पराक्रम से युक्त व्यक्ति सब जगत को जीत लेता है17 1 पृथ्वी का भोग निश्चित रूप से खङ्ग के बल से किया जाता है, परम्परा की दुहाई देकर नहीं । रोग की तरह उदयकाल में ही जिसकी चिकित्सा कर दी जाती है वह शत्रु अपने वश में रहता है। जो शत्रुओं पर (बिना कारण) अपराध लगाकर आक्रमण करके उन्हें मारना चाहता है, वह स्वयं अन्य के द्वारा अभियुक्त होकर विनष्ट हो आता है । वायु से धौंकी गई अग्नि जैसे औरों को जलाती है, उसी प्रकार स्वयं भी जलती है |
संक्षेप में शत्रुविजय के उपायों को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता हैं - 1. उपायज्ञ होना ।
2. शत्रु को उपेक्षा न करना । 3. बाह्य और अन्तर्मण्डल को वश में करना । 4. नीति और पराक्रम से युक्त होना। 5. शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना । 6. कोष व सैन्यशक्ति को बढ़ाना । 1. प्रियवादी होना।
8. शत्रु पर विश्वास न करना। 9. अपनी शक्ति का विचार कर अपने से बलवान के साथ विरोध न करना । 10. क्षय आन्तरिक शत्रु (काम क्रोधादि) पर विजय प्राप्त करना । 11. सोच-विचार कर कार्य करना।
शत्रु विजय के विषय में वसंगचरित में विस्तृत रूप से विचार किया गया हैं । शत्रु राजा को अब यह विदित होता था कि उसका विरोधी दुर्बल है अथवा समराङ्गण से भाग गया है तो वह प्रायः अश्व, रथगज सेना, देश तथा धन को प्राप्त करने की इच्छा से उस पर आक्रमण कर देता था | ऐसा राजा से युद्ध भी करना पड़ता था । इसके अतिरिक्त दुष्ट, अनिष्टतम सामन्त राजा तथा अटवीश्वरों (वनाधिपतियों) को वश में करना पड़ता था जो नीतिमार्ग का आचरण करते है वे नीतिबल से शत्रुओं को जीत लेते हैं। इसके विपरीत नीतिमार्ग के प्रतिकूल आचरण करने वाले बलवान् पुरुष भी अपने साधारण शत्रुओं के द्वारा जीत लिए जाते है । प्रमाद नहीं करने वाला सर्वशक्ति सम्पन्न को जीत सकता है । जो किसी कार्य में लग जाने पर एक क्षण भी व्यर्थ 'नहीं जाने देता है उसकी अप्रमादी पर भी विजय होती है । शोघ्रकारी को नीतिमान् के आगे झुकना पड़ता है और जिसके पक्ष में मान्य होता है, उसके विरूद्ध नीतिमान् भी सिर पीटता रह जाता है। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व घोषणा करा दी जाती थी कि राजा अपने धन्धुओं सहित शत्रु से युद्ध करने
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के लिए कटिबद्ध है, वे अपने अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा में हैं। जिन लोगों को राजसम्मान प्राप्त करने की इच्छा हो अथवा जो अपने राज्य का गौरव बढ़ाने के लिए सम्पत्ति का मोह छोड़ सकते हैं तथा जिन्हें अपने पौरुष का अभिमान है, वे शीघ्र महाराज की सेवा में उपस्थित हो | इस प्रकार की घोषणा राजा की आज्ञा से बड़े ठाठ-बाट से सारे नगर में की जाती थी। इसके साथ-साथ विशाल भेरी भी बजाई जाती थी तथा हाथी के मस्तक पर आरूढ़ व्यक्ति इस घोषणा को सब जगह घोषित करते थे | राजनीति का यह मूल मन्त्र है कि अपने से प्रबल शत्रु के साथ किसी भी प्रकार का वैर न करे । समान बल वाले के साथ भी शत्रुता करना दोषपूर्ण है। यदि अपने से हीन शत्रु पर देशकाल का विचार करके आक्रमण किया जाये तो सफलता प्राप्त होती है | चाणक्य ने भी कहा है- बलवान् राजा को चाहिए कि वह दुर्बल राजा से झगड़ा कर ले। अपने से बड़े या बराबर वाले के साथ झगड़ा न करे। बलवान् के साथ किया गया विग्रह वैसा ही होता है जैसे गज सैन्य से पदाति सैन्य का मुकाबला । कन्चा बर्तन कच्चे बर्तन के साथ टकराकर टूट जाता है, इसलिए बराबर वाले के साथ भी लड़ाई नहीं करना चाहिए ।
ऊपर हीन शत्रु पर आक्रमण करते समय देशकाल का विचार करने की सलाह दी गई है। कौटिल्य ने देश और काल की व्याख्या निम्नलिखित की हैं
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देश देश पृथ्वी को कहते हैं। हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यन्त पूर्व पश्चिम दिशाओं में एक हजार योजन फैला हुआ और पूर्व पश्चिम की सीमाओं के बीच का भूभाग चक्रवर्ती क्षेत्र कहलाता है । उस चक्रवर्ती क्षेत्र में जंगल, आबादी, पहाड़ी इलाका, जल, स्थल, समतल और ऊबड़ खाबड़ आदि विशेष भाग होते हैं। इन भू-भागों को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाये जिससे अपनी बलवृद्धि में निरन्तर विकास होता रहे। जिस स्थान पर अपनी सेना की कवायद के लिए सुविधा तथा शत्रुसेना की कवायद के लिए असुविधा हो, वह उत्तम देश, जो इसके सर्वथा विपरीत हो वह अभ्रम देश और जो अपने तथा शत्रु के लिए एक समान सुविधा- असुविधा वाला हो वह मध्यम देश कहलाता है।
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काल- काल के तीन विभाग हैं, सर्दी, गर्मी और वर्षा काल का यह प्रत्येक भाग रात, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर तथा युग आदि विशेषताओं में विभक्त है। समय के इन विशेष भागों में अपनी शक्ति को बढ़ाने योग्य कार्य करना चाहिए। जो ऋतु अपनी सेना के व्यायाम के लिए अनुकूल हो वह उत्तम ऋतु जो इसके विपरीत हो वह अधम ऋतु और जो सामान्य हो, वह मध्यम ऋतु कहलाती हैं 240 |
यात्राकाल - विजिगीषु राजा भली भाँति तैयार होकर आवश्यकतानुसार सेना के तिहाई या थाई भाग को अपनी राजधानी, अपने पार्ष्णि और अपने सरहदी इलाकों की रक्षा के लिए नियुक्त कर यथेष्ट कोष तथा सेना को साथ लेकर शत्रु पर विजय करने के लिए अगहन मास में युद्ध के लिए प्रस्थान करें, क्योंकि इस समय शत्रु का इस समय पुराना अन्न संचय समाप्ति पर होता है, नई फसल के अन्न को संग्रह करने का वही समय होता है और वर्षा के बाद किलों की मरम्मत नहीं हुई रहती है। यही समय है, जबकि वर्षाऋतु से उत्पन्न फसल और आगे हेमन्तऋतु में पैदा होने वाली फसल दोनों को नष्ट किया जा सकता है। इसी प्रकार हेमन्त ऋतु की पैदावार को
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136 और आगे बसन्त ऋतु की पैदावार को नष्ट करने के लिए उपयुक्त युद्ध प्रयाण काल चैत्र मास में है । यात्रा का यह दूसरा समय है। इसी प्रकार बसन्त की पैदावार और आगे होने वाली वर्षाकाल की फसल को नष्ट करने का उपयुक्त समयज्येष्ठ मास में है, क्योंकि इस समय घास, फूस,लकड़ो, जल आदि सभी क्षीण हुए रहते हैं और इसीलिए शत्रु अपने दुर्ग की मरम्मत नहीं कर पाता है। यात्राकाल का यह तीसरा अवसर है।
उचित देश- जो देश अत्यन्त गर्म हो, जहाँ यवस (पशुओं को खाद्य सामग्री), ईधन तथा जल की कमी हो वहां हेमन्त ऋतु में युद्ध के लिए प्रस्थान करना चाहिए। जिस देश में लगातार वर्फ पड़ती हो या वर्षा होती हो, जहाँ बड़े-बड़े तालाब और घने जंगल हो वहाँ ग्रीष्म ऋतु में युद्ध के लिए जाना चाहिए । जो अपनी सेना के कवायद करने के लिए उपयुक्त और शत्रु सेना के लिए अनुपयुक्त हो ऐसे देश पर वर्षा ऋतु में आक्रमण करना चाहिए । जब किसी दूसरे देश के आक्रमण में अधिक समय लग जाने की सम्भावना हो तब अगहन और पौष इन दो महीनों में यात्रा करनी चाहिए । मध्यकालीन यात्रा चैत्र, वैसाख के बीच करना चाहिए जिहाँ अल्पकालिक यात्रा हो वहाँ ज्येष्ठ मास में प्रस्थान किया जाना चाहिए । जब कभी शत्रु पर आपत्ति आयी हुई दिखाई दे तब समय की उपेक्षा किये बिना चढ़ाई कर देना चाहिए ।
फुटनोट 1. नीतिवाक्यामृत का 2. पाचरित 27/47, वरांगचरित 2/58-59. | 20. वहीं 17/18 द्विसंधान महाकाव्य 16/8
21. हरिवंशपुराण 8/133 3. वही 17/11-14
22. वही 38/22 4. वह द्विसंधान महाकाव्य 14/30 23. वही 38/24 5. नीसिवाक्यामृत 22/2
24. वही 38/25 6. वही 2213
25. हरिवंशपुराण 38/26-29 7. वही 22/4
26.आदिपुराण 13/16 8. वही 2216.
27. वही 24/13 9. वही 2217
28. वही 29/6 10. द्विसंधान महाकाव्य 11/37
29, वही 31773 11. नीतिषाक्यामत 2217
30, वही 44/99 12. वही 22/8
31. उत्तरपुराण 58/110,64/29 13, वही 22/9
32.वही 74/34 14. वही 22/10
33. वही 5158 15. नीतियाक्यामृत 22/11
अ. वहीं 68/587 16. वही 22/12
35. वही 751639-642 17. वरांगचरित 17774
36. कामन्दकीय नीतिसार 1/57 18. वही 2158
37. द्विसंधान महाकाव्य 211
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38. द्विसंधान महाकाव्य टीका 2017 39. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 912 40, कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 9/2 41, द्विसंधान महाकाव्य टीका 2/11 42. नीतिवाक्यमृत 22/13 43. वही 22/14 44. वही 22/5 45. पदावंशपुराण 56/3,4,5 46. पनवंशपुराण 56/6-12 47. हरिवंशपुराण 50/76 48. वही 50/75 49. आदिपुराण्य 8/142-143 50. वही 28/56 51, वही 39/2 52. वही 3/3-5 53. वहीं 28/2
4. आदिपुराण 26/91-92 55. वही 29/19, 108 56. चन्द्रप्रभचरित 13/35 57.वही 13/37 58. वही 13/12 59. षही 139 60. वही 13/14 61, वही 13/19 62. यही 13/20: 63. वही 13/22 64. वहीं 4/47 65. वही 15/22-25 66. वही 13/24 67. वही 13/31 68. वही 13/28 69. वही 13/29 70. वही 13/28 71. चन्द्रप्रभचरित 13/30 72. वही 13/29
73. वर्षमानचरित 7/81-82 74. वही 7/80 75, आदिपुराण 27/129 76, वहीं 27/130 77. वही 27/133 78. वही 27/134 79. वही 27/135 ४. वहीं 271137 81. यही 27/142-148 82. वही 27/150 83. वही 27/151 84. चन्द्रप्रपचरित 14/46,44 85. चन्द्रप्रभचरित 14146 86. वही 14/47 87. वर्धमानचरित 6/67 ३. वहीं 7/91 69. बही 7/92 90, नही 7/96-97 91. वरांगचरित 16/46 92. वही 18/३ 93. वही 16/47 94. वही 18/3 95. वर्धमानचरित 16/31 96. वही 16/38 97. वसंगचरित 18/75 98. वही 17/18 99. वही 17/19 100. वही 17/20-21 101. वही 17/19 102, वरांगचरित 17123 103, अदिपुराण 271119 104. वही 8/120 105, वही 8/121 106. वही 8/122 100, वही 8/123 108. वही 20/245
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109. वहीं 8/124-135 110. आदिपुराण 36/204 111. वही 44/138 112, वही 44/111 113. वहीं 31/76 174. वही 44/109 115. वही 32142 116. वही 31/20 117. यही 31/74 118. बही 36/14 119. बद्दी 15/125 120, नीतिवाक्यामृत 26/69 121. वही 27133 122. वही 27166 123. नीतिवाक्यामृत 29/30 124. यहो 30/4 125. वही 30/5 126. वही 30/6 127. वही 30/7 728. वहीं 30/8 129. वही 30/9 130. वही 30/14 131. वही 30/15 132. वहीं 30/18 133. वही 30/19 134, वही 30/20 135. वही 30/21 136. नीतिवाक्यामृत 30/22-24 137. वही 30/37 135. वही 30/4 139. खही 30/68 140. वही 30/69 141. वही 30/76 142, वही 30/88 143. वही 30/89
144. वही 30/99 145. वही 30/98 146. वही 30/86 147. वही 30787 148. हरिवंशपुराण 50/102110 149. यही 50/113-129 150. वही 52/5 151, वही 5216 152. वहीं 527 153. वही 5218 154, वही 52/10 155, वही 52/12 156. वही 52/13 157. वही 52/16 158. हरिवंशपुराण 52/18 159. वही 52/20 160. वही 52/22 161. नीतिवाक्यामृत 30/90 162, यहीं 30/91 163. वही 30116 164. वही 30/17 165. आदिपुराण 32074 166. वही 44/17 167. वही 31/15 168. यही 44/33 169. चन्द्रप्रमचरित 15/15-19 170. नोतिवाक्यामृत 22118 177. वही 30/92 172. नीतिवाक्यामृत 30/95 173. वही 30/100 174. वही 3094 175. वही 22/17 176. वही 32/24 177. चन्द्रप्रभचरित 15/27-30 179. वही 15/32-34
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179. वही 12/2 180. वही 5/52 181. वही 4156 182. वहीं 4154 183. वहीं 4/55 184, चन्द्रप्रभचरित 4157 185. वहीं 17157 186. वही 4/58 187. वही 16/23 188. क्षत्रचुडामणि 10/12 189. वही 10/23 190.आदिपुराण 34/24-25 191. वही 29/17 192. वही 35/18 193. यही 34/55 194, वहो 34:42 195. वही 35/84 196. वही 34/40 197. आदिपुराण 34/46 198, वर्धमानचरित 6/61 199. यही 4171 200. यही 7/42 201. वही 8/39 202. वही 4/86 203, नीतिवाक्यामृत 10/153-154 204. वही 30/53 205. नोतिवाक्यामृत 30/54-60 206, वही 10/127 207. यही 10/29 208. वही 10/141 209. वही 30/52 210, वही 2672
211, वही 26/23 212, वहीं 26/24 213. वही 27167 214. वही 29137 215, वही 29/32 216. वही 29133 217. वही 29/34 218. वही 29135 219. वही 29/64 220. चन्द्रप्रभवरित 12/14 221. चन्द्रप्रमचरित 12/39 222. यही 12/102-103 223. वही 12/88 724. वही 12172 225. वही 12/47 226. वही 12/35 227. वही 5/23 228. यही 12/31 229. वाही 12165 230, वही 12/38 231. वसंगचरित 20/15 232. वही 28/67 233. बही 16/44 234, वरांगचरित 16/45 235. यही 1676-77 236. वरांगचरित 16/18 237. वरांगतचरित 16/53 238, कौटिलीय अर्थशास्त्रम्
(चाणक्य प्रणीत सूत्रम्) 55-58 239. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 91 पृ. 725 240. वही 9/1 पृ. 725-726 241. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 91 पृ. 727 242. वही 11 पृ.727-728
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न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था न्याय की आवश्यकता - दुष्टों का निग्रह करना और शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीतिशास्त्रों में बतलाया गया है। स्नेह, मोह, आसिक्त तथा भय आदि कारणों से यदि राजा ही नोति मार्ग का उल्लंघन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवृत्ति करती है । अतः राजा को चाहिए कि उसका दायां हाथ भी यदि दुष्ट हो तो उसे काट दे । उसके पृथ्वी के रक्षा करते समय अन्याय यह शब्द ही सुनाई न दे और प्रजा बिना किसी प्रतिबन्ध के अपने-अपने मार्ग में प्रवृत्ति करे। दुराचार करने वालों को वश में करने के लिए दण्ड को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है क्योंकि जिस प्रकार टेढ़ी लकड़ी आग लगाने से ही सीधी होती है, उसी प्रकार दुराचारी दण्ड से ही सीधे होते हैं । इस प्रकार दुराचारियों का दुराचार रोकने के लिए और सदाचारियों की रक्षा के लिए न्याय की आवश्यकता पड़ी।
न्यायाधीश - ग्राम व नगर में मुकदमों का निर्णय कराने के लिए लोग राजा के पास जाते धे' । क्योंकि ऐसा माना जाता था कि राजा द्वारा किया हुआ निर्णय निर्दोष होता है । इस प्रकार न्याय सम्बन्धी मामलों में राजा सर्वोपरि होता था । जो राजाज्ञा अथवा मर्यादा का अतिक्रमण करता था, उसे मृत्युदण्ड दिया जाता था । राजा के बाद न्याय के क्षेत्र में दूसरा स्थान धर्माध्यक्ष या न्यायधीश का होता था । धर्माध्यक्ष को राजसभा में राजा को प्रसन्न करते हुए वादी प्रतिवादो के विवाद का निर्णय इस ढंग से करना चाहिए कि उसके ऊपर उलाहना न आए और उक्त दोनों में से कोई एक दोषी ठहराया जाय । धमांध्यक्ष अपने स्वामी का पक्ष लेकर सत्य - असत्य बोलने वाले वादो के साथ लड़ाई झगड़ा न करें । जनता को चाहिए कि परस्पर विवाद होने पर वह न्यायाधीश वगैरह से विवाद की समाप्ति करा लें, क्योंकि अपने-अपने पक्ष का समर्थन करने वाली युक्तियों अनन्त होती है।
सभ्य - सभा के सदस्य को सभ्य कहते थे । सभ्य सूर्य के समान पदार्थ को जैसा का तैसा प्रकाशित करने वाली प्रतिभा से युक्त होना चाहिए । जिन्होंने राजशासन सम्बन्धी व्यवहारों का शास्त्र द्वारा अनुभव नहीं किया हो और न सुना हो, जो राजा से ईष्या व वाद-विवाद करते हों, वे राजा के शत्रु हैं, सभ्य नहीं है। जिस राजा की सभा में लोभ व पक्षपात के कारण झूठ बोलने वाले सभापद होंगे ये निस्सन्देह मान व धन की क्षति करेंगे। जो सभ्य छल, कपट, बलात्कार व वाक्याचुर्य द्वारा बादी की स्वार्थहानि करते हैं, वे अधम हैं।
न्यायिक उत्तरदायित्व - वहाँ पर वाद-विवाद से कोई लाभ नहीं है, जहाँ सभापति स्वयं विरोधी हो । सभ्य और सभापति में असाम जस्य होने पर विजय नहीं हो सकती है। जिस प्रकार से बकरे मिलकर कुत्ते को जीत लेते हैं, उसी प्रकार बहुत से सभ्य मिलकर न्यायाधीश को प्रभाषित करते हैं । जहाँ पर मिध्या विवाद खड़ा हो, वहाँ निर्णय करने के लिए (सभ्यपुरुषों को) विवाद नहीं करना चाहिए।
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सभायें - हरिवंशपुराण में कुछ सभाओं का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों से उस समय की सभाओं की एक झाँकी प्राप्त होती है। प्रमुख सभाओं का परिचय निम्नलिखित है(1) विजयदेव की सभा जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा में विजयद्वार के रक्षक विजयदेव के नगर में बीच के भवन में चमर और सफेद छत्रों से युक्त उसका सिंहासन है। उस पर वह पूर्वाभिमुख हो बैठा है। उसके उत्तर दिशा में छह हजार लाभानिक देव बैठते है तथा आगे और दो दिशाओं में छह पट्टदेवियाँ आसन ग्रहम करती हैं। पूर्व दक्षिण दिशा में आठ हजार उत्तम पारिषद देव बैठते हैं, मध्यपरिषद के दश हजार देव दक्षिण दिशा में स्थित होते हैं। वाह्य परिषद के बारह हजार देव पश्चिम दक्षिण दिशा में आसनारूढ़ होते हैं और सात सेनाओं के महत्तरदेव पश्चिम दिशा में आसन ग्रहण करते हैं। चारों दिशाओं में अठारह हजार अंगरक्षक रहते हैं और चारों दिशाओं में उतने ही भद्रासन है" । त्रिजयदेव की इस सभा की किसी राजा की सभा के रूप में कल्पना की जाय तो स्थिति इस प्रकार होती है नगर के बीच के भवन में राजा का उत्तम सिंहासन है, उस पर वह पूर्व की ओर मुखकर बैठता है। उसकी उत्तर दिशा में उसके सभासद बैठते हैं और आगे दो दिशाओं में पट्ट रानियाँ आसन ग्रहण करती हैं। पूर्व दक्षिण दिशा में उत्तम पारिषद सभा सह बैठते हैं। दक्षिण सभा में मध्यम परिषद के सदस्य बैठते हैं, पश्चिम दक्षिण में वाह्य परिषद् के सदस्य बैठते हैं। पश्चिम दिशा में सात सेनाओं के महत्तर ( प्रधानपुरुष) बैठते हैं। वे चारों दिशाओं में अठारह हजार अंगरक्षक बैठते हैं। उपर्युक्त कल्पना से राजाओं की उत्तम परिषद्, मध्यम परिषद् और वाह्य परिषदों के अस्तित्व का अनुमान होता है। इन परिषदों के साथ सेनामहत्तरों के बैठने की सूचना भी प्राप्त होती है तथा चारों दिशाओं में रक्षा के लिए अंगरक्षकों की नियुक्ति की भी जानकारी प्राप्त होती है।
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सुधर्मा सभा और उसके समान अन्य सभायें - विजयदेव के भवन से उत्तरदिशा में एक सुधर्मा नामक सभा है, जो छह योजन लम्बी, तीन योजन चौड़ी, 9 योजन ऊंची और एक कोश गहरी है। सुधर्मा सभा से उत्तरदिशा में एक जिनालय है, उसकी लम्बाई, चौड़ाई आदि का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है। पश्चिमोत्तर दिशा में उपपार्श्व सभा है। उसके आगे अभिषेक सभा, उसके आगे अलंकार सभा और उसके आगे व्यवस्थाय सभा है। ये सभी सभायें सुधर्मा सभा के समान है" । उपर्युक्त वर्णन से यह अनुमान होता है कि राजा के मुख्य सभा के उत्तर में जिनालय का निर्माण होता था तथा पश्चिमोत्तर सभा में मुख्य सभा के समान ही उपपार्श्वसभा, और अलंकार सभायें बनाई जाती था ।
शक्रसभा 14 – इन्द्र सभा |
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बलदेव सभा हरिवंशपुराण के 41 वें सर्गके उल्लेखानुसार बलदेव के महल के आगे एक सभामण्डल था जो शक्र सभामण्डल (इन्द्रसभा मण्डल) के समान दीप्तिमान था। इससे ज्ञात होता है कि राजाओं के महल के आगे सभामण्डप का निर्माण किया जाता था ।
राजा क्सु की सभा राजा वसुं प्रातः काल सभा के समय सिंहासन पर बैठता था " | जब महत्त्वपूर्ण विषय पर राजा का निर्णय होना होता था तो प्रश्नकर्ताओं से घिरे हुए वादी और प्रतिवादी सभा (आस्थानी) में आते थे। इस समय निमन्त्रित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूत्र तथा आश्रमवासी आते थे और अनिमन्त्रित साधारण मनुष्य भी सहजस्वभाव वश प्रश्न करने के लिए आ बैठते थे।
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एक ऐसे ही समय का जिनसेन ने बड़ा ही मनोरम चित्र खींचा है। उस समय रासभा में कितने ही ब्राह्मण मनुष्यों के कानों को सुख देने वाले सोमवेद का गायन करते थे और कितने ही वेदों का स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण करते थे। कितने ही ऊंकार ध्वनि के साथ यजुर्वेद का पाठ करते थे और कितने ही पद तथा क्रम से युक्त अनेक मंत्रों की आवृत्ति करते थे। कितने ही ह्रस्व दीर्घ और प्लुतभेदों को लिये हुए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों के स्वरूप का उच्चारण करते थे 1 जो ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद का प्रारम्भ का जोर-जोर से पाठ करते थे तथा दिशाओं को बहिरा बनाते थे ऐसे ब्राह्मणों से सभा का आंगन खचाखच भर जाता था. वादी प्रतिवादी शिष्यचारपूर्वक अपने सहायकों के साथ योग्य स्थानों पर बैठ जाते थे । बड़े-बड़े कमण्डलु, जटा और बल्कलों को धारण करने वाले तापस वहाँ विद्यमान होते ते। ऐसे अपूर्व समय पर जो पण्डित सबा में बैठे होते, उनमें से कितने ही सभारूपी सागर में क्षोभ उत्पन्न होने पर उसे रोकने के लिए सेतुबन्ध के समान होते थे, कितने ही पक्षपात न हो इसके लिए तुलादण्ड के समान होते थे, कितने ही कुमार्ग मैं चलने वाले वादी रूपी हाथियों को वश में करने के लिए उत्तम अंकुश के समान होते थे और कितने ही श्रेष्ठ तत्तव की खोज करने के लिए कसौटी के पत्थर के समान होते थे। ये सब विद्वान जब यथायोग्य आसनों पर बैठ जाते सब ज्ञान और अवस्था में वृद्ध लोग राजा से वादी और प्रतिवादी के विवाद की चर्चा कर न्यायमार्ग के देता होने के कारण राजा से न्याय की मांग करते थे। राजा
अध्यक्षता में सब विद्वानों के आगे वादी और प्रतिवादी जय और पराजय को प्राप्त करते थे। सबसे पहले पूर्वपक्ष रखा जाता था?" । पूर्वपक्षी जब अपना पक्ष रखकर चुप हो जाता तो उत्तरपक्षी उसका निराकरण करने के लिए अपने पक्ष की पुष्टि में युक्तियाँ उपस्थित करता था ।
सभा में बैठे हुए परीक्षक जब सही बात समझ लेते थे तो वे सिर हिला हिलाकर तथा अपनीअपनी अंगुलियाँ चटखाकर सही पक्ष रखने वाले को धन्यवाद देते थे । पश्चात् शिष्टजन राजा से निर्णय की प्रार्थना करते थे, तब राजा निर्णय देता था । सामान्यतः राजा ठीक निर्णय देता था । यदि सब कुछ समझते हुए भी राजा अनुचित निर्णय देता था तो सब लोग उसकी निन्दा करते ते और उसे दैवी प्रकोप का भी सामना करना पड़ता था। राजा वसु का नारद पर्वत संवाद में अनुचित निर्णय देने के कारण यही हाल हुआ। तत्ववादी, गम्भीर एवं वादियों की परास्त करने वाले को लोग ब्रह्मरथ पर सवार करते थे और उसका सम्मान कर यथास्थान चले जाते थे ।
राजसभा आदिपुराण के पंचम पर्व से राजसभा की एक झलक प्राप्त होती है, तदनुसार राजसभा में राजा सिंहासन पर बैठता था। अनेक वारांगनायें उस पर चँवर ढोरतो था । मंत्री. सेनापति, पुरोहित सेठ तथा अन्य अधिकारी राजा को घेरकर बैठते थे। राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ सम्भाषण कर, किसी को सम्मान देकर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मान कर और किसी को आदरसहित देखकर सन्तुष्ट करता था । गन्धर्वादि (संगीतादि) कलाओं का जानकार राजा विद्वान् पुरुषों को गोष्ठी का बार - बार अनुभव करता जाता श्री तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे, उसे भी देखते जाते थे। इसी बीच राजा सामन्तों द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलाकर बार-बार सत्कार करता था तथा अन्य देश के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों (महत्तरों) द्वारा लाई गई भेंट को देखकर उनका भी सम्मान करता था । इस प्रकार राजसभा में राजा मन्त्रिवर्ग के साथ्स स्वेच्छानुसार बैठता था* |
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मन्त्रियों में से जो सम्यग्दृष्टि, व्रती, गुण और शील से शोभित,मन, वचन, काय का सरल, गुरुभक्त, शास्त्रों का वेत्ता, अत्यन्त बुद्धिमान, उत्कृष्ट श्रावकों (गृहस्थों) के योग्य गुणों से शोभायमान और पहात्मा होता था, राजा उसकी प्रशंसा कर उसके वचन को स्वीकार करता था। . वाद-विवाद में प्रमाण - यथार्थ अनुभव ( भुक्ति) सच्चे गवाही (माक्षी) और सन्चालेख (शासन) इन प्रमाणों से वाद विवाद की सत्यता का निर्णय होता है। जहां पर सदोष अनुभव, झूठे गवाही और झुठे लेख वर्तमान होते हैं, वहाँ विवाद का अन्त नहीं आता है। पूर्वोक्त अनुभव व साक्षी आदि जब (सभ्यों द्वारा बलात्कार व अन्यायपूर्वक एवं राजकीय शक्ति की सामर्थ्य से उपयोग में लाए जाते हैं, तब वे प्रमाण नहीं माने जाते हैं। यद्यपि वेश्या और जुआरी झूठे होते हैं. परन्तु न्यायालय में उनके द्वारा कही हुई बात भी उक्त अनुभव, साक्षी आदि द्वारा निर्णय किए जाने पर प्रमाण मानी जाती है | घरोहर (नीवी) के नष्ट होने पर जो विवाद हो उसे या तो धरोहर रखने वाले पुरुष की प्रमाणता अथवा दिव्यक्रियाओं के द्वारा निर्णय करना चाहिए। जब मुकदमे में जिस किसी प्रकार का व्यक्ति होता है तब शपथ कराकर सत्य का निर्णय करना व्यर्थ है । इसी प्रकार उपयसम्मत गनीय लिग चाप कम कर दुकान अपहरण या नष्ट करने वाले अपराधी का निर्णय करने के लिए साक्षी के अभाव में न्यायाधीश को दिव्य क्रिया (शपथ्य आदि) उपाय काम में लाना चाहिए । जो व्यक्ति शपथ आदि कूटनीति से निदोष होने पर पुनः चोरी आदि का अपराधी सिद्ध हो इसका सब धन हरण कर प्राणदान देना चाहिए । सन्यासी के वेष में रहने वाले, नास्तिक, अपने आचार से पतित व्यक्तियों से शपथ न खिलाकर युक्तियों के द्वारा उनके अपराध वगैरह की परीक्षा कर दण्ड देना चाहिए या छोड़ देना चाहिए। यदि वादी के पत्र व साक्षी संदिग्ध हों तो अच्छी प्रकार सोच समझकर निर्णय देना चाहिए यादविषाद के निर्णयार्थ ब्रह्मामणों को सोनाव यज्ञपवीत छूने की, क्षत्रियों को शस्त्र, रत्न, पृथिवी, हाथी. घोड़े आदि वाहन और पलाण की, वैश्यों को कर्ण, बच्चा, कौड़ी, रुपया - पैसा.स सोने के स्पर्श की,शूद्रों को दूध, बीज वसांप की वामी छूने की तथा (धाबो चमार आदि) कास शूद्रों को इसके जीविकोपयोगी उपकरणों की शपथ करानी चाहिए । इसी प्रकार व्रती व अन्य पुरुषों को शुद्धि उनके इष्टदेवता के चरणस्पर्श से व प्रदिषणा करने से तथा धन, चावल व तराजु को लांघने से होती है। व्याधों से धनुष लोधने की और (चाण्डाल, चमार आदि) अन्त्यवर्ण से गोले चमड़े पर चढ़ने की शपथ खिलानी चाहिए ।
पराजित के लक्षण - जो वाद-विवाद करके सभा में न आए, बुलाए जाने पर जो सभा में उपस्थित न हो, पहले कही हुई बात को बाद में कही हुई बात से बाधित करता हो, पूर्व में कहे हुए अपने वचनों पर प्रश्न पूछे जाने पर यथोचित उत्तर न दे सकता हो, अपनी गलती पर ध्यान न देकर प्रतिवादी को ही दोषी बताता हो तथा यथार्थ कहने पर सपा से द्वेष करता है उसे समझना चाहिए कि वह (वादी या साक्षी) वाद विवाद में हार गया है ।
दण्ड की आवश्यकता - अपराधी को उसके अपराध के अनुकूल दण्ड देना बाईनीत है । राजा के द्वारा प्रजा की रक्षा करने के लिए अपराधियों को दण्ड दिया जाता है, धन प्राप्ति के लिए नहीं । यदि अपराधियों पर दण्ड प्रयोग सर्वथा रोक दिया जाय तो प्रजा में मत्स्यन्याय (बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली का खाया आना उत्पत्र हो जायेगा जिस प्रकारकठिनाई से चढ़ने
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योग्य वृक्ष परदण्डका प्रहार किया जाय तो फलदायक होता है, उसी प्रकार नौच प्रकृति का मनुष्य भी दण्डित किए जाने पर वश में आता है। अधिक दोष वाले व्यक्तियों का विनाश राजा को क्षणपर के लिए दुःखदाई होता है, परन्तु यह उसका उपकार ही समझना चाहिए । (क्योंकि इससे राज्य की श्रीवृद्धि होती है।
दण्डनीति का उद्देश्य - प्रजा के योग (नवीन वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की व्यवस्था के लिए दण्डनीति की आवश्यकता पड़ती है और यही उसका उद्देश्य है ।
दण्डनीति का प्रारम्भिक इतिहास - सर्वप्रथम इस पृथ्वी के विशिष्ट पुरुष (कुलकर) हुए। उनमें से प्रथम पाँच कुलकरों ने अपराधी पुरुषों के लिए हा, उनके आगे के पांच कुलकरों ने हा और मा तथा शेष कुलकरों ने हा, मा और धिक इन तीन प्रकार के दण्डों की व्यवस्था को । यदि कोई स्वजन या परजन कालदोष से मर्यादा का लङ्घन करने की इच्छा करता था तो उसके साथ दोषों के अनुरूप उक्त तीन नीतियों का प्रयोग किया जाता था। तीन नौतियों से नियन्त्राम को प्राप्त समस्त मनुष्य इस भय से त्रस्त रहते थे कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाय और इसी भय से वे दूर रहते थे । इस प्रकार की नीति अपनाने के कारण ये राजा प्रजा के तुल्य माने जाते धै। बाद में प्रजा की मनोवृत्ति बदलने के कारण अपराधों में बढ़ोत्तरी होतीगई,फलतः दण्डविधान भी कठोर बना । भरत चक्रवर्ती के समय लोग अधिक दोष या अपराध करने लगे अत: उन्होंने वध, बन्धन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति चलाई । उनका विचार था कि बड़ा पुत्र भी यदि सदोष (अपराधी) हो तो राजा को उसे भी दण्ड देना चाहिए।
दण्ड और उसके भेद - दण्ड का यह नियम है कि न तो अधिक कठोर हो और न अत्यन्त नम्र ।कठोर दण्ड देने वाला राजा अपनी प्रजा को और अधिक उद्विग्न कर देता है । प्रजा ऐसे राजा को छोड़ देती है और प्रकृतिजन भी ऐसे राजा से विरक्त हो जाते हैं। ऐसे अपराध जिनमें प्रजा के नैतिक पतन की अधिक सम्भावना, हो, होने पर अधिक कठोर दण्ड दिया जाता था । घरोहर को छिपाने पर जीभ उखाड़ी जाती थी बहुमूल्य वस्तुओं को चुराने परशुली पर चढ़ाने का दण्ड दिया जाता था । निकट सम्बन्धी की पुत्री से व्यभिचार करने वाले व्यक्ति के अंग काट दिए जाते थंग । यदि कोई रानी किसी नौकर के साथ फंस जाती थी तो उसे मारकर जला दिया जाता था। लोभवश किसी को मार डालने की सजा देश निकाला थी । राजा की घोषणा के बाद भी यदि कोई मेढ़ा आदि पशु मारकर खा लेता था तो उसके हाथ काटकर उसे विष्टा खिलाई जाती थी।
जुए में जीते गये धन को यदि कोई व्यक्ति देने में असमर्थ रहता था तो जीतने वाला उसे दुर्गन्धित धुयें के बीच बैठाना आदि दण्ड दे सकता था | परस्त्री सेवन करने वाले व्यक्ति को मार दिया जाता था दूसरे की वस्तु ले जाकर न लौटाने की भी यही सजा थी चोरी का धन लेने की तीन सजाय थीं -
(1) मिट्टो की तीन थाली भरकर विष्टा अथवा गोबर खिलाना । (2) मल्लों के मुक्को से पिटवाना। (3) सब धन छीन लेना।
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एक राजा दूसरे राजा को दण्डस्वरूप बन्यनगार (कारागृह) में बन्दी रखता था, जिससे छुटकारे का उसके स्वजन प्रयत्न करते थे। यदि कोई व्यक्ति किसी पशु के अंग का छेदन करता था तो राजा उस व्यक्ति को मारने की आज्ञा देने में संकोच नहीं करता था । परस्त्री का अपहरण करने वाले की सजा पाँव काटकर भंयकर शारीरिक दण्ड देने की थी।
राजा अपने पुत्र को भी अपराधानुरूप दण्ड दे, क्योंकि राजा किसी का मित्र नहीं होता है, राजा का कर्तव्य है कि प्रजा के गुण व दोषों की तराजू की दण्डी के समान निष्पक्ष भाव से जांच करने के उपरान्त ही उन्हें गुरु अथवा लघु समझे । समस्त प्रयोजनों को एक नजर में देने वाला राजा अपराधियों को अपराधानुकल दण्ड देकर उनके फल का अनुभव कराता है । जो राजा शक्तिशाली होकर अपराधियों को अपराधानुकूल दण्ड न देकर क्षमा धारण करता है, उसका तिस्कार होता है । अपराधियों का निग्रह करने वाले राजा से सभी लोग नाश की आशंका करते हुए सूर्य के समान डरते हैं । राजा को अपनी बुद्धि और पौरुष के गर्व के कारण एकमत रखने वाले उत्तमसमूह को दण्ड नहीं देना चाहिए । एक ही मत रखने वाले सौ या हजार आदमी दण्ड के अयोग्य होते हैं । जो शत्रु, दण्डसाध्य है उसके लिए अन्य उपायों का प्रयोग करना अग्नि में आहुति देने के समान है। जिस प्रकार यन्त्र, शस्त्र, अग्नि, व क्षारांचकित्सा द्वारा नष्ट होने योग्य व्याधि अन्य औषधि द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती. मी मार दण्ड द्वारा माल में करा नोट शत्रु भी अन्य उपाय द्वारा वश में नहीं किया जा सकता है, जिस प्रकार सांप की दाढ़ें निकाल देने पर यह रस्सी के समान शक्तिहीन हो जाता है, उसी प्रकार जिसका धन व सैन्य नष्ट कर दिया गया है. ऐसा शत्रु भी शक्तिहीन हो जाता है |
प्रशासन की स्थिति - सातवी से दशवीं शताब्दी के जैन साहित्य में प्रमुख रूप से राजतन्त्रात्मक शासन के दर्शन होते हैं। इस शासन प्रणाली में यद्यपि राजा सर्वोपरि था, किन्तु जन्ता की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वह सदैव सचोष्ट रहता था। उसके राज्य में अन्याय नहीं होता था। राजा की यह भावना रहती थी कि उसके राज्य में गोधनादि सम्पत्ति की वृद्धि तथा सुभिक्ष हो. जनता की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वे सदा ही उत्सव, भोग आदि पना सकें. गुणोजनों की कीर्ति चिरकाल तक पृथ्वी पर विद्यमान रहे तथा समस्त दोषों का नाश हो । राजा स्वयं शत्रुओं को जीतने में समर्थ, जिनधर्म का अनुयायी तथा न्यायमार्ग के अनुसार प्रजा का पालन करने वाला हो" । इस प्रकार की भावना से युक्त राजा के राज्य की शोभा देखते ही बनती थी । छोटी-छोटी ग्वालों की बस्तियों ग्रामों को समानता धारण करती थीं और ग्राम नगर के तुल्य हो जाते थे और नगर का तो कहना ही क्या, वे अपनी सम्पन्नता के कारण इन्द्र की अलकापुरी का भी उपहास करते थे। ऐसे नगर सब प्रकार के उपद्रवों से रहित होते थे, किसो अनुचित भय को वहाँ स्थान न होता था । दोषों में फंसने को वहाँ आशंका नहीं होती थी । वहाँ पर सदा ही दान महोत्सव, मान सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते थे । भोगों को प्रचुर सामग्री वहाँ विद्यमान रहती थी, सम्पति की कोई सीमा नहीं होती थी । इस प्रकार वहाँ के निवासी अपने को कृतार्थ मानते थे।
राज्य शासन करने वाले व्यक्ति को बड़े उत्तरदायित्व का पालन करना पड़ता था। अत: कभी-कभी विरक्ति का भी कारण हो जाता था । एक स्थान पर कहा गया है कि राज्य अनेक
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दुःखों का कारण है, इससे चित्त सदा आकुल रहता है, यह शोक का मूल है, वैरों का निवास है। तथा हजारों क्लेशों का मूल है । अन्त में इसका फल तुमड़ी के सपान तिक्त होता है । बड़े-बड़े राज्यों की धुरा को धारण करने वालों की भी दुर्गति होती है । गद्यचिन्तामणि से ज्ञात होता है कि दुर्बल राजा के होने पर चोर लुटेरों वगैरह का भय हो जाता था । व्याधादि जंगली जातियां समोपवतों ग्रामों वगैरह से गोधनादि सम्पत्ति लेकर भाग जाती थी, अथवा सेना द्वारा मुकाबला करती थीं, पराक्रमी राजा ही इनको दबाने में समर्थ होता था और दु:न्त्री प्रजा ऐसे ही राजा का स्मरण करती थी।
प्रशासन की सुष्यवस्था हेतु राजकीय कर्तव्य - राजा को चाहिए कि वह अपने वंश के मन्त्र लोगों के साथ राज्य का विभाग कर उपभोग करे । ऐसा करने पर परिवार वाले उसके शत्रु (सहज शत्रु) नहीं रहेंगे और वह अखण्ड रूप से चिरकाल तक अपनी ग़जलक्ष्मी का उपभोग करेगा । सज्जनों की दृष्टि में लक्ष्मी सर्वसाधारण के योग्य है। राजा के राज्य में कोई मूलहर (भूल पूँजी को खाने वाला), कदर्य (कृपण) और तारात्विक (भविष्यत् का विचार न रख वर्तमान में ही मौज उड़ाने वाला) न हो, किन्तु सभी पदव्यय करने वाले हो | जिसके पुण्य के उदय से वस्तुयें प्रतिदिन बढ़ती रहें उसका तादात्यक (वर्तमान की और दृष्विट रखकर जो कुछ कमाता है. उसे खर्च करना) रहना हो उचित है । राजा को चाहिए कि उसके पार्श्ववती (समीवपतों) लोग घूसखोर न हों । यदि पायवती रिश्ववत खोर हो तो दुमरे याक वेष बदलकर घुमपैट कर सकते हैं। राजा श्रेणिकरे नेक के समीपीगों को जानें गश में कर श्राद्रक नामक व्यापारी बनकर चेटक के घर में प्रवेश कर लिया था।
___ ग्राम्य संगठन - ग्राम में ब्राह्ममण, क्षत्रिय , वैश्य और शूट मधी समान अनुपात में रहना चाहिए । विशेषकर ब्राह्ममणों अथवा क्षत्रियों की अधिकता होना ग्राम के लिए अच्छा नहीं माना जाता है । जिन ग्रामों में क्षत्रिय अधिक होते हैं, वहाँ वे थोड़ी सी बाधा होने पर आपस में लड़ाई झगड़ा करते हैं । ब्राह्माण चूंकि अधिक लोभी होते हैं, अत: राजा के कर वगैरह को प्राण जाने पर भी बिना दण्ड के शान्ति से नहीं देते हैं।
ग्रामीण एवं नागरिक शासन पद्धति - आदिपुराण में ग्रामीण शासन पद्धति के दर्शन होते हैं। ग्रामीण पद्धति का अर्थ यह है कि प्रत्येक बड़ा गाँत्र राष्ट्र का अंग समझा जाता था और उसी
की सुव्यवथा के समस्त राज्य या राष्ट्र की सुव्यवस्था समझी जातो थी । ग्राम सम्बन्यो शासन के निए राजा निम्न कार्य करता था - (1) गाँव बसाना ।
(2) उपभोक्ताओं के योग्य नियम बनाता । (3)बेगार लेना।
(4) अपराधियों को दण्ड देना। (5) जनता से राजस्त्र या अन्य कर वसूल करना ।
गांव की आदर्श बनाने के लिए राज्य की ओर से सभी प्रकार की सुव्यवस्थायें प्रचलित थीं । प्रत्येक गाँव का एक मुखिया रहता था, जो गाँव को तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था और उत्पन्न हुई कठिन समस्याओं को दण्ड धर्माधिकारी अथवा अन्य पदाधिकारियों से निवेदन करता था । दण्डाधिकारी के अतिरिक्त शासन व्यवस्था में स्वयं राजा सम्मिलित होता
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था और गूढ़ समस्याओं एवं भंयकर अपराधों की स्वयं छानबीन करता था। प्रशासन को इकाई गांव के रहने पर भी नागरिक प्रशासन कमजोर नहीं था । राजा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए दूत एवं गुप्तचर नियुक्त करता था | नगर के रक्षक को पुरसक्षक" कहा जाता था । नगर के शासन के लिए पौर नामक सुगठित संस्थायें थों, जिनका उल्लेख चतुर्थ अध्याय में किया गया है।
पुलिस व्यवस्था - आदिपुराण में पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के लिए तलवर शब्द का प्रयोग हुआ है।चोर,डकैत एवं इसी प्रकार के अन्य अपराधियों को पकड़ने के लिए सारश्री नियुक्त रहते थे । तलवर का पवार्यवाची आरक्षिण' शब्द आया है । कतिपय राजकर्मचारी उत्कोच (घूम) भी ग्रहण करते थे । वे उत्कोच (घुस) लेकर अपराधी को छोड़ देते थे। राजा उनका पता चलने पर यथेष्ट दण्ड देता था | आदिपुराण के एक उपाख्यान में बतलाया गया है कि फल्गुमती ने राजा के शयनाध्यक्ष को धन देकर अपने वश में कर लिया और कहाँ कि तुम रात के समय देवता की तरह तिरोहित होकर कहना कि हे राजन् । कुबेर मित्र पिता के समान पूज्य है, अत: उन्हें अपने पास नहीं रखना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर ही बुलाना चाहिए । पहरेदार ने फल्गुमती के कथन का अनुसरण किया, जिससे राजा ने कुबेरमित्र को अपने यहाँ से हटा दिया । पर आगे चलकर घूसखोरी की बात प्रकट हो गई, जिससे शयनाध्यक्ष को दण्ड भोगना पड़ा । प्रान्तीयशासन पद्धति - प्रान्त को मण्डल कहा जाता था । मण्डल का शासन महामाण्डलिक अधत्रा ___ माण्डलिक करते थे । इनके विषय में तृतीय अध्याय में कहा जा चुका है।
फुटनोट) 1. उत्तरपुराण 67/109-111
18. हरिवंशपुराण 17185-97 2. वही 50/4
19. वही 17/88-97 3. नीतिवाक्यामृत 28/25
20. वही 17/96 4. वहीं 28:22
21. वहीं 17/98 172 5. वही 25/23-28
22. यही 17/113-145 6. ही 28/21
23. वहीं 17/146-147 7. वहीं 28/3
24. यही 5/148-150 8. नोतियाक्यामृत 2815
25, वही 5:151-155 १.अहो 28:18
26. वही 5/156 10. कही 286
27, आदिपुराण 5/2-3 11. वहीं 28/13
28. वही 57-12 12. हरिवंशपुराण 5/471-415
29. वहीं 5/158-160 13.हरिवंशपुराण 5/417-419
30. नीतिवाश्यामृत 2819 14. वहीं 41/30
31. वहीं 28/10 15. वही 41/30
32. वही 28/11 16. वहीं 17/82
33. वाही 28/12 17. वही 17/83-84
4, वहीं 28/14
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35. नीतिवाक्यामृत 28/15
36. वही 28/16
37. वही 28/17
38. वही 28/18-19
39. वही 28/20
40. वही 28/31-35
41. वही 28 / 36-38
42. वही 28/7
43. वही 9/2
44. वही 9/3
45, वही 9/7
46. नीतिवाक्यामृत 10/132
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47.
वही 10/163 48. यही 16/250
49. आदिपुराण 3/214-215 हरिवंशपुराण 7/
140-141
50. हरिवंशपुराण 7/142-143
21. वही 717
52. आदिपुराण 3/216
53.
. वही 45 / 63 54. आदिपुराण 42/142
55. वही 46 / 274-275
56. वही 46/275-276
57. वही 46 / 276-274
58. वही 47/109
59. वही 46 / 277-278
60. वही 46 / 280-281
वही 46/278-279
61.
62. वही 46/321
63. वही 46/31
64. हरि 27/41, 46/292-293
65. वही 25/71
66. वही 28/26-27
67. वही 43/180-182
68. नीतिवाक्यामृत 26/64
69. वहो 28/1
20. वही 28/2
71. नीतिवाक्यामृत 29/89
72. वहीं 29/90
73. वही 29/96
74. वही 30/39
75. वही 30/41
76. वरांगचरित 28/16
77. वरांगनरित 23/98-99
78. वरांगचरित 21/47 79. हो 21/45
80. वगचरित 29/23-24
81. गद्यचरित द्वितीय लम्भ
82. उत्तरपुराण 62/450
83. वहो 55 / 9
RA
वही 54/116
85.67 62/379
86. उत्तरपुराण 75/28-29
87. नोतिवाक्यामृत 19/11
88. वही 19/12
आदिपुराण 16/168
89.
90. यही 29/123
91. डॉ. नेमीचन्द शास्त्री आदिपुराण में
प्रतिपादित भारत पृ. 360
92. आदिपुराण 46/277
93. आदिपुराण 46/291
94. वही 46/296
95. यहो 46 / 52-56
:
96. डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री आदिपुराण में प्रतिपादित भारत पृ. 362
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दशम अध्याय
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
दूत और उसका महत्त्व एक राजा दूसरे राजा के पास सन्देश भेजने का लिए साम, दाम आदि नीति के साथ दूत भेजता था | प्रत्युत्तर स्वरूप भी राजा दूसरे राजा के पास दूत भेजा करते थे। जैसे भरत के प्रति अपनी अनुकूलता प्रकट करने के लिए बाहुबली ने 'मैं आपके आधीन नहीं हूँ.' यह कहकर दूत भेज दिए थे। दूत के लिए 'वचोहर'' अथवा 'वचनहर" शब्द का प्रयोग होता था । कन्या के पिता अपनी कन्या के विवाह सम्बन्ध के लिए भी दूसरे राजा के पास द्रुत भेजते थे। दूत सावधानी से परिषद अथवा राजसभा में प्रविष्ट हो नमस्कार कर बैठता था, अनन्तर अवसर जानकर अपनी बात राजा के समक्ष रखता था । गद्यचिन्तामणि के द्वितीय लम्भ में बाण की दूत के रूप में सम्भावना कर उसे कान में बात कहने वाला तथा हृदय के भेदने में चतुर व्यंजित किया गया है'। दूत का पद बहुत महत्त्वपूर्ण और कठिन मित्राओं दान और सम्मान' की प्राप्ति होती थी और विरोधी राजाओं के यहाँ तिरस्कार मिलता था। दूसरे स्थान पर तो कभी-कभी उन्हें कहना पड़ता था कि हम लोग तो केवल स्वामी का समाचार ले जाने वाले दूत (चोहर) हैं, सदा स्वामी के अभिप्राव के अनुसार चलते हैं तथा गुण और दोषों का विचार करने में असमर्थ हैं । दूत प्रारम्भ में साम दाम आदि के वचन ही कहता था, किन्तु विरोधी राजा को अशान्त जानकर लौट आता था और सब समाचार अपने स्वामों से निवेदन करता था" | दूसरे राजा को अनुकूल करने के लिए चित्त का हरण करने वाला" तथा दूसरे के साथ विग्रह करने के लिए कलहप्रिय तथा दुर्वचन बोलने वाला दूत भेजा जाता था। दूत राजाओं के होते थे ।
मुख
-
दूत का लक्षण जो अधिकारी दूरदेशवर्ती राजकोय कार्य का साधक होने के कारण मन्त्री के समान होता है, उसे दूत कहते हैं ।" ।
-
दूत के गुण दूत को शास्त्रज्ञान में निपुण, राजकर्त्तव्य में कुशल, लोकव्यवहार कर ज्ञाता, गुणों में स्नेह रखने वाला”, संकेत के अनुसार अभिप्राय को जानने वाला" तथा स्वामी के कार्य में अनुरक्त बुद्धि वाला होना चाहिए"। अपने पक्ष की सम्पत्ति और दूसरे पक्ष की विपत्ति का विचार करना, अपने मन्त्र को छिपाकर रखना, दूसरे मन्त्रियों के द्वारा नहीं फोड़ा जाना, मन्त्रभेट के भय से एकान्तस्थान में गुप्तरीति से शयन करना, युद्ध करने तथा युद्ध स्थल से निकलने के स्थानों को देखना ", विशेष स्थिति में युद्ध न होने का उद्योग करना" तथा कार्य को जानना दूत के विशेष गुण हैं। नीतिवाक्यामृत के अनुसार दूत
के
निम्नलिखित " गुण हैं
1. स्वामिभक्ति ।
2. अव्यसनी होना ।
4. पवित्रता ।
-
3. दक्षता ।
5. विद्वत्ता ।
6. उदारता ।
7. सहिष्णुता
8. शत्रु के रहस्य का ज्ञाता होना ।
दूतों की योग्यतायें - दूत को निष्कपट, शिष्ट, कीर्ति और प्रताप का इच्छुक, उत्कृष्ट नीति
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का ज्ञाता तथा प्रिय वेषधारी होना चाहिए। दूत को ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जिनसे जो बात कहना हो यह भी न छूटे और वह अशिष्ट रीति से न कहीं जाय । दूत विविध भाषाओं, लिपियों और वेषों के ज्ञाता गुप्तचरों द्वारा प्रजा की उदासीनता वगैरह को भांपकर अपने कर्तव्य का निश्चय करें | वह सब कार्यों को करने में समर्थ, भविष्यत को जानने वाला तथा प्रसिद्ध पराक्रमी हो । लोभी दूत का अन्तरंग स्वभाव (चेतना) खंडित हो जाता है, वह किसी प्रकार से हो जीता है।
लोभवश दूतों के शत्रु के वश में हो जाने पर तथा अपनी प्रकृति के विरूद्ध हो जाने पर राजा का राज्य भी उसके शरीर में सोमित हो जाता है।
दूतों के भेद दूत तीन प्रकार के होते हैं (3) शासनहार
-
(1) निसृष्टार्थ (2) परिमितार्थ
निसृष्टार्थ स्वामी के कान के पास रहने वाले, रहस्य रक्षा करने वाला, सुनियोजित, पत्र लेकर जल्दी जाने वाला मार्ग में सीधे जाने वाला, शत्रुओं के हृदय में प्रवेश कर कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध करने वाला * तथा विवेकी बुद्धि वाला दूत निमृष्टार्थ कहलाता है। आचार्य सोमदेव के अनुसार जिसके द्वारा निश्चित किए हुए सन्धि विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह निसृष्टार्थ है । जैसे पाण्डवों के कृष्ण ।
परिमितार्थ या मितार्थ- परिमित समाचार सुनाने वाले" अथवा राजा द्वारा भेजे हुए सन्देश और लेख को जैसा का तैसा शत्रु को कहने वाला दूत परिमितार्थ या मितार्थ कहलाता है । शासनहारी उपहार के भीतर रखे हुए पत्र को ले जाने वाले दूत को शासनहारी कहा जाता
-
हैं" ।
दूतों का कार्य दूत का कार्य बड़ा साहसपूर्ण था। स्वामी के अभिप्राय के अनुसार उसे शत्रु पक्ष से निवेदन करना पड़ता था। इतना होते हुए भी दूत अवध्य था" । रावण के श्रृष्ट अभिप्राय को व्यक्त करने वाले दूत पर ज्यों ही भामण्डल ने तलवार उठाई, त्यों ही नीतिवान् लक्ष्मण ने उसे रोक लिया। यहाँ पर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रतिध्वनियों पर लकड़ी के बने पुरुषाकार पुतलों पर, सुआ आदि तियेचों पर और यन्त्र से चलने वाली पुरुषाकार पुतलियों पर सत्पुरुषों को क्या क्रोध करना है ? ऐसे ही एक स्थल पर दूत के प्रति कहा गया है जिसने अपना शरीर बेच दिया है और तोते के समान कही बात को ही दुहराता है ऐसे दूत पापी, दोनहीन भृत्य का अपराध क्या है ? दूत जो बोलते हैं, पिशाच की तरह अपने हृदय में विद्यमान अपने स्वामी से ही प्रेरणा पाकर बोलते हैं। दूत यन्त्रमयी पुरुष के समान पराधीन है
।
दूत शत्रु द्वारा अज्ञात होकर उसकी आज्ञा के बिना न तो शत्रुस्थान में प्रविष्ट हो और न वहाँ से निकले 37 । जब दूत को यह निश्चय हो जाय कि यह शत्रु मेरे स्वामी से सन्धि नहीं करेगा, किन्तु बुद्ध करने का इच्छुक हैं और इसी कारण मुझे यहाँ रोक रहा है, तब उसे शत्रु की आज्ञा के बिना ही वहाँ से प्रस्थान कर देना चाहिए या स्वामी के पास गुप्तदूत भेज देना चाहिए" । यदि शत्रु दूत को देखकर हो वापिस लौटा दिया हो तो दूत उसका कारण सोचें । दूत शत्रु के यहाँ ठहरकर निम्नलिखित " कार्य करे ।
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1. नैतिक उपाय द्वारा शत्रुकार्य-सैनिक मंगलन आदि को नष्ट करना ।
2. राजनैतिक उपाय द्वारा शत्रु का अनर्थ करना - शत्रु विरोधी क्रुद्ध, लुब्ध, भयभीत और अभिमानी पुरुषों को सामदानादि द्वारा वश में करना।
3. शत्रु के पुत्र, कुटुम्बी व जेल में बन्द मनुष्यों में द्रव्यदानादि द्वारा भेद उत्पन्न करना । 4. शत्रु द्वारा अपने देश में भेजे हुए गुप्तचरों का ज्ञान । 5. सीमाधिप, आटविक, कोश, देश, सैन्य और मिवों की परीक्षा।
6. शत्रु राजा के यहाँ वर्तमान कन्यारत्न तथा हाथी, घोड़े आदि वाहनों को निकालने का प्रयत्न ।
7. शत्रु प्रकृति (मंत्री, सेनाध्यक्ष आदि) में गुप्तचरों के प्रयोग द्वारा भीभ उत्पन्न करना ।
दूत शत्रु के मन्त्री, पुरोहित तथा सेनापति के समीपवतीं पुरुषों का धनदान द्वारा अपने में विश्वास उत्पन्न कराकर शत्रु हृदय की गुप्त बात का निश्चय करें" । वह शत्रु के प्रति स्वयं कठोरवचन न कहकर उसके कहे हुए कठोरवचन सहन करे । जब दूत शत्रुमुख से अपने गुरू
स्वामी की निन्दा सुने तब उसे शान्त नहीं रहकर उसका प्रतीकार करना चाहिए। दूत को निरर्धक विलम्ब नहीं करना चाहिए । जो मनुष्य स्थित होकर भी किसी प्रयोजनासद्धि के लिए देशान्तर में गमन करने का इच्छुक है, यदि वह रूक जाता है तो इससे उसके प्रयोजन नष्ट हो जाते हैं।
दूतों से सुरक्षा - (विजिगीषु को) स्वयं बहादुर सैनिकों में घिग रहकर और शत्रुदेश में आए हुए दूतों को भी शूरपुरुषों के मध्य रखकर उनसे बातचीत करना चाहिए । सुना जाता है कि चाणक्य ने तीक्षणदूत (विषकन्या) के प्रयोग द्वारा नन्द को मार डाला था।
शत्रुप्रेषित लेख तथा उपहार के विषय में राजकर्तव्य - राजा शत्रु द्वारा भेजे हुए लेख व उपहार आत्मीय जनों से बिना परीक्षा किए स्वीकार न करें" । अनुश्रुति है कि करहाट देश के राजा कैटभ ने वसु नाम के राजा को दूत द्वारा भेजे हुए फैलने वाले विष से वासित अद्भुत वस्त्र के उपहार द्वारा मार डाला था | करवाल ने कराल नामक शत्रु को दृष्टिविध सर्प से व्याप्त रत्नों के पिटारे भेंट भेजकर मार डाला।
दूत के प्रति राजकर्तव्य - उठे हुए शस्त्रों के बीच (घोरयुद्ध के बीच) भी राजालोग दूत मुख वाले होते हैं। अतः दूत द्वारा महान् अपराध किए जाने पर (राजा) उसका वध न करें। दूतों में यदि चाण्डाल भी हों तो उनका भी वध नहीं करना चाहिए, उच्चवर्ण वाले ब्राह्ममणों की तो बात ही क्या है ? चूंकि दूत अवश्य होता है. अत: सभी प्रकार के वचन बोलता है" । राजा का कर्तव्य है कि वह शत्रु राजा के रहस्य को जानने के लिए नीतिज्ञ स्त्रियों, दोनों और से वेतन हने वाले दूतों तथा दुत के गुण, आचार, स्वभाव से परिचित रहने वाले दूतमित्रों द्वारा वश में करें। कोई भी बुद्धिमान पुरुष दूत द्वारा कहे हुए शत्रु के उत्कर्ष और अपने अपकर्ष को नहीं मानता है।
लेख की प्रमाणता - बचन की अपेक्षा लेख अघिक प्रामाणिक है, किन्तु अज्ञात लेख प्रमाणिक नहीं माने जाते हैं । किसी के भो लेख का अनादर नहीं करना चाहिए, राजा लोग लेख को प्रधानता देते हैं, क्योंकि लेख द्वारा ही सन्धि विग्रह व सारे संसार का व्यापार (कार्य) होता है । वक्ता के गुणों की गरिमा के अनुसार उसके वचन का गौरव होता है । (विजिगीषु को) शत्रुराजा के पास भेजे हुए लेखों में चार वेष्टन व उनके ऊपर खड्ग की मुद्रा लगा देना चाहिए।
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गुप्तचर और उनका महत्त्व - गुप्तचर स्वदेश, परदेश सम्बन्धी कार्य- अकार्य का ज्ञान करने के लिए राजाओं के नेत्र हैं। पद्मचरित में इन्हें चार कहा गया है 1 राजा माली के विषय में कथन है कि उसे वेश्या, वाहन, विमान, कन्या, वस्त्र तथा आभूषण आदि जो श्रेष्ठवस्तु गुप्तचरों से मालूम होती थीं, उन सबको शुरवीर माली बलात् अपने यहाँ बुला लेता था, क्योंकि विद्या, बल, विभुति आदि से यह अपने आपको श्रेष्ठ मानता था। राजा मम ने गुप्तचरों द्वारा दशानन के महल का पता लगाया था" । गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के अनुसार बड़ी सावधानी के साथ गुप्तचररूपी नेत्रों को प्रेरित करने वाले जीवन्धर स्वामी शत्रु मित्र और उदासीन राजाओं के देशों में उनके द्वारा अज्ञात समाचार को भी जान लेते थे। राजा के राज्य कार्य के देखने में गुप्तचर और विचार शक्ति ही नेत्र का काम देती है। नेत्र तो केवल मुख को शोभा और दृश्य के दर्शन के लिए होते हैं। गुप्तचरों के कारण एक स्थान पर स्थित रहता हुआ भी राजा अपने तथा दूसरे राज्य की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करता था। इस प्रकार उसकी स्थिति सूर्य और चन्द्रमा से भी विशिष्ट श्री । सूर्य सारे संसार का परिभ्रमण कर आताप देता है । चन्द्रमा भी संचार करता हुआ सृष्टि को अपनी चाँदनी से आह्लादित करता है, किन्तु राजा राजधानी में रहता हुआ भी गुप्तचरों द्वारा स्थावर तथा जंगम संसार की पूर्ण जानकारी रखता है और उन पर प्रसाद तथा निग्रह करता हुँ ।
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गुप्तचरों की नियुक्ति कृषि के क्षेत्र में किसानी, बाह्य प्रदेश में ग्वालों, जंगलों में भीलां, शहरों में व्यवसायियों, देश की सीमाओं पर योगियों, राजाओं राजपुत्र, कुटुम्बियों तथा मंत्रियों मैं उनके कर्मचारियों तथा अन्तःपुर में बहिरों और कुबड़ों को गुप्तचर बनाया जाता था । गुप्तचरों के गुण - सन्तोष, अमन्दता (आलस्य का न होना), सत्य भाषण और विचारशक्ति ये गुप्तचरों के गुण हैं
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गुप्तचरों के भेद - गुप्तचर 34 प्रकार के होते हैं। इनमें से कुछ अवस्थायी (अपने ही देश मैं रहने वाले) और कुछ यायी (बाहर जाने वाले) होते हैं" । गुप्तचरों के 34 भेद निम्नलिखित
हैं" ।
छात्र दूसरे के रहस्य का ज्ञाता गुप्तचर ।
कर्नाटक- किसी भी शास्त्र को पढ़कर छात्रवेश में रहने वाला गुप्तचर |
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उदास्थित - बहुत से शिष्यों वाला, बुद्धि की तौक्ष्णता से युक्त, राजा द्वारा निश्चित जोविका को प्राप्त गुप्तचर उदास्थित कहलाता है ।
गृहपति कृषक वेष में रहने वाला गुप्तचर गृहपति है ।
वैदेशिक जो गुप्तचर सेठ के वेष में रहता है
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तापस
बाह्य व्रत और विद्या के द्वारा उगने वाला गुप्तचर तापस है I
किरात जिसके शरीर के अंग छोटे हों, उसे किरात कहते हैं।
यमपट्टिक - प्रत्येक घर में जाकर चित्रपट दिखाने वाला और गला फाड़कर चिल्लाने वाला गुप्तचर यमपट्टिक है।
अहितुण्डिक सर्पक्रीड़ा में चतुर गुप्चतर अहितुण्डिक है। शौण्डिक शराब बेचने वाले के वेष में वर्तमान गुप्तचर । शौभिक रात्रि में पर्दा लगाकर रूप प्रदर्शन करने वाला
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पाटञ्चर चोर अथा बन्दी ।
fre व्यसनी लोगों को उनके अभीष्ट स्थान पर भेजने की जीविका वाला गुप्तचर विट
विदूषकः सभी को हमें चतुर पुरुष कहे।
पीठमर्द - कामशास्त्र का आचार्य ।
नत्तिक जो गुप्तचर कमनीय व स्त्री वेष प्रदर्शक वस्त्र (साड़ी आदि) पहनकर नाचने की जीविका करता है अथवा नाटक की रंगभूमि में अभिनयपूर्वक नृत्य करने वाले गुप्तचर को नर्तक कहते हैं।
गायक
जो वेश्याओं के आचरण का उपदेश देता है।
वादक गीत सम्बन्धी प्रबन्धों की गतिवि शेषों को बजाने वाले और तत
सुमिर रूप चार प्रकार के बाह्य बजाने की कला में प्रवीण गुप्तचर वादक है।
वान्जीवी जो स्तुतिपाठक या सूत (बन्दी) बनकर राजकीय कार्य सिद्ध करता है।
गणक - गणितशास्त्र अथवा ज्योतिषशास्त्र का ज्ञाता ।
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शाकुतिक शकुन कहने वाला ।
भित्रगृ आयुर्वेद अथवा शल्यचिकित्सा का ज्ञाता ।
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ऐन्द्रजालिक जो तन्त्रशास्त्र में कही हुई युक्तियों द्वारा मन को आश्चर्य उत्पन्न करने वाला अश्रवा मायावी हो, उसे ऐन्द्रजालिक कहते हैं ।
नैमित्तिक निशाना मारने में प्रवीण अथवा निमित्त शास्त्र का ज्ञाता ।
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सूद पाकविद्या में प्रत्रीण गुप्तचर
आरालिक अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ बनाने वाले ।
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संवाक अङ्गमर्दन की कला में कुशल अथवा भारवाहक ।
तीक्षण घन के लोभ में जो कठिनकार्य (हाथी, शेर वगैरह का मुकाबला आदि ) करते
हों तथा अपने जीवन को भी खतरे में डाल देते हों ऐसे तथा सहनशीलता न रखने वाले गुप्तचर
तीक्ष्ण है।
अवनद्ध. धन.
क्रूर बन्धु- वक्त्रों के स्नेह से रहित ।
रसद आलमो गुप्तचर 1
जड़, भूक, वधिक और अन्ध ये प्रसिद्ध है ।
1
गुप्त रहस्य की रक्षा मनुष्य को प्राणों से भी अधिक गुप्त रहस्य की रक्षा करना चाहिए। निरर्थक व विश्वास करने के अयोग्य दूसरे की गुप्त बात भी नहीं कहना चाहिए। जो पुरुष परम्पर की गुप्त बात प्रकट कर देते हैं ये अपना-अपना ही पराक्रम दिखाते हैं।
गुप्तचर रहित राजा की हानि ( जीतने का इच्छुक ) राजा दोनों पक्षों से वेतन पाने वाले गुप्तचरों के स्त्री- पुत्रों को अपने यहाँ सुरक्षित रखकर उन्हें शत्रु देश में भेजें", ताकि वे वापिस आकर उसे शत्रु की चेष्टा निवेदन करें। जिस राजा के यहां गुप्तचर नहीं होते, वह म्वदेश और परदेश सम्बन्धी शत्रुओं द्वारा आक्रान्त होता है" । जिस प्रकार द्वारपाल के बिना धनाढ्य का रात्रि में कल्याण नहीं हो सकता", इसी प्रकार गुप्तचरों के बिना राजाओं का कल्याण नहीं हो सकता ।
गुप्तचर के वचनों की प्रमाणता - यदि राजा को गुप्तचर को बातों में सन्देह हो जाय तो हीन गुप्तचरों द्वारा कही हुई बात एक सी मिलने पर प्रमाण मान लेना चाहिए”।
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गुप्त रहस्य प्रकाश की अवधि - महानुभाव दुसरे के प्रयोजन - अप्रयोजन को जानकर अपने हृदय की वात प्रकट करते हैं।
गुप्तचरों का कर्तव्य - अब राजा 'दूर हो और शत्रु को सेना आ रही हो तो ऐसे अवसर पर जंगल में रहने वाले उसके गुप्तचर घुआ करना, आग जलाना. धूल उड़ाना अथवा पैसे का सींग फूकना आदि के बहाने उसे शत्रु की सेना के आने का निवेदन करें।
गुप्तचरों का वेतन - कार्य सिद्ध हो जाने पर राजा द्वारा सन्तुष्ट होकर जो प्रचुर धन दिया जाता है, वहो गुप्तचरों का वेतन है, क्योंकि उस धनप्राप्ति के लोभ से वे अपने स्वामी को कार्य सिद्धि शीघ्र करते हैं।
तीन शक्तियों - राजा लोग शक्तित्रय अर्थात प्रभु, मन्त्र और उत्साहशक्ति के द्वारा प्रजा के समस्त दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करते थे । राजा का राजपना तीनों शक्तियों- प्रभु, मन्त्र
और उत्साह से प्रकट होता है ये राजा को सारभूत सम्पत्तियाँ है, इससे वह समस्त पृथ्वी को कल्पलता के समान बना देता है, जिससे दिन पर दिन राज्य का सुख बढ़ता है।
मन्त्रशक्ति - ज्ञानबल को मन्त्रशक्ति कहते हैं | बुद्धिशक्तिशारीरक शक्ति से भी श्रेष्ठ मानो जाती है । इसका उदाहरण यह है कि थोड़ी शारीरिक शक्ति रखने वाले खरगोश ने बुद्धिबल से सिंह को मार डाला।
प्रभुशकि - कोश और दण्डबल को प्रभुशक्ति कहते हैं। इसके उदाहरण के रूप में शूद्रक और शक्ति कुमार के दृष्टान्त को लिया जा सकता है। प्रभुशांत की सम्पदा से पृथ्वी का पालन करके ही राजा का पृथ्वीपाल नाम सार्थक होता है।
उत्साह शक्ति - पराक्रम और सैन्यशक्ति को उत्साह शक्ति कहते हैं। इसके उदाहरण श्री रामचन्द्र जी है।
जो शत्रु की अपेक्षा उक्त तीनों प्रकार की शक्तियों से अधिक होता है, यह श्रेष्ठ है । जो शक्तिबय से शून्य है. वह जघन्य है, एवं जो उक्त तीनों शक्तियों में शत्रु के समान है, वह सम है।
घाझुण्य सिद्धान्त - पद्मचरित के षष्ठ पर्व में राजा कुण्डलमझिडत को गुणात्मकः । (गुणों में युक्त) कहकर इसको विशेषता बतलाई गई है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में सन्धि, विग्रह यान, आमन, संश्रय और द्वैधीभाव ये षाद्गुण्य अर्थात् छ गुण कहे गए हैं। किन्तु पद्मचरित में सन्धि और विग्रह इन दो गुणों का ही उल्लेख मिलता है। बात व्याधि ऋषि का भी कहना है कि सन्धि और विग्रह ये दो ही मुख्य गुण है, क्योंकि इन्हीं दोनों गुणों से अन्य छह गुण स्वतः उत्पन्न हो जो है | आसन और संश्रय का सन्धि में, यान का विग्रह में और द्वैधीभाव का सन्धि तथा विग्रह दोनों में अन्तभाव हो जाता है । द्विसंधान महाकाव्य में शम और व्यायाम को योग (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) का उद्गम कहा है। इन्हीं दोनों के षड्गुण निहित है। समझदार लोग शत्रुओं के बल की थाह लेकर ही इन छह गुणों में से किसी कर्तव्य का निश्चय करते हैं।
सन्धि- कुछ भेंट आदि देकर अन्य राजा से समझौता करना सन्धि है । जिस प्रकार ग्वाला पशुओं को देखने की इच्छा से आए हुए राजा को धन, सम्पदा वगैरह देकर सन्तुष्ट करता है, उसो प्रकार यदि कोई बलवान् राजा राज्य के सम्मुख आए तो वृद्ध लोगों के साथ विचारकर उसे कुछ देकर उसके साथ संन्धि कर लेना चाहिए । युद्ध बहुत से लोगों के विनाश का कारण है, उसमें
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बहुत सो हानियाँ होती है और उसका पविष्य भी बुरा होता है । अत: कुछ देकर बलवान् शुत्र के साथ सन्धि करना की है। । उत्तर को ससम्म मुहमारे सालेहोरामानों का पीछे किसी कारण से जो मैत्रीभाव हो जाता है, उसे सन्धि कहते हैं । यह सन्धि दो प्रकार की होती है - अवधिसहित (कुल समय के लिए) और अवधिरहिता (सदा के लिए)। नीतिवाक्यामृत के अनुसार दो राजाओं का कुछ शतों पर मेल हो जाना सन्धि है हीनशक्ति वाले राजा का धनादि देकर शत्रु राजा के साथ सन्धि कर लेना चाहिए, यदि उसके द्वारा की हुई व्यवस्था में मर्यादा का उन्धन न हो । यदि शत्रु द्वारा भविष्यकालीन अपनी कुशलता का निश्चय हो जाय कि शत्रु मुझे नाष्ट नहीं करेगा और न मैं शत्रु को नष्ट करूंगा, तब उसके साथ विग्रह न कर मित्रता हो करना चाहिए | जन्न कोई सीमाथिपति शक्तिशाली ही और वह भूमिग्रहण करने का इच्छुक हो तो उसे भूमि से पैदा होने वाली धान्य अनित्य (कुछ सपय बाद नष्ट होने वाली) है (अत: पैदावार देने में कोई हानि नहीं है) । यदि शत्रु के हाथ में भूमि चली गई तो पुनः प्राप्त नहीं हो सकता है। जिस प्रकार तिरस्कार पूर्वक भी आरोपण किया हुआ वृक्ष पृथ्वी पर अपनी जड़ों के कारण हो फैलता है, उसी प्रकार विजिगीषु द्वारा दी हुई पृथ्वी को प्राप्त करने वाला सीमाधिपति भी दृवमूल होकर पुनः उसे नहीं छोड़ता।
विग्रह - शत्रु तथा उसे जीतने का इच्छुक राजा ये दोनों परस्पर में एक दूसरे का अपकार करते हैं, उसे विग्रह कहते हैं। | अथवा किसी के द्वारा किए हुए अपराधवश युद्ध करना विग्रह है । बदि विजिगीषु शत्रु राजा से सैन्य व कोष आदि में अधिक शक्तिशाली है और उसकी सेना में क्षोम.नहीं है, तब उसे शत्रु से युद्ध छेड़ देना चाहिए ।
यान - अपनी वृद्धि और शत्रु को हानि होने पर अथवा दोनों होने पर शत्रु के प्रति जो उधाम (शत्रु पर आक्रमण करने के लिए गमन) है, उसे यान कहते हैं (यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि रूप फल देने वाला है | राजा यदि सर्वगुण सम्पन्न है एवं उसका राज्य निष्काम्टक है तथा प्रजा आदि का उस पर कोप नहीं है तो उसे शत्रु के साथ युद्ध करना ही ठीक है जो राजा स्वदेश की रक्षा न कर शत्रु के देश पर आक्रमण करता है, उसके कार्य नंगे को पगड़ी थोने के समान निरर्थक है |
___ आसन - इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं किसी दूसरे को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूँ. ऐसा विचारकर जो राजा चुप बैठा रहता है, उसे आसन कहते हैं । यह आसन नामक गुण राजाओं की वृद्धि का कारण है।14 ) नीतिवाक्यमृत के अनुसार शत्रु के आक्रमण को देखकर उसको उपेक्षा करना आसान है।
संश्रय - जिसका कोई शरण नहीं है, उसे अपनी शरण में रखना संश्रय नामक गुण है। आचार्य सोमदेव के अनुसार बलिष्ठ शत्रु द्वारा देश पर आक्रमण होने पर जो उसके प्रति आत्मसमर्पण किया जाता है, उसे संश्रय कहते हैं। यदि शत्रु राजा व्यसनी नहीं है तो शक्तिहीन को उसके सामने समर्पण कर देना चाहिए । ऐसा करने से निर्बल राजा उसी प्रकार शक्तिशाली हो जाता है, जिस प्रकार अनेक तन्तुओं के आश्रय से रस्सी में मजबूती आ जाती है । बलवान का ही आश्रय लेना चाहिए । जो शत्रु के आक्रमण के भय से बलहीन का आश्रय लेता है, उसकी उसी प्रकार हानि होती है, जिस प्रकार हाथो द्वारा होने वाले उपद्रव से डर से एरण्ड के वृक्ष पर चढ़ने वाले मनुष्य की तत्काल हानि होती है। जो स्वयं अस्थिर है वह यदि दूसरे अस्थिर राजा
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का आश्रय लेता है तो उसो प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार नदी में बहने वाला दूसरे बहने वाले का आश्रय करने से नष्ट हो जाता है। स्वाभिमानी व्यक्ति को मर जाना अच्छा है, किन्तु पराइंइयापूर्वक अपने को बेचना अच्छा नहीं है। यदि (राजा का) भविष्य में कल्याण निश्चित हो तो उसे किसी व्यक्ति का आश्रय लेना श्रेयस्कर है। सोमदेव के पूर्ववता आचार्य जिनसेन का कथन है कि यदि सन्धि न की जा सकती हो तो किसी (किले वगैरह) का आश्रय कर लेना चाहिए । ऐसा करने से बड़े शत्रु को भी कोरबा कासा , अपने प्यार ने गाला मुद्र भी बड़ी-बड़ों से बलवान् हो जाता है। सजातीय पुरुष निर्बल होने पर भी किसी बलरान् पुरुष का आश्रय पाकर राजा को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार निर्बल दण्ड कुल्हाड़ी का तीक्ष्ण आश्रय पाकर अपने सजातीय वृक्ष आदि को नष्ट कर देता है।
द्वैधीभाव - बलवान् और निर्बल दोनों शत्रुओं द्वारा आक्रमण किए जाने पर बलिष्ठ के साथ सन्धि और निर्बल के साथ युद्ध करना चाहिए' । विजय का इच्छुक जब अपने से बलिष्ठ शत्रु के साथ पहिले मित्रता कर लेता है, फिर कुछ समय बाद शत्रु के होनशक्ति होने पर उसी से युद्ध छेड़ देता है, उसे बुद्धि आश्रित द्वैधीभाव कहते है। जब यह ज्ञात हो जाय कि दो शव परस्पर में युद्ध कर रहे हैं तब द्वैधीभाव-बलिष्ठ से सन्धि और निर्बल से युद्ध करना चाहिए |
विजय को इच्छक राजा को अच्छी तरह प्रयोग में लाए हए सन्धि, विग्रह आदि छह गुणों से मिद्धि मिल जातो है।" | आदि पुराण के 44 में पत्र में बाणों को उपमा पागुण्य से दी गई है। जिस प्रकार कुछ देर ठहरते हैं जिस प्रकार राजा लोग अपने स्थान से चल देते हैं, उसी प्रकार वाण भी सन्धि, विग्रह आदि छह गुणों को धारण कर रहे थे । राजा पहले सन्यि करते हैं, उसी प्रकार बाण भी होरी के साथ सन्धि - मेल करते हैं । राजा अपनी परिस्थिति देखकर कुछ समय ठहरे रहते हैं, उसी प्रकार बाण भी पागुण्य को धारक करने वाला राजासिद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार शत्रु को मारने के लिए धनुष से चल पड़ते हैं। जिस प्रकार राजा लोग मध्यस्थ बनकर द्वैधीभाव को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार बाण भी मध्यस्थ हो द्वेधीभात्र को प्राप्त होते हैं अथांत शबु के टुकड़ेटुकड़े कर डालते हैं । अन्त में राजा जैसे शत्रु को वश में कर लेते हैं, उसी प्रकार बाण भी शत्रु को वश में कर लेते हैं।
उपाय - वरांगचरित में राजा की प्रयोजन सिद्धि के शान्ति (याम), दान, आश्रय, स्थान, भेद तथा दण्ड (अ) में छह तथा अन्य साम, दाम, दण्ड, भेद ये चार उपाय बतलाए गए हैं। ये उपाय ही पराराष्ट्र नीति के प्रमुख आधार है । जो उपाय कुशल क्षेत्र को बढ़ाता हो वहीं सोचना चाहिए, किन्तु यदि उद्देश्य की सफलता में साधक गति असम्भव हो तब अपने हित तथा उत्कर्म की कामना करने वाले व्यक्ति को हो मार्ग पकड़ना चाहिए, जिस पर चलकर दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने की आशंका न हो जिस प्रयत्न में बुद्धि अग्रसर नहीं होती है, वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता | साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का यथायोग्य स्थानों में नियोग करना कार्यसिद्धि का कारण है और विपरीत नियोग करना पराभव का कारण है। इसी को स्पष्ट रूप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि यदि उपायका योग्य रीति से विनियोग न किया जाय तो अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि दून को कच्चे घड़े में रख दिया जाय तो यह सहज ही दही नहीं बन करता।
साम - अपने से प्रबल शत्रु से वैर नहीं करना चाहिए । समान शक्ति पाले से लड़ना भी अत्यधिक बाधापूर्ण है, अत: बुद्धिमत्ता इसी में है कि साम, दाम आदि छह उपायों में मे माम का
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157 उपाय करके ही अपने कार्य को सिद्ध कर लेना चाहिए । छह उपायों में से भेद तथा दण्ड ये दोनों (प्राणों का नाश), धन का म्यम तथा क्लेशों के मूल हैं और मौत के पद है । सब राजाओं में यदि कोई पारस्परिक भेद है तो वह मान का ही है । जितने भी शुभ तथा उन्नति के अवसर है वे सब आदर, मान बढ़ने के साथ ही प्राप्त होते हैं। यदि कोई सम्मान का लोलुप है तो उसका स्वागत सत्कार करके उमसे बचना चाहिए | सामनीति का अनुसरण कर कार्य सिद्ध करना मरसे सुखकर होता है.", उसका कारण यह है कि इसमें किसी प्रकार के उपद्रव की आशंका नहीं है।
जिसमें अपना और दूसरे का समय सुख से व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय मानी जाती है ।जो दैव और काल के बल से मुक्त हो, देव जिसको रक्षा करें यह सोते हुए सिंह के समान होता है।३१ | ऐसे व्यक्ति से युद्ध करना खतरे से खाली नहीं होता है। साप स्वपक्ष और परपाक्ष के लोगों के लिए शान्ति का कारण होता है, अतः साम का हो प्रयोग करना चाहिए जिस प्रकार अपनी सेना में कुशल योद्धा हो, उसी प्रकार प्रतिपक्षी को सेना में भी कुशल योद्धा हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त युद्ध में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु होती है तो जैसे वह शत्रु के लिए दुःखदाई होगी, उसी प्रकार अपने लिए भी दुःखदाई हो सकती है । इस प्रकार सत्र की भलाई के लिए साम ही प्रशंसनीय है, अत: अहंकार छोड़कर साम के लिए दूत भेजना चाहिए'" । साम के द्वारा भी यदि शान मान्द नहीं होता है तो फिर उसके अनुमा कार्य करते हैं।
साम के द्वारा मित्र प्राप्ति और शत्रु विनाश होता है । दण्ड के उपयोग से शत्रु हो होते हैं. मित्र नहीं होते हैं । साम के स्थान पर दण्ड और दण्ड के स्थान पर साम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।43 | आदर्श पुरुषों का यह न्यायोचित तथा पालन करने योग्य व्रत है कि जिसे उखाड़ दिया जाए उसको पुनः स्थापना कर दें । तीक्ष्ण प्रकृति वह कार्य नहीं कर पाता, जो कोमल प्रकृति करता है । अग्नि पेड़ की जड़ तक नहीं पहुंच पाती, किन्तु पानो उसे उखाड़कर फेंक देता है । देदा चलने वाला (कुटिल) जब तक अभीष्ट के पाय पहुंचता भी नहीं है. तब तक सीधा चलने स्राला उसके पास पहुंचकर उपभोग भी कर लेता है।45 |
जिस प्रकार हाथी के शरीर पर लगाए हुए चमड़े को कोमल करने वालो औषधि कुछ काम नहीं करती है, उसी प्रकार स्वाभाव मे कठोर रहने वाले व्यक्ति के विषय में साम का प्रयोग करना निरर्थक है।* | प्रतापशाली पुरुष के साथ साम का प्रयोग करना एकान्त रूप से शान्ति करने वाला नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रतापशाली मनुष्य स्निग्ध होने पर भी यदि क्रोध से उत्तप्त हो जाये तो उसके साथ शान्ति का प्रयोग करना चिकने किन्तु गरम घी में पानी खोंचने के ममान है । यदि न्यायपूर्ण विरोध करने वाले पुरुष के विषय में पहले कुछ देकर साम का प्रयोग किया जाब और बाद में भेद तथा दण्ड काम में लाए जाय तो साम बाधित हो जाता है।
उपाय के जानकारों ने कहा है कि कठोर से कोमल अधिक सुखकर होता है । सूर्य पृथ्वी को तपाता है और चन्द्रमा आहादित करता है । जगत में भी तेज़ निश्चय से मृदुता के साथ हो रहकर हमेशा स्थिर रह सकता है। दीपक स्नेहरहित (तेलरहित) अवस्था के बिना बुझ जाता है। सामने खड़े हुए परिपूर्ण शत्रु का भी मृदुता (कोमलता) से ही भेद हो सकता है। नदियों का वेग प्रतिवर्ष पर्वतों का भेदन करता है । जो शत्रु साम से सिद्ध कर लिया गया वह मौके पर विरुद्ध नहीं हो सकता । जिस अग्नि को पानी डालकर ठंडा कर दिया जाय वह फिर जलने की चेष्टा
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158 नहीं कर सकती है। । जो मृदुता से शान्त हो सकता है, उसके ऊपर भारी शस्त्र नहीं छोड़ा जाता, जो शत्रु साम से सिद्ध किया जा सकता है, उसके लिए दूसरे उपायों के करने से प्रयोजन नहीं रहता। कुपित शत्रु को शान्त करने के लिए विद्वान लोग पहले साम का ही उपयोग करते हैं कोच में सिर्फ जल निर्मली (फिटकरी के बिना प्रसन्न नहीं हो सकता'साम तीक्ष्ण होने पर भी हृदय में प्रवेश करता है और निरपेक्ष होकर भी उसके प्रयोजन को सिद्ध करता है । राजा साम के सिवाय अन्य अभीष्ट धारण नहीं करते हैं । योग्य स्थान पर यदि साम का प्रयोग न किया जाय तो राज्य के मुख्य पुरुष राजा की मयांदा तोड़ने वाला समझकर शव से मिल जाते हैं ।
आचार्य सोमदेव के अनुसार कोई राजा शक्तिहीन हो और शत्रु पराक्रमी तथा मैन्य युक्त हो तो उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए । यदि शत्रु ने कुछ हानि की होतो उसके अधिक उसकी हानि करके उससे सन्धि कर लेना चाहिए। जिस प्रकार लगष्ट्रा लाहा गर्म लोहे से नहीं जुड़ता किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं, उसी प्रकार दोनों राजा कुपित होने पर परम्पर सन्धि के सूत्र में बंधते हैं | सामनीति द्वारा सिद्ध होने वाला प्रयोजन युद्ध द्वारा सिद्ध नहीं करना चाहिए । गुड़ अधिक इष्ट होने पर कोई भी व्यक्ति विपक्षण नहीं करता है |
सामनीति के भेद - सामनीति के पाँच भेद है। - (1) गुणसंकीर्तन - प्रतिकुल व्यक्ति के गुणों का कथन करना । (2) सम्बन्धीपाख्यान - सम्बन्धबतलाना । (३) परोपकारदर्शन विरुद्ध व्यक्ति की भलाई करना । (4) आयति प्रदर्शन - हम लोगों को मित्रता का परिणाम मुखदायी है, यह प्रकट करना और (5) आत्मोपसन्धान - ओ मेरा धन है, वह आपका है. इसे आप अपने कार्यों में प्रयुक्त करें, इस प्रकार का कथन करना आत्मोपसन्धान हैं।
दान - यदि परिस्थिति अपने अनुकूल न हो तो घन. देश. नगर, रत्न हाथो तथा कन्या प्रदान कर सन्धि करना चाहिए, क्योंकि लोग देश, काल कुल अथवा बल की भली- भीत परीक्षा कर ही कार्य करते हैं। यदि साम सम्भव न हो तो दान का आश्रय लेना चाहिए । दान द्वारा प्राप्त की गई सफलता मध्यम कोटि की होती है।es | साम की तरह दान में भी किमी उपद्रव की आशंका नहीं रहती है | शत्रु राजा के साथ जो राजा आदि आयें दे दि अर्थलोलुप हों तो उन्हें साम, दान आदि उपायों द्वारा अपने वश में कर लेना चाहिए।कुछ राजा केवल आश्वासनों या सामनौति से नहीं मानते हैं, क्योंकि वे सम्पत्ति के लोलुप होते हैं । जब तक उन्हें धन नहीं मिलता. वे विरत नहीं होते हैं। शत्रुता का सूत्रपात करने वाली दानहीनता के कारण वे अन्त में कुपित भी हो जाते हैं। अत: दानहीनता को सबसे निकृष्ट वैर माना चाहिए । अत्यधिक प्रतापशाली पुरुष को कड़ देने का विधान करना भी निःसार है, क्योंकि हजार समिधायें देने पर भी प्रचलित अनि शान्त नहीं होती है। । दान को नीतिषाक्यामृत में उपप्रदान कहा है। बहुत घन के संरक्षण के लिए अल्प धन प्रदान करने के द्वारा शत्रु को प्रसन्न करना उपप्रदान है। अल्पव्यय के भय से मूर्ख अपना सर्वनाश करता है। कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा नहीं है जो शुल्क देने के भय से अपना व्यापार छोड़ है । जो शक्तिहीन शक्तिशालो को धन नहीं देता है उसे आगे बहुत सा धन देना पड़ता है और शत्रु को कंटोर आज्ञा में बन्धना पड़ता है। वह कोई व्यय नहीं है, जो प्रयोजन की रक्षा करे। पूरे भरे हुए तालाब की रक्षा का वहाव के सिवाय कोई उपाय नहीं है: शत्रु यदि अलवान् है और इसे धन नहीं दिया गया तो वह प्राणों के साथ धन को ग्रहण कर लेता हो' । अतः शक्तिहीन
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राजा शक्तिशाली सीमाधिपति के लिए प्रयोजनवश धन देने का इच्छुक हो तो वह उसे विवाहादि उत्सव के अवसर पर सम्मानपूर्वक घर बुलाकर किसी भी बहाने प्रदान करे"।
आश्रय यदि आक्रमण करने वाला राजा मध्यमकोटि का है, उसमें सार्वभौम राजा का गुण नहीं है तो उसकी शरण में न जाकर किसी उत्तम कोटि के ग़जा की महायता पाकर उसे जोतना अधिक सुगम हैं। । प्रभुशक्ति मन्त्रशक्ति और उत्माहशक्ति में बढ़े हुए इस प्रकार के राजा को वह धन जो कि मध्यम कोटि के शत्रु राजा को भेंट करना चाहते थे, भेंट करने पर आक्रमण के लिए तैयार किया जा सकता है |
स्थान - यदि समृद्धव्यक्तियों से पर्याप्त कोश को महायता मिल सके तथा दूसरों के द्वारा अजेय शूर मनुष्य अपने पास हो तथा स्वयं राजा प्रभु, मन्त्र और उत्साह शनि मे मम्पन्न हो तो शत्रु राजा के प्रधान पुरुषों में फूट डलवाकर गुप्तचरों को सक्रिय कर दिया जाय और किसी समर्थ राजा द्वारा उस पर आक्रमण कराकर कुछ समय ठहरा जाय तो भी शत्रु को दुर्बल किया जा सकता हैं।
भेद तथा दण्ड के प्रयोग का अवसर - भेद और दण्ड अभीष्ट नहीं है, क्योंकि इनका परिणाम मृत्यु और माश है। इससे हजारों आदमियों को क्लेश का भो सामना करना पड़ता है'', ऐसी स्थिति में उपर्युक्त चार उपाय हो इस संसार में पृथ्वी को रक्षा कर सकते हैं किन्तु यह भी ध्यान रखना चागि निशा. दा. :: मासान पनि अवसर निकल जाये जो भेट और दण्ड का ही प्रयोग करना चाहिए । मनुष्य लोक में धन, शरीर, बल, आयु, ऐश्वर्य चिरकात तक नहीं ठहरते हैं, किन्तु यदि कोई पुरुष सत्कर्म करके यश कमा सके तो वह अवश्य ही स्थायी होगा, अतः यश के लिए प्रयत्न करना चाहिए ! चारों उपायों का अवसर न होने पर भेद तथा दण्डनीति का प्रयोग राजा के वश और तेज को बढ़ाने के साथ आर्थिक विकास में ही माधक होना है । इस प्रकार का प्रस्ताव हृदयाकर्षक होता है और प्रस्ताव रखने पर राजा प्रसन्न होता है |
दण्ड - अप्राप्त की प्राप्ति तथा प्राप्त के संरक्षण के लिए दण्ड का प्रयोग करना चाहिए। शत्रु पक्ष के विषय में कृत्याकृत्य का विचार कर जब साम, भेद, आदि व्याज्य हा जांच तो शत्रु दण्डनीय होता है । स्वर्ग उन्नत पद पर नियुक्त किन्तु अन्न निर्दय तथा पापमार्ग में प्रवृत्त अपने प्रिय लोगों को भी राजा उसी प्रकार फैंक देता है, जिम प्रकार लोग बढ़े हुए नखों को काटकर फेंक देते हैं । कठोर अश्वत्रा निर्दय मित्र को भी राजा दण्ड देने में नहीं चूकता हैं। इस प्रकार स.म से विपरीत दूरी स्थिति दण्ड की है। किसी कार्य के विषय में कहना और चीज है और कर्तव्य का ज्ञान और चीज है। हल चलाने की योग्यता रखने वाला चैन पवारों का काम नहीं दे सकता । कृत्य का निरूपण न करने वालो और खीर की तरह मनोहर बागों के प्रति कोई आकृष्ट नहीं होता । फल (निष्पत्ति) बोज (कारण) के पद (शब्द) पर स्थित हैं और बातें तो मब वृथा वाणो का आडम्बर है । पराई बढ़ती पर डाह करने वाले, व्यर्थ शत्रुता रखने वाले राजा के साथ साम का व्यवहार नहीं होता। उससे प्रियवचन कहे जायेगे तो वह और क्रूरता का व्यवहार करेगा। दुर्जन की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वह अनुकुल नहीं किया जा सकता । योग्य पुरुष के प्रतिप्रयुक्त होने पर ही अच्छा उपाय सफल होता है, अन्यथा नहीं। वज़ से तोड़ने लायक पहाड़ पर राँको कुरा काम नहीं कर सकती । मदान्ध और पराया अपमान करने के लिये तैयार पुरुष के प्रति दण्ड का प्रयोग करना ही बुद्धिमानों की सलाह है । जो नया नहीं है, यह बैल महज ही वश में नहीं होता
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जब तक शत्रु आक्रमण नहीं करता तब तक स्वार्ग के समान पारी रहता है, वही जब शत्रुओं मे तोला जाता है तब वह तत्क्षण तृण के समान हलका हो जाता हैं । क्षमा असंदिग्ध रूप से कल्याण का कारण कही गयी है, किन्तु वह प्रतधारियों के लिए गुण है, राजाओं के लिए नहीं। संमार के अनुयायी और मुक्ति की कामना करने वालों में बड़ा अन्तर है । चन्द्रमा की किरणों को सभी चाहते है किन्तु सुर्य की और आँख उठाकर भी नहीं देख सकते । यह सब तेज की महिमा है । दूमरे के मन के मार्ग पर चलने वाले निल्न पीड़ित होन पुमा के लौतन को शिकार हैं पूंजर आदि इलाकर ललित अनुनय विनय करके तो कुत्ता भी अपने पेट पाल लेता है। अपने उचित महत्त्व को छोड़कर जो दुष्ट पुरुष से प्रिय वचन कहता है वह जलशून्य बादल की तरह गरजकर अपनी असारता प्रकट करता है। चाहे जन्म के पहले ही मर जाय या विनष्ट हो जाय, किन्तु पराधीन होकर रहना अच्छा नहीं है । मान के विनाश को कोई नहीं सह मकता।स्वाभाविक तेज से रहित पुरुष को बलपूर्वक बैंल की तरह पकड़कर सभी पुरुष चालाते हैं, अत: महापुरुष सिंह के आचरण को पमन्द करते हैं। प्रबल हिस्सेदारों से लड़ने के कारण जन्म शत्रु की शक्ति क्षीण हो गई हो और उसके मित्र मंकट में पड़े हुए हो, उस समय उस पर चढ़ाई कर देना चाहिए। शत्रु के स्थान पर चढ़कर ही भाग्नशाली पुरुष ही सम्पत्ति पाने में सफल होता है । लोहा आग से नरम होता है, और जल से नरम बनाता है, इसी तरह दुर्जन भी शत्रुओं से पीड़ित होकर ही नम्रता को धारण करता है अन्यथा नहीं । शत्रु के पास आदि आवश्यक सामग्री की चोरी करा लेना, उनका बय करना, किसी वस्तु को छिपा देना अथवा नष्ट कर देना शत्रु का वध करना, उसे क्लेश पहुँचाना या उसके धन का अपहरण करना"। दण्ड़ है।
भेद - उपजाप (परम्पर फूट) के द्वारा अपना कार्य सिद्ध करना भेद कहलाता है। शत्रु के द्वारा वश में करणीय मंत्री आदि यदि नहीं फूटते हैं तो शत्रु भेदनीति द्वारा नहीं जीता जा सकता है और यदि मन्त्री आदि में फूट पड़ गई तो शत्रु पराजित ही समझना चाहिए' । सदैव शत्रु का प्रतीकार माम द्वारा नहीं होता है । यदि शत्रु का प्रतीकार साम द्वारा आरम्भ हो जाये तो गुप्तचरों की आवश्यकता है ? अर्थात् तब तो गुप्तचरों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। अत: शत्रु के सनिकट परार्मशदाताओं में भेद डाल देना चाहिए | भेद के शिकार राज्य पर विजय उसी प्रकार आमान होती है, जैसे बन के द्वारा भेदे गथे मणि में आसानी से धागा डाला जा सकता है। | आचार्य सोमदेव के अनुसार अपने सेनानायक तीक्ष्ण व अन्य गुप्तचर तथा दोनों तरफ से वेतन पाने वाले गुप्तचरों द्वारा शत्रु की सेना में परस्पर एक दूसरे के प्रति सन्देह उत्पन्न करना या उनमें फुट डालना भेदनौति
उपायों का सम्यक प्रयोग - जो व्यक्ति नीति में चतुर है. उसे भेदा नहीं जा सकता है. जो पराक्रमी है उसे युद्ध में वश नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार जिसका आशय विकृत है उसके साथ साम (शान्ति) का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।% | जिस प्रकार लौहा तपाने से मरम नहीं होता है, उसी प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट देने से नरम नहीं होता, अत: उसके साथ दण्ड का प्रयोग नहीं किया जा सकता । अनुनय विनय कर पकड़ने योग्य हाथी पर ही दण्ड चल सकता है, सिंह पर नहीं चल सकता" | जो व्यक्ति साम, दान, दण्ड और भेदरूप उपायों का विपरीत प्रयोग करता है, अथवा उपाय आनता नहीं है, वह दुःखी होता है । इसके विपरीत जो इन उपायों को जानता है, यह प्रजा को अनुरक्त का लेता है । आचार्य गुणभद्र के अनुसार समादि उपायों का ठीक
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- 161 ठीक विचारकर यथास्थान प्रयोग करने पर ये समाहता (दाता) के समान इच्छित फल प्रदान करते है अथवा जिस प्रकार यथा स्थान यथा योये हुये धान उत्तम फल देते है उसी प्रकार राजा द्वारा यथा स्थान यथा समय प्रयोग किए हुए सामादि उपाय फल देते हैं207 | सामादि उपायों के साथ शक्ति का प्रयोग करना प्रधान कारण है। जिस प्रकार खोदने से पानी और परस्पर की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार उद्योग से जो उत्तम फल अदृश्य है वह भी प्राप्त करने योग्य हो जाता है |जय की इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा नीति और पराक्रम दोनों वृक्षों को पकड़े रहना चाहिए । इनको छोड़कर फल सिद्धि का दूसरा कारण नहीं है । नीति और पराक्रम में भी नीति श्रेष्ठ है । नीतिहीन का पराक्रम वृथा है । मस्त हाथी को फाड़ डालने वाले सिंह को व्यान भी मार लेता है। नीति के अनुगामी प्रबल शत्रु को भी सहज हो वश में कर लेते हैं । शिकारी लोग मस्त हाथी को भी उपाय से बांध लेते हैं। नीतिमार्गानुगामी पुरुष का काम यदि बिगड़ जाय तो उसमें पुरुष का कोई दोष नहीं है ।वह सब पापकर्म का पराभव है । जो पुरुष नीतिशास्त्र के दिखलाये मार्ग पर नहीं चलता वह कुबुद्धि बालकों की तरह कष्टरूपो जसतो लकड़ी को हाथ से अपनी
और खींचता है। विवेकी पुरुष को शत्रु पर सहसा दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कुछ राजा अभिमानी होने के कारण केवल साम (प्रियवचनों) से ही शान्त हो जाते हैं। अभिमानी मनुष्य दण्ड की धमकी से बिगड़ जाता है,शान्त नहीं होता। आग से आग नहीं बुझती है। दुद्धिमान् पुरुष सिद्धि के लिए शत्रु के प्रति साम का प्रयोग करते हैं । उसके बाद दान और भेद का प्रयोग किया जाता है। दण्ड से पोधा पहुंचाना विवेको पुरुषों का आंतम पाय है । पुरुष को एक प्रिय बात सैकड़ों अपराधों को धो डाल सकती है । वप्रपात करने वाले बादल शीतल जल देने के कारण ही लोगों को प्यारे हैं । दान में धन हानि होती है । दण्ड में बल (सेना) की हानि होती है । मेद में कपटी होने का अयश फैलता है | इस कारण साम से बढ़कर अच्छा उपाय नहीं है।
नीतिमार्ग - नीतिमार्ग के अनुसारण से भोगों की परम्परा चलती है तथा घोर पतन रोका जाता है, अतः शक्तिशाली शत्रुओं के विनाश में समर्थ तथा निर्दोष आचरण को धारण करने वाले राजा को नीति की अवज्ञा नहीं करना चाहिए, क्योंकि नीतिपथ ही विपत्तियों का नाश करता है तथा अभिलषित पदार्थों को सहज ही जुटाता है | नीतियों में मध्यम मार्ग अथवा माध्यस्थ नीति को धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे नीति,शौर्य, घन, कीर्ति सरस्वती तथा लक्ष्मी की अनवरत वृद्धि होती है । कभी मध्यस्थ मित्र की स्थिति नाजुक हो जाती है। मित्रमण्डल के कर्तव्यों की भावना से प्रेरित संघर्षरत दोनों पक्षों का मित्र राजा जव संघर्ष रोकने के लिए मध्यस्थ बनता है तो उसे दोनों के आक्रमण सहने पड़ते हैं तथा कुछ समय दोनों ही उस पर शंका करते
राजा को नीतिज्ञ होना चाहिए। यदि वह सिद्धि की कामना करता है तो उसे बिना विचार किए कार्य नहीं करना चाहिए । यद्यपि यह सत्य है कि अभिमानी पुरुषों को अपना पराभव सहन नहीं हो सकता है, किन्तु बलवान पुरुषों के साथ विरोध करना भी पराभव का कारण हैं | महापुरुषों का आश्रय लेने में कोई हानि नहीं है ! महापुरुषों का आश्रय करने से मलिन पुरुष भी पूज्यता को प्राप्त हो जाते है । पूग्ध पुरुषों की पूजा करने से इसलोक तथा परलोक दोनों ही लोकों में जीवों की उन्नति होती है और पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने से दोनों ही लोकों में पाप बन्य होता है | बलवान से भी अधिक बलवान् है, इसलिए मैं बलवान् ई. ऐसा गर्व नहीं
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करना चाहिए। सेना को रोकने वाला कौन है कहाँ से आया है ? इसकी सेना कितनी है, यह कितना बलवान् है इन सब बातों का बिना विचार किए ही उसकी सेना के सामने नहीं जाना चाहिए। प्राप्त नहीं हुई वस्तु का प्राप्त होना और प्राप्त की हुई वस्तु की रक्षा करना ये दोनों ही कार्य किसी विजिगीषु राजा का आश्रय लिए बिना सुखपूर्वक प्राप्त नहीं हो सकते ! इस संसार में जो समानशक्तिशाली है, उनमें परस्पर जय और पराजय का निर्णय नहीं हो सकता है।
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1. हरिवंशपुराण 11/60 2. वहीं 11/78 3. वही 36/60 4. यही 30/60 5. वही 36/55-57 6. वही 36/55 7. गद्मचिन्तामणि, 8. आदिपुराण 4503 9, वही 35/64 10. वही 44/82 11, उ.पु. 58/65 12. यही 58/102 13. चन्द्रप्रभचरित 12:5 14. नीतिवाक्यामृत 13/1 15. पद्मचरित 39/85 16. वही 66/13 17. वही 39187 18. आदिपुराण 35/25-25 19. वही 35/23 20. वही 35/20 21. नीतिवाक्यमृत 13/2 22. द्विसंधान महाकाव्य 13/15 23. वही 13/36 : 24. वही 18/125
25. वही 5/14 26. आदिपुराण 44/136-137 27, 'वही 34/89 28. नौसिवाक्यामृत 13/4 29, आदिपुराण 43/202 30. नीतिवाक्यामृत
फुटनोट)
31. आदिपुराण 43/202 32. पावरित 66/90 33. वही 6614 34. बही 66/54 35. वही 8/187 36. वही /88 37. नीतिवाक्यमृत 13/5 38, वहो 13/6 39, वहीं 1317 40. वहीं 13.8 4' मही 1279 42. वहो 13/10 43. वही 13/11 44, वही 13/12 45. नीतिवाक्यामृत 13/13 46. वहीं 13/14 47. वही 13/15 48. बही 13/16 49. वहीं 13/17 50. नीतिवाक्यामृत 13/19 51. षही 13/18 53. वहीं 13/20-21 53. वही 13:22 54. वही 13/24 55. वही 13/23 56. यही 27/63 57. बही 27/64 58. वही 31/29 59. वही 15/17 60: वही 13/25 61. नीतिवाक्यामत 14/1
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62. पद्मचरित 8/22
63. वही 7/35, 36 64, वही 8/22
65. गद्यचिन्तामणि लम्भ क्षत्रचुडामणि 11/6 66. आदिपुराण 4/170
67. द्विसंधान महाकाव्य 2/15
68. वही 2/16, 17
69. नीतिवाक्यामृत 14/2
70. वही 14/8
71. वही 14/9-38
72. नीतिवाक्यामृत 10/147
73. वही 17/26
74. यही 29/83
75. वही 14/6
76. वही 14/7
77. वही 14/5
78. नीतिवाक्यामृत 10/130
79. वही 30/97
60. वहीं 14/4
B1. वरांगवचरित 16/60
82. वही 1/47
83. आदिपुराण 32/124
84. वर्धमानचरित 2/43
85. नीतिवाक्यामृत 29/36
86. यही 29137
87. वही 29 / 38
88. वही 29/39
89. वही 29/40
90. चन्द्रप्रमरित 12/3 91. नीतिवाक्यामृत 29/41 92,961 29/42
93. कौटिलीय अर्थशास्त्रम् 7/1
94. पद्मचरित 37/3, 36/8 95. वहीं 37/3
96. वहीं 7/1 कोटिलीय अर्थशास्त्रम्
97. द्विसंधान 11/15
98. चन्द्रप्रभचरित 12/104
99. आदिपुराण 35/24 100. वही 42/194-196
163
101 उत्तरपुराण 68/67-68 102. नीतिवाक्यामृत 10/44 103. वही 29/51
104. नीतिवाक्यामृत 29/53 105. $? 29/65
106. 467 29/66
107. वहो 29/67
108 उत्तरपुराण 68/68 109 नीतिवाक्यामृत 29/45 110. वही 29/52
111. उत्तरपुराण 68/70
112. नीतिवाक्यामृत 29/54 113. वही 29/55
114. उत्तरपुराण 68/69 115. नीतिवाक्यामृत 29147
116. उत्तरपुराण 68/71
117. नीतिवाक्यामृत 29/48
118. वही 29/56
119. वही 29/57
120. वही 29/58
121. वही 29/59
122. वही 29/60
123. आदिपुराण 32/54
124. वही 45/145
125. वही 34/43
126. नीतिवाक्यामृत 29/49
127. वही 29/50
128. वही 29/63
129 नीतिवाक्यामृत 58/55 130. (अ) वरांगचरित 16/70 130. आदिपुराण 44/129-130
131. वही 13/70
132. 3. 46/61
133. वही 35/99
134. वर्धमानचरित 7/27
135, वरांगचरित 16/53-54
136. वही 16/55
137. वही 21/66 138. हरिवंशपुराण 50/29
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139. वही 50/28 140. वही 50/50
141. वही 50/52-54
142. वही 50/55
143. द्विसंधान महाकाव्य 11/17
144. वही 12/47
145. वही 11/18
146. आदिपुराण 35/74
147. वही 35/100
148. वही 35 / 98
149, वर्धमान चरित 7/18
150. वही 7/29
151. वही 7/28
152. वहीं 7/24
153. वही 7/21
154, वही 7/20
155, वही 4/41
156. नीतिवाक्यामृत 30/62
157. नीतिवाक्यामृत 30/57
158. वही 30/58
159. वही 30/25-26
160, वही 29/71 161.
यही 29/32 162. वरांगचरित 16/57
163. वही 21/47
164, वही 16/97
165. वही 21 /66
166. वह 16/54
167. वही 18/1
168. द्विसंधान महाकाव्य 11/25
169 आदिपुराण 35/101 170. नीतिवाक्यामृत 30 / 27 171. नीतिवाक्यामृत 30/28
172. वही 30/33
173, वही 30/29
174. वही 30/30
175, वही 30/31
176, वही 30/32 177. वरांगचरित 16/58
164
178. वही 16/7, 59 179, वही 16/62-64 180. वही 21/66 181.6.54
182 वरांगचरित 21/66 183. वही 16/70, 16/65 184. खरांगचरित 16/71 185, वही 16.74
186. द्विसंधान महाकाव्य 2/25 187. वही 2/24
188 चन्द्रप्रभचरित 12/83-97 189. वही 7/36
190 उत्तरपुराण 68/64-65 191. नीतिवाक्यामृत 29/75 192. उत्तरपुराण 68/64 193. द्विसंधान महाकाव्य 11/26 194 द्विसंधान महाकाव्य 11/19
195. नीतिवाक्यामृत 29/74
196. आदिपुराण 33/12
197. 867 35/102
198, वही 35 / 103
199. वही 8/223
200 उत्तरपुराण 54 /38
201, उत्तरपुराण 62/32
202. वही 68/73-74
203. चन्द्रप्रभचरित 12/72-81 204, द्विसंधान महाकाव्य 17/11
205. बही 16/76
206. वही 11/33 207. वही 11/35
208.481 17/63
209. आदिपुराण 210 वही 28/139
211. वही 17/210
212, वही 28/151
213 वही 28/142
214, वही 32/52 215. आदिपुराण 28/141 216. वही 28/194
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एकादश अध्याय
उपसंहार प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि आज से करीब बारह सौ तेरह सौ वर्ष पूर्व भारत के जैन साहित्य मनीषियों और चिन्तकों ने राजशास्त्र सम्बन्धी अनेक विषयों का यथेष्ट चिन्तन-मनन किया था । इस अध्ययन के फलस्वरूप हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुचते हैं :
राज्य - सातवें से दशौं शताब्दी तक के संस्कृत जैन साहित्य में राज्य के सात अंग स्वामी (राजा),अमात्य, सुहृत, कोश, राष्ट्र, दुर्ग तथा बल (सेना) का प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप में सम्यक् विवेचन उपलब्ध होता है। राज्य का लक्षण देते हुए आचार्य सोमदेव ने कहा है - राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है । सामान्य दृष्टि से विचार किया जाय तो राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म अपने विस्तृत क्षेत्र और अर्थ को लिए हुए है। इसके अन्तर्गत आन्तरिक सुरक्षा वा बाह्यसुरक्षा दोनों के उपाय आते हैं। सोमदेव ने पृथ्वी पालनोचित कर्म से तात्पर्य सनिए, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और वैधीभाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में षाडगुण्य कहा जाता है, बतलाया है। इस प्रकार सोमदेव ने बाह्य सुरक्षा पर अधिक जोर दिया है । हो सकता है सोमदेव के काल में इस प्रकार की परिस्थिति रही हो कि बाहरी आक्रमण के खतरे के कारण आन्तरिक सुरक्षा की अपेक्षा बाह्य सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना पड़ा हो, किन्तु यह निश्चित है कि बाह्य सुरक्षा के साथ साथ आन्तरिक सुरक्षा भी आवश्यक है, यही कारण है कि सोमदेव ने राज्य की उपर्युक्त परिभाषा के साथ साथ वर्ण तथा आश्रम से युक्त तथा धान्य, हिरण्य, पशु, एवं कुप्य (लोहा आदि धातुयें) तथा वृष्टि रुप फल को देने वाली पृथ्वी को भी राज्य कहा है ।सोमदेव के समय तक वर्ण और आश्रम व्यवस्था बद्धमल हो गयी थी । आन्तरिक सुरक्षा के लिए यह आवश्यक था कि लोग वर्ण आश्रम में विभक्त होकर अपने अपने कर्तव्यों का समुचित रूप में पालन करें, इसी से ही शान्ति कायम रह सकती थी । इसे ही कायम रखने हेतु दण्ड व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, गुप्तचरों की नियुक्ति, नगर एवं ग्राम की रक्षा आदि साधन प्रयुक्त किए गए।
राज्य एक बहुत बड़ी साधना है । जिस प्रकार तप में यह ध्यान रखा जाता है कि अप्राप्त इष्ट तत्व की प्राप्ति हो और प्राप्त इष्ट तत्व की रक्षा हो उसी प्रकार राज्यपालन के समय भी अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति (योग) और प्राप्त वस्तु की रक्षा (क्षेम) पर अधिक ध्यान दिया जाता है । योग
और क्षेम के विषय में यदि प्रमाद हुआ तो अध: पतन हो जाता है प्रमाद न होने पर पारी उत्कर्ष होता है। आचार्य गुणभद्र ने सुखतत्त्व को प्रधानता दो । संसार में सारे कार्य सुख के लिए किए जाते हैं । अत: गुणभद्र ने कहा -'राज्यों में राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो । राजा प्रजा को सुख देने में तभी समर्थ हो सकेगा जब उसके पास रक्षा के लिए पर्याप्त सेना तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कोश हो। इसी को ध्यान में रखकर सोमदेव ने देश की परिभाषा दी-"स्वामी को दण्ड (सेना) और कोश की जो वृद्धि दे उसे देश कहते है। ऐसे देश के प्रति किसी भी व्यक्ति का पक्षपात होना स्वाभाविक है अत: कहा गया-समस्त पक्षपातों में देश का पक्षपात महान् है । राज्य और देश के साथ सोमदेव ने जो विषय, मण्डल, जनपद, दारक
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तथा निर्मम की परिभाषायें दी वे महान् अर्थ को अपने अन्दर संजोए हुए हैं। इन परिभाषाओं को राज्य नामक अध्याय में दिया गया है। चूकिं राज्य धर्म, अर्थ और कामरूप फलों को प्रदाता है। अतः नीतिवाक्यामृत के आदि में उसे नमस्कार किया गया है किन्तु धर्म से परम्पर या मोक्ष की उपलब्धि होती है अतः कहा जा सकता है कि राज्य पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष). का साधक है।
राजा की आवश्यकता राजा मर्यादाओं का रक्षक और धर्मों की उत्पत्ति का कारण था। उसका आश्रय लेकर प्रजा सुख से निवास करती थीं। दुष्टों का निग्रह करना और शिष्ट पुरुषों का पालन करना रूप सम जसत्व गुण राजा में निहित था अतः लोक को राजा की आवश्यकता थी ।
राजा की महत्ता विभिन्न दृष्टियों से राजा का अत्यधिक महत्व था । पद्मचरित में राजा की मर्यादा, हरिवंशपुराण में लोकरंजन, छत्रचूड़ामणि में प्रजा वात्सल्य, उत्तर पुरराण में दानवीरता, चन्द्रप्रभूचरित में सर्वदेवमयत्व तथा नीतिवाक्यामृत में धर्मपरायणता एवं कुलीनता रूप गुणों का विशेष वर्णन किया गया है। उसके सत्य से मेघ कृषकों की इच्छानुसार बरसते हैं और वर्ष के आदि मध्य तथा अन्त में बोए जाने वाले सभी धान्य फल प्रदान करते हैं" । राजा के पृथ्वी का पालन करते समय जब सुराज्य होता है जो प्रजा उसे ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त होती है" | गुणवान् राजा देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका उपभोग करता है" । राजा जब न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता हैं और स्नेहपूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित रखता है, तभी उसका भूभृतपना सार्थक होता है या
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राजा में नैतिक गुणों को अनिवार्यता प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में राजा के लिए राजर्षि शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। लोकानुरञ्जन करने के कारण वह राजा तथा ऋषि के अनुकूल आचरण के कारण वह ऋषि था। यही कारण है कि विभिन्न ग्रन्थों में उसे अरिषड्वर्ग विजेता, (काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह का विजेता) कहा गया है। जो राजा इन पर विजय प्राप्त
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नहीं करता है, अपनी आत्मा को नहीं जानने वाला वह राजा कार्य और अकार्य को नहीं जान सकता है ।" । त्रिवर्ग का अविरोध रूप में सेवन करना, मध्यम वृत्ति का आश्रय लेना, कार्य को निश्चित समय पर करना, शत्रुओं का विजेता होना, प्रजापालन, सतत जागृत रहना, नियमपूर्वक कार्य करना, यथापराध दण्ड देना, न्यायपरायणता, सत्संग, प्रत्युपकार, समयानुसार कार्य करना, अनीतिपूर्ण आचरण का परित्याग तथा धार्मिकता आदि गुण राजा में नैतिक गुणों की अनिवार्यता को पुष्ट करते
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सुशिक्षित राजकुमार राजकुमारों को उत्तम शिक्षा दिलाने का पूरा प्रयत्न किया जाता था, ताकि वह आगे राजकार्य पूर्णता से संचालन कर सके। सातवीं से दसवीं सदी के संस्कृत जैन काव्यों में राज्याभिषेक के समय, शिक्षा प्राप्ति के बाद अथवा अन्य विशेष अवसर पर माता-पिता अथवा गुरुजन राजपुत्र को शिक्षा देते हुए पाए जाते हैं जो गुरुजन स्वंय गुणी अर विद्वान होते हैं, उनका पुत्र को उसके ही कल्याण के लिए अपनी बहुज्ञता के अनुकूल उपदेश देना स्वाभाविक है" । प्राय: राजकुमारों को निम्नलिखित उपदेश दिए जाते थे
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(1) शत्रुओं पर नौतिपूर्वक विजय प्राप्त करना । (2) दुष्टों को दण्ड देना। (3) शिष्टों का पालन करना । (4) त्रिवर्ग का अविरोध रुप से सेवन करना । (5) कर्तव्य की भावना से दान देना । (6) सेवकों के प्रति क्षमाभाव रखना । (7) गुणों को ग्रहण करना, दोषों को छोड़ना । (B) यौवन, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, बलवता को मनुष्य का अनर्थकारी मानना । (9) सज्जनों की संगति करना और दुर्जनों से दूर रहना । (10) अहंकार न करना । (11) कुतज्ञ होना। (12) परिवार को वश में रखना । (13) वृद्धजनों की सलाह से कार्य करना । (14) अपनी चित्तवृत्ति को छिपाए रखना।
दोषपूर्णराजा -रविषेण आदिआचार्यों ने राजा के गुणों के साथ उनके दोषों का भी दिग्दर्शन कराया है, जो निम्नलिखित हैं
(1) अत्यन्त क्रूर होना। (2) इन्द्रियों का वशवी होना । (3) सदाचार से विमुख होना । (4) लोभ में आसक्ति। (5) विचारशून्यता । (6) तम्णा (7) मूर्ख मनुष्यों से घिरा होना । (8) पुज्यपुरुषों का तिरस्कार करना । (9) अपनी जर्बदस्ती दिखलना । (10) अपने गुणों तथा दूसरे के दोषों को प्रकट करना । (11) अधिक कर लेना। . (12) अस्थिर प्रकृति का होना । (13) दूसरे के अपमान से मलिन हुई विभूति को धारण करना । (14) कठिनाई से दर्शन होना । (15) पुत्र का कुपुत्र होना। (16) सहायक, मित्र तथा दुर्ग आदि आधारों से रहित होना । (17) निर्दयौ, असहनीय और वैषी होला । . (18) बुरे रोगों से घिरा होता । (19) खोटे मार्ग में चलना।
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168 (20) बिना क्रम के प्रत्येक कार्य में आगे आना । (21) मुर्खता । (22) दुराचार। (23) स्वतन्त्र रहना (मन्त्री आदि से सलाह न लेना) (24) आलस्य । (25) अपनी शक्ति को न जानना । (26) अधार्मिकता। (27) बलात्कारपूर्वक प्रजा से धन ग्रहण ! (28) यथापराध दण्ड न देना | (29) क्षुद् अधिकारी रखना | (30) ब्रह्मघात (शस्त्रहीन शत्रु को हत्या करना) ।
राजा के सहायक - राजा के सहायकों में मन्त्रियों का विशिष्ट स्थान है । जिस प्रकार मन्त्रशाक्त के प्रभाव से बड़े बड़े स सामथ्यहान होकर विकाररहित हो जाते हैं। उसी प्रकार मन्त्रशक्ति के प्रभाव से बड़े बड़े शत्रु सामर्थ्यहीन होकर विकाररहित हो जाते हैं" । राजा मन्त्रियों द्वारा चर्चा किए जाने पर शत्रुओं का सब प्रकार आना जाना आदि जान लेता है और उसके द्वारा उसका आत्मयल सन्निहित रहता है. इस प्रकार वह जगत को जीतने में समर्थ होता है।" | राजा को मन्त्रियों की परीक्षा घर्मोपत्रा, अर्थोपधा, कामोपधा और भोपधा इन चार उपधाओं तथा जाति आदि गुणों से करना चाहिए तथा निम्नलिखित कार्य मन्त्री की सलाह से करना चाहिए।
(1) बिना जाने या प्राप्त किए हुए शत्रु सैन्य वगैरह का जानना या प्राप्त करना। (2) जाने हुए कार्य का निश्चय करना । (3) निश्चित कार्य को दृढ़ करना । (4) किसी कार्य में सन्देह होने पर उसका निवारण करना ।
(5) एकोदेश प्राप्त हुए भूमि आदि पदार्थों का प्राप्त करना अथवा एकोदेश जाने हुए कार्य के शेष भाग को जान लेना।
अमात्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है - जो राजा द्वारा दिया हुआ दान- सम्मान प्राप्त कर अपने कत्तळपालन में उत्साह व आलस्य करने में राजा के साथ सुखी दुःखी होते हैं, उन्हें अमात्य कहते हैं | जिस प्रकार (रथ आदि का) एक पहिया नहीं चल सकता है, उसी प्रकार मन्त्री आदि की सहायता के बिना राज्यशासन नहीं चल सकता है | जिस प्रकार अनि ईंधन युक्त होने पर भी हवा के बिना प्रज्वलित नहीं हो सकती उसी प्रकार मन्त्री के बिना बलिष्ठ व सुयोग्य राजा भी राज्य शासन करने में समर्थ नहीं हो सकता है । मन्त्री के अतिरिक्त अन्य उच्च पदाधिकारियों में पुरोहित, सेनापति, युवराज, दौवारिक, अन्तर्वशिक, प्रशास्ता, समाहर्ता सन्निधाता, प्रदेष्टा, नायक,पौरठ्यावहारिक, काान्तिक, मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष, दण्डपाल, दुर्गपाल, अन्तपाल,आटविक स्थपति,राजश्रेष्ठी, पोठमद, नैमित्तिक,भाण्डागारिक, पौर, महत्तर, गृहपति, ग्राममुख्य लेखवाह, लेखक, भोजक, गोष्ठमहत्तर, पुररक्षक, पालक, धर्मस्थ, आयुधपाल तथा याममहत्तर ये राजा के कायों में सहायता देने वाले प्रधान अधिकारी थे । इनके कार्यों आदि का विवरण सप्रमाण मन्त्रिपरिषद तथा अन्य अधिकारी नामक अध्याय में दिया गया है।
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सहायकों के प्रति राजा के कर्तव्य - जिस प्रकार बिलावों से दूध की रक्षा नहीं हो सकती है उसी प्रकार अधिकारियों से ( राजकोष की) रक्षा नहीं हो सकती है। अत: राजा को सदा उनकी परीक्षा करना चाहिए।
अर्थव्यवस्था - राजाओं की स्थिति तभी तक सुरक्षित रह सकती है, जब तक उसकी आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ हो, अतएव कोष की महत्ता स्वीकार की गई है । कोष हो राजाओं का प्राण है । इस लोक में पर्याप्त सम्पत्ति संकलित करन से धर्म, अर्थ और काम तीनों सम्भव हो सकते हैं । राजा दशरथ के पास इतनी सम्पत्ति थी कि उनकी दानशीलता को याचक नहीं संभाल सके ।वे निर्मल तथा पर्याप्त यशरुपी धन संचय करने के लिए व्यवसायियों से भरे बाजारों,खनिक क्षेत्रों, अरण्यों, समुद्री तीरों पर स्थित पत्तनों, पशुपालकों की स्तियों. दुर्गो तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को बढ़ाते थे29। वादीभसिंह ने दरिद्रता को प्राणों से न छूटा हुआ परण कहा है गयचिन्तामणि में कहा गया है कि मनुष्य को पितृ पितामह के धन का अधिक भरोसा न कर सम्पत्ति अर्जित करने का यत्न करना चाहिए, क्योंकि आय से रहित घन अविनाशी नहीं हो सकता है।7। नीतिवाक्यामृत में इसी की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि पुरुष का पुरुष दास नहीं है, अपितु पुरुष का धन दास है | जो राजा अपने राज्य में धनसंग्रह नहीं करता है और अधिक धन व्यय करता है, उसके यहाँ सदाकाल रहता है, क्योंकि निथ स्वर्ण का व्यय होने पर मेरू भी नष्ट हो जाता है । अत: अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना आवश्यक है । आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत के 21वें समुद्रदेश में कोषवृद्धि के उपायों का प्रतिपादन विशद रूप से किया
लोकरक्षा के लिए किए गए निर्माण कार्य - इन कार्यों में राजनीतिक दृष्टि से दुर्ग रचना, सभा रचना तथा नगर तथा ग्राम निवेशों का विशेष महत्त्व है । दुर्ग राजा और उसको सेना वगैरह के बचाव के उत्तम आश्रयस्थल थे, उन्हें शत्रु द्वारा असंघनीय कहा गया है। दुर्गों में यन्त्र. शस्त्र, जल, जो घोड़े तथा रक्षक भरे रहते थे | बलवान् शत्रु का सामना दुर्गों का आश्रय लेकर किया जासकता था, क्योंकि अपने स्थान पर स्थित खरगोश भी हाथों से बलवान् हो जाता है दुर्गविहीन देश सभी के तिरस्कार का पात्र होता है।हरिवंशपुराण में विभिन्न प्रकार की सभाओं तथा पठचरित में विभिन्न प्रकार सन्निवेशों का कथन उपलब्ध होता है । सभाओं का निर्माण प्रारम्भ में लोकरक्षा के लिए ही किया गया होगा, बाद में ये राजनीति का केन्द्र होने के साथ राजाओं की शान शौकत कास्थान भी बन गई । आदिपुराण के पंचम पर्व से राजसभा की एक झलक प्राप्त होती है, तदनुसार राजसमा में राजा सिंहसान पर बैठता था। अनेक वारांगनायें उस पर चमर ढोरती थीं। मन्त्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा अन्य अधिकारी राजा को घेरकर बैठते थे। राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ सम्भाषण कर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मानकर
और किसी को आदरसहित देखकर सन्तुष्ट होता था गन्र्धवादि कलाओं का जानकार राजा विद्वान पुरुषों को गोष्ठी का बार बार अनुभव करता था तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद् पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे, उसे भी देखता जाता था। इसी बीच सामन्तों द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलाकर बार बार उनका सत्कार करता था तथा अन्य देश के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों (महत्तरों) द्वारा लाई गई भेंट को देखकर उनका भी सम्मान करता था | राजसमा में राजा पन्विवर्ग
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के साथ स्वेच्छानुसार बैठता था मन्त्रियों में से जो सम्यगदृष्टि, व्रतो, गुण और शील से शोपित, मन, वचन, काय से सरल,गुरभक्त, शास्त्रों का वेत्ता, अत्यन्त बुद्धिमान उत्कर्ष श्रावकों (गृहस्थों) के योग्य गुणों से शोभायमान तथा महात्मा होता था, राजा उसकी प्रशंसा कर उसके वचनों को स्वीकार करता था।
सैन्यशक्ति- राज्य की सुरक्षा वगैरह का सारा दायित्व सेना पर था अतः अधिकाधिक संख्या में सैनिक रखने पड़ते थे। एक स्थान पर अक्षौहिणी प्रमाण सेना का उल्लेख हुआ है। अक्षौहिणी सेना के अन्तर्गत इक्कीस हजार साइमन्ता हाली पर सपा नौ ३: तो सौ पन्यास गदानि और पैंसठ हजार छह सौ चौदह घोड़े आते थे।
युद्धस्थल में योद्धाओं की जागरूकता अनुपम होती थी। योद्धा बाप्प को बरसाते थे, आण घोड़े को गिरा देता था, घोड़ा घुड़सवार को गिरा देता था। इस प्रकार योद्धा लोग एक दूसरे को गिराने की परम्परा से खुब साधकर बाण छोड़ते थे । अश्वेसना अपनी वेगशीलता के लिए प्रख्यात रही है । इसकी वेगशीलता का धनञ्जय ने बहुत ही सुन्दर चित्र खोंचा है- 'पूरी की पूरी चंचल वायुसेना का वेग वायु के समान था, चित्त वेग मय था, शरीर चित्तमय था तथा चित्त और शरीर एकमेक हो जाने के कारण वह अश्वारोहियों की प्रेरणा से जलराशि को पार कर गई थी 1 इसी प्रकार गज सेना और रथसेना की कार्यकलापों तथा उनकी शक्तियों का वर्णन यत्र तत्र प्राप्त होता है।
मित्रशक्ति - इस लोक और परलोक में मित्र के समान हित करने वाला कोई दूसरा नहीं है न मित्र से बढ़कर कोई बन्धु है । जो बात गुरु अथवा पाता पिता से नहीं कही जाती है ऐसी गुप्त से गुप्त बात भी मित्र से कही जाती है । मित्र अपने प्राणों की परवाह न करता हुआ कठिन से कठिन कार्य सिद्ध कर देता है। उत्तरपुराण में मणिकेतु इसका दृष्टान्त है, अत: सबको ऐसा मित्र बनाना चाहिए।
नागरिक और ग्राम्य शक्ति - किसी भी राज्य या राजा की मुख्य शक्ति का केन्द्र उसके नगर या ग्रामनिवासी होते हैं। ये जितने अधिक सम्पन्न और गुणों से भरपूर होगें, राष्ट्र उतनी ही समृद्ध और गुणवान होगा । चन्द्रप्रभचरित में इनके जीवन का चित्रण किया गया है तदनुसार पुरनिवासी बुद्धि में तीक्ष्ण होते थे, किन्तु उनके वचन तीक्ष्ण (कठोर) नहीं होते थे । द्विजिहवता (चुगलखोरी), चिन्ता और दरिद्रता का यहाँ (नागरिकों में) नाम ही नहीं होता था |मद, उपसर्ग, (रोग, बाधा) तथा निपात वहीं दिखाई नहीं पड़ता था | परलोक सम्बन्धी कार्यों में लगे हुए नागरिक धर्म के लिए धनोपार्जन और वंश चलाने के लिए कामभोग करते थे। उन्हें धन कमाने
और कामभोग करने का व्यसन नहीं होता था ।सभी लोग राजा की प्रसनता में अपनी प्रसन्नता मानकर महोत्सवादि मनाते थे, गणिकायं नृत्य करती थीं | नगर को शोमा मनुष्यों से, मनुष्यों की शोभाधन से. घन की शोभा भोग से और भोग की शोभा निरन्तरता से होती है। नगर की समृद्धि में अन्य लोगों की अपेक्षा वणिकों (व्यापारियों) तथा तार्किकों (विद्वानों) का अधिक योग रहता है अतःआवश्यक है कि वणिक और तार्किक दोनों ही लोकप्रसिद्ध अविरोधी और व्याभिचार रहित मान (तौल, प्रमाण) से वस्तुओं की तोलें या प्रमाणित करें।
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' तत्कालीन गोधन तथा धान्यसम्पदा को देखकर लोग आनन्दित हो उठते थे । ईख पैलने में यन्त्रों तथा नृत्य करते हुए मयूरों की मधुर ध्वनि के कारण राजा भी गोकुल निवास की प्रशंसा करते थे।
दूतों की भूमिका- दूतों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। राजा लोग अपना अभिप्राय व्यक्त कर दूतों को दूसरे राजाओं के पास भेजा करते थे। कुशाग्रबुद्धि दूत दूसरे राजा की सभा में जाकर अपने स्वामी का अभिणय निपुणतापूर्वक निवेदन करता था, इसीलिए दूत को राजाओं का मुख कहा जाता था। __ चार-प्रचार- गुप्तचर लोकरक्षा के मुख्य अंग थे । गुप्तचरों के द्वारा शत्रु के सब हाल को सब तरह जानकर राजा अपने पराए को जानने की चेष्टा करता था । गुप्तचरों द्वारा ही शत्रु के
आगमन का समाचार प्राप्त होता था । राजा शत्रुओं के मृत्यों को गुप्तचरों के द्वारा दूना वेतन दिलाकर वश में करता था और जाली पत्र भेजकर उसका सामन्तों से बिगाड़ करा देता था।
शक्तिपय - प्रभूशक्ति मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति से युक्त राजा सबको जीतने की शक्ति रखता है । प्रभुशक्ति की सम्पदा से पृथ्वी का पालन करके ही राजा का पृथ्वीपाल नाम सार्थक होता है।
चाङगुण्य - सन्धि, विप्रह, यान, आसन, संत्रय और द्वैधीभाव ये छह गुण कहे गए है। समझदार लोग शत्रुओं के बल की थाह लेकर इन छह बातों में से किसी कत्तयं का निश्चय करते है । ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेहीं हैं।
शत्रुताओं का प्रतीकार - शत्रु अपने मनोरथ की सिद्धिपर्यन्त प्रसन्न करने योग्य होते हैं। अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलसा और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रुकावट रहित होते हैं।
रणविधान - युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व शत्रु राजाओं के यहाँ दूत भेजा जाता था! दूत स्वामी का अभिप्राय निवेदन कर लौर आता था । यदि शत्रु राजा दूत द्वारा कही गई बातों की अवेहलना करता था या उनको टुकराता था तो युद्ध प्रारम्भ हो जाता था | युद्ध करने से पूर्व बड़ों की सलाह ली जाती थी । इसके बाद मन्त्रियों से मन्त्रणा की जाती थी। सोच विचार कर ही कार्य किया जाता था, क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निष्फल हो जाता है । जीत हार के विषय में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को महत्ता दी जाती थी।केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं हैं, क्योंकि निरन्तर कार्य करने वाले पुरुषार्थ किसान का वर्षा के बिना क्या सिद्ध हो सकता है? अर्थात कुछ भी नहीं। एक ही समान पुरुषार्थ करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो जाते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पाते हैं। अच्छी सेना के लिए आवश्यक था कि उस सेना में मलिन भूखा, दीन, प्यासा, कुत्सित वस्त्र धारी और चिन्तातुर व्यक्ति दिखाई न पड़े । सैनिकों के उत्साहवर्धन हेतु स्त्रियां भी साथ में जाया करती थीं । युद्ध प्रारम्भ करने से पूर्व मध्य में और अन्त में बाजे बजाए जाते थे। सबसे पहले यन्त्र आदि के द्वारा कोट को अत्यन्त दुर्गम कर दिया जाता था तथा अनेक प्रकार को विधाओं द्वारा नगर को गहवरों एवं पाशों से युक्त कर दिया जाता था | सच्चे शूरवीर युद्ध में प्राण त्याग करना अच्छा समझते थे पर शत्रु के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं समझते थे।
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युद्ध की यह विधि है कि दोनों पक्षों के खेदखिन्न सथा महा प्यास से पीड़ित मनुष्यों को जल दिया जाता है, भूख से दुःखी मनुष्य को अमृत तुल्य भोजन दिया जाता था । पसीना से युक्त मनुष्यों को आहलाद का कारण गोशीर्ष चन्दन दिया जाता है. पंखें आदि से हवा दी जाती हैं, बर्फ के जल के छीटें दिए जाते हैं तथा इसके अतिरिक्त जो कार्य आवश्यक हो, उसकी पूर्ति समीप में रहने वाले मनुष्य तत्परता के साथ करते हैं । युद्ध की यह विधि जिस प्रकार अपने पक्ष के लोगों के लिए है उसी प्रकार दूसरे पक्ष के लिए भी है । युद्ध में निज और पर का भेद नहीं होता है। ऐसा करने से ही कत्तयं की सिद्धि होती है । जो राजा अतिशय बलिष्ठ शूरवीरों की चेष्टा धारण करने वाले हैं वे भयभीत, ब्राह्मण, मुनि, निहत्थे, स्त्री, बालक, पशु, और दूत पर प्रहार नहीं करते हैं। शरणागत तथा शस्त्र डाल देने वाले पर भी प्रहार नहीं किया जाता था।
न्याय व्यवस्था - दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीतिशास्त्रों में बतलाया गया है । स्नेह, मोह, आसक्ति तथा भय आदि कारणों से राजा ही यदि नीतिमार्ग का उल्लघंन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवत्ति करती है, अत: राजा को चाहिए कि उसका दायां हाथ भी यदि दृष्ट हो तो उसे कार भाचार्य सोपदेस का कहना है कि दूराचार करने वालों को वश में करने के लिए दण्ड को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार टेढ़ी लकड़ी आग लगाने से ही सीधी होती है, उसी प्रकार दुराचारी दण्ड से ही सोधे होते
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सातवों से दशवीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में राजनीति के सभी पक्षों का विशद निरुपण प्राप्त होता है । इस साहित्य के प्रणेताओं द्वारा की गई राजनैतिक व्याख्यायें उनके राजनीति विषयक गहन चिन्तन को अभिव्यक्त करती है, इससे स्पष्ट है कि धर्म के गहनतत्त्वों का गहराई से चिन्सन करने के साथ लोकनीति और राजनीति के विभिन्न पहलुओं को उन्होंने उपेक्षा नहीं की तथा अपने प्रतिभ नक्षुओं द्वारा जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक दोनों रूपों को देखा । इस प्रकार चिन्तन और विश्लेषण के क्षेत्र में उनको अमूल्य देन है, जो प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के मूल्यवान् सन्दर्भो से भली भाँति स्पष्ट हैं।
का फुटनोट) 1. सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 5/4
12. वही 4/117 2. यही 5/5
3. वही 5616 3. क्षत्रचूड़ामणि 11/8
14. वही 5715 4. उत्तरपुराण 52/40
15. आदिपुरण 34/75 5. नीतिवाक्यामृत 19/2
16. जटासिंहनन्दि : वरांगचरित 29/42 6. वही 1016
17. आदिपुराण 47161 7. वही मंगलाचरण
18. वही 18/14 8. पद्मचरित 66/10
19. वही 5/251 9. वही 27/27
20. उत्तरपुराण 59/155 10. आदिपुराण 42/189-203
21. सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 10/23 11. उत्तरपुराण 52/5
|| 22. नौतिवाक्यामृत 18/5
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23. बही 18/३ 24. वही 1814 25. नीतिवाक्यामृत 18/44 26. वहीं 21/4 27. द्वि म. 21/18 28. वही 2/4 29. वही 2/13 30. क्षत्रचूड़ामणि 3/5 31. गधचिन्तामणि द्वितीय लम्भ पृ. 124 32. सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 17/54 33. वही 8/6, वही 8/5 34. वही 21/24 35. आदिपुराण 28/92 ॐ. उत्तरपुराण 54/24 37. 264 38. नीतिवाक्यामृत 20/4 39.आदिपुराण 5/2-3 40. वहीं 517-12 41. वही 5/158-160 42. द्विसंधान महाकाव्य 5/49 43. पावरित 56/11, 12 44. द्विसंधान महाकाव्य 16/51 45. वही 14131 46. उत्तरपुराण 48/142 47. चन्द्रप्रभचरित 1138 48. यही 1/33 49. वाही 1/32 so. वही 2/119 51. वही 3/71-72 $2. चन्द्रप्रभचरित 1/35
53. वही 2/142 54. वहीं 14/46 55. वही 21123, 13/48 56. वीरनन्दी : चन्द्रप्रमचरित 6189 57. वहीं 12/1 58. वाही 12/5 59. वही 12/105 60, वही 14/68 61. वही 12/106 62, वही 7169 63. वही 1213 64. वही 12/104 65. उत्तरपुराण 68/67 66. क्षबूड़ामणि 10/22 : :न्ही 10/18 68. वही 10/23 69. रविषेण: पद्मचरित - अष्टम पर्व - ___ चैत्रेद और सुमाली का युद्ध 70. वही 12/163 71. वही 12/164 '72, वही 12/166 73. वही 102/106-107 74, पाचरित 46/230 75. वही 12/1177 76. रविषेण : परचरित 75/1-4 77. पद्मचरित 66/90 78. वहीं 57/24 79. गुणभद्र : उत्तरपुराण 67/109-111 80. नीतिवाक्यामृत 28/25
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सहायक ग्रन्थों की सूची 1. पदमचरित (प्रथम भाग) मूल लेखक - रविषेण (अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य),
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम आवृत्ति, जुलाई 1958 2. पद्मचरित (द्वितीय भाग) मूललेखक - रविधेग (अनु. पं. पनालाल साहित्याचार्य),
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम आवृत्ति, फरवरी 1959 पदमचरित (तृतीय भाग) मूल लेखक - रविषेण (अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य),
भारतीय ज्ञानपीठ काशो, प्रथम आवृत्ति, नवम्बर 1959 4. वराङ्गगचरित- मूल लेखक - -जटासिंहनन्दि, (अनु. प्रो. खुशालचन्द गोरावाला),
मारतीयवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासो, मथुरा, वीर नि. सं. 2480 हरिवंशपुराण - मूल लेखक - आचार्य जिनसेन (अनु. पं. पन्नालाल, साहित्यचार्य), भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम आवृत्ति, 1962 ई. आदिपुराण ( भाग 1) मूल लेखक - आचार्य जिनसेन (अनु, पं. पन्नालाल साहित्यचार्य)
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1963 ई. 7. आदिपुराण (भाग 2) मूल लेखक - आचार्य जिनसेन (अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य),
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1965 द्विसन्धान महाकाव्य , मूल लेखक - महाकवि धनञ्जय, सम्पादक-खुशालचर गोराबाला, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन सन् 1970 ( प्रथम संस्करण) सम्रचूड़ामणि-वादोभसिंह सूरि (अनु. मोहन लाल शास्त्री) सरल जैन ग्रन्थ भण्डार, लाखा भवन, पुरानी चरहाई, जबलपुर वीर नि. सं. 2480 (द्वि. सं.) गचिन्तामणि - मुल लेखक- यादीभसिंह सूरि (अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य).
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1968, प्रथम संस्करण (1958 ई.) 11, उत्तरपुराण- मूल लेखक- आचार्य गुणभद्र (अनु. पं. पन्नालाल साहित्यचार्य) भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, द्वितीय आवृत्ति 1968 चन्द्रप्रभचरित - वोरनन्दि (सम्पादक पं. दुगाप्रसाद) निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, द्वितीय
संस्करण 1902 ई. 13. वर्धमानचरित - मुल ले. महाकषि असग (अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य).जैन मंस्कृति
संरक्षक संघ सोलापुर, 1974 14. चन्द्रप्रभचरित . वोरनन्दि (अनु. रूपनारायण पाण्डेय, जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय,
चन्दाबाड़ी, गिरगाव बम्बई, 1916 ई. 15. नीतिवाक्यामृत - सोमदेव सूरि (अनु. पं. सुन्दरलाल शास्त्री, श्री महावीर जैन ग्रन्थमाला,
23 दरियागंज, देहली (नवम्बर1950), प्रथमवृत्ति 16. रघुवंशमहाकाव्य- कालिदास (अनु. डॉ. बाबूराम त्रिपाठी) महालक्ष्मी प्रकाशन, आगरा
2 (1970-71) 17. अपराजिपृच्छा
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18. ऋग्वेद (सूरत, 1950)
19.
अर्थवेद (सूरत, 1950)
20
महाभारत शान्तिपर्व - चित्रशला प्रेमा
21. रामायण
22. पाश्वंभ्युदय - जिनसेन (सम्पादक मौ. गौ. कोटारी) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
(प्रथम संस्करण)
23.
गोभट्टसार (कर्मकाण्ड )
24. उपासकाध्ययन - सोमदेव सूरि (अनुवाद. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ) भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 1964 (प्रथम संस्करण)
25. साहित्य दर्पण- विश्वनाथ (अनु. डॉ. सत्यव्रतसिंह), चौखम्भा विद्याभवन चौका वाराणसी, प्रथमावृत्ति 1957
26. मनुस्मृति- मनु (सम्पादक पं. रामतेज शास्त्री) पंडित पुस्तकालय, काशी सं. 2004 27. कौटिलीय अर्थशास्त्र. कौटिल्य (अनु. वाचस्पति गैरोला ) चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी1, प्रथम संस्करण 1962
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175
26. शुक्रनीतिसार जीवननन्द विद्यासागर, कलकत्ता प्रथम सं. 1881 ई.
29. शुक्रनीतिसार (अनु० विनयकुमार सरकार ), इलाहाबाद
30. कामन्दकीय नीतिसार कामन्दक (भाषा टीका- पं. ज्याला प्रसाद मिश्र संवत् 29 शक 1874 प्र. खेमराज श्रीकृष्णदास मालिक वैङ्गकटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई ।
31. याज्ञवल्क्यस्मृति याज्ञवल्क्य (हिन्दी व्याख्या- उमेश चन्द्र पाण्डेय) चौखम्भा प्रकाशन
-
वाराणसी (प्रथम संस्करण- 1967 )
32. वराङ्गणचरित- जटासिंहनन्दि सम्पादक डॉ. ए. एन. उपाध्ये मासिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला. हीरा याग बम्बई प्रथम आवृत्ति 1938
33. मुद्राराक्षस- विशाषदत्त
34. कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन- डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, चौखम्भा विद्याभवन, चौक वाराणसी |
35. महावीर चरित्र असंग (अनु. पं. खूबचन्द शास्त्री) प्र. मूलचन्द किशनदास कापड़िया। दिगम्बर जैन पुस्तकालय, गाँधी चौक, सूरत ( द्वितीययावृत्ति )
36. नीतिवाक्यामृत में राजनीति. डॉ. एम. एल. शर्मा भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण. सितम्बर 1971
37. प्राचीन भारत में राज्य और न्यायपालिका- हरिहरनाथ त्रिपाठी, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड़, जवाहर नगर देहली, प्रथम संस्करण (1965)
38. हिन्दू सभ्यता डा. राधाकुमुद मुकर्जी, राजकमल प्रकाशन, देहली, द्वितीय संस्करण (1958)
39. प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास- विमल चन्द्र पाण्डेय सेण्ट्रल बुक डिपो इलाहाबाद, तृतीय संस्करण (1968)
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________________ 176 40. महाभारत में लोककल्याण की राजकीय योजनायें - डॉ. कामेश्वलाय मित्र, भारतीय , मनीषा प्राच्यविद्या गद्रन्थमाला अमत्मलकराडी 147/293 गौदोलिया वाराणसी प्र.सं.1972 41. वैदिक साहित्य और संस्कृति -बलेदय उपाध्याय, शारदा मन्दिर 29/17 गणेश दीक्षित, वाराणसी, तृतीय संस्करण 1967 42. ऋग्वेद पर एक ऐतिहासिक दृष्टि-महामहोपाध्याय पंडित विश्वेश्च नाथ रेड़, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण (1967) 43. राजनीतिविज्ञान के सिद्धान्त-पुखराज जैन / 44. हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल / हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनातमक परिशीलन-डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली, जिला, मुजफ्फरनगर (बिहार) 1965 ई. धर्मशास्त्र का इतिहास-प्रथम भाग, डा]. पी. वी. काणे (अनु. प्राध्यापक अर्जुन चौबे काश्यप) एम. ए. हिन्दी समित सूचना विभाग, 3. प्र. लखनऊ, प्रथम संस्करण / अद्भुत भारत - ए. एल. बाशम (अनु. चेंकटेशचन्द्र पाण्डेय) शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा -3 (1967 ई.) 48. प्राचीनभारत के अभिलेखों का अध्ययन - डॉ. वासुदेव उपाध्याय 49. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान - डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्रो. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण, सितम्बर 1971 कौटिल्य की शासनपद्धति - भगवानदास केला, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग (तृतीय संस्करण-संवत् 2005 वि.) 51. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत: डॉ. नेपिचन्द्र शास्त्री प्र. गणेशप्रसाद वर्णो ग्रन्थमासा हुमरावबान बसति, अस्सी, वाराणसी। संस्कृत साहित्य का इतिहास - कोथ (प्र. मोतीलाल बनारसीदास. वाराणसी) संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास लेखक वाचस्पति गैरोला, नौखम्पा विद्याभवन काशी. (1960) S4. संस्कृत साहित्य की रूपरेखा चन्द्रशेखर पाण्डेय तथा शान्तिकुमार नानुराम व्यास, साहित्य निकेतन, कानपुर (1964) पत्रिकायें :-. अनेकान्त वर्ष 5, किरण 3, 4 अ. मई 1942 पृ. 148-149 נכם