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में कौटिलीय अर्थशास्त्रम, शुक्रनीतिसार तथा कामन्दकीय नीतिसार का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र
भारतीय राजनीति का प्राचीन स्वरूप स्पाट तथा सर्वप्रथम कौटिल्य अर्थशास्त्र में ध्यान किया गया है । कौटिल्य ने स्वयं अपने अर्थशास्त्र में लगभग अठारह उन्नीस अर्थशास्त्रविद आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनसे विचार ग्रहण कर उन्होंने अपने अद्भुत ग्रन्थ का निर्माण किया । इससे सिद्ध होता है कि अर्थशास्त्र का निर्माण बहुत पहले से होने लगा था। प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने कौटिल्य अर्थशास्त्र की प्रस्तावना में कहा है कि वृहद् हिन्दू जाति के राजनीति विश्यक साहित्य का निर्माण लगभग 650 ई. पूर्व में हो चुका था । इतना होने पर भी वर्तमान उपलक सजनीति प्रधान ग्रन्थों में कौटिल्यका अर्थशास्त्र सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। अर्थशास्त्र के अन्त: साक्ष्य एवं बहिः साक्ष्य दोनों से ही सिद्ध होता है कि इसके रचियता मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु एवं प्रधान मन्त्री कौटिल्य थे और यह ग्रन्थ मर्यकाल में रचा गया । चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल 321 अथवा 323 ई.पूर्व आरम्भ होता है, अत: अर्थशास्त्र का रचनाकाल भी इसी तिथि के समीप मानना न्यायसंगत है।
कौटिल्य ने आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये चार विद्यायें पानी है । उन्होंने आन्वीक्षिकी (सांख्य, योग और लोगट यो (ऋम्मेट गजुर और सावेद) और वार्ता (कृषि, पशुपालन और व्यापार) विद्याओं का मूल दण्डनीति को बतलाया है। शास्त्रविहित उचित रोति से प्रयुक्त दण्ड प्रजा के योग और क्षेम का साधक होता है । विद्या के द्वारा विनीत जो राजा प्रजा के शासन तथा चिन्ता में तत्पर रहता है, वह पृथ्वी का चिरकाल तक निर्बाध शासन करता है। विद्या और विनय का हेतु इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना है । अत: काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, हर्ष के त्याग से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना चाहिए अथवा शास्त्रों में प्रतिपादित कर्तव्यों के सम्यक अनुष्ठान को ही इन्द्रियजय कहते हैं । सारे शास्त्रों का मूल कारण इन्द्रियजय है। शास्त्रनिहित कर्तव्यों के विपरीत आचरण करने वाला इन्द्रियलोलुप राजा सारी पृथ्वी का अधिपति होता हुआ भी शीघ्र नष्ट हो जाता है. इसलिए (राजा) काम, क्रोधादि छह शत्रुओं का सर्वथा परित्याग कर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे, विद्वान पुरुषों की संगति में रहकर बुद्धि का विकास करे , गुप्तचरों एवं स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र के वृत्तान्त अवगत करे. राजकीय नियमों द्वारा अपने अपने धर्म पर दृढ़ बने रहने के लिए प्रजा पर नियन्त्रण रखे, शिक्षा के प्रचार, प्रसार से प्रजा को विनम्र
और शिक्षित बनाए, प्रजाजनों को धन-सम्मान प्रदानकर अपनी लोकप्रियता को बनाए रखे तथा दूसरों का हित करने में उत्सुक रहे । इन्द्रियों को वश में रखता हुआ राजा पराई मत्रो. पराया थन
और हिंसावृत्ति का परित्याग कर दे। वह कुसमय शयन करना, चंचलता, झूठ बोलना. अविनित वृत्ति बनाए रखना, इस प्रकार के आचरणों और इस प्रकार का आचरण करने वाले लोगों को संगति को छोड़ दे तथा अथांचरण और अनर्थकारी व्यवहार का भी परित्याग कर दे । धर्म और अर्थ का जिससे विरोध न हो ऐसे काम का सेवन करे. सर्वथा सुखरहित न हो। धर्म, अर्थ और काम का समान रूप से सेवन करे, क्योंकि इनमें से एक का भी अत्यधिक रूप से सेवन किया गया तो उससे अपने आपको और दूसरे को पीड़ा होगी।
राजा विद्या, बुद्धि, साहस, गुण, दोष, देश, काल और पात्र का विचार करके हो अमात्यों की नियुक्ति करे । स्वदेशोत्पत्र, सत्कुलीन अवगुण शून्य. शिल्पकालाओं का ज्ञाता, विद्वान, बुद्धिमान, स्मरण शक्ति सम्पन्न, चतुर, वा-पटु, प्रगल्भ (दवंग), प्रतिबाद तथा प्रतीकार करने में समर्थ, उत्साही, प्रभावशाली, सहिष्णु, पवित्र, मित्रता के योग्य, दृढ़, स्वामिभक्त, सुशील, समर्थ,