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________________ 23 थे। दीन और अनार्थों को राजा की ओर से दान दिया जाता था | अपने आश्रित सामन्तों और राजाओं को भी समय-समय पर राजा प्रसन्नतासूचक वस्त्रों के जोड़े आदि पुरस्कार यथायोग्य देकर सन्तुष्ट करता था। इस प्रकार जनसाधारण से लेकर राज परिवार तक के समस्त लोगों को राजा खुश रखता था । अपनी इस कप का समय-समय पा से ततित पतिदान भी प्राप्त होता था तथा जब कभी वह दिग्विजय वगैरह के लिए जाता तो गोष्ठमहत्तर (गोपों के मुखिया) आदरपूर्वक दही, दूध आदि सामग्री मार्ग में भेंट करते थे और राजा की प्रसन्नता में वृद्धि होती थी । ___ राजकीय आय का एक बहुत बड़ा साघन कर था" । कर बहुत अधिक न लिया जाता था कोमल लिया जाता था" | सदैव से ही मौलिक कर भूमिकर था जो सामान्य रूप से भाग कहलाता था तथा यह उपज का एक निश्चित अनुपात होता था। ताम्रपत्रों में दान की भूमि को सभी करों से मुक्त करने का वर्णन मिलता हैं । हर्षवर्धन के समय से विभिन्न करों (स्थायो या अस्थायी) के नाम मिलते हैं। भूमिकर नकद या सामान के रूप में दिया जाता था। कुछ अस्थायी कर थे और चुंगो या बेगार के रूप में ग्रहण किये जाते थे । चन्द्रप्रभ चरित में कहा गया है कि राजा को प्रजा अपनी रक्षा के लिए छठा भाग वेतन की तरह देती है । उसे लेता हुआ वह प्रजा के सेवक के समान है। किन्तु मूढ़ मनुष्य अपने को राजा समझकर गर्व करता है।2 । एक स्थान . पर कहा गया है कि पहले कर (हाथ,कर) से सन्न जगह स्पर्श करके फिर समान रति (अथंभोग, अनुराग) प्रदानकर सारो पृथ्वी को राजा अपनी वशवर्तिनी बना लेता है।23 । राजा को अपने अधीन राजाओं से मेंट" (उपायन) के रुप में भी अच्छो आय होतो थो। समस्त दिशाओं (के राजाओं) से कर लेने वाले राजा को दिक्करी कहा जाता था | बीरनन्दि ने राजकुमार और उनके गुणों की अच्छी जानकारी दी है। जैसे फूल ही वृक्ष की परमशोभा है, जवानी ही शरीर का परम श्रृंगार है, शास्त्र हो शास्त्र के ज्ञाता पण्डित का आभरण हैं, वैसे ही सुपुत्र मनुष्य के वंश का अलंकार है। विशेषकर राजाओं के लिए तो उसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। इसी उपयोगिता को ध्यान में रखकर राजकुमार को श्रेष्ठ गुरूओं से विधाओं (चार विधाओं) और उपविद्याओं की शिक्षा दिलायी जाती थी । शास्त्राभ्यास मे शुबुद्धि वाले कुमार जब पिता के पद को संभालते थे तो लोग स्वभावतः उन्हें आदर देते थे । उनके कार्य विवेक से शुन्य नहीं होते थे। खान से निकले हए रत्न के समान अवस्था के छोटे होने पर भी वे राजकुमार उज्जवल किरणों के समान अपनी कलाओं से बढ़ते हुए गुण के कारण सबसे बड़ेहोते थे । खड्गविधा, हाथी और घोड़े पर सवारी करने की विद्या के जानकार लोग सदा उनकी सेवा करते थे। उनकी उपमा हाथी से दी जाती थी । उनसे मदगलित (नष्ट) हो जाता था, हाथी के भी मदगलित होता है- बहता है। राजकुमार उच्चवंश के होते थे वहाथो का वंश (पोठ को हड्डी) भी ऊंची होता है। (शिक्षित) हाथी जिस प्रकार विनीत, उन्नतिशील और शक्ति युक्त होता है उसी प्रकार वे भी विनीत, उन्नतिशाली और शक्तिवान होतेथोहाथी जिस प्रकार अंकुश से वश में किया जाता है, उसी प्रकार राजकुमारों के लिये उनके माता-पिता और गुरुजन हो अंकुश होते थे। विकार को धारण करने वाले रूप और जवानी की सम्पदा के साथ विग्रह (शरीर, युद्ध) रखने पर भी आन्तरिक (क्रोधादि)शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले उनमनस्वी कुमारों के मन को
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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