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________________ ...-.-- - - - - - - --- -- = = = = न्याय पूर्वक पालन की हुई प्रजा (मनोरथों को पूर्ण करने वालो) कामधेनु के यमान मानो गई है:! न्याय दो प्रकार का है 1. दुष्टों का निग्रह करना 2. शिष्ट पुरुषों का पालन करना । एक स्थान पर कहा गया है-धर्म का उल्लघंन न कर धन कमाना, रक्षा करना बढ़ाना और योग्य पात्र में दान देना, इन चार प्रकार की प्रवृत्ति को मज्जनों ने न्याय कहा है नया जन प्रम के अनुसार प्रवृत्ति करना संसार में सबसे उत्तम न्याय माना गया है। अन्यायपूर्वक आचरण करने में राजाओं की वृत्ति का लोय हो जाता है। 2. कुल पाल्नन - कुलाम्नाय की रक्षा करना और जल के योग्य आचरण की रक्षा कार कुलणलन कहलाता है। राजाओं को आपने कुल की मयांदा पालन करने का प्रयज करना चाहिए जिसे अपनो कुल मर्यादा का ज्ञान नहीं है, वह अपने दुरावारों में कुल का दूपित कर सकता है:द्वेष रखने वाला कोई पाखण्डी राजा के सिर पर विपपग रख दे तो उनका नाश हो सकता है । कोई वशीकरण के लिए उसके सिर पर वशीकरण पुष्प रख दे तो यह मृद के समान आचरण करता हुआ दूसरे के वश हो जायेगा । अतः राजा को अन्य मर वालों के शेषाक्षत, आगीवाद और शान्तिवचन आदि को परित्याग कर देना चाहिए. अन्यथा उगडे कल की हानि हो सकता है । 3. मत्यनुपालन :- ग़जाओं को वृद्ध मनुष्यों की मंगतिरूपों मभ्पदा में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर धर्मशास्त्र और जयंशास्त्र के. हा ये 3.दीकिकृत काना नाहि । यदि राजा इसमें विपरीत प्रवृत्ति करेगा तो हित हित का जानकार न होने में वृद्धि भ्रष्ट हो जायेगा। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थों के हित अहित का ज्ञान होना अति कहलाती है। विद्या का नाश करने से उस वृद्धि का पालन होता है । मिथ्याज्ञान को अभिशा कहते हैं और अतत्त्वों में तत्त्वद्धि होना मिथ्याज्ञान कहलाता है। (4) आत्मानुपालन :- इग्य लोक तथा परनोकाम्बन्धी पायों से आत्मा की रक्षा करना आत्मा का पालन करना कहलाता है। राजा की अपनी रक्षा हान पर सबकी रक्षा हो जाती है...। चित्र. शस्त्र आदि अपायों से रक्षा करना तो बुद्धिमान को विसि ही .. मिंक सम्बन्धी अपायों से रक्षा धर्म के द्वारा हो सकती है. क्योंकि धर्म ही समस्त आगियों का प्रतीकार ई. । धर्म हो अपायों में रक्षा करता है. धर्म ही मनचाहा फल देता है अभ हो परलोक में कलााण करने वाला है और धर्म से ही इस लोक में आनन्द प्राप्त होता है । जिम राज्य के लिए पुर तथा सगे भाई भीरता शत्रुता किया करते हैं और जिम जहन में अपाय ( विघ्न बाधायें । हैं, ऐया गज्य त्रुद्धिमान पुरवों को या छोड़ देना चाहिये । मानसिक पेट को बहुलता वाले राज्य में मुग्नुपूर्वक नहीं रहा जा सकता, क्योंकि निराकुलता को ही मुख कहते हैं जिमका अन्न अच्छा नहीं है, जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे इस राञ्च में मुख का लेश भी नहीं है. सब ओर से शंकित रहने वाले पुरुष को इस राज्य में बड़ा भारो दुःख बना रहता है। अत: विद्रान पुरुषों को अपथ्य औषधि के समान राज्य का परित्याग कर देना चाहिए और पक्ष्यभोजन के समान तप ग्रहण करना चाहिए । राजाराज्य के विषय में पहले हो विर का हाकर भोगोषभोग का त्याग कर दे। यदि वह ऐसा करने में असमर्थ हो तो अन्त समय में उसे राज्य के आडम्बर का अवश्य न्याग कर देना चाहिए। यदि काल को जानने वाला निमित जानी अपने जीवन का अन्त बतला दे अथवा अपने आप ही निर्णय हो जाय तो उस समय से शरीरपरित्याग की बुद्धि धारण करे, क्योंक त्याग ही परमधर्म है । त्याग ही परम तप हैं, त्याग से ही इस लोक में कीति और परलोक में ऐश्वर्य को उपलब्धि
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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