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________________ सम्पादकीय भारतीय राजनीति का चिन्तन सदैव नैतिक मूल्य परक और दूसरों को प्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ स्वयं अनुशासन में बद्ध होने का रहा है । यहाँ राजा का कार्य सदैव लोकरञ्जन करता रहा है । उत्तरराम चरितम् में महाकवि भवभूति ने राम के मुख से कहलाया है स्नेहं दया च सौख्य च यदि वा जानकीमपि । आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा । अर्थात् लोक की अगाधना के लिए मुझे स्नेह, स्या, सुख और जानकी को भी छोड़ना पड़े तो मुझे व्यथा नहीं होगी। जैन आगमों में कहा गया है -विणओ मोक्ख मग्गो' अर्थात् विनय मोक्ष का मार्ग है । राजा को भी विनीत होने का उपदेश दिया गया है । वही मनुष्य महान् है, जो जितेन्द्रिय हो । मनुस्मृति में कहा गया है कि राजा को चाहिए कि वह दिन-रात इन्द्रियों पर विजय पाने की चेष्टा करता रहे; क्योंकि जितेन्ट्रिय राजा ही प्रजा को वश में रख सकता है। संसार को समस्त पर्यादायें राजा द्वारा ही सुरक्षित मानी गयी है । राजा धर्मों की उत्पत्ति का कारण है । राजा के बाहुबल की छाया का आश्रय लेकर प्रजा सुख से आत्मध्यान करती है तथा आश्रमवासी विद्वान निराकुल रहते हैं। हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने कहा है कि राजा जन्म को छोड़कर सब बातों में प्रजा का मातापिता है, उसके सुख-दुःख प्रजा के आधीन है । अभिज्ञान शाकुन्तलम् में राजा दुष्यन्त कहता है येन येन वियुज्यन्ते प्रजा स्निग्धेन बन्धुना । स स पापाद् ऋाते तसां दुष्यन्त इति घुष्यताम् ॥६/२३ "प्रजाजन अपने जिस किसी स्नेही बन्धु बान्धव से वियोग को प्राप्त हो जाय । केवल पापकार्य को छोड़ कर दुष्यन्त उनका वही बन्यु बायव है, ऐसी घोषणा करा दी जाय । राजा अध:पतन से होने वाले विनाश से रक्षा करता है, अतः संसार की स्थिति रहती है, ऐसा न होने पर संसार की स्थिति नहीं रह सकती। उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख देती है। आज के मनुष्य के पास सब कुछ साधन होते हुए भी वह सुखी नहीं है क्योंकि जिन्हें हमने सत्ता सौंप रखी है, जनता के उन प्रतिनिधियों का चरित्र उजवल नहीं है । आज राजनीति का अपराधीकरण हो गया है,अत: मनुष्य दुःखी है। प्राचीन राजाओं का स्वरूप ऐसा नहीं था । वादीभसिंह का कहना है कि राजा गर्भ का भार धारण करने के क्लेश से अनभिज्ञ माता, जन्म की करणमात्रता से रहित पिता, सिद्धमातृका के उपदेश के क्लेश से रहित गुरु, उभयलोकों का हित करने में तत्पर बन्धु, निद्रा के उपद्रव से रहित नेत्र, दूसरे शरीर में संचार करने वाले प्राण, समुद्र में न उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष, चिन्ता की अपेक्षा से रहित चिन्तामणि, कुलपरम्परा को आगति के जानकार, सेवकों के प्रेमपात्र व्रज की प्रजा की रक्षा करने वाले, शिक्षा के उद्देश्य से दण्ड देने वाले और शत्रुसमूह को दण्डित करने वाले होते हैं ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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