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________________ 40 केवल छिड़काव करने वाले (वारिक) लोग ही छिड़काव नहीं करते, अपितु बादल भी वर्षाकार राजमार्गों की धूलि को दबा देता था" | वर्धमान चरित के अनुसार प्रायः राजा उत्ताराधिकार के रुप में समस्त गुणों के अदिवतीय पात्रस्वरुप पुत्र को सौपता था, क्योंकि उत्तम पुत्र पिता के अनुकूल चेष्टा से युक्त होता ही है। पुत्र के गुणों में विशेषकर आश्रितों के प्रति प्रेम रचना. विभूति का आश्रय होना समस्त राजाओं की प्रकृति को अपनी तरफ अनुरक्त रखना, प्रजा के अनुरागको मतत बढ़ाना, सेना आटि मूलबल की समुन्नति करना, शत्रुओं का विश्वास न करना आदि प्रमुख हैं । संमार से विरक्त पुरुष भी कुलक्रमागत राज्य नष्ट नहीं होने तथा लोकनिन्दा के भय से अनिच्छुक पुत्र पर राज्यभार रखने का प्रयास करते थे। वर्धमानचरित के द्वितीय सर्ग में नन्दिवर्धन अपने राज्य के अनिच्छुक पुत्र से कहता है- तेरे बिना कुलक्रम से चला आया यह राज्य बिना मालिक के यों ही नष्ट हो जायेगा। यदि गोत्र की सन्तान चलाना इष्ट न होता तो माधुपुरुष भी पुत्र के लिए स्पृहा क्यों करते ? नन्दिवर्धन स्वंय मोचला गया और अपने पुत्र को भी ले गया, अपने कुल का उसने विनाश कर दिया, ऐसा कह कहकर लोग मेरी निन्दा करेंगे । अत: हे पुत्र अभी कुछ दिन तक घर में हो रह । इस प्रकार कहकर पिता ने अपने पुत्र के मस्तक पर मुकुट रख दिया । राज का उत्तराधिकारी - राजा के उत्ताराधिकारी के विषय में राज्यभिषेक के प्रसंग में कहा जा चुका है कि सामान्यतया राज्य का उत्तराधिकारी राजा के ज्येष्ठ पुत्र को बनाया जाता को मिवियस पुत्र की अपेक्षा कनिष्ठ पुत्र अभिवा योग्य हुआ तो उसे राजसिंहासनाभिषिक्त. किया आ, था। गधा स बाहों सालारा होता है कि कुमार सुषेण याप वांग से बड़े थे, किन्तु महाराज धर्मसेन ने मन्त्रियों की सलाह से घरांग का ही राजा बनाया. क्योकि कुमार यरांग अधिक योग्य थे। ऐसे समय राजा को गृहकलह का सामना करना पड़ता था । राजा वरांग को विमात्रा को असूया का शिकार होना पड़ा । राजा धर्मसेन ने वरांग को इसलिए युवराज बनाया. क्योंकि राजकुमार वरांग ने सब विद्याओं और व्यायामों को केवल पढ़ा ही नहीं था, अपितु उनका आचरण करके प्रयोगिक अनुभव भी प्राप्त किया था ३ वह नीतिशास्त्र के समस्त अंगो को जानने वाला तथा समस्त ललित कलाओं और विधिविधानों में पारंगत था । वृदधजनों को सेवा का उसे बड़ा चाय था। उसके मन में संसार का हित करने की कामना थी । वह बुद्धिमान और पुरुषार्थी था ।प्रजा के प्रति उदार था | प्रजा समझती थी कि कुमार वरांग, विनम्र, कार्यकुशल, कृतज्ञ और विद्वान है | महाराज धर्मसेन जब लोगों से कुमार के उदार गुणों की प्रशंसा सुनते थे तो उनका हृदय प्रसन्नता से आप्लावित हो उठता था। ऐसे योग्य पुत्र के कारण वे अपने को कृतकृत्य मानते थे, क्योंकि प्रजाओं को सुखी बनाना उन्हें परम प्रिय था। सोमदेव ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य व्यक्त किया है कि राजपुत्र, भाई. पररानी को छोड़कर अन्य रानी का पुत्र, चाचा, वंश का पुत्र. दौहित्र, आगन्तुक (बाहर से आकर राजा के पास रहने वाला दत्तक पुत्र) इन राज्याधिकारियों में से पहले राजपुत्र को और उनके न रहने पर भाई आदि को यथाक्रम से राजा बनाना चाहिए। अपनी जाति के योग्य गर्भाधान आदि संस्कारों से हीन पुरुष राज्यप्राप्ति व दीक्षाधारण का अधिकारी नहीं है | राजा के मर 'माने पर उसका अंगहीन पुत्र उस समय तक अपने पिता का पद प्राप्त कर सकता है, जब तक कि उसको कोई दूसरी योग्य सन्तान न हो जाय।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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