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आदिपुराण में राजनीति के लिए राजाख्यान" और राजविद्या' शब्दों का प्रयोग हुआ है। उस देश का यह भाग अमुक राजा के आधीन है अथवा यह नगर अमुक राजा का है इत्यादि वर्णन करना जैनशास्त्रों में सजाख्यान कहा गया है | राजविधा का परिज्ञान होने से इस लोक सम्बन्धी पदार्थों में बुद्धि दृढ़ हो जाती है । राजर्षि राजविद्याओं के द्वारा अपने शत्रुओं के समस्त गमनागमन को जान लेता है। राजविद्यायें आन्वीक्षिकी त्रयी, वार्ता और दण्डनीति के भेद से चार प्रकार की होती है । मन्त्रविद्या के द्वारा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) को सिद्धि होती है। यह लक्ष्मी का आकर्षण करने में समर्थ है और इसमें बड़े बड़े फल प्राप्त होते हैं ।
गुणभद्र
जिनसेन द्वितीय और दशरथगुरु के शिष्य गुणभद्राचार्य अपने समय के बहुत बड़े विद्वान हुए हैं। ये उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी और भावलिङ्गी मुनिराज थे। इन्होंने आदिपराण के अन्त में 1620 श्लोक रचकर उसे पूरा किया और उसके बाद उत्तरपुराण की रचना की, जिसका 'परिमाण आठहजार श्लोक प्रमाण है । ये अत्यन्त गुरुभक्त शिष्य थे।
उत्तरपुराण महापुराण का उत्तर भाग है । इसमें अजितनाथ को आदि लेकर 23 तोथैकर 1 चक्रवर्ती, 9 नारायाण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण तथा जोवन्यर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषों के कथानक दिए हुए हैं । इसकी रचना कवि परमेश्वर के गद्यात्मक पुराण के आधार पर हुई होगी।
आत्मानुशासन आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित भर्तहरि के वैराग्यशतक की शैली में लिखा हुआ 272 श्लोकों का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है । यह सरस और सरल रचना हृदय पर तत्काल असर करती
जिनदत्तचरित गुणभद्ररचित नवसर्गात्मक छोटा सा काष्य है । अनुष्टुप् श्लोकों में इसकी रचना हुई है। इसकी कथा बड़ी कौतुकावह है । शब्दविन्यास अल्प होने पर भी कहीं कहीं भाव बहुत गम्भीर है।
आचार्य गुणभद्र के अनुसार राज्यों में राज्य यही है, जो प्रजा को सुख देने वाला हो । उत्तरपुराण से देश के जो विशेषण प्राप्त होते हैं उनमें दुर्ग, बन, खाने, अकृष्टपध्यसस्य ( बिना बोए होने वाली धान्य), त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) में विभक्त प्रजाये, तपस्वियों का अतिक्रमण करने वाले कृषक", स्वच्छ जलाशय", अनाज से परिपूर्ण, सबको तृप्त करने वाले राजा के भण्डार के समान खेत तथा घन घान्यादि से परिपूर्ण पास-पास में बसे हुए ग्राम प्रमुख हैं, । राजा का कर्तव्य है कि वह अनेक उपायों से कोष का वर्धन करते रहें । अर्जुन, रक्षण, वर्धन
और व्यय ये वार धनसंचय के उपाय है। इन उपायों का प्रयोग करते समय राजाअर्थ और धर्मपुरुषार्थ को काम की अपेक्षा अधिक माने । उत्तरपुराण में तीन शक्तियों का भी विवरण प्राप्त होता है। पंचाङ्ग मन्त्र (सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और बाधक कारणों का प्रतीकार) के द्वारा मन्त्र का निर्णय करना मन्त्रशक्ति है । राजा को नित्य आलोचित मन्त्रशक्ति से युक्त होना चाहिए। । शुरवीरता से उत्पन्न हुए उत्साह को उत्साहशक्ति कहते हैं। राजा के पास कोश और दण्ड की जो अधिकता है, उसे प्रभुशक्ति कहते हैं । उपर्युक्त तीन शक्तिरूप सम्पत्ति के द्वारा राजा समस्त शत्रुओं को जीत लेता है, युद्ध शान्त कर देता है तथा अर्थ के द्वारा भोगों का उपभोग करता है।