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________________ प्रजा का पालन करे । जो लोग किमी प्रकार के कुकर्म करें, उनको वह दण्ड दे। निरूपाय व्यक्तियों ज्ञान अथवा किसी भी प्रकार की शिक्षा न प्राप्त करने के कारण आजीविकोपार्जन में असमर्थ दरिंद्र तथा अशरण व्यक्तियों का बह राज्य की ओर से पालन करे, जो शील की मर्यादा को नोड़ें वे राजा के हाथ बड़ा भारी दण्ड पायें । जिनसेल प्रथम जैन परम्परा में जिनसेन नाम के अनेक आचार्य हुये हैं । जिनमेन प्रथम से तात्पर्य हरिवंशपुराण के रचयिता पुन्नार संघ के जैनाचार्य से है। ये महापुराणादि के कता जिनमेन से भिन्न थे। इनके गुरु का नाम कीर्तिपण और दादगुरु का नाम जिनसेन था । महापुराणादि के क.नां जिनमेन के गुरु वीरसेन और दादागुरु आर्यनन्दी थे। पुन्नाट कनाटक का प्राचीन नाम है। इसलिए इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाट संव था । जिनसेन के जन्म स्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवन का कुछ भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण का बहुभाग वर्धमानपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर रचा था और शेष भाग उस शान्तिनाथ मन्दिर के शांतिपूर्ण मन्दिर में रचा जहां दोस्तटिका के लोगों ने एक वृहत्पूजा का आयोजन किया था। उस समय इतर दिशा में इन्द्रायुध, दक्षिण में वृषण के पत्र श्रीवल्लभ तथा पूर्व और पश्चिम में अन्तिनरेश वत्सराज तथा सौरमण्डल (साराष्ट्र) में वीर जयवराह राज्य करते छ । थे उल्लेख बड़े महत्वपूर्ण हैं अंर सभी इतिहास लेखकों ने इनका उपयोग किया है । किन्तु कुछ बातों में उलझन हुई है। एक मत यह है कि यहां पूर्व में अवन्तिराज वत्सराज का और पश्चिम में सौराष्ट्र के नरेश वीर जयवराह का उल्लेख किया गया है। किन्तु दुसरे मतानुसार यहाँ पूर्व में अन्तिराज और पश्चिम में वत्सराज तथा वीर जयवराह का उल्लेख समझना चाहिये । इस बात में मतभेद है कि इन राज्यसीमाओं का मध्यबिन्दु कहा जाने वाला वधमानपुर कौन सा है । डॉ. उपाध्ये के मत से यह वर्धमानपुर काठियावाड् का वर्तमान बढ़वान हैं और वहीं इसी पुन्नाट संघ के हरिवेश ने बृहत्कथाकोष की रचना की थी । किन्तु डॉ.हीरालाल जैन के अनुसार वधमानपुर मध्यभारत के धार जिले का बदनावर होना चाहिए, क्योंकि उसका प्राचीन नाम वर्धमानपुर पाया जाता है, वहाँ प्राचीन जैन मन्दिरों के भग्नावशेष अब भी विद्यमान हैं, वहाँ से दुरिया ( प्राचीन दोस्तटिका) ग्राम समाप है तथा वहां ये उक्त राज्य विभाजन की सीमावे ठीक ठीक इतिहाससंगत सिद्ध होती हैं। हरिवंश पुराण से राजनीतिविषयक अनेक सूचनायें प्राप्त होती हैं । वहाँ पुरोहित सामन्त महापामन्त, प्रतीहारी', द्वारपाल (द्ववास्थः!", युवराज तथा महामन्त्री के नाम पर हैं : पुरोहित के विषय में ज्ञात होता है कि वह राजा को सलाह देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता : जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तो भरत ने सन्देहयुक्त हो बुद्धिमामर पुरोहित में पृछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश में कर लेने पर भी यह दिव्यचक्र रत्न अयोध्या में प्रवेश स्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है । इस पर पुरोहित ने कहा आपके जो महाबलवान् भाई है वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं" | राजा अपने राज्यकाल में ही अपने किंग पत्र को युवराज बनाकर उसका पट्टबन्ध करता था अथवा राज्यकाब मेकारत होने पर एक को राजा और दूसरे को युवराज बनाता था । महत्वपूर्ण युक्तियाँ भी हरिवंश पुराण में प्राप्त होती हैं, जिनमें से अनेकों का राजनीति को दृष्टि से विशेष महत्त्व है । यथर
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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