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________________ प्राचीन काल में अनेक युद्धों का कारण स्त्री रही है । पद्मचरित में वर्णित राम रावण का युद्ध इसका बड़ा उदाहरण है । इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक उदाहरण यहाँ मिलते हैं। राजा शक्रधनु की कन्या जयचन्द्रा का विवाह जब हरिप्रेणा के साथ हुआ तब इस कन्या ने हम लोगों को छोड़कर भूमिंगोचरी पुरुष प्रहण किया है, ऐसा विचारकर कन्या के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर बहुत ही कुद्ध हुये" | बाद में युद्ध हुआ, जिसमें हरिषेण विजयी हुआ । इसी प्रकार कैकेयी ने जब दशरथ के गले में बरमाला डाली तन्त्र अन्य राजाओं के साथ दशरथ का युद्ध हुआ। माम्राज्य विस्तार की अभिलाषा के कारण राजा लोग अनेक युद्ध लड़ा करते थे। लक्ष्मण ने समस्त पृथ्वी को वश में कर नारायण पद प्राप्त किया था" । सागर चक्रवर्ती छन् खंड का अधिपति था तथा समस्त राजा उसकी आज्ञा मानते थे । इस प्रकार साम्राज्य विस्तार की प्रवृत्ति अधिकांश . बलशाली राजाओं में दिखाई देती है । इसके कारण अनिवार्य रूप से युद्ध हुआ करते थे । ___ कभी-कभी स्वाभिमान की रक्षा के लिये भी युद्ध होते थे । चक्ररत्न के अहंकार में चुर जब भरत ने बाहुबलि पर आक्रमण किया तब मैं और भरत एक हो पिता के पुत्र हैं, इस्प म्वाभिमान के कारण उसने भरत के साथ युद्ध किया और दृष्टियुद्ध, पल्लयुद्ध तथा जलयुद्ध में परास्त कर अन्त में विरक्ति के कारण दीक्षा ले ली। जटासिंह नन्दि जटासिंह नन्दि ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति वरांगचरित में अपना कोई परिचयादि नहीं दिया है. केवल इतरवर्ती लेखकों के उल्लेखों के आधार पर विद्वानों ने उनके काल को जानने की चेष्टा की है । जटासिंह नन्दि के समय की पूर्वप्तीमा बतलाना विद्वानों के लिये सहज नहीं है । उत्तरवर्ती सीमा सातवीं शताब्दी तक निर्धारित होती है, क्योंकि आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन ने सिखसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र और शिवकोटि के बाद जटाचार्य का उल्लेख किया है | जटासिंहनन्दि अन्य विषयों के साथ राजनीति के भी अच्छे विद्वान थे, उनके काथ्य में भी राजनीति सम्बन्धी जानकारी यत्र तत्र मिलती है । उदाहरणार्थ राज शासन के विषय में वे कहते हैं - राजा का शासन इतना प्रचण्ड हो कि लोग उसके जनपद या राजधानी में चारों कणों या आश्रमा की गर्भादाओं को लाँघने का साहस न करें । सब धर्मों के अनुयायी अपने-अपने शास्त्रों के अनुसार आचरण करें। बालक, वृद्ध, अज्ञ तथा विद्वान सभी अपने कर्तव्यों का पालन करें। यदि कोई पुरुष मन में भी बुरा करने का विचार लाये या विरुद्ध कार्य करे तो वह उसके राज्य में एक क्षण. भी ठहरने का साहम न करे । बह इतना भयभीत हो जाये कि अपने को इधर-उधर छिपाता किरे ताकि भूख, प्याम की वेदना से उसका पेट, गाल और आँखें धस जॉय तथा दुर्बलता और थकान से उसका पृष्टदण्ड झुक जाय । राजा का शासन इतना अधिक प्रभावमय हो कि शत्रु उसकी आज्ञा का उल्लंघन न करें । उसके सब कार्य अपने पराक्रम के बल पर सफल हो जाये। ममस्त वसुन्धरा की रक्षा करता हुआ वह इन्द्र के समान मालूम दे" । जब कोई शानु उसके सामने मिर उठाये तो वह अपनी उत्साह शक्ति, पराक्रम, धैर्य तथा पौरुष से युक्त हो जाये. किन्तु यही राजा जब सच्चे गुरूओं, मातृत्व के कारण आदरणीय स्त्रियों तथा सञ्चनपुरुषों के सामने पहुंचे तो उसका आचरण सल्ल, सरलता.शान्ति, दया तथा आत्मनिग्रहादि भावों से युक्त हो जाय । सजा विधिपूर्वक
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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