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द्वितीय अध्याय सातवीं से दशवीं शताब्दी तक के प्रमुख जैन राजनैतिक
विचारक और उनका योगदान
रविषेण
आचार्य रविषेण अठारह हजार अनुष्टुप श्लोक प्रमाण पद्मचरित नामक संस्कृत जैन कथा साहित्य के आद्य ग्रंथ के प्रणोता हैं । विक्रम संवत् 734 (667 ई.) में पद्म-चरित की रचना पूर्ण की, ऐसा ग्रन्थ के अन्त में इन्होंने स्वयं लिखा है । पदमचरित का प्रमुख प्रतिपादय रामकथा है, किन्तु प्रसङ्गानुसार राजनीतिक विचार भी प्राप्त होते हैं । उदाहरण के लिए प्रजापालन के ही प्रसा को लें । प्रजापालन करते समय राजा सदाचार की ओर विशेष ध्यान देता था क्योंकि राजा जैसा कार्य करता है, प्रजा भी उसी का अनुसरण करती है । जिस समय प्रजा के प्रतिनिधियों द्वारा राम को ज्ञात हुआ कि चारों ओर यह चर्चा है कि राजा दशरथ के पुत्र सम रावण द्वारा हरण की गई सीता को वापिस ले आए हैं । उस समय उन्हें महान् दुख हुआ और कदाचित प्रजा बुरे मार्ग पर न चलने लगे यह सोचकर उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया । कुल को प्रतिष्ठा पर सजा लोग अधिक ध्यान देते थे। सीता का परित्याग करते समय राम लक्ष्याण से कहते हैं कि हे भाई
चन्द्रमा के समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्तिरूपी मेघ की रेखा से आवृत न हो जाय, इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ । मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यन्त निर्मल एवं उञ्जवल कुल्ल जब तक कलङ्कित नहीं होता है, तब तक शीघ्र हो इसका उपाय करो। जनता के सुख के लिये जो अपने आपको अर्पित कर सकता है, ऐसा मैं निर्दोष एवं शील से सुशोभित सौता को छोड़ सकता हूँ, परन्तु कीर्ति को नष्ट नहीं होने दूंगा । पिता के समान न्यायवत्सल हो-प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना', विचारपूर्वक कार्य करना, दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर वश में करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखलाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तमशील अर्थात् निदोष आचरण से वश में करा. मित्र को सद्भावपूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना' क्षमा से क्रोध को, मृदुता से मान को.आर्जव से माया को और धैर्य से लोम को वश करना राजा का धर्म माना जाता था।
पद्मचरित में अनेक युद्धों का वर्णन है । इन युद्धों के मूल कारण प्रमुखत: चार थे - 1. श्रेष्ठता का प्रदर्शन। 2. कन्या । 3. साम्राज्य विस्तार ।
4. स्वाभिमान की रक्षा । प्राचीन काल में वीरभोग्या वसुन्धरा' का सिद्धान्त प्रचलित था । जो शासन की अवहेलना करते थे या आज्ञा नहीं मानते थे ऐसे राजाओं के विरूद्ध दूसरे राजा जो अपने आप को श्रेष्ठ मानते थे, युद्ध छेड़ दिया करते थे। राजा, माली, वेश्या, वाहन, विमान, कन्या, वस्त्र और आभूषण आदि जो-जो श्रेष्ठ वस्तु (दूसरों के यहाँ) गुप्तचरों से मालूम करता था, उसे शीघ्र ही बलात् अपने यहाँ बुलना लेला था । वह बल, विद्या विभूति आदि में अपने आपको ही श्रेष्ठ मानता था । इन्द्र का आश्रय पाकर जब विद्याधर रामा माली की आज्ञा मन करने लगे तब वह पाई तथा किष्किन्य के पुत्रों के साथ युद्ध करने के लिये विजयादगिरि की ओर चला।