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________________ 129 बलिष्ठ पुरुष के साथ युद्ध करने से शीघ्र नष्ट हो जाता है।2। ओ जार से उत्पन्न हो, जिसके देश का पता मालूम न हो, लोभी, दुष्ट हृदय युक्त, जिससे प्रजा ऊब गई हो, अन्यायौ, कुमार्गगामी, व्यसनी, अमात्य, सामन्त सेनापत्ति अदि जिसके विरूद्ध हो ऐसे शत्रु पर आक्रमण कर देना चाहिए | जज विजिगीषु बुद्धियुद्ध द्वारा जीते जाने में असमर्थ हो तब उसे शस्त्रयुद्ध करना चाहिए" बुद्धिमानों की बुद्धियाँ जिस प्रकार शत्रु के उन्मूलन में समर्थ होती है, उस प्रकार वीरपुरूष द्वारा प्रेषित वाण समर्थ नहीं होते हैं धनुधारियों के बाण निशाना साधकर चलाए जाने पर भी प्रत्यक्ष मान हमारे कम्गे में कनकर हो जाते हैं, बुद्धिमान पुरुष बुद्धिबल से बिना देखे हुए पदार्थ भी भली-भांति सिद्ध कर लेता है | अनुश्रुति है कि माधव के पिता ने दूरवती स्थान में स्थित होने पर भी कामन्दकी (नामक वेश्या) के प्रयोग से अपने पुत्र माधव के लिए मालती प्राप्त कर ली । इस प्रकार कुशल बुद्धि वालों की बुद्धि ही अमोघ अस्त्र है जिस प्रकार या के प्रहार से ताड़ित पहाड़ पुन: उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार विद्वानों की बुद्धि द्वारा जीते हुए शत्रु भी पुनः शत्रुता करने का साहस नहीं करते हैं। | जब युस भूमि में दीपक की प्याला में पतंग की तरह अपना विनाश निश्चित हो तब बिना सोचे विचारे ही युद्ध के लिए प्रयाण कर देना चाहिए।जब मनुष्य दीर्घायु होता है तब भाग्य के बल से निर्बल होने पर भी बलिष्ठ शत्रु को मार डालता है। युद्धकालीन राबकर्तव्य - राजा को प्रतिग्रह के बिना युद्ध में नहीं जाना चाहिए। राजचिन्ह आगे कर पश्चात् राजा से अधिष्ठित प्रधान सैन्यसुसज्जित कर युद्ध के लिए तैयार करना व स्थापित करना प्रतिग्रह है।३ । प्रतिग्रह युक्त बल भले प्रकार युद्ध के लिए उत्साहित होता है । युद्ध के अवसर पर सेना के पीछे दुर्ग व जल सहित पृथ्वी रहने से उसे काफी जीवन सहारा रहता है। क्योंकि नदी में पहले वाले पुरुष को तटवती मनुष्य का दर्शन उसको प्राणरक्षा का साधन होता है । युद्ध के समय सेना को अन्न न मिलने पर भी यदि जल मिल जाय तो वह अपनी प्राणरक्षा कर सकती है । राजा को चाहिए कि वह अपनी शक्ति को न जानकर शत्रु से साथ युद्ध न करे। अपनी शक्ति को न जानकर शत्रु से युद्ध करना शिर से पर्वत तोड़ने के समान है।* | जिस प्रकार बड़े हुए मृणाल तन्तुओं से दिग्गज भी वश में किया जाता है, उसी प्रकार सैन्य द्वारा शक्तिशाली व्यक्ति शत्रु को परास्त कर देता है।" | राजा अकेला अनेकों के साथ युद्धन करे, क्योंकि मदोन्मत्त जहरीला साँप बहुत सी चीटियों द्वारा भक्षण कर लिया जाता है।" | राजा समान शक्ति वाले के साथ युद्ध न करे । समान शक्ति वाले के साथ युद्ध करने पर निश्चित रूप से मरण होता है और विजय में सन्देह रहता है। कच्चे घड़े यदि परस्पर टकराये तो दोनों नष्ट हो जाते हैं । अधिक शक्ति वाले के साथ भी युद्ध नहीं करना चाहिए, क्योंकि बड़ों के साथ युद्ध करना हाथी के साथ युद्ध करने वाले पैदल सैनिक के समान है। संग्राम भूमि से भागने वाले शत्रु जो पकड़ लिए गये हो, उन्हें वस्त्रादि से सम्मानित कर छोड़ देना चाहिए | युद्ध की रीति- युद्ध शास्त्र की शिक्षा के अनुसार युद्ध न कर शत्रु द्वारा किये जाने वाले प्रहारो के अभिप्रायानुसार युद्ध करना चाहिएजब शत्रु व्यसनों अथवा आलस्य में फंसा हो तब सैन्य भेजकर उसके नगर का घेरा डालना चाहिए । सर्वसाधारण के आने जाने योग्य स्थान में सेना का पड़ाव डालने व स्वयं ठहरने से प्राण रक्षा नहीं हो सकती है। अत:अपना पड़ाव ऐसे स्थान पर डालना चाहिए जो मनुष्य की ऊँचाई बराबर ऊँचा हो, जिसमें थोड़े आदमियों का प्रवेश. घूमना तथा निकास हो, जिसके आगे विशाल सभी मण्डप के लिए स्थान हो ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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