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________________ का सम्मानपूर्वक भरणपोषण किया, उस अप्रतिम शासनकारी के सामने मान में उद्धृत शत्रुओं के सिरों को काटकर चढ़ादेंगे और इस प्रकार उनके ऋण मे उऋण हो जायेंगे | अन्य स्वाभिमानी यौनाओं में कुछ ऐसे होते थे जिनको शत्रु राजा अथवा सेना ने कष्ट दिया था तथा अपमान किया था । वे सोचते थे - जो अत्यन्त दयाहीन हैं, न्यायपथ से दूर हैं, हमारे देश का विनाश करके जिन्होंने स्वजनों को लूटा है उनके शरीर को गदाओं से चूर्ण कर युद्ध स्थल में सुखा देंगे । सेना के विविध कर्मचारी - सेना में अनेक प्राकर के कर्मचारी रहते थे, जिनमें हनियों को सजाकर लाने वाले खच्चरियों की जीन कसने वाले, स्त्रियों की पालको ले जाने वाले (कार्यवाह) 15, घोड़ों पर पर्याणक (जीन) बाँधने वाले, दासियों को बुलाने वाले अंगरक्षक, सेना के आगे जाकर निवास की व्यवस्था करने वाले, भोजनशाला में नियुक्त कर्मचारी, गोरक्षक, कंचुकी, बाद का कार्य करने वाले, देश के अधिकारियों के पास सन्देश ले आने वाले,हस्तिपालक,अश्वपालक,गोपालक, उष्ट्रपालक,पुजारी, अभिषेककर्त,आर्थीर्वाददाता और नैमित्तिक नाम प्रमुख है। युद्ध - युद्ध चार प्रकार के होते थे ! (1) दृष्टि युद्ध (2) मल्ल युद्ध (3) जल युद्ध (4 शस्त्र युद्ध । प्रथम तीन युद्ध धर्मयुद्ध कहलाते थे । शस्त्र युद्ध में विभिन्न उपाय प्रयोग में लाये जाते थे। यहां तक कि कूटयुद्ध भी होता था । कूटयुद्ध करने वाले सवारी सहित, प्रताप से उग्न तथा युद्ध में सहसा और शीघ्र आगे जाने वाले होते थे" | शत्रु पर विजय प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार को व्यूह रचना की जाती थी, जिनमें चक्रव्यूह" दण्डव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह, असंहसव्यूह"" तथा मकरव्यूह प्रधान थे । सेनायें राजा से न तो बहुत दूर जाती थी और न स्वछन्दता पूर्वक इधरउधर ही घूमती थी | इस प्रकार उनका अनुशासन कायम रहता था। इस अनुशासन में बलाध्यक्ष का बहुत बड़ा योग रहता था | राजा जिन सुभटों (शूरवीरों) की हाथियों के पैरों की रक्षा के लिए नियुक्त करता था ये अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते थे और हाथियों के चारों ओर विद्यमान रहते थे। ऐसे लोग सिर पर टोप तथा शरीर पर कवच धारण करते थे और हाथ में तलवार उठाये रहते थे। युद्ध के समय लामसास्त्र (चन्द्रप्रभवरित 6/103) तपनास्त्र (चन्द्रप्रभचरित6/104). शरशक्ति, चक्र, कुन्त(चन्द्रप्रभचरित6/101) भुजगास्त्र, गरूडास्त्र, वहास्व, अब्दास्त्र (बारूमास्त्र) अचलास्त्र (पर्वतास्व), कुलिशास्त्र (वज्रास्त्र), उद्यमास्त्र, तन्द्रास्त्र (मोहनास्त्र), पषनास्त्र, पयोधरास्त्र, सिद्धयस्त्र, विघ्नविनायकास्त्र (चन्द्रप्रभचरित6/105), असि (चन्द्रप्रभचरिता। 110), शिलीमुख (चन्द्रप्रभचरित15/125) प्रास (चन्द्रप्रभचरित15/125) अर्धचन्द्र" (बाण), मुद्गर (चन्द्रप्रभचरिता5/127),गदा(चन्द्रप्रमचरित15/128),वभुष्टि, परशु, (चन्द्रप्रभचरिता 125) शंकु (चन्द्रप्रभचरित15/130) आदि शस्त्रों का व्यवहार किया जाता था। सैन्य शक्ति का उपयोग- राजा को अपनी प्रभृतशक्ति का उपयोग शरणागतों की रक्षा के लिए करना चाहिए, निरपराध प्राणियों की हत्या में नहीं करना चाहिए। जो मनुष्य निहत्थे व्यक्ति पर शस्त्रप्रहार करता है अथवा अशास्त्रज्ञसे विवाद करता है वह पंचमहापातकों (स्त्रीवध, बालवध, ब्राह्मणवध, गोवध व स्वामीवध) के कटुकफल भोगता है। जिस प्रकार नौका के बिना केवल मुजाओं से समुद्र पार करने वाला मनुष्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है, उसी प्रकार कमजोर पुरुष
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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