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________________ 2. यौवन, सौन्दर्य, ऐश्वर्य और बलवत्ता को मनुष्य का अनर्थकारी मानना । 3. सज्जनों की संगति करना और दुर्जनों से दूर रहना । 4, अहंकार न करना। 5. लक्ष्मी के स्वरूप को समझकर उसमें आसक्ति न रखना। 6. सद्गुणों का पालन करना । चन्द्रप्रभुचरित से ज्ञात होता है कि संसार की परम्परा बनाए रखने वाली लक्ष्मी से विरक्त वर्तमान राजा राज्य प्राप्त करने वाले कुमार को कहता था कि मेरा चित्त पहले ही संसार से विरक्त है, मैं केवल तुम्हारे अभ्युदय की अपेक्षा करता हुआ राजपद पर स्थित था । अब तुम विपत्तिरहित और शान्तचित्त होकर अपने तेज से शाओं के उदय को मिटाते हुए इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वीमण्डल का पालन करो | जिस आचरण से सारी प्रजा तुम्हारे अभ्युदय से खेदरहित और सुखी हो वहीं आचरण करो, गुप्तचरों के द्वारा भली-भांति देखों" । नीति के ज्ञाता कहते हैं कि प्रजा को प्रसन्न रखना ही वैभव का मुख्य कारण है जो राजा विपत्ति रहित है. उसे ही नित्य सम्पति प्राप्त होती है। जिस राजा का अपना परिवार वशवी है, उसके ऊपर कभी विपत्तियों नहीं आती । परिवार के वशीभूत न होने पर भारी विकास का सामना करना पड़ता हूं।" । परिवार को वश में करने के लिए कृतज्ञता का सहारा लेना चाहिए । कृतघ्न पुरुष में सब गुण होने पर भी छह सब लोगों को विरोधी बना लेता है । कलि दोष अथवा पापाचरण से मुक्त होकर धर्म से विरोध न करते हुए अर्थ और काम को बढ़ाना चाहिए । इस मुक्ति से जो राजा त्रिवर्ग का सेवन करता है, वह इसलोक और परलोक दोनों को अपना बना लेता है। अप्रमादी होकर सदा वृद्धों की सलाह से कार्य करना चाहिए।गुरु की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्र को शोभा या वैभव को प्राप्त करता है । प्रजा को पीड़ा पहुँचाने वाले मृत्यों (कर्मचारियों) को दंड देना तथा प्रजा के अनुकूल कर्मचारियों को सम्मान देना चाहिए । ऐसा करने से वन्दोजन स्तुति करते हैं और कीर्तिसमस्त दिशाओं में व्याप्त हो जाती है | अपनी चित्तवृत्ति को सदा छिपाए रखना चाहिए । काम करने से पहले यह प्रकर न हो कि क्या किया जा रहा है । जो पुरुष अपने मन्त्र (गुप्तवार्ता) को छिपाए रखते हैं और शत्रुओं के मन्त्र को फोड़कर जान लेते हैं वे शत्रुओं के लिए सदा अगम्य रहते हैं। जैसे सूर्य तेज से परिपूर्ण है और सब दिशाओं को व्याप्त किए रहता है तथा पर्वतों का सिर का अलंकार रूप है तथा उसकी किरणें (कर) बाधाहीन होकर पृथ्वी पर पड़तो है वैसे ही तुम भी तेजस्वी बनकर सब दिशाओं को परिपूर्ण कर राजाओं के सिरताज बनो तथा तुम्हारा कर पृथ्वी पर बाधाहीन होकर प्राप्त हो। उपर्युक्त विचारों को दृष्टि में रखते हुए पीरनन्दी के अनुसार राजकुमारों के निम्नलिखित कर्तव्य अवधारित होते हैं - 1. जिस आचरण से प्रजा खेद रहित और सुखी हो, वहीं आचरण करना। 2. परिवार को वशवर्ती करना। 3. कतज्ञहोना । 4. धर्म से विरोध न करते हुए अर्थ और काम को बढ़ाना । 5. पृद्ध जनों की सलाह से कार्य करना । 6. प्रजापोड़कों को दण्ड देना । 7. अपनी चित्तवृत्ति को छिपाए रखना ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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