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________________ चित्त को प्रसन्न रखने के लिए मदिरा पान किया जाता है । रतिसम्बन्धी चतुराई प्राप्त करने के लिए वेश्याओं के साथ समागम किया जाता है, नूतन स्त्री के साथ रतिरस में आदरभाव दूर करने के लिए परस्वी को स्वीकृत किया जाता है, शूरवीरता को बढ़ाने के लिए चोरी की जाती है, क्रीड़ा सम्बन्धी रस की प्राप्ति के लिए चंचलता धारण करना ठीक है, पूज्य पुरुषों का तिरस्कार करना महापवंता है, वन्दनीय मनुष्यों की वन्दना नहीं करना महानुभावता है और तेजस्वी मनुष्यों का तिरस्कार करना महातेजस्वीपन है, ऐसा उपदेश दे अपने अधीन कर लेते हैं। धन के पद ने जिसके विवेक को चाट लिया है, ऐसा प्राणी भी उस प्रकार उपदेश देने वाले अधिक पापी, कुमार्गदर्शी, अहितोपदेशी, कुकृत्यकारी, कहे हए का समर्थन करने वाले. उत्कोच (रिश्वत) से जीवित रहने वाले, दूसरे की पीड़ा से प्रसन्नचित, दूसरे का अभ्युदय देखकर खिन्नचित्त, चुगलखोर और धूर्तमनुष्यों का भारसीखने में निपुण लोगों को अत्यन्त चतुर एवं अत्यन्त स्नेही समझकर अपना शरीर, अपनी स्त्री, अपना धन, अपना आचाय, सब उनके आधीन कर देते है और सम्जनों के समागत रूपी द्वार को बन्द कर देते हैं। इस प्रकार की कुशिक्षा के बल से अपनी चपलता से राजपुत्र प्रायः अविनय को पहले और यौवन को पीछे, आय शीत को पहले और अभिषेक को बाद में, अहंकार को पहले और सिंहासन पर अधिष्ठान को पीछे, कुटिलता को पहले और मुकुट को बाद में प्राप्त करते हैं । अतः ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे विद्वानों की सेवा से प्रशस्त, मनहूसी से रहित, साता साहित, बिलासानानिए डोर जागरण से युज अचल और अनुपम वृत्ति को यथार्थ में प्राप्त करने के लिए सजग हो सके । सौजन्यरूपी सागर से उत्पन्न, प्रत्युपकार की भावना से निरपेक्ष, मनुष्यमात्र के लिए दुर्लभ, पूवोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप सज्जनों के वचनरूपी अमृत के लाभ से व्यक्ति चिरकाल तक सन्तुष्ट और परिपुष्ट होते रहते हैं। राज्य देने के बाद पिता भी पुत्र को उपयोगी शिक्षा देता था। अपने सत्यंघर नामक पुत्र को राज्य देते हुए जीवन्धर कहते हैं - हे पुत्र । तुझे धर्म के साथ स्नेह रखने वाला, प्रजा के साथ अनुराग रखने वाला, मन्त्रियों को प्रसन्न रखने वाला स्थान देने वाला, न्यायपूर्ण अर्थ की खोज करने वाला. निरर्थक कार्य से द्वेष रखने वाला, मन्द मुस्कान पूर्वक बोलने वाला, गुणों से वृद्धजनों की सेवा करने वाला, दुर्जनों को छोड़ने वाला, दूर तक विचार करने वाला, हित-अहित का विवेक रखने वाला, शास्त्रविहित कार्य को करने वाला शक्य कार्य का प्रारम्भ करने वाला, शक्यफल की इच्छा रखने वाला, किए हुए कार्य की देखरेख करने वाला. किए हुए कार्य को स्थिर रखने के व्यसन से युक्त, बीती बात के पश्चाताप के साथ द्रोह करने वाला, प्रमाद से किए हुए कार्य को दूर करने वाला, मन्त्रियों के वचनों को अच्छी तरह से सुनने वाला, दूसरे के अभिप्राय को जाने खाला, परीक्षित व्यक्ति को स्वीकृत करने वाला, परिभव को नहीं सहने वाला, शिक्षा को सहन करने वाला, देह की रक्षा को धारण करने घाला, देश की रक्षा करने वाला, उचित दण्ड की योजना करने वाला. शत्रु समूह के हृदय को भेदने वाला, देश और काल को जानने वाला, चिन्हों से अज्ञेय अभिप्राय को धारण करने वाला, यथाधता को जाननेवाले गुप्तचरों सहित, इन्द्रियों को पराधीनता को दूर करने वाला तथा गुरुभक्ति सहित होना चाहिए । उपर्युक्त विचारों को दृष्टि में रखते हुए वादीभसिंह के अनुसार राजकुमारों के कर्त्तव्य प्रमुख रूप से निम्नलिखित अवधारित होते हैं - 1. सदुपदेशों का भली-भांति अवधारण करना ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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