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________________ 134 से जीता जा सका बुद्धिमान सा अधीमा सोनमिन्दार काही कार्य करता है अथवा कार्यारम्भ नहीं करता है, क्योंकि जल्दी काम करना पशुओं का धर्म है मनुषयों का नहीं । यदि पशु और मनुष्य दोनों अविवेक पूर्वक कार्य करने लगे तो दो सींगों को छोड़कर दोनों में अन्तर ही क्या रह जायेगा ? जब तक शत्रु आक्रमण नहीं करते तब तक मनुष्य स्वर्ण के समान भारी रहता है । वही जब शत्रुओं से तोला जाता है तब तत्क्ष्ण तृण के समान हलका होकर गिर जाता है | जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा नीति और प्रराक्रम रूपी वृक्षों को पकड़े रहना चाहिए । इनको छोड़कर फल सिद्धि का दूसरा कारण नहीं है । अधिक माग्य सम्पति की इच्छा रखने वाले को अपने से छोटे या बराबर वाले के साथ विरोध करना चाहिए, बलवान के साथ नहीं मैं बलवान है यह अहंकार भी सब जगह सुखदायी नहीं होता। बादल को लांघने की कामना करने वाले सिंह का अधिक उछलना ही उसकी मृत्यु का कारण होता है । न्याय और पराक्रम से युक्त व्यक्ति सब जगत को जीत लेता है17 1 पृथ्वी का भोग निश्चित रूप से खङ्ग के बल से किया जाता है, परम्परा की दुहाई देकर नहीं । रोग की तरह उदयकाल में ही जिसकी चिकित्सा कर दी जाती है वह शत्रु अपने वश में रहता है। जो शत्रुओं पर (बिना कारण) अपराध लगाकर आक्रमण करके उन्हें मारना चाहता है, वह स्वयं अन्य के द्वारा अभियुक्त होकर विनष्ट हो आता है । वायु से धौंकी गई अग्नि जैसे औरों को जलाती है, उसी प्रकार स्वयं भी जलती है | संक्षेप में शत्रुविजय के उपायों को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता हैं - 1. उपायज्ञ होना । 2. शत्रु को उपेक्षा न करना । 3. बाह्य और अन्तर्मण्डल को वश में करना । 4. नीति और पराक्रम से युक्त होना। 5. शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना । 6. कोष व सैन्यशक्ति को बढ़ाना । 1. प्रियवादी होना। 8. शत्रु पर विश्वास न करना। 9. अपनी शक्ति का विचार कर अपने से बलवान के साथ विरोध न करना । 10. क्षय आन्तरिक शत्रु (काम क्रोधादि) पर विजय प्राप्त करना । 11. सोच-विचार कर कार्य करना। शत्रु विजय के विषय में वसंगचरित में विस्तृत रूप से विचार किया गया हैं । शत्रु राजा को अब यह विदित होता था कि उसका विरोधी दुर्बल है अथवा समराङ्गण से भाग गया है तो वह प्रायः अश्व, रथगज सेना, देश तथा धन को प्राप्त करने की इच्छा से उस पर आक्रमण कर देता था | ऐसा राजा से युद्ध भी करना पड़ता था । इसके अतिरिक्त दुष्ट, अनिष्टतम सामन्त राजा तथा अटवीश्वरों (वनाधिपतियों) को वश में करना पड़ता था जो नीतिमार्ग का आचरण करते है वे नीतिबल से शत्रुओं को जीत लेते हैं। इसके विपरीत नीतिमार्ग के प्रतिकूल आचरण करने वाले बलवान् पुरुष भी अपने साधारण शत्रुओं के द्वारा जीत लिए जाते है । प्रमाद नहीं करने वाला सर्वशक्ति सम्पन्न को जीत सकता है । जो किसी कार्य में लग जाने पर एक क्षण भी व्यर्थ 'नहीं जाने देता है उसकी अप्रमादी पर भी विजय होती है । शोघ्रकारी को नीतिमान् के आगे झुकना पड़ता है और जिसके पक्ष में मान्य होता है, उसके विरूद्ध नीतिमान् भी सिर पीटता रह जाता है। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व घोषणा करा दी जाती थी कि राजा अपने धन्धुओं सहित शत्रु से युद्ध करने
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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