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________________ 133 हैं। जो राजा दैव और बलप्रयोग से रहित है, उसे शत्रु जीतकर राजधानी के साथ-साथ राज्य को ले लेते हैं 202 । आचार्य सोमदेव के अनुसार (शत्रु विनाश के) उपाय को जानने वाले व्यक्ति के सामने हीन और महान के पाले शत्रु नहीं टहर सकते हैं प्रकार नदीपूर तटवर्ती तृण व वृक्षों को एक साथ उखाड़कर फेंक देता है, उसी प्रकार शत्रुविनाश के उपायों को जानने वाला विजिगोषु भी अनेक सफल उपायों से महाशक्तिशाली व हीनशक्ति युक्त शत्रुओं को परास्त कर देता है। शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाने के सिवाय कोई दूसरा शत्रुसेना को नष्ट करने वाला मन्त्रनहीं हैं । अतः जिस शत्रु पर (राजा) चढ़ाई करे उसके कुटुम्बियों को अवश्य ही अपने पक्ष में मिलाकर शत्रु से युद्ध करने के लिए प्रेरित करे। कोटे से काँटा निकालने को तरह शत्रु द्वारा शत्रु को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिए। जिस तरह बैल से बैल फोड़े जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं, उसी प्रकार शत्रु से शत्रु लड़ाने पर दोनों का अथवा एक का नाश होता हैं। अपराधी शत्रु पर विजय प्राप्त करने में क्षमा या उपेक्षा कारण नहीं, किन्तु विजिगीषु का कोष व सैन्यशक्तिरूप तेज ही कारण है। जिस प्रकार छोटा सा पत्थर शक्तिशाली होने के कारण घड़े को फोड़ने की क्षमता रखता है, उसी प्रकार विजय का इच्छुक सैन्यशक्ति युक्त होने के कारण महान् शत्रु को नष्ट करने की क्षमता रखता है। महापुरुष दूरवर्ती शत्रु से भयभीत होते हैं, परन्तु शत्रु के निकट आ जाने पर अपनी वीरता दिखलाते हैं। जिस तरह कोमल जलप्रवाह विशाल पर्वतों को उखाड़ देता है, उसी प्रकार कोमल राजा भी महाशक्तिशाली शत्रु राजाओं को नष्ट कर देता है। प्रियवादी पुरुष मोर के समान अभिमानी शत्रु रूपी सर्पों को नष्ट कर देता है । शत्रु पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, शत्रु पर विश्वास करना अजाकृपाणीय न्याय के समान घातक 26 | शत्रु के राष्ट्र में प्रविष्ट होने पर अपनी सेना को विशेष परिभ्रमण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे खेदखिन्न सेना शत्रु द्वारा सरलता से जीती जा सकती है 2091 बलिष्ठ शत्रु द्वारा आक्रमण किए जाने पर मनुष्य को या तो अन्यत्र चला जाना चाहिए अथवा उससे सन्धि कर लेना चाहिए, अन्यथा उसके कल्याण का कोई उपाय नहीं है। अपनी शक्ति को बिना सोचे समझे पराक्रम करने से सभी की हानि होती है।" । शत्रु पर आक्रमण करने से ही वह वश में नहीं होता, अपितु युक्ति के प्रयोग द्वारा ही वह वश में किया जा सकता है 12 बलवान की शरण लेकर जो उससे उद्दण्डता का व्यवहार करता है, उसकी तत्काल मृत्यु होती है । जो शत्रु आश्रयहीन है अथवा दुर्बल आश्रय वाला है, उससे युद्ध कर उसका विनाश कर देना चाहिए। यदि कारणवश शत्रु से सन्धि हो जाय तो अपना मार्ग निष्कण्टक बनाने के लिए उसका धन छीन ले या उसे इस तरह शक्तिहीन करे, जिससे वह पुनः सिर न उठा सके । अपने ही कुल का पुरुष राजा का स्वाभाविक (सहज) शत्रु है 21" ( क्योंकि वह ईश्यवश राजा के पतन की बात सोचता है) । जिसके साथ विरोध उत्पन किया गया है तथा जो स्वयं आकर विरोध करता है, ये दोनों राजा के कृत्रिम शत्रु हैं। दूरवती मित्र और निकटवर्ती शत्रु होता है, यह शत्रु-मित्र का सर्वथा लक्षण नहीं माना जा सकता, क्योंकि कार्यं ही मित्रता और शत्रुता के कारण है, दूरपना और निकटपना कारण नहीं है 218 | दो बलवानों के मध्य घिरा हुआ शत्रु दो सिंहों के मध्य में फैंसे हुए हाथी के समान सरलता से जीता जा सकता 1 219 वीरनन्दि के अनुसार मदादि छह अन्तरंग शत्रुओं पर जो राजा शासन कर लेता है, वह पृथ्वी का शासन करता है 220 | नाश को प्राप्त कराने वाले व्यसनों से युक्त अथवा भाग्यहीन शत्रु सरलता
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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