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________________ 156 का आश्रय लेता है तो उसो प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार नदी में बहने वाला दूसरे बहने वाले का आश्रय करने से नष्ट हो जाता है। स्वाभिमानी व्यक्ति को मर जाना अच्छा है, किन्तु पराइंइयापूर्वक अपने को बेचना अच्छा नहीं है। यदि (राजा का) भविष्य में कल्याण निश्चित हो तो उसे किसी व्यक्ति का आश्रय लेना श्रेयस्कर है। सोमदेव के पूर्ववता आचार्य जिनसेन का कथन है कि यदि सन्धि न की जा सकती हो तो किसी (किले वगैरह) का आश्रय कर लेना चाहिए । ऐसा करने से बड़े शत्रु को भी कोरबा कासा , अपने प्यार ने गाला मुद्र भी बड़ी-बड़ों से बलवान् हो जाता है। सजातीय पुरुष निर्बल होने पर भी किसी बलरान् पुरुष का आश्रय पाकर राजा को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार निर्बल दण्ड कुल्हाड़ी का तीक्ष्ण आश्रय पाकर अपने सजातीय वृक्ष आदि को नष्ट कर देता है। द्वैधीभाव - बलवान् और निर्बल दोनों शत्रुओं द्वारा आक्रमण किए जाने पर बलिष्ठ के साथ सन्धि और निर्बल के साथ युद्ध करना चाहिए' । विजय का इच्छुक जब अपने से बलिष्ठ शत्रु के साथ पहिले मित्रता कर लेता है, फिर कुछ समय बाद शत्रु के होनशक्ति होने पर उसी से युद्ध छेड़ देता है, उसे बुद्धि आश्रित द्वैधीभाव कहते है। जब यह ज्ञात हो जाय कि दो शव परस्पर में युद्ध कर रहे हैं तब द्वैधीभाव-बलिष्ठ से सन्धि और निर्बल से युद्ध करना चाहिए | विजय को इच्छक राजा को अच्छी तरह प्रयोग में लाए हए सन्धि, विग्रह आदि छह गुणों से मिद्धि मिल जातो है।" | आदि पुराण के 44 में पत्र में बाणों को उपमा पागुण्य से दी गई है। जिस प्रकार कुछ देर ठहरते हैं जिस प्रकार राजा लोग अपने स्थान से चल देते हैं, उसी प्रकार वाण भी सन्धि, विग्रह आदि छह गुणों को धारण कर रहे थे । राजा पहले सन्यि करते हैं, उसी प्रकार बाण भी होरी के साथ सन्धि - मेल करते हैं । राजा अपनी परिस्थिति देखकर कुछ समय ठहरे रहते हैं, उसी प्रकार बाण भी पागुण्य को धारक करने वाला राजासिद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार शत्रु को मारने के लिए धनुष से चल पड़ते हैं। जिस प्रकार राजा लोग मध्यस्थ बनकर द्वैधीभाव को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार बाण भी मध्यस्थ हो द्वेधीभात्र को प्राप्त होते हैं अथांत शबु के टुकड़ेटुकड़े कर डालते हैं । अन्त में राजा जैसे शत्रु को वश में कर लेते हैं, उसी प्रकार बाण भी शत्रु को वश में कर लेते हैं। उपाय - वरांगचरित में राजा की प्रयोजन सिद्धि के शान्ति (याम), दान, आश्रय, स्थान, भेद तथा दण्ड (अ) में छह तथा अन्य साम, दाम, दण्ड, भेद ये चार उपाय बतलाए गए हैं। ये उपाय ही पराराष्ट्र नीति के प्रमुख आधार है । जो उपाय कुशल क्षेत्र को बढ़ाता हो वहीं सोचना चाहिए, किन्तु यदि उद्देश्य की सफलता में साधक गति असम्भव हो तब अपने हित तथा उत्कर्म की कामना करने वाले व्यक्ति को हो मार्ग पकड़ना चाहिए, जिस पर चलकर दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने की आशंका न हो जिस प्रयत्न में बुद्धि अग्रसर नहीं होती है, वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता | साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का यथायोग्य स्थानों में नियोग करना कार्यसिद्धि का कारण है और विपरीत नियोग करना पराभव का कारण है। इसी को स्पष्ट रूप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि यदि उपायका योग्य रीति से विनियोग न किया जाय तो अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि दून को कच्चे घड़े में रख दिया जाय तो यह सहज ही दही नहीं बन करता। साम - अपने से प्रबल शत्रु से वैर नहीं करना चाहिए । समान शक्ति पाले से लड़ना भी अत्यधिक बाधापूर्ण है, अत: बुद्धिमत्ता इसी में है कि साम, दाम आदि छह उपायों में मे माम का
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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