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________________ 157 उपाय करके ही अपने कार्य को सिद्ध कर लेना चाहिए । छह उपायों में से भेद तथा दण्ड ये दोनों (प्राणों का नाश), धन का म्यम तथा क्लेशों के मूल हैं और मौत के पद है । सब राजाओं में यदि कोई पारस्परिक भेद है तो वह मान का ही है । जितने भी शुभ तथा उन्नति के अवसर है वे सब आदर, मान बढ़ने के साथ ही प्राप्त होते हैं। यदि कोई सम्मान का लोलुप है तो उसका स्वागत सत्कार करके उमसे बचना चाहिए | सामनीति का अनुसरण कर कार्य सिद्ध करना मरसे सुखकर होता है.", उसका कारण यह है कि इसमें किसी प्रकार के उपद्रव की आशंका नहीं है। जिसमें अपना और दूसरे का समय सुख से व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय मानी जाती है ।जो दैव और काल के बल से मुक्त हो, देव जिसको रक्षा करें यह सोते हुए सिंह के समान होता है।३१ | ऐसे व्यक्ति से युद्ध करना खतरे से खाली नहीं होता है। साप स्वपक्ष और परपाक्ष के लोगों के लिए शान्ति का कारण होता है, अतः साम का हो प्रयोग करना चाहिए जिस प्रकार अपनी सेना में कुशल योद्धा हो, उसी प्रकार प्रतिपक्षी को सेना में भी कुशल योद्धा हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त युद्ध में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु होती है तो जैसे वह शत्रु के लिए दुःखदाई होगी, उसी प्रकार अपने लिए भी दुःखदाई हो सकती है । इस प्रकार सत्र की भलाई के लिए साम ही प्रशंसनीय है, अत: अहंकार छोड़कर साम के लिए दूत भेजना चाहिए'" । साम के द्वारा भी यदि शान मान्द नहीं होता है तो फिर उसके अनुमा कार्य करते हैं। साम के द्वारा मित्र प्राप्ति और शत्रु विनाश होता है । दण्ड के उपयोग से शत्रु हो होते हैं. मित्र नहीं होते हैं । साम के स्थान पर दण्ड और दण्ड के स्थान पर साम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।43 | आदर्श पुरुषों का यह न्यायोचित तथा पालन करने योग्य व्रत है कि जिसे उखाड़ दिया जाए उसको पुनः स्थापना कर दें । तीक्ष्ण प्रकृति वह कार्य नहीं कर पाता, जो कोमल प्रकृति करता है । अग्नि पेड़ की जड़ तक नहीं पहुंच पाती, किन्तु पानो उसे उखाड़कर फेंक देता है । देदा चलने वाला (कुटिल) जब तक अभीष्ट के पाय पहुंचता भी नहीं है. तब तक सीधा चलने स्राला उसके पास पहुंचकर उपभोग भी कर लेता है।45 | जिस प्रकार हाथी के शरीर पर लगाए हुए चमड़े को कोमल करने वालो औषधि कुछ काम नहीं करती है, उसी प्रकार स्वाभाव मे कठोर रहने वाले व्यक्ति के विषय में साम का प्रयोग करना निरर्थक है।* | प्रतापशाली पुरुष के साथ साम का प्रयोग करना एकान्त रूप से शान्ति करने वाला नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रतापशाली मनुष्य स्निग्ध होने पर भी यदि क्रोध से उत्तप्त हो जाये तो उसके साथ शान्ति का प्रयोग करना चिकने किन्तु गरम घी में पानी खोंचने के ममान है । यदि न्यायपूर्ण विरोध करने वाले पुरुष के विषय में पहले कुछ देकर साम का प्रयोग किया जाब और बाद में भेद तथा दण्ड काम में लाए जाय तो साम बाधित हो जाता है। उपाय के जानकारों ने कहा है कि कठोर से कोमल अधिक सुखकर होता है । सूर्य पृथ्वी को तपाता है और चन्द्रमा आहादित करता है । जगत में भी तेज़ निश्चय से मृदुता के साथ हो रहकर हमेशा स्थिर रह सकता है। दीपक स्नेहरहित (तेलरहित) अवस्था के बिना बुझ जाता है। सामने खड़े हुए परिपूर्ण शत्रु का भी मृदुता (कोमलता) से ही भेद हो सकता है। नदियों का वेग प्रतिवर्ष पर्वतों का भेदन करता है । जो शत्रु साम से सिद्ध कर लिया गया वह मौके पर विरुद्ध नहीं हो सकता । जिस अग्नि को पानी डालकर ठंडा कर दिया जाय वह फिर जलने की चेष्टा
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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