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________________ 158 नहीं कर सकती है। । जो मृदुता से शान्त हो सकता है, उसके ऊपर भारी शस्त्र नहीं छोड़ा जाता, जो शत्रु साम से सिद्ध किया जा सकता है, उसके लिए दूसरे उपायों के करने से प्रयोजन नहीं रहता। कुपित शत्रु को शान्त करने के लिए विद्वान लोग पहले साम का ही उपयोग करते हैं कोच में सिर्फ जल निर्मली (फिटकरी के बिना प्रसन्न नहीं हो सकता'साम तीक्ष्ण होने पर भी हृदय में प्रवेश करता है और निरपेक्ष होकर भी उसके प्रयोजन को सिद्ध करता है । राजा साम के सिवाय अन्य अभीष्ट धारण नहीं करते हैं । योग्य स्थान पर यदि साम का प्रयोग न किया जाय तो राज्य के मुख्य पुरुष राजा की मयांदा तोड़ने वाला समझकर शव से मिल जाते हैं । आचार्य सोमदेव के अनुसार कोई राजा शक्तिहीन हो और शत्रु पराक्रमी तथा मैन्य युक्त हो तो उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए । यदि शत्रु ने कुछ हानि की होतो उसके अधिक उसकी हानि करके उससे सन्धि कर लेना चाहिए। जिस प्रकार लगष्ट्रा लाहा गर्म लोहे से नहीं जुड़ता किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं, उसी प्रकार दोनों राजा कुपित होने पर परम्पर सन्धि के सूत्र में बंधते हैं | सामनीति द्वारा सिद्ध होने वाला प्रयोजन युद्ध द्वारा सिद्ध नहीं करना चाहिए । गुड़ अधिक इष्ट होने पर कोई भी व्यक्ति विपक्षण नहीं करता है | सामनीति के भेद - सामनीति के पाँच भेद है। - (1) गुणसंकीर्तन - प्रतिकुल व्यक्ति के गुणों का कथन करना । (2) सम्बन्धीपाख्यान - सम्बन्धबतलाना । (३) परोपकारदर्शन विरुद्ध व्यक्ति की भलाई करना । (4) आयति प्रदर्शन - हम लोगों को मित्रता का परिणाम मुखदायी है, यह प्रकट करना और (5) आत्मोपसन्धान - ओ मेरा धन है, वह आपका है. इसे आप अपने कार्यों में प्रयुक्त करें, इस प्रकार का कथन करना आत्मोपसन्धान हैं। दान - यदि परिस्थिति अपने अनुकूल न हो तो घन. देश. नगर, रत्न हाथो तथा कन्या प्रदान कर सन्धि करना चाहिए, क्योंकि लोग देश, काल कुल अथवा बल की भली- भीत परीक्षा कर ही कार्य करते हैं। यदि साम सम्भव न हो तो दान का आश्रय लेना चाहिए । दान द्वारा प्राप्त की गई सफलता मध्यम कोटि की होती है।es | साम की तरह दान में भी किमी उपद्रव की आशंका नहीं रहती है | शत्रु राजा के साथ जो राजा आदि आयें दे दि अर्थलोलुप हों तो उन्हें साम, दान आदि उपायों द्वारा अपने वश में कर लेना चाहिए।कुछ राजा केवल आश्वासनों या सामनौति से नहीं मानते हैं, क्योंकि वे सम्पत्ति के लोलुप होते हैं । जब तक उन्हें धन नहीं मिलता. वे विरत नहीं होते हैं। शत्रुता का सूत्रपात करने वाली दानहीनता के कारण वे अन्त में कुपित भी हो जाते हैं। अत: दानहीनता को सबसे निकृष्ट वैर माना चाहिए । अत्यधिक प्रतापशाली पुरुष को कड़ देने का विधान करना भी निःसार है, क्योंकि हजार समिधायें देने पर भी प्रचलित अनि शान्त नहीं होती है। । दान को नीतिषाक्यामृत में उपप्रदान कहा है। बहुत घन के संरक्षण के लिए अल्प धन प्रदान करने के द्वारा शत्रु को प्रसन्न करना उपप्रदान है। अल्पव्यय के भय से मूर्ख अपना सर्वनाश करता है। कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा नहीं है जो शुल्क देने के भय से अपना व्यापार छोड़ है । जो शक्तिहीन शक्तिशालो को धन नहीं देता है उसे आगे बहुत सा धन देना पड़ता है और शत्रु को कंटोर आज्ञा में बन्धना पड़ता है। वह कोई व्यय नहीं है, जो प्रयोजन की रक्षा करे। पूरे भरे हुए तालाब की रक्षा का वहाव के सिवाय कोई उपाय नहीं है: शत्रु यदि अलवान् है और इसे धन नहीं दिया गया तो वह प्राणों के साथ धन को ग्रहण कर लेता हो' । अतः शक्तिहीन
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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