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________________ एक राजा दूसरे राजा को दण्डस्वरूप बन्यनगार (कारागृह) में बन्दी रखता था, जिससे छुटकारे का उसके स्वजन प्रयत्न करते थे। यदि कोई व्यक्ति किसी पशु के अंग का छेदन करता था तो राजा उस व्यक्ति को मारने की आज्ञा देने में संकोच नहीं करता था । परस्त्री का अपहरण करने वाले की सजा पाँव काटकर भंयकर शारीरिक दण्ड देने की थी। राजा अपने पुत्र को भी अपराधानुरूप दण्ड दे, क्योंकि राजा किसी का मित्र नहीं होता है, राजा का कर्तव्य है कि प्रजा के गुण व दोषों की तराजू की दण्डी के समान निष्पक्ष भाव से जांच करने के उपरान्त ही उन्हें गुरु अथवा लघु समझे । समस्त प्रयोजनों को एक नजर में देने वाला राजा अपराधियों को अपराधानुकल दण्ड देकर उनके फल का अनुभव कराता है । जो राजा शक्तिशाली होकर अपराधियों को अपराधानुकूल दण्ड न देकर क्षमा धारण करता है, उसका तिस्कार होता है । अपराधियों का निग्रह करने वाले राजा से सभी लोग नाश की आशंका करते हुए सूर्य के समान डरते हैं । राजा को अपनी बुद्धि और पौरुष के गर्व के कारण एकमत रखने वाले उत्तमसमूह को दण्ड नहीं देना चाहिए । एक ही मत रखने वाले सौ या हजार आदमी दण्ड के अयोग्य होते हैं । जो शत्रु, दण्डसाध्य है उसके लिए अन्य उपायों का प्रयोग करना अग्नि में आहुति देने के समान है। जिस प्रकार यन्त्र, शस्त्र, अग्नि, व क्षारांचकित्सा द्वारा नष्ट होने योग्य व्याधि अन्य औषधि द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती. मी मार दण्ड द्वारा माल में करा नोट शत्रु भी अन्य उपाय द्वारा वश में नहीं किया जा सकता है, जिस प्रकार सांप की दाढ़ें निकाल देने पर यह रस्सी के समान शक्तिहीन हो जाता है, उसी प्रकार जिसका धन व सैन्य नष्ट कर दिया गया है. ऐसा शत्रु भी शक्तिहीन हो जाता है | प्रशासन की स्थिति - सातवी से दशवीं शताब्दी के जैन साहित्य में प्रमुख रूप से राजतन्त्रात्मक शासन के दर्शन होते हैं। इस शासन प्रणाली में यद्यपि राजा सर्वोपरि था, किन्तु जन्ता की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वह सदैव सचोष्ट रहता था। उसके राज्य में अन्याय नहीं होता था। राजा की यह भावना रहती थी कि उसके राज्य में गोधनादि सम्पत्ति की वृद्धि तथा सुभिक्ष हो. जनता की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वे सदा ही उत्सव, भोग आदि पना सकें. गुणोजनों की कीर्ति चिरकाल तक पृथ्वी पर विद्यमान रहे तथा समस्त दोषों का नाश हो । राजा स्वयं शत्रुओं को जीतने में समर्थ, जिनधर्म का अनुयायी तथा न्यायमार्ग के अनुसार प्रजा का पालन करने वाला हो" । इस प्रकार की भावना से युक्त राजा के राज्य की शोभा देखते ही बनती थी । छोटी-छोटी ग्वालों की बस्तियों ग्रामों को समानता धारण करती थीं और ग्राम नगर के तुल्य हो जाते थे और नगर का तो कहना ही क्या, वे अपनी सम्पन्नता के कारण इन्द्र की अलकापुरी का भी उपहास करते थे। ऐसे नगर सब प्रकार के उपद्रवों से रहित होते थे, किसो अनुचित भय को वहाँ स्थान न होता था । दोषों में फंसने को वहाँ आशंका नहीं होती थी । वहाँ पर सदा ही दान महोत्सव, मान सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते थे । भोगों को प्रचुर सामग्री वहाँ विद्यमान रहती थी, सम्पति की कोई सीमा नहीं होती थी । इस प्रकार वहाँ के निवासी अपने को कृतार्थ मानते थे। राज्य शासन करने वाले व्यक्ति को बड़े उत्तरदायित्व का पालन करना पड़ता था। अत: कभी-कभी विरक्ति का भी कारण हो जाता था । एक स्थान पर कहा गया है कि राज्य अनेक
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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