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________________ योग्य वृक्ष परदण्डका प्रहार किया जाय तो फलदायक होता है, उसी प्रकार नौच प्रकृति का मनुष्य भी दण्डित किए जाने पर वश में आता है। अधिक दोष वाले व्यक्तियों का विनाश राजा को क्षणपर के लिए दुःखदाई होता है, परन्तु यह उसका उपकार ही समझना चाहिए । (क्योंकि इससे राज्य की श्रीवृद्धि होती है। दण्डनीति का उद्देश्य - प्रजा के योग (नवीन वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की व्यवस्था के लिए दण्डनीति की आवश्यकता पड़ती है और यही उसका उद्देश्य है । दण्डनीति का प्रारम्भिक इतिहास - सर्वप्रथम इस पृथ्वी के विशिष्ट पुरुष (कुलकर) हुए। उनमें से प्रथम पाँच कुलकरों ने अपराधी पुरुषों के लिए हा, उनके आगे के पांच कुलकरों ने हा और मा तथा शेष कुलकरों ने हा, मा और धिक इन तीन प्रकार के दण्डों की व्यवस्था को । यदि कोई स्वजन या परजन कालदोष से मर्यादा का लङ्घन करने की इच्छा करता था तो उसके साथ दोषों के अनुरूप उक्त तीन नीतियों का प्रयोग किया जाता था। तीन नौतियों से नियन्त्राम को प्राप्त समस्त मनुष्य इस भय से त्रस्त रहते थे कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाय और इसी भय से वे दूर रहते थे । इस प्रकार की नीति अपनाने के कारण ये राजा प्रजा के तुल्य माने जाते धै। बाद में प्रजा की मनोवृत्ति बदलने के कारण अपराधों में बढ़ोत्तरी होतीगई,फलतः दण्डविधान भी कठोर बना । भरत चक्रवर्ती के समय लोग अधिक दोष या अपराध करने लगे अत: उन्होंने वध, बन्धन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति चलाई । उनका विचार था कि बड़ा पुत्र भी यदि सदोष (अपराधी) हो तो राजा को उसे भी दण्ड देना चाहिए। दण्ड और उसके भेद - दण्ड का यह नियम है कि न तो अधिक कठोर हो और न अत्यन्त नम्र ।कठोर दण्ड देने वाला राजा अपनी प्रजा को और अधिक उद्विग्न कर देता है । प्रजा ऐसे राजा को छोड़ देती है और प्रकृतिजन भी ऐसे राजा से विरक्त हो जाते हैं। ऐसे अपराध जिनमें प्रजा के नैतिक पतन की अधिक सम्भावना, हो, होने पर अधिक कठोर दण्ड दिया जाता था । घरोहर को छिपाने पर जीभ उखाड़ी जाती थी बहुमूल्य वस्तुओं को चुराने परशुली पर चढ़ाने का दण्ड दिया जाता था । निकट सम्बन्धी की पुत्री से व्यभिचार करने वाले व्यक्ति के अंग काट दिए जाते थंग । यदि कोई रानी किसी नौकर के साथ फंस जाती थी तो उसे मारकर जला दिया जाता था। लोभवश किसी को मार डालने की सजा देश निकाला थी । राजा की घोषणा के बाद भी यदि कोई मेढ़ा आदि पशु मारकर खा लेता था तो उसके हाथ काटकर उसे विष्टा खिलाई जाती थी। जुए में जीते गये धन को यदि कोई व्यक्ति देने में असमर्थ रहता था तो जीतने वाला उसे दुर्गन्धित धुयें के बीच बैठाना आदि दण्ड दे सकता था | परस्त्री सेवन करने वाले व्यक्ति को मार दिया जाता था दूसरे की वस्तु ले जाकर न लौटाने की भी यही सजा थी चोरी का धन लेने की तीन सजाय थीं - (1) मिट्टो की तीन थाली भरकर विष्टा अथवा गोबर खिलाना । (2) मल्लों के मुक्को से पिटवाना। (3) सब धन छीन लेना।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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