SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 146 दुःखों का कारण है, इससे चित्त सदा आकुल रहता है, यह शोक का मूल है, वैरों का निवास है। तथा हजारों क्लेशों का मूल है । अन्त में इसका फल तुमड़ी के सपान तिक्त होता है । बड़े-बड़े राज्यों की धुरा को धारण करने वालों की भी दुर्गति होती है । गद्यचिन्तामणि से ज्ञात होता है कि दुर्बल राजा के होने पर चोर लुटेरों वगैरह का भय हो जाता था । व्याधादि जंगली जातियां समोपवतों ग्रामों वगैरह से गोधनादि सम्पत्ति लेकर भाग जाती थी, अथवा सेना द्वारा मुकाबला करती थीं, पराक्रमी राजा ही इनको दबाने में समर्थ होता था और दु:न्त्री प्रजा ऐसे ही राजा का स्मरण करती थी। प्रशासन की सुष्यवस्था हेतु राजकीय कर्तव्य - राजा को चाहिए कि वह अपने वंश के मन्त्र लोगों के साथ राज्य का विभाग कर उपभोग करे । ऐसा करने पर परिवार वाले उसके शत्रु (सहज शत्रु) नहीं रहेंगे और वह अखण्ड रूप से चिरकाल तक अपनी ग़जलक्ष्मी का उपभोग करेगा । सज्जनों की दृष्टि में लक्ष्मी सर्वसाधारण के योग्य है। राजा के राज्य में कोई मूलहर (भूल पूँजी को खाने वाला), कदर्य (कृपण) और तारात्विक (भविष्यत् का विचार न रख वर्तमान में ही मौज उड़ाने वाला) न हो, किन्तु सभी पदव्यय करने वाले हो | जिसके पुण्य के उदय से वस्तुयें प्रतिदिन बढ़ती रहें उसका तादात्यक (वर्तमान की और दृष्विट रखकर जो कुछ कमाता है. उसे खर्च करना) रहना हो उचित है । राजा को चाहिए कि उसके पार्श्ववती (समीवपतों) लोग घूसखोर न हों । यदि पायवती रिश्ववत खोर हो तो दुमरे याक वेष बदलकर घुमपैट कर सकते हैं। राजा श्रेणिकरे नेक के समीपीगों को जानें गश में कर श्राद्रक नामक व्यापारी बनकर चेटक के घर में प्रवेश कर लिया था। ___ ग्राम्य संगठन - ग्राम में ब्राह्ममण, क्षत्रिय , वैश्य और शूट मधी समान अनुपात में रहना चाहिए । विशेषकर ब्राह्ममणों अथवा क्षत्रियों की अधिकता होना ग्राम के लिए अच्छा नहीं माना जाता है । जिन ग्रामों में क्षत्रिय अधिक होते हैं, वहाँ वे थोड़ी सी बाधा होने पर आपस में लड़ाई झगड़ा करते हैं । ब्राह्माण चूंकि अधिक लोभी होते हैं, अत: राजा के कर वगैरह को प्राण जाने पर भी बिना दण्ड के शान्ति से नहीं देते हैं। ग्रामीण एवं नागरिक शासन पद्धति - आदिपुराण में ग्रामीण शासन पद्धति के दर्शन होते हैं। ग्रामीण पद्धति का अर्थ यह है कि प्रत्येक बड़ा गाँत्र राष्ट्र का अंग समझा जाता था और उसी की सुव्यवथा के समस्त राज्य या राष्ट्र की सुव्यवस्था समझी जातो थी । ग्राम सम्बन्यो शासन के निए राजा निम्न कार्य करता था - (1) गाँव बसाना । (2) उपभोक्ताओं के योग्य नियम बनाता । (3)बेगार लेना। (4) अपराधियों को दण्ड देना। (5) जनता से राजस्त्र या अन्य कर वसूल करना । गांव की आदर्श बनाने के लिए राज्य की ओर से सभी प्रकार की सुव्यवस्थायें प्रचलित थीं । प्रत्येक गाँव का एक मुखिया रहता था, जो गाँव को तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था और उत्पन्न हुई कठिन समस्याओं को दण्ड धर्माधिकारी अथवा अन्य पदाधिकारियों से निवेदन करता था । दण्डाधिकारी के अतिरिक्त शासन व्यवस्था में स्वयं राजा सम्मिलित होता
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy