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________________ 47 असुरवृत्ति नहीं है, वह राजन्वतो ( श्रेष्ठ राजा से युक्त) कही जाती हैं। जिस प्रकार नागार ( चाण्डालगृह) मैं प्रविष्ट हुए हिरण का वध होता है, उसी प्रकार असुरवृत्ति राजा के आश्रय से प्रजा का नाश होता है । राजाओं का एक अन्य वर्गीकरण भी मिलता है 1 शत्रु राजा 2- मित्र राजा और 3- उदामीन राजा । शत्रु और मित्र की अपेक्षा राजाओं के भेद शत्रु और मित्र की अपेक्षा राजा चार प्रकार के होते हैं-- (1) शत्रु (2) मित्र (3) शत्रु का मित्र (4) मित्र का मित्र । अच्छे मित्र से सबकुछ सिद्ध होता है 12 । शत्रु का कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय, वह अन्त में शत्रु ही रहता है। - राजाओं के मित्र - राज्य के सात अंगों में मित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । राजाओं को विजय व पराक्रम बहुत कुछ उसके मित्र राजाओं पर अवलम्बित रहता है। वरुण को पराजित करने के लिए रावण ने विजयार्द्ध पर्वत की दोनो श्रेणियों में निवास करने वाले विद्याधरों को सहायता के लिए बुलाया 14 मित्र और शत्रु राजा की पहचान बड़ी मन्त्रणा और कसौटी के बाद तय की जाती थी। विभीषण जब राम की शरण में आया तब राम ने निकटस्थ मंत्रियों से सलाह की। मतिकान्त नामक मन्त्री ने कहा कि सम्भवतः रावण ने छल से इसे भेजा है, क्योंकि राजाओं की वेष्टा बड़ी विचित्र होती है । परस्पर के विरोध से कलुषता को प्राप्त हुआ कुल जल की तरह फिर से स्वच्छता को प्राप्त हो जाता है। इसके बाद मतिसागर मन्त्री ने कहा कि लोगों के मुँह से सुना है कि इन दोनों भाइयों में विरोध हो गया है। सुना जाता है कि विभीषण धर्म का पक्ष ग्रहण करने वाला है, महानीतिवान् है, शास्त्ररूपी जल से उसका अभिप्राय घुला हुआ है और निरन्तर उपकार करने में तत्पर रहता है. इसमें भाईपना कारण नहीं हैं, किन्तु कर्म के प्रभाव से ही संसार में यह विचित्रता हैं, इसलिए दूत भेजने वाले विभीषण को बुलाया जाय। इसके विषय में योनि सम्बन्धी दृष्टान्त स्पष्ट नहीं होता अर्थात एक योनि से उत्पन्न होने के कारण जिस प्रकार रावण दुष्ट है। उसी प्रकार विभीषण भी दुष्ट होना चाहिए, यह बात नहीं है" । मतिसागर मन्त्री का कहना मानकर राम ने त्रिभीषण को जबकि वह निश्छलता की शपथ खा चुका, यथेष्ट आश्वासन देकर अपनी ओर मिलाया 1* । एक स्थान पर कहा गया है कि दुष्ट मित्रों को मन्त्र दोष, असत्कार, दान, पुण्य, अपनी शूरवीरता, दुष्टस्वभाव और मन की दाह नहीं बतलानी चाहिए"" । वरंगचरित के अनुसार इस संसार में किसी भी व्यक्ति को अपने माता, पिता, धर्मपत्नी, औरस पुत्र, अत्यन्त घनिष्ट बन्धु बान्धव या सेवक घर उतना विश्वास नहीं करना चाहिए, जितना कि एक दृढ़ मित्र पर करना चाहिए" । शक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपने प्रति अनुराग रखने वाले मित्र किसी को मिलता ही नहीं है। भाग्य से यदि कोई ऐसा मित्र मिल जाय तो समझिए कि सारी पृथ्वी उसके हाथ लग गई। आपत्ति में पड़े हुए व्यक्ति को चाहिए कि किसी आशा से बन्धु बान्धवों तथा मित्रों के पास न जाय। उसे ऐसी स्थिति में देखकर वे लोग खेद खिन्न होंगे और शत्रुओं की उपहास करने का अवसर मिलेगा। मित्र के प्रति सदैव सद्भाव रखना चाहिए तथा उसके अनुकूल कार्य करने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी की सम्मति के अनुसार विपरीत कार्य करने से मित्र भी शत्रु हो जाय, उसे कार्यज्ञ नहीं कहा जा सकता है। किसी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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