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________________ 48 के साथ पहिले कभी सन्धि न हुई हो, बाद में वह सन्धि करता है तो उसके मित्र उस पर विश्वास नहीं करते तथा सम्बन्ध के प्रयोजन को भी विकृत रूप दिया जाता है । जो व्यक्ति राजा अथवा उसके शासन के विरूद्ध षड्यन्त्र नहीं करता है। अनर्थों को शान्त करता है, युद्ध में स्थिर बुद्धि का परित्याग नहीं करता है, युद्ध में जो सहायता देता है हितकारी प्रवृत्ति हेतु प्रबुद्ध करने के लिए जो युक्तिमती नीति को दशांता है, वही बन्धु है. वह पुत्र है, वही मित्र है तथा श्रेष्ठतम गुरु भी वही है, यह बात लोक में प्रसिद्ध हैं 1 मित्र दो प्रकार के होते हैं - 1. स्वाभाविक 2. कृत्रिम 1 अकृत्रिम स्नेही मम्बन्धी स्वाभाषिक मित्र होता है, किन्तु जो कृत्रिम मित्र होता है वह फलवान होता है, अतः उदार हृदय मित्र बनाना चाहिए 2" | ऋरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन ने कहा है कि सभी लोग प्राणतुल्य सखा या मित्र के लिए मन का दुःख बौटकर मुखी हो जाते हैं; यह जगत की रीति है। मित्र पर आपत्ति आने के समय मित्र दुखी हो जाता है * । मित्रमंडल के प्रतापरहित हो अस्त हो जाने पर उद्यमाँ मनुष्य भी उद्यम रहित हो जाते हैं । मित्रता दुष्ट मनुष्य से नहीं करनी चाहिए; क्योंकि दुष्ट मनुष्य से की गई मित्रता रागरहित होती है। सज्जनों से मैत्री करना चाहिए; क्योंकि सज्जन से की गई मैत्री उत्तरोत्तर बढ़ती रहती हैं। दिसंधान महाकाव्य में दो प्रकार के मित्र कहे गए हैं- 1. कार्यकृत 2. जन्मजात ( योनिज) । जो किसी कार्य को पूरा कर देने पर या उसमें सहायता देने के कारण मित्र बन जाते हैं. उन्हें कार्यकृत और जो वंश परम्परागत मित्र हों, उन्हें योनिज या जन्मजात कहते हैं | आचार्य कौटिल्य के अनुसार मित्र ऐसे होने चाहिए जो वंशपरम्परागत हो, स्थानी हो, अपने वश में रह सकें और जिनसे विरोध की सम्भावना न हो तथा प्रभु आदि शक्तियों से युक्त जो समय आने पर सहायता कर सकें । उत्तरपुराण में राजा की सात प्रकृतियों में मित्र का स्थान निर्धारित किया गया है। स्वामी, आमात्य, जनस्थान (देश), दण्ड, कोश, गुप्ति (गढ़) और मित्र ये राजा की सात प्रकृतियाँ है। चन्द्रप्रभचरित में कहा गया है कि वन्य वही है जो संकट में काम आये। वही राज है जो प्रजा का पालन करे, वही मित्र है जो आपत्ति में काम आए। वही कवि है जिसकी उक्ति नीरस न हो" । यथार्थ में मित्र वही है जो मित्र के सुख दुःख को अपना ही सुख दुःख समझे2 34 | इसी को सोमदेव ने इस रूप में कहा है कि जो पुरुष सम्पत्तिकाल की तरह विपत्तिकाल में भी स्नेह करता है, वह मित्र है । मित्र तीन प्रकार के होते हैं - 1. नित्यमित्र 2. सहजमित्र 3. कृत्रिम मित्र । I नित्यमित्र - जो कारण के बिना ही आपत्तिकाल में परस्पर एक दूसरे के द्वारा बचाए जाते हैं, वे नित्यमित्र हैं । सहजमित्र - वंशपरम्परा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष सहजमित्र हैं । कृत्रिम मित्र - जो व्यक्ति अपनी उदरपूर्ति और प्राणरक्षा के लिए अपने स्वामी मे वेतन आदि लेकर स्नेह करता है वह कृत्रिम मित्र हैं 23 । मित्र के गुण:- मित्र के निम्नलिखित गुण - 1. संकट पड़ने पर मित्र की रक्षार्थ उपस्थित होना 1 2. मित्र के धन को न हड़पना ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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