SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 015 कुपाध्यक्ष - जंगल विभाग का अधिकारी | आगुधागाराध्यक्ष - अस्त्र-शस्त्र विभाग का अधिकारी | गौयताध्यक्ष - तोल-माप विभाग का अधिकारी। मानाध्यक्ष - भूमि तथा समय की माप का अधिकारी । शुल्काध्यक्ष - कर विभाग का अधिकारी । सुत्राध्यक्ष - वस्त्र और कवच आदि विभाग का अधिकारी । सीताध्यक्ष - कृषि विभाग का अधिकारी। सुराध्यक्ष - आबकारी विभाग का अधिकारी। सुनाध्यक्ष - बृचड़खाने का अधिकारी । गणिकाध्यक्ष - वैश्याओं की व्यवस्था करने वाला अधिकारी । नावाध्यक्ष - नाव और जहाज विभाग का अधिकारी । गोध्यक्ष - पशु विभाग का अधिकारी। अश्वाध्यक्ष - घुड़शाला का अधिकारी । हरत्यध्यक्ष - हाथी विभाग का अधिकारी ! स्थाध्यक्ष - रथ विभाग का अधिकारी। मुद्राध्यक्ष - मुद्रा विभाग का अधिकारी । विवीताध्यक्ष - गोचर भूमि का अधिकारी । लक्षगाध्यक्ष - टकसाल विभाग का अधिकारी । देवलाध्यक्ष - देवालय विभाग का अधिकारी । सनिषाता - कौटिल्य के अनुासर सन्निपाता (कोषाध्यक्ष) को चाहिए कि वह कोषगृह, पाण्यगृह (राजकीय विक्रेन यस्तुओं का स्थान), कोषागार (भण्डार गृह) कुप्यगृह ( अन्नागार), शस्यागार और कारागार का निर्माण कराए । उसे जनपद तथा नगर से होने वाली आय का ज्ञाता होना चाहिए । इस सम्बन्ध में उसे इतनी जानकारी होनी चाहिए कि यदि उससे मौ वर्ष पोछे को आय का लेखा जोखा पूछा जाय तो तत्काल ही वह उसको समुचित जानकारी दे मके" ए. एल. वाशम ने सन्निधाता और समार्ता के पदको सन्धिविग्राहक के पद से अधिक महत्वपूर्ण माना है। प्रदेष्ट्य - प्रत्येक कष्टकशोधन नामक न्यायालय का न्यायधीश प्रदेष्टा कहलाता था, परन्तु यहाँ इस प्रकार के सत्र न्यायालयों के प्रधान न्यायाधीश से अभिप्राय है। 'नायक - यह सेना का मुख्य संचालक था और आवश्यकतानुसार विविध प्रकार का छावनियाँ खाई कोट और अटारी आदि बनवाता था। पौरव्यावहारिक - यह धर्मस्थीय नामक अदालतों का मुख्य न्यायाधीश था । मनुस्मृति में इमे धर्मवक्ता और मानसोल्लास में इसे धर्माधिकारी कहा है। न्यायाधीश की नियुक्ति राजा करता था, लेकिन उसकी पदुन्मुक्ति के प्रकार के विषय में उल्लेख नहीं प्राप्त होता है । उत्तरदायित्व के प्रश्न पर स्पष्ट है कि न्यायाधीश राजा के विधान के प्रति नहीं, शास्त्र के प्रति उत्तरदायी थे । राजा के शासन का स्वयं विधान शास्त्र करते थे । राज शासन का विधान शास्त्र के आधार पर ही हो सकता था, राजा की इच्छा पर नहीं। कामान्तिक - यह अधिकारी खान, जंगलों और खेतों से मिलने वाले कल्चे पदार्थों का तैयार
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy