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36 है, ऐसा न होने पर संसार की स्थिति नहीं रह सकती है" । उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख देती है" । राजा की आज्ञा से भूमण्डल पर कहीं से भी भय नहीं रहता है। राजा की आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करने पर सच्चरित्र व्यक्तियों का चरित्र भी स्थिर नहीं रहता है। इस लोक में राजा देवों को और प्राणियों की भी रक्षा करते हैं, किन्तु देव अपनी भी रक्षा नहीं करते हैं, इसलिए राजा ही उत्तम देवता है" । इस संसार में देव देवों से द्रोह करने वाले प्राणी को ही दुःख देते हैं, किन्तु राजा राजद्रोहियों के वंश और धन दौलत आदि को उसी समय नष्ट कर देता है। राजा समस्त देवताओं की शक्ति का अतिक्रमण करने वाले होते हैं। जो देवताओं का अपकार करता है वह परभव में विपत्ति को प्राप्त होता है और रहीं होता है कि राकेश में से चेष्टा करना चाहते हैं, उन पर विचार करते ही विपत टूट जाती है। समस्त सम्पत्ति के साथ राजद्रोही के कुल का संहार एक साथ हो जाता हैं। दूसरे लोक में भी उस पापी की अधोगति होती है अजनों के जीवन के उपाय को और तिरस्कार करने वालों के नाश को करने वाला राजा अग्नियों के समान सेवन करने योग्य है" । अर्थात् राजा अपने इच्छित कार्य के लिए प्रार्थना करने वालों की तो इच्छा पूर्ण कर देते हैं, किन्तु अपमान आदि करने वालों का नाश कर डालते हैं, अतः जिस प्रकार अग्नि का डरकर सेवन किया जाता है, उसी प्रकार राजा की सेवा भी डरकर करनी चाहिए। राजा लोग चूंकि प्राणियों के प्राण है अतः राजाओं के प्रति किया हुआ अच्छा और बुरा व्यवहार लोक के विषय में किया हुआ व्यवहार ही होता है"। अविवेकी मनुष्यों के यातायात से जो खुदः हुआ है, अपयश रूपी कीचड़ के समूह से जो गीला है, जो दोनों और फैलते हुए दुःख रूपी करोड़ों 'काँटों से व्याप्त है, समस्त मनुष्यों के विद्वेषरूपी साँपों के संचार से जो भयंकर हैं और अनन्त निन्दारूपी दावाग्नि से जो व्याप्त हैं, ऐसे राज विरुद्ध मार्ग का सेवन वे ही लोग करते हैं जो स्वभाव से मूढ़ हैं ऐसे मनुष्य ही सौजन्य को छोड़ते हुए, समस्त दोषों का संग्रह करते हुए, कीर्ति को दूर हटाते हुए, अपकीर्ति को रखीकार करते हुए किए हुए कार्य को नष्ट करते हुए, कृतघ्नता को चिल्लाते हुए, प्रभुता को छोड़कर, मूर्खता को अपनाकर, गौरव को दूरकर, लघुता को बढ़ाकर अनर्थ को भी अभ्युदय, अमंगल को भी मंगल और अकार्य को कार्य समझते हैं"वार्थ में राजा" गर्भ का भार धारण करने के क्लेश से अनभिज्ञ माला, जन्म की कारणपात्रता से रहित पितः, सिद्धमातृका (वर्णमाला) के उपदेश के क्लेश रहित गुरु दोनों लोकों का हित करने में तत्परबन्धु. निद्रा के उपद्रव से रहित नेत्र, दूसरे शरीर में संचार करने वाले प्राण, समुद्र में न उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष, चिन्ता की अपेक्षा से रहित चिन्तामणि, कुलपरम्परा की आगति के जानकार भक्तों के जानकार, सेवकों के प्रेमपात्र, व्रज की प्रजा की रक्षा करने वाले, शिक्षा करने वाले, शिक्षा के उद्देश से दण्ड देने वाले और शत्रुसमूह को दण्डित करने वाले होते हैं।
उत्तरपुराण के अनुसार स्वामिसम्पत् (राज सम्पत्ति) से युक्त राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों का आश्रय है। उसके सत्य से मेघ किसानों को इच्छानुसार बरसते हैं और वर्ष के आदि, मध्य तथा अन्त में बोए जाने वाले सभी धान्य फल प्रदान करते है" । राजा के पृथ्वी का पालन करते समय जब सुराज्य होता है तो प्रजा उसे ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त होती है। जिस प्रकार कोई गोपाल अपनी गाय का अच्छी तरह भरण पोषण कर उसकी रक्षा करता है और गाय प्रसन्नता से उसे दुध देकर सन्तुष्ट करती है, उसी प्रकार राजा भी पृथ्वी का भरणपोषण कर
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