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________________ तपस्वियों की रक्षा करता है उसको ही हमारे द्वारा आचरण किया हुआ तप या उसका फल प्राप्त हो । लोग यदि अपने अपने धर्म का उल्लघन करने लगे तो राजा ही उनको रोकने में समर्थ होता है । इस प्रकार राजा का अत्यधिक महत्त्व है। राज्याभिषेक-राजसिंहासन पर अधिष्ठित होने से पहले राजाओं का राज्याभिषेक होता था। इस अवसर पर अनेक राजा उपस्थित रहते थे । अभिषेक के समयशंख दुंदुभि, दक्का. झालर, तूर्य तथा बांसुरो आदि बाजे बजाए आते " तत्पश्चात होने वाली राजा को अभिषेक के आसन पर आरुढ़कर चाँदी, स्वर्ण तथा नाना प्रकार के कलशों से अभिषेक किया जाता था। इसके बाद राजा को मुकुर, अंगद, कैयूर, हार, कुण्डल,आदि से विभूषित कर दिव्य मालाओं, वस्त्रों तथा ठतमोत्तम विलेपनों से चर्चित किया जाता था । राजा के जय जयकार की ध्वनि लगाई जाती थी। राजा के अभिषेक के बाद उसकी पटरानी का अभिषेक होता था। वरांगचरित के अनुसार किसी शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में जबकि ग्रह सौम्य अवस्था को प्राप्त कर उन्च अवस्था में स्थित होते थे. उस समय राज्य प्राप्त करने वाले राजपुत्र को पूर्व दिशा की ओर मुखकर बैठा दिया जाता था । उस समय आनन्द के बाजे बजाए जाते थे । सबसे पहले अठारह श्रेणियों के प्रधानपुरुष सुगन्धित जल से चरणों का अभिषेक करते थे । उस जल में चन्दन घुला हुआ होता था तथा विविध प्रकार के मणि और रत्न भी छोड़ दिए जाते थे। इसके टपरान्त सामन्त राजा. श्रेष्ठभूपति, भोजप्रमुख( भुक्तियों, प्रान्तों के अधिपति), अमात्य, सांवत्सर (ज्योतिषी, पुरोहित आदि) तथा मन्त्री आनन्द के ग्याथ रत्नों के कलश उठाकर कुमार का मस्तकाभिषेक करते थे । उनके रत्नकुम्भों में भी पवित्र तीर्थोदक भरा रहता था । अन्त में स्वयं राजा युवराज पद का दयोतक पट्ट (मुकुट तथा दुपट्टा) बांधता था । महाराज का आज्ञा से आठ चामरधारिणी युवतियाँ चंबर ढोना प्रारम्भ करती थी । अन्त में राजा बच्चे से लेकर वृद्धपर्यन्त अपने कुटुम्बों और परिचारकों को, राज्य के सब नगरों, राष्ट्रों (राज्यों), पस्तनों (सामुद्रिक नगरी). समस्त वाहनों (रथादि) यानों तथा रत्नों को अपने पुत्र को सौंप देता था। उस समय वह उपस्थित नागरिकों, कर्मचारियों तथा सामन्तों आदि से यह भी कहता था कि आप लोग जिस प्रकार मेरे प्रति स्नेह से बँधे हुए चित्त वाले थे सवा मेरी आज्ञा का पालन करते थे उसी प्रकार मेरे पुत्र पर प्रेम करें और उसके शासन को माने । राज्याभिषेक करने वालों की श्रेणी में भोजप्रमुखों ( भोजमुख्याः) का नाम आया है। भोजों की शासन प्रणाली भौयकहलाती थी, जिसका ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। इस शासन प्रणालो में गणराज्य की स्थापना मान्य थी । ऐतरेय के अनुसार यह पद्धति सात्वत राजाओं (यादवों) में प्रचलित थी । महाभारत के अनुसार यादव लोगों का अन्धकवृष्णि नामक संघ था। अत: भौम्य शासान गणराज्य का एक विशिष्ट प्रकार का शासन था। वादीभसिंह के काव्यसे ज्ञात होता है कि जब वैराग्य आदि के कारण राजा राज्य का परित्याग करता था तब वह बृहस्पति के समान कार्य करने वाले (बुद्धि में श्रेष्ठ) मन्त्रियों, नगरवासियों एवं पुरोहितों को बुलाता था। उनके साथ मन्त्रणा कर यदि भाई अनुकूल हुआ तो भाई से राज्य संभालने की याचना करता था। यदि वह भी विरक्ति आदि के कारण राज्य स्वीकृत नहीं करता था तो वंश
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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