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________________ · 47.03 स्वस्तिवाचन करता था । जब राजा क्रोधित होता था तो अनुकूल वचनों के द्वारा वह उसे शान्त करता था 185 | राजा जब इष्टदेवतादि से सिद्धि के लिए उपवासादि करता था तो पुरोहित भी उसका साथ देता था । I शास्त्रपूजा, जिनेन्द्रपूजा तथा आर्शीर्वाद प्रदान करना पुरोहित के प्रधान कार्य थे और इन सबके द्वारा वह राजा को आनन्दित करता था । जो कुलीन सदाचारी और छहवेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरक्त, छन्द व ज्योतिष) चार्वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद अथवा प्रथमानुयोग, कारणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग), ज्योतिष निमित्तज्ञान और दण्डनीतिविद्या में प्रवीण हो एवं दैवी (उल्कापात, अतिवृिष्टि और अनावृष्टि आदि) तथा मानुषी आपत्तियों के दूर करने में समर्थ हो ऐसे विद्वान पुरुष को राजपुरोहित राजगुरु बनाना चाहिए। मन्त्री पुरोहित हितैषी होने के कारण राजा के माता-पिता हैं, इसलिए उसे उनको किसी भी अभिलक्षित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिये 167 सेनापति सेनापति को सेनानी " और चमूनाथ" भी कहते थे। इसका विधिपूर्वक अभिषेक होता था। सभा में मन्त्री पुरोहित, राज श्रेष्ठ तथा अन्य अधिकारियों के साथ सेनापति भी राजसभा में योग्य स्थान प्राप्त करता था । जब राजा युद्ध के लिए प्रण करता था तो सेनापति सारी सेना का संचालन करता था और प्रत्येक स्थिति में राजा का साथ देता था। सेनापति के लिए प्राचीन काल में चमूचर, चमूपति % बलनायक 197 बलाग्रणी, महानायक" बलाध्यक्ष तथा बाहिनीपति" राज्यों का भी हो च । सेनापति के गुण कुलीन, आचार व्यवहार सम्पन्न, विद्वान, अनुरागयुक्त पवित्र शौर्यसम्न, प्रभाववान्, बहुपरिवारयुक्त, समस्त नैतिक उपाय (साम, दाम, दण्ड, भेद) के प्रयोग में कुशल, समस्त वाहन, आयुद्ध, युद्ध लिपि, भाषा, व आत्मज्ञान का अभ्यस्त, समस्त सेना और सामन्तों द्वारा अभिमत (इष्ट) योद्धाओं से लोहा लेने की शक्ति से युक्त और मनोज्ञ, स्वामी द्वारा अपने समान सम्मानित व धन देकर प्रतिष्ठित किया हुआ, राजचिन्हों से युक्त और समस्त प्रकार के कष्ट और खेदों के सहन करने में समर्थ होना ये सेनापति के गुण है । - - सेनापति के दोष जिसकी प्रकृति आत्मीयजनों व शत्रुओं से पराजित हो सके, अप्रभावी. स्वीकृत उपद्रवों से वश में किया जाने वाला, अभिमानी, व्यसनी, निरन्तर व्यय करने वाला, परदेशवासी, दरिद्र, सैनयापराधी, सबके साथ विरोध रखने वाला, दूसरे को निन्दा करने वाला, कठोरवचन बोलने वाला, अनुचित बात बोलने वाला, अपनी आय को अकेला खाने वाला, स्वच्छंद प्रकृति से युक्त, स्वामी के कार्य व आपत्तियों का उपेक्षक बुद्ध महायक योद्धाओं का कार्यविघातक और राजहितचिन्तकों से ईर्ष्या रखने वाला व्यक्ति सेनापति के दोषों से युक्त होता हैं । सेनापति का कार्य - जब राजा युद्ध करने के लिए प्रस्थान करे उस समय उसका सेनापति आधी सेना सदा तैयार रखे, इसके पश्चात शत्रु पर चढ़ाई करे। जब राजा शत्रु के आवास की और प्रस्थान करे तब उसके चारों और सेना रहना चाहिए और डेरे में भी सेना रहनी चाहिए । स्थायी शत्रुराजाओं को अन्य बंन्दी राजाओं से मिलाना सेनापति के अधीन है 205 1. युवराज- राजा प्राय: अपने औरस पुत्र को ही युबराज पद देता था। युवराज पद प्रदान
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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