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________________ 116 उसी प्रकार राजा को भी अधिक कष्ट न देने वाले करों से प्रजा से धन वसूल करना चाहिए * । जिस राजा के कारण प्रजा कर के भार से अधिक दुःखी रहती है, उस राजा के स्थान पर किसी न्यायपूर्ण राजा के बैठने की सम्भावना रहती है । आचार्य सोमदेव ने राजा की कोषवृद्धि के निम्नलिखित चार उपाय बतलाए हैं(1) राजा विद्वान् ब्राह्मण और व्यापारियों से उनके द्वारा संत्रित किए हुए धन में से क्रमशः धर्मानुष्ठान, ज्ञानानुष्ठान और कौटुम्बिक पालन के अतिरिक्त जो धनराशि शेष बच्चे उसे लेकर अपनी कोशवृद्धि करे । . (2) श्रनाय पुरुष, सन्तानहीन धनाढ्य विधत्रायें, धर्माध्यक्ष आदि ग्रामीण अधिकारी वर्ग, वेश्याओं का समूह और पाखण्डी लोगों के धन पर कर लगाकर उनकी सम्पति का कुछ अंश लेकर अपने क्रोश की वृद्धि करे । (3) अचल, सम्पत्तिशाली मन्त्री, पुरोहित और अधीनस्थ राजा लोगों की अनुनय और विनय करके उनके घर जाकर उनसे धन याचना करे और उस धन से अपनी कोष वृद्धि करे । (4) सम्पत्तिशाली देशवासियों की प्रचुर धनराशि का विभाजन करके उनके भली भाँति निर्वाह योग्य छोड़कर उनसे शान्ति के साथ लेकर अपने कांध की वृद्धि करे । संचय करने योग्य पदार्थ समस्त संग्रहों में अन्न संग्रह उत्तम माना गया है, क्योंकि वह प्राणियों के जोवन निर्वाह का साधन है और उसके कारण मनुष्यों को सम्पूर्ण प्रयास करने पड़ते हैं। जिस प्रकार भक्षण किया हुआ धान्य प्राणरक्षा कर सकता है, उस प्रकार मुख में रखा हुआ बहुमूल्य सिक्का नहीं कर सकता है" । समस्त धान्यों में कोदों (कोद्रव) चिरस्थायी होते हैं (अतः उनका संग्रह करना चाहिए) पुरानी धान्य देकर नवीन धान्य के द्वारा आय बढ़ाना चाहिए और पुरानी धान्य व्यय करते रहना चाहिए"। समस्त रसों में नमक का संग्रह उत्तम है, क्योंकि नमक के बिना सब रसों से युक्त भोजन भी गोबर के समान लगता है । कोषवृद्धि के कारण राजा अधिक धान्य की उपजवाले बहुत से ग्राम जो कि उसकी चतुरंग सेना की वृद्धि के कारण है, किसी को न दे। बहुत सा गोममुक्त, स्वर्ण और शुल्क द्वारा प्राप्त भी कोषवृद्धि का कारण है । · कोष के गुण कोष के निम्नलिखित गुण हैं। (1) जिसमें अधिक मात्रा में सोना चाँदी हो । (2) जिसमें व्यवहार में चलने वाले सिक्कों का अधिक संग्रह हो । (3) जो व्यय करने में अधिक समर्थ हो । अर्थ और उसकी महत्ता जिससे सभी प्रयोजन सिद्ध हों, उसे अर्थ कहते हैं। अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्ति की रक्षा और रक्षित घन की वृद्धि करना अर्थानुबन्ध है । जो मनुष्य सदा अर्थानुबन्ध से धन का अनुभव करता है (धन के संचय में प्रवृत्ति करता है) वह धनाढ्य हो जाता * धर्म और काम पुरुषार्थ का मूलकारण अर्थ है "। जिस गृहस्थ के यहाँ खेती, गाय, भैंस और शाकतरकारी के लिए सुन्दर बाग तथा घर में मीठे पीनी का कुआँ होता है, उसे संसार सुख प्राप्त होता है" 1 (गाय, भैंस आदि) जीवधन की देखभाल न करने वाले व्यक्ति की बहुत बड़ी हानि -
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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