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________________ तीन प्रकार के होते हैं - श्रौत, मौख्य और यौना कुलक्रमागत अथवा सहपाठी को श्रोत कहते हैं। मौखिक वार्तालाप के कारण जो मित्र हुआ हो वह मौख्म और राजा के भाई आदि यौन बन्धु है। सम्बन्धी बन्धुपने के गर्व से दूसरे अधिकारो को तुन्छ समझकर स्वयं समस्त धन हड़प लेते है। राजा यदि मान्य पुरुष को अधिकारी बनाए तो वह अपने को राजा द्वारा पूज्य समझकर निडर व उच्खल होता हुआ राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है व राजकीय धन का अपहरण आदि मनमानी प्रवृत्ति करता है । पुराना सेवक अधिकारी होने पर अपरान करने पर भी निडर रहता है । अत: पुराने सेवक को अधिकारी नहीं बनाना चाहिए । बाल्यकाल में राजा के साथ खेला हुआ व्यक्ति अतिपरिचय के कारण (अभिमानवश) राजा के समान आचरण करता है। क्रूर हृदय वाला पुरुष अधिकारी बनकर समस्त अनर्थ उत्पत्र करता है। शकुनि (दुर्योधन का पामा) और शकटास (नन्द राजा का मंत्री) वे दोनों क्रूर हुदय वाले व्यक्ति के उदाहरण है।' | मित्र को अधिकारी बनाने से राजकीय धन और मित्रता की क्षति होती है । राजा ऐसे किसी भी व्यक्ति को नियुक्त न करे, जिसे अपराधवश कड़ी सजा देने पर पछताना पड़े । यही व्यक्ति अधिकारी पद के योग्य है जो अपराध करने पर सरलता से दण्डित किया जा सके । वार्तालाप आदि के द्वारा जिसके साथ मैत्री हो गई हो, उसे किसी पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए । इस प्रकार निम्नलिखित व्यक्ति अधिकारी पद पर नियुक्ति के अयोग्य हैं - (1) ब्राह्मण, क्षत्रिय और सम्बन्धी (2) राजपान्य पुरुष । (3) पुराना सेवक । (4) राजा का बाल्यकालीन मित्र । (5) कुरदय वाला व्यक्ति । (6) मित्र । (7) अपसधवश जिसे कड़ी सजा देने पर पळताना पड़े। अधिकारियों का राजा के प्रति व्यवहार - जो अधिकारी स्वायो के प्रमन्न होने पर भी किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता है, वह चिरकाल तक सुखो रहता है। राजा को उन मंत्री आदि अधिकारियों से कोई लाभ नहीं हैं, जिनके होने पर भी उसे कष्ट उठाकर अपने आप राजकीय कार्य करना पड़े । सम्पत्ति अधिकारियों का चिन्त विकारयुक्त करती है, यह सिद्धपुरुषों का वचन है.74 सभी अधिकारी अत्यन्त धनादय होने पर भविष्य में स्वामी के वशक्तों नहीं होते हैं अथवा कठिनाई से वश में होते हैं या स्वामी के पद की प्राप्ति के इच्छुक होते हैं | जो अधिकारी देश को पीड़ित नहीं करता वह अपनी बुद्धिपटुता और उद्मोगशीलता द्वारा राष्ट्र के पूर्वव्यवहार को विशेष उन्नतिशील बनाता है, उसे स्वामी द्वारा धन व प्रतिष्ठा मिलती हैंस्वामी के प्रमत्र रहने से ही सेवक लोक कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर मकते है, किन्तु जब बुद्धि और पुरुषार्थ गुण होंगे तभी वे सफलता प्राप्त कर सकते हैं। शास्त्रवेता विद्वान पुरुष भी जिन कर्तव्यों से परिचित नहीं हैं, उनमें मोह प्राप्त करता है । असह्य संकट को दूर करने सिवाय दूसरा कोई मो कार्य स्वामी से बिना पूछे नहीं करना चाहिए । सेवक को प्राणनाशिनी तथा लोगों से वैरविरोष उत्पन्न करने वाली एवं पाप में प्रवृत्त करने वाली स्वामी को आज्ञा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की आज्ञा का पालन करना चाहिए। जो सेवक कृतघ्नता के कारण अपने स्वामी के राजपद की कामना करते हैं उनका विनाश होता है । चित्रगत राजा का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए । राजा में क्षात्रतेज महान् देवता रूप से विद्यमान रहता है। राजा का अधिकारियों के प्रति कर्तव्य - राजा के समीप जाने पर कौन सज्जन नहीं हो जाता है ? अत: राजा को अधिकारियों की परीक्षा करना चाहिए । जिस प्रकार घास का बोझर
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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