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________________ रामायण, महाभारत से ज्ञात होता है कि वैदिक काल की सभा और समिति संस्थाओं का इस समय सास हो गया था । डॉ. जायसवाल के अनुसार इनका स्थान पौर और जनपद संस्थाओं ने ले लिया था । डॉ.जायसवाल के मत का खण्डन डॉ. अल्टेकर ने किया है। उनके अनुसार रामायण में जो पौर जनपदा: श्रेष्ठाः का उल्लेख हुआ है, उसका आशय पुर और जनपद के प्रमुख निवासियों से.म. समाओं के प्रति घरों से नहीं है: कोर या बनाने का निर्णय दशरथ ने अपने सचिवों के साथ परामर्श करके किया था, किसी सभा के परामर्श से नहीं यदि पौर तथा जनपद दो सभायें होती तो वे राम का वनगमन भी रोक सकती थी। (4) स्मृति ग्रन्थों में प्रतिपादित राजनीति - स्मृति साहित्य बहुत विशाल है । यहाँ उसका समग्र अध्ययन सम्भव नहीं अत: मनुस्मृति और याज्ञवलय स्मृति इन दो प्रधान स्मृतियों के माध्यम से यहाँ राजनीति का प्रतिपादन किया जाता है । मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म का विशेष रूप से निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ मानव के आदि पूर्वज मनु से भिन्न किसी व्यक्ति की रचना है। डॉ. पाण्डुरङ्ग वामन काणे ने अनेक प्रमाणों के आधार पर मनुस्मृति का रचनाकाल ई. पू. दूसरी शताब्दी से ईसा के उपरान्त दूसरी शताब्दी के बीच माना है । मनुस्मृति के अनुसार अराजक संसार में जब सभी लोगों में भय से खलबली मच गई तो भगवान् ने राजा बनाया । इन्द्र, वायु, यम, अग्नि, वझण, कुबेर, सूर्य और चन्द्रमा का थोड़ा अंश लेकर विधाता ने राजा की रचना की । इन्द्रादि श्रेष्ठ देवताओं के अंश से उत्पत्र होने के कारण राजा सब प्राणियों में श्रेष्ठ होला है । सूर्य के समान तेजस्वी राजा अपने राजलेज से सब प्राणियों के नेत्र और मन को अभिभुत कर लेता है, इस कारण कोई उसको और ताक नहीं पाता। वह अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, यमराज, वरुण, कुबेर और इन्द्र का मृतरूप रहता है। राजा यदि बालक हो तो भी साधारण मनुष्य समझकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए: क्योंकि वह मनुध्य के रूप में बहुत बड़ा देवता है। यदि कोई दुःसाहसी मनुष्य आग में कूद पड़े तो जल जायेगा, किन्तु राजा रूप अग्नि कपित हो जाय तो वह समस्त पशु और दस्य के साथ उसे जलाकर भस्म कर देता है। उसकी प्रसन्नता में लक्ष्मी, पराक्रम में विजय और क्रोध में मृत्यु का निवास रहता है, क्योंकि राजा सर्वतेजमय है। इस प्रकार मनुस्मृति में राजा को देवीय अंश के रूप में उपस्थित किया गया है। ___राजा को विनयवान् होना चाहिए, क्योंकि विनीत राजा का कभी विनाश नहीं होता है । राजा को चाहिए कि वह दिन रात इन्द्रियों पर विजय पाने की चेष्टा करता रहे। क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजा को वश में रख सकता है । राजा दस कामजनित और आठ क्रोघजनित व्यसनों का प्रयत्नपुर्वक त्याग करें, क्योंकि कामजनित दोषों में आसक्त राजा धर्म और अर्थ से वंचित हो जाता है और क्रोधजनित व्यसनों में आसक्त होने से सदा प्राणसंकट बना रहता है । मृगया (शिकार), पाश क्रीड़ा, दिन में सोना, दूसरे के दोष कहना, स्त्रियों की आसक्ति, मदनित मतता, वाद्य, नृत्य, गीत और वृथा पर्यटन ये दस कामजनित दोष कहे जाते हैं। चुगली, दुःसाहस, द्रोह, ईष्या. अमूया, परधनहरण, वाक्पारुष्य (आक्रोश),और दण्डपारूण्य अर्थात् अत्यन्त ताड़नायें आठ प्रकार के क्रोधजनित दोष कहे जाते हैं | ___मनुस्मृति में दण्ड की उत्पत्ति भी ईश्वर द्वारा निर्मित मानी गई है" । दण्ड ही राजा, दण्ड ही पुरूष, दण्ड हो राजा का नेता और दण्ड हो शासनकर्ता रहता है, ऋषियों ने दण्ड को ही चारों
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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