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________________ 33 5. सर्प, वहलिए और मलेच्छ की अधिकता । 6. वृक्षों के फलों पर अधिक निर्वाह होना (खेती पर अधिक निर्वाह न होना) 7, कम अन्न उत्पन्न होना । वह देश निंद्य है, जहाँ पर जीविका के साधन नहीं है। इसके अतिरिक्त जिस देश में मेघों के जल द्वारा धान्य होता है और खेती कर्षण क्रिया (हल आदि के द्वारा भूमि को जोतना) बिना होती है, वहाँ सदा अकाल रहता है । राष्ट्र के कण्टक - चौर, चरट (देश के बाहर निकाले गए अपराधी), अनप र खेतों या मकानों की माप करने वाले), धमन (व्यापरियों की वस्तुओं का मूल्य निश्चित करने वाले). राज्जा के प्रेम पात्र, आरविक (वन में रहने वाले भील या अधिकारी), तलार ( छीदे छोटे स्थानों में नियुक्त किए हुए अधिकारी), भोल, जुआरी, मंत्री और आमात्य आदि अधिकारीगण) आक्षशालिक (जुआरी), नियोगि (अधिकारी वर्ग), ग्रामकूट (पटवारी) और का षिक ( अन्न का संग्रह करने वाले व्यापारी) ये राष्ट्र के कण्टक हैं । उक्त राष्ट्र कण्टकों में से अन का संग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारी लोग देश में अन्याय की वृद्धि करते हैं तथा तंत्र (व्यवहार) एवं देश का नाश कर देते हैं | वा षिकों (लाभवश राष्ट्र का अन्न संग्रह कर दक्षि पैदा करने वाले व्यापारियों) की कर्तव्य अकर्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें सरलता नहीं होती हैं वे कुटिल स्वभाव वाले होते है जिस देश में राजा प्रतापी तथा कठोर शाम करीवाला निदर होता है, उसके राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते है | राज्य का फल - राज्य का फल धर्म (जिन कर्तव्यों के करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो।), अर्थ ( जिससे मनुष्य के सभी प्रयोजनों की सिद्धि हो") और काम जिसमे समस्त इन्द्रियों स्पर्शन, रमना, प्राण, चक्षु, क्षोत्र में बाधारहित प्रीति हो") की प्राप्ति है । उक्त फल प्रदाता होने के कारण आचार्य सोमदेव ने उसे नमस्कार किया है। राज्य के कार्य - राजतन्त्र में राजा प्रमुख होता है तथा वह मारे कार्यों का नियमन करता है । अत: राजा के कार्यों को राज्य के कार्य कहा जा सकता है। इस दृष्टि से राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कार्य माने जा सकते हैं 1. गांव आदि के बसाने और उपभोग करने वालों के योग्य नियम बनाना । 2. नवीन वस्तु के बनाने और पुरानी वस्तुओं की रक्षा करने के उपाय करना । 3. प्रजा के लोगों से बेगार लेना । 4. अपराधियों को दण्ड देना । 5. जनता से कर वसूल करना । फुटनोट 1. नीतिवाक्यामृत 514 7.छत्र चूड़ामणि 11/8 2. नीतिवाक्यामृत टीका 5/4 . 8. उत्तरपुराण 52/40 3. सोमदेव: नीतिवाक्यामृत 5/6 2. जटासिंहनन्दि : वरांगधरित 12/44, 4. यही 5/7 21/56 5. यही 5/5 10. वहीं 20/27 6. वही 5/28 11. वही 20/62
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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