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________________ 32 होती और राज्य व्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता से मिल जाता है, ऐसा सोचकर भगवान् वृषभदेव ने कुछ लोगों को दण्डधर राजा बनाया; क्योंकि प्रजाओं के योग और क्षेत्र का विचार करना राजाओं के ही आधीन होता है। अच्छे राजा के होने पर अन्याय शब्द ही पृथ्वी पर नष्ट हो जाता है तथा प्रजा को भय और क्षोभ नहीं होते हैं" । राज्य के अंग- धनंजय ने राज्य के प्रमुख अंगों को प्रकृति अथवा मूल" कहा है तथा इनकी संख्या सात बतलाई है" । कामन्दकीय नीतिसार के अनुसार इन सात प्रकृतियों के अन्तर्गत स्वामी (राजा) आमात्य, सुहृत, का वर्णन आगे किया जायेगा। यहाँ प्रसंग वशात् राष्ट्र का वर्णन किया जाता है - राष्ट्र - पशु, धान्य और हिरण्य (स्वर्ण) सम्पदा जहाँ सुशोभित होती है उसे राष्ट्र कहते है । राष्ट्र से मिलते जुलते अन्य नामों की व्युत्पत्ति सोमदेव ने इस प्रकार दी हैं देश - स्वामी को दण्ड (सैनी) और कोश की जो वृद्धि है, उसे देश कहते हैं"। समस्त पक्षपातों में देश का पक्षपात महान् है । fare - अनेक वस्तुएँ प्रदान कर जो स्वामी (राजा) के महल में हाथी और घोड़े बाँ उसे विषय कहते हैं। मण्डल समस्त प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा राजा के हृदय का जो मण्डल (भूषण) करे उसे मण्डल कहते हैं। जनपद - वर्ण और आश्रम लक्षण वाले मनुष्य तथा द्रव्य (धन-धान्य) की उत्पत्ति का जो स्थान हो उसे जनपद कहते हैं । दारक अपने स्वामी के उत्कर्ष का जनक होने के कारण जो शत्रुओं के हृदयों को विदीर्ण करे उसे दारक कहते हैं । निर्गम अपनी समृद्धि के द्वारा जो स्वामी को समस्त आपत्तियों से छुड़ाए, उसे निगम कहते 5 | 1 - - जनपद के गुण जनपद (राज्य) के निम्नलिखित गुण है - T. अन्योन्यारक्षक जहाँ पर राजा देश को और देश राजा की रक्षा करे । - 2. जो खनिक वस्तुयें (सोना, रत्न, चौदी, ताँबा व लोहा आदि ) आकर द्रव्य (गन्धक, नमक आदि ) तथा हाथी रूप घन से परिपूर्ण हो । 9. जिसके ग्रामों की जनसंख्या न बहुत बड़ी न बहुत कम हो। 4. जहाँ पर बहुत से उत्तम पदार्थ (सार) अनेक प्रकार के धान्य, हिरण्य (सोना) और पण्व (व्यापारिक माल ) पाया जाये । 5. जो देवमातृक हो अर्थात् जहाँ खेती वर्षा के पानी पर निर्भर न होकर कुवें, तालाब, नहर आदि सिंचाई के साधनों पर निर्भर हो । 6. जो मनुष्य और पशुओं को हितकर हो । 7. जहाँ पर शिल्प शूद्र (बढ़ई, नाई, धोबी आदि) अधिकता से वर्तमान हों। जनपद के दोष जनपद अथवा देश के निम्नलिखित " दोष होते हैं । 1. घास पानी रोगजनक होने से विष के समान हानिकारक होना | 2. जमीन का ऊसर होना । 3. जमीन का पथरीली, कंटक मुक्त तथा पहाड़, गड्ढे और गुफाओं से व्याप्त होना। 4. अधिक वर्षा होना ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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