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________________ से युक्त किया जा सके, जो कभी भी हार न खाता हो, दुःख को सहने वाला हो. युद्ध कौशलों से परिचित हों, हर तरह के युद्ध में प्रवीण हों. राजा के लाभ तथा हानि में भागीदार हो और जिसमें क्षत्रियों की अधिकता हो । इन गुणों से युक्त सेना दण्ड सम्पत्र कही गई है । उपयुक्त राज्यांगों के अतिरिक्त कौटिल्य ने दुतों एवं गुप्तचरों का वर्णन किया है तथा न्याय व्यवस्था पर प्रकाश डाला है। शासन और धर्म के क्षेत्र में कार्यरत प्रमुखत विभागाध्यक्षों को सूचि द्धा. जायसवाल ने अपने ग्रन्थ हिन्दु राजतंत्र ( भाग 2 पृ. 251-262) में इस प्रकार दी है - (1) मंत्रो (2) पुरोहित (3) सेनापति (4) युवराज (5) दोवारिक (6) अंतर्वशिक - राजा के गृहकार्यों का प्रधान अधिकारी (1) प्रशास्ता - कारागाराध्यक्ष (8) समाहर्ता - माल विभाग का अधिकारी (9) सन्निधाता - कोषाध्यक्ष (10) प्रदेष्टा - राजकीय आज्ञा का प्रचार करने वाला अधिकारी (11) नायक - सेनिकों का प्रधान अधिकारी (12) पौन नगरशासक (13) व्यावहारिक - न्यायाधीश (14) कार्मास्तिक - ख़ानों का अध्यक्ष (15) मम्य - मविपरिषदाध्यक्ष (16) दण्डपाल - सैनाधिकारी (17) अंर्तपाल - सोमान्ताधिरा (18) दुर्गपाल - उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त कौटिल्य ने षाट्य का भी सुन्दर विवेचन किया है । शुक्रनीतिसार प्राचीन राजशास्त्र के प्रणेता शुक्राचार्य के नाम पर प्रचलित शुक्रनीति सार में राजनीति सम्बन्धी विविध विषयों का विशद्विवेचन मिलता है। शुक्र राज्यविधि का आधार धर्मशास्त्र मानते हैं और अर्थशास्त्र का प्रयोग धर्मशास्त्र से अविरुद्ध रूप में ही स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार न्यायपालिका वह है जहाँ अर्थशास्त्र का प्रयोग धर्मशास्त्र के अनुसार होता है । राजशासन, आचार. परम्परा आदि को भी वे राज्यविधि का आधार मानते हैं । उनके अनुसार राजा न्याय में शास्त्रदृष्ट, जाति, क्षेत्र, श्रेणी, कुटुम्ब एवं जनपद धर्म के साथ सपन्धय करके निर्णय करे। देश विभिन्न व्यवहारों में विभक्त है, सबका समन्वय समान रूप से नहीं किया जा सकता । शुक्र एक ओर धर्मशास्त्र और दूसरी ओर जनमत आचार एवं परम्परा को राज्यविधि का स्रोत मानते हैं, किन्तु वे किसी भी स्थिति में क्षेत्रीय एवं 'जातीय आधार की अवहेलना नहीं करना चाहते । इस प्रकार इस काल तक राजशक्ति के विकास होने पर भी राज्यविधि का आधार राजाज़ा नहीं हो पायी, उसका नियन्त्रण सामाजिक शक्तियां करती रहीं। शुक्र ने राज्य प्रशासन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सन्तरी सड़क पर पहरा देते हुए चोरों से जनता की रक्षा करें । जनता को चाहिए कि वह दास, भृत्य, स्त्री, शिष्य पुत्र को न पोटे और न गाली, धातु घी, मधु, दूध चबी और आटे में मिलाबट न करे, तोल, सिक्का आदि का गलत प्रयोग न हो,राजकार्य में राजा तथा राजकर्मचारियों को धूस न दे. चोरों दुश्चरित्रों, राजद्रोही आदि को आश्रय न दे, इत्यादि । शुक्र के अनुसार दण्ड वह है, जिससे असद् आचरण की समाप्ति हो, फलत: अतिदण्ड
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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