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________________ सप्तम अध्याय कोष एवं दुर्ग कोष की उपयोगिता - कोष ही राजाओं का प्राण है। इस लोक में पर्याप्त सम्पत्ति संकलित करने से धर्म, अर्थ, काम सम्भव हो सकेंगे। यहाँ धर्म संचय करने से परलोक में तीनों निभ जायेंगे। काम पुरुषार्थ के द्वारा दोनों लोको में सबका विमाग होगा, अत: वही करना चाहिए, जिससे दोनों लोकों में तीनों पुरुषार्थों का साधन हो सके । राजा दशरथ के पास इतनी सम्पत्ति थी कि उनको दानशीलता को याचक नहीं सम्हाल सके । वे निर्मल तथा पर्याप्त यशरूपी धन को संचित करने के लिए व्यवसायियों से भरे बाजारों, खनिक क्षेत्रों, अरण्यो, समुद्री तीरों पर स्थित पत्तनों, पशुपालकों की बस्तियों, दुर्गों तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को बढ़ाते थे। वादीभसिंह के अनुसार दरिद्रता जीबों का प्राणों से न छुटा हुआ मरण है । मनुष्य को यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे पिता और पितामह द्वारा संचित बहुत धन विधमान है, क्योंकि वह प्रन अपने हाथ से संचित धन के समान उदात्तचित्तमनुष्य के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न नहीं करता अथवा को होगी से हि धनीही हसास है । निरन्तर उपभोग होने पर पर्वत भी क्षय हो जाता । निर्धनता से बढ़कर मर्मभेदक अन्य वस्तु नहीं हो सकती है। निर्धनता शस्त्र के बिना की हुई हृदय की शल्य है, अपनी प्रशंसा से रहित हास्य का कारण है, आचरण के विनाश से रहित उपेक्षा का कारण है, पित्त के उदेक के बिना ही होने वाला उन्माद सम्बन्धी अन्धपन है और रात्रि के अविभधि के बिना ही प्रकर होने वाली अमित्रता का निमित है। दरिद्र का न वचन जीवित रहता है, न उसकी कुलीनता जागृत रहती है, न उसका पुरुषार्थ देदीप्यमान रहता है, न उसकी विद्या प्रकाशमान रहती है, न शील प्रकट रहता है, न बुद्धि विकसित रहती है, न उसमें धार्मिकता की सम्भावना रहती है, न सुन्दरता देखी जाती है, न विनय प्रशंसनीय होती है, न या गिनी जाती है, निष्ठा भाग जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है अथवा क्या नष्ट नहीं होता अर्थात सब कुछ नाष्ट हो जाता है। इसके विपरित धन का संचय रहने पर दोनों लोकों के योग्य पुरुषार्थ भी प्रार्थना किए बिना स्वयं आ जाता है । अत: धन के लिए यस्न करना चाहिए । यही अभिप्राय छत्रचूडामणि में भी व्यक्त किया गया है । पिता के द्वारा कमाया हुआ बहुत सा धन विद्यमान रहे, फिर भी पुरुषार्थी जनके लिए अन्योपार्जित द्रव्य से निर्वाह करने में दीनता प्रिय नहीं लगती। यदि स्वस्वाभिक धन आयरहित होता हुआ खर्च होता है तो बहुत होता हुआ भी नष्ट हो जाता है। प्राणियों को निर्धनता से बढ़कर कोई दूसरा हार्दिक दुःखदायक नहीं है । गरीब का प्रशंसनीय गुण प्रकर नहीं रहता। निर्धन के विद्यमान ज्ञान भी शोभायमान नहीं होता । निर्धनता से ठगाया गया दरिंद्र पुरुष किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और चाह के अभिप्रायपूर्वक लक्ष्मीवानों के भी मुख को देखता नीतिवाक्यामृत के अनुसार कोषविहीन राजा पौर और जनपद को अन्याय से ग्रसित करता है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रशून्यता हो जाती है । जो राजा सदा कौड़ी-कौड़ी जोड़कर भी अपने कोश की वृद्धि नहीं करता, उसका भविष्य में कल्याण कैसे हो सकता है? कोश ही राजा कहा
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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