SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 151 1. नैतिक उपाय द्वारा शत्रुकार्य-सैनिक मंगलन आदि को नष्ट करना । 2. राजनैतिक उपाय द्वारा शत्रु का अनर्थ करना - शत्रु विरोधी क्रुद्ध, लुब्ध, भयभीत और अभिमानी पुरुषों को सामदानादि द्वारा वश में करना। 3. शत्रु के पुत्र, कुटुम्बी व जेल में बन्द मनुष्यों में द्रव्यदानादि द्वारा भेद उत्पन्न करना । 4. शत्रु द्वारा अपने देश में भेजे हुए गुप्तचरों का ज्ञान । 5. सीमाधिप, आटविक, कोश, देश, सैन्य और मिवों की परीक्षा। 6. शत्रु राजा के यहाँ वर्तमान कन्यारत्न तथा हाथी, घोड़े आदि वाहनों को निकालने का प्रयत्न । 7. शत्रु प्रकृति (मंत्री, सेनाध्यक्ष आदि) में गुप्तचरों के प्रयोग द्वारा भीभ उत्पन्न करना । दूत शत्रु के मन्त्री, पुरोहित तथा सेनापति के समीपवतीं पुरुषों का धनदान द्वारा अपने में विश्वास उत्पन्न कराकर शत्रु हृदय की गुप्त बात का निश्चय करें" । वह शत्रु के प्रति स्वयं कठोरवचन न कहकर उसके कहे हुए कठोरवचन सहन करे । जब दूत शत्रुमुख से अपने गुरू स्वामी की निन्दा सुने तब उसे शान्त नहीं रहकर उसका प्रतीकार करना चाहिए। दूत को निरर्धक विलम्ब नहीं करना चाहिए । जो मनुष्य स्थित होकर भी किसी प्रयोजनासद्धि के लिए देशान्तर में गमन करने का इच्छुक है, यदि वह रूक जाता है तो इससे उसके प्रयोजन नष्ट हो जाते हैं। दूतों से सुरक्षा - (विजिगीषु को) स्वयं बहादुर सैनिकों में घिग रहकर और शत्रुदेश में आए हुए दूतों को भी शूरपुरुषों के मध्य रखकर उनसे बातचीत करना चाहिए । सुना जाता है कि चाणक्य ने तीक्षणदूत (विषकन्या) के प्रयोग द्वारा नन्द को मार डाला था। शत्रुप्रेषित लेख तथा उपहार के विषय में राजकर्तव्य - राजा शत्रु द्वारा भेजे हुए लेख व उपहार आत्मीय जनों से बिना परीक्षा किए स्वीकार न करें" । अनुश्रुति है कि करहाट देश के राजा कैटभ ने वसु नाम के राजा को दूत द्वारा भेजे हुए फैलने वाले विष से वासित अद्भुत वस्त्र के उपहार द्वारा मार डाला था | करवाल ने कराल नामक शत्रु को दृष्टिविध सर्प से व्याप्त रत्नों के पिटारे भेंट भेजकर मार डाला। दूत के प्रति राजकर्तव्य - उठे हुए शस्त्रों के बीच (घोरयुद्ध के बीच) भी राजालोग दूत मुख वाले होते हैं। अतः दूत द्वारा महान् अपराध किए जाने पर (राजा) उसका वध न करें। दूतों में यदि चाण्डाल भी हों तो उनका भी वध नहीं करना चाहिए, उच्चवर्ण वाले ब्राह्ममणों की तो बात ही क्या है ? चूंकि दूत अवश्य होता है. अत: सभी प्रकार के वचन बोलता है" । राजा का कर्तव्य है कि वह शत्रु राजा के रहस्य को जानने के लिए नीतिज्ञ स्त्रियों, दोनों और से वेतन हने वाले दूतों तथा दुत के गुण, आचार, स्वभाव से परिचित रहने वाले दूतमित्रों द्वारा वश में करें। कोई भी बुद्धिमान पुरुष दूत द्वारा कहे हुए शत्रु के उत्कर्ष और अपने अपकर्ष को नहीं मानता है। लेख की प्रमाणता - बचन की अपेक्षा लेख अघिक प्रामाणिक है, किन्तु अज्ञात लेख प्रमाणिक नहीं माने जाते हैं । किसी के भो लेख का अनादर नहीं करना चाहिए, राजा लोग लेख को प्रधानता देते हैं, क्योंकि लेख द्वारा ही सन्धि विग्रह व सारे संसार का व्यापार (कार्य) होता है । वक्ता के गुणों की गरिमा के अनुसार उसके वचन का गौरव होता है । (विजिगीषु को) शत्रुराजा के पास भेजे हुए लेखों में चार वेष्टन व उनके ऊपर खड्ग की मुद्रा लगा देना चाहिए।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy