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________________ पञ्चम अध्याय राजकुमार राजकुमार - राजपुत्र के गर्भ में रहने के समय ही वंश के वृद्ध पुरुष इस प्रकार की कापना करते थे कि वैभव की दृष्टि से बह इन्द्र और बुद्धि को अपेक्षा वृहस्पति होगा। इस विश्वास ये युक्त होकर वंश के वृद्ध पुरुष बीमाक्षर मन्त्रों के उच्चारण सहित सिद्ध परमेष्ठी को नेवैध समर्पित करते थे और नागरिक आनन्दमंगल मनाते थे' । वृद्धों के उपर्युक्त विश्वास को मार्थक करने के लिए राजा अपने पुत्र को अत्यन्त बुद्धिमान, उत्तम कुल में उत्पन्न वीर पुरुषों के साथ कर देते थे, क्योंकि नूतन पात्र में जिस वस्तु का संसर्ग होता है, उसकी गन्ध निश्चय से बनी रहती है। पहिले चूड़ाकरण, उसके बाद यज्ञोपवीत संस्कार को प्राप्त राजपुत्र क्रमश: वर्णमाला तथा अंकगणित की. शिक्षा प्राप्त कर सोलह वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और वृद्धजनों की सेवा करते हुए समस्त विधाओं को सीखते थे । प्रिय राजपुत्र अपने-अपने विषय के प्रतिष्ठित विद्वानों सिद्ध पुरुषों से आत्मविद्या की शिक्षा ग्रहण करते थे, ऋषियों से धर्म, अधर्म का ज्ञान प्राप्त करते थे, अधिकारियों से लाभ-हानि का शास्त्र पढ़ते थे तथा न्यायाधीश और शासकों से दण्डनीति को समझते थे । समय पूरा हो जाने पर राजा अपने कुल के देवताओं की सर्वािघ पूजा करके राजपुत्र के ब्रह्मचर्य आश्रम के समाप्ति का संस्कार करते थे । अनन्तर गुरु तथा पिता को प्रणाम करके राजपुत्र धनुषविद्या सीखते थे तथा लोकविरूद्ध कुविद्याओं को छोड़ देते थे, क्योंकि गुरुजनों की साक्षीपूर्वक ही ग्रहण करना और छोड़ना उचित होता है । जिस राजा के पुत्रों की उपयुक्त शिक्षादीक्षा नहीं होती है, उसका राज्य घुन से खाए काष्ठ की तरह क्षणभर में टूट जाता है। शिक्षा दीक्षादि से सम्पन्न पुत्र कुल को पवित्र करता है। कुल को पवित्र करने वाले को ही वास्तविक पुत्र कहते है । जो राजपुत्र लक्ष्मी के अहंकार से चंचल नहीं होते हैं तथा गणित आदि कलाओं से युक्त तथा विनम्र होते हैं ऐसे अवि (मेष) के द्वारा ले जायी जाने वाली अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र जिस राज्य में होते हैं, यह राज्य घुन से खायी लकड़ी के समान साधारण धक्के से नहीं टूट सकता है। उपर्युक्त गुणों से युक्त राजपुत्र कच्ची अवस्था में भी राष्ट्र के भार को सहनकर सूर्य के समान देदीप्यमान हो यश और प्रताप के अधिपति होकर अपनी नीतिनिपुणता के कारण पृथ्वी पर समुद्र के समान शोभित होते हैं । जिन राजाओं के पुत्र धन और जय के इच्छुक होते हैं उन राजाओं को संसार में कुछ भी असाध्य नहीं हैं। आदिपुराण के अनुसार कलाओं में कुशलता, शुरवीरता, दान, प्रज्ञा (बुद्धि). क्षमा, दया. धैर्य, सत्य और शौच (पवित्रता) ये राजकुमार के स्वाभाविक गुण हैं । जितेन्द्रिय राजकुमार काम का उद्रेक करने वाले यौवन के प्रारम्भ में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह. मद और मात्पर्य इन छह आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह कर देता है । योग्यता को प्रकट करने वाले इस प्रकार गुणों से युक्त किसी राजकुमार को राजा राज्य दे देता था और किसी को पदसहित युवराज बनाना था। आचार्य गुणभद्र के अनुसार राजा को चाहिए कि वह उपयोग तथा क्षमा आदि मच गुण को पूर्णता हो जाने पर राजकुमार को व्रत देकर विद्यागृह में प्रवेश गए । विध माध्यम करते समय उसका अभिजात्य वर्ग से सम्पर्क हो।दास, हस्तिपक (महावत ) आदि को वह अपने मम्पर्क
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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