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________________ (2) वैदिक कालीन राजनीति - वैदिक युग 2500 ई. पूर्व से लेकर ईसा पूर्ष 200 वर्ष तक का माना जाता है। इस युग को दो भागों में विभाजित किया जाता है - पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल । पूर्व वैदिक काल को ऋग्वेदीय काल कहते हैं, क्योंकि इस काल में ऋग्वेद लिखा गया । ऋग्वेद की रचना में एक हजार या उससे अधिक वर्ष लगे । भावेद का बाद का 200 ई. पूर्व तक का काल उसरवैदिक काल माना जाता है । ऋग्वेदीय काल में सामाजिक इकाई का कुल या कुटुम्ब होता था । इसमें एक ही कुलपति के आश्रम में अनेक कुटुम्बी रहते थे । यह कुलपति या कुलप कुटुम्ब का पिता या बड़ा भाई होता था । कुटुम्बों या गृहों के समूह को ग्राम कहते थे । गाँव से बड़ी बस्ती को विश' (वगं या संघ) कहते थे और इसका मुखिया विश्पत्ति कहलाता था। विशों के समूह की जन कहते थे । राष्ट्र' शब्द देश या राज्य के लिए प्रयुक्त किया जाता था । उस समय आर्यों और अनार्यों (अथवा विभिन्न आर्यदलों) के बीच होने वाले अनवरत युद्धों के कारण राजा का रहना आवश्यक था । राजा अनुचित कार्य करने वालों को दण्ड देता था । राजकीय कार्यों में पुरोहित, सेनानी और ग्रामीण योग देते थे। राज्य की एकच्छत्र शक्ति, की रोकथाम करने वाली दो सार्वजनिक संस्थायें थी. सभा और समिति, जिनके द्वारा जनता के हित से सम्बन्ध रखने वाला नहाच तो तक कि स्वयं राजा के चुनाव में भी जनता की इच्छा प्रकट की जाती थी" | ऋग्वेद काल में न्याय विषयक सामग्री अपेक्षाकृत कम है । उस समय यह प्रथा थी कि मारे गए व्यक्तियों के सम्बन्धियों को धन देका उसको जान के बदले में उऋण हो सकते थे । एक व्यक्ति या मनुष्य को शतदाय कहा गया है. क्योंकि उसके प्राणों का मूल्य सौ गायें था। इस प्रकार प्राणपात के लिए द्रव्य देने की प्रथा से आँख के बदले औख निकालने और दौत के बदले दाँत तोड़ने की आदिम कूर प्रथा का सुधार हुआ और घदसा लेने के निजी अधिकार पर पाबन्दी हुई । उग्न और जीवभृग शब्द का शब्दार्थ है - जोवित पकड़ लेना। ये शब्द राजा के दण्डधर या रक्षा पुरुषों के वाचक माने गए है" । उत्तरवैदिक काल में राजा का पद नितान्त प्रतिष्ठित हुआ तथा उसके अधिकारों में भी विशेष रूप से वृद्धि हुई। अभिषेक के निमित्त उपादेय यागों में राजरूप महत्त्वशाली है । उसके स्वरूप की मीमांसा करने से ग़जा की प्रभुक्ति के गौरव का परिचय मिलता है । राजा होने के निमित्त राजसूय यज्ञ का विधान नियत किया गया था । कालान्तर में अश्वमेघ का अनुष्ठान सम्राट तथा चक्रपती पद के लिए आवश्यक बतलाया गया है । अधिकारी रत्नों के नाम मे प्रख्यात थे, जिनके पाम अभिषेक से पहिले राजा को जाना आवश्यक था । इनके नाम ये हैं - (1) सेनानी (सेना का अध्यक्ष) (2) पुरोहित (3) अभिषेचनीय राजा (4) महिणी (राजा की पटरानी) (5) सूत (6) ग्रामदी (7) क्षत्तृ (8) संग्रहोतृ (9) भागदुह (प्रजा से कर वसूल करने वाले अधिकारी) (10) अक्षावाय (रुपए पैसों का हिसाब रखने वाले अफसर (11) गौविकर्तृ (जंगल का अधिकारी) | अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति को दो पुत्रियों कहा गया है । सभा प्राम ममा थी, यह नाम के समस्त स्थानीय विषयों की देख रेख करती थी। अथर्ववेद में एक स्थान पर मभा को नरिष्ठा कहा गया है । नरिष्ठा का अर्थ सामूहिक वादविवाद होता है । इससे प्रकट होता है कि ग्राम निवासी अपनी सभा में वाद विवाद के पश्चात् ही किसी निर्णय पर पहुँचते थे । ग्राम के
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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