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प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा जिस प्रकार संस्कार किए हुए मणि सुशोभित होते हैं उसी प्रकार राजा में अनेक गुण सुशोभित होते है 25 1 नीति को जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं, किन्तु इन्द्र के समान राजा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी प्रजा गुणवती होती है और राज्य में कोई दण्ड देने के योग्य नहीं होता है" राजा न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकां के समूह को सन्तुष्ट करें। समीचीन मार्ग में चलने वाले राजा के अर्थ और काम भी धर्मयुक्त होते हैं, अतः वह धर्ममय होता है । उत्तम राजा के वचनों में शान्ति, चित्त में दया, शरीर में तेज, बुद्धि में नीति, दान में धन विभा शत्रुओं में प्रतार रहता है। जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य समानायको वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं, उसी प्रकार समस्त गुण राजाको बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं । राजा का मानभंग नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार दाँत का टूट जाना हाथी की महिमा को छिपा लेता है, दाद का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है, उसी प्रकार मानभंग, राजा की महिमा को छिपा लेता है 31 | नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निकाय करने में राजाका चरित्र उदारण रूप होना चाहिए | उत्तम राजा के राज्य में प्रजा भी न्याय का उल्लंघन नहीं करती है. राजा न्याय का उल्लंघन नहीं करता है, धर्म अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता है और परस्पर एक दूसरे का भी त्रिवर्ग उल्लंघन नहीं करता है। जिस प्रकार वषां से लता बढ़ती हैं. उसी प्रकार राजा की नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ती है। जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बढ़ी होती है, उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बड़ा होता है । उसकी समस्त ऋद्धियाँ है और पुरुषार्थ के आधीन रहती है। यह मन्त्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्यप्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र का विचार करे। तीन शक्तियों और सिद्धियों से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहे साथ. ही सन्धि विग्रह आदि छह गुणों की अनुकूलता रखे। अच्छे राजा के राज्य में प्रजा को अयुक्ति आदि पाँच तरह की बाधाओं में से किसी भी प्रकार की बाधा नहीं रहती हैं। उत्तम राजा का नित्य उदय होता रहता है, उसका मण्डल विशुद्ध (शत्रुरहित) और अखण्ड होता है तथा प्रताप निरन्तर बढ़ता है । ऐसे राजा की रूपादि सम्पत्ति उसे अन्य मनुष्यों के समान कुमार्ग में नहीं ले जाती है। अच्छे राजा के राज्य में प्रजा की अयुक्ति आदि पाँच प्रकार की बाधाओं में कोई बाधः नहीं होती है । शम और व्यायाम राजा के योग और क्षेम की प्राप्ति के साधन है I
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चन्द्रप्रभचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण राजा का माहात्मय और गुण अचिन्त्य होना चाहिए। वह अपने लोगों का आश्रय हो तथा उसकी चेष्ठायें धर्म का नाश करने वाली न हो। राजा की सब सम्पदा परोपकार के लिए होती है। त्याग व दान देने का गुण राजा में स्वाभाविक होना चाहिए"" । राजा के विभिन्न गुणों की उपमा चन्द्रमा से दी जा सकती है। राजा कलाओं से युक्त होता है, चन्द्रमा भी कलाओं से पूर्ण होता है। राजा (अपने) लोगों का अभिनन्दन करता हैं, चन्द्रमा भी सब लोगों का अभिनन्दन या आनन्दित करता है । राजा की श्री संसार की श्री मे बढ़कर होती है, चन्द्रमा की शोभा भी संसार में बढ़कर होती है। इतना होने पर भी चन्द्रमा प्रदोष (सायंकाल, दोष) से संसर्ग रखने के कारण सर्वथा उज्जवल राजा को नहीं जीत सकता है। राजा अत्यधिक दान दे तो भी उसका अहंकार न करे, काम, क्रोध, हर्ष, मान, लोभ और मद इन छह