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________________ 86 4. दुःखी प्राणियों की सहायता करना 1 5. त्रिवर्ग का अविरोध रूप से सेवन। 6. कर्त्तव्य को भावना से दान देना । 7.सेवकों के प्रति क्षमा भाव धारण करना । 8. गुणों को ग्रहण करना, दोषों को छोड़ना । वादीमसिंह के अनुसार समस्त कार्यों की प्रवृत्ति उपदेशमूलक होती है । पुरुष सुनना, ग्रहण करना, घारण करना और बारबार स्मरण करना आदि नाना प्रकार के उपायों से जो शास्त्रज्ञान प्राप्त करते हैं, उसका प्रयोजन हेय और उपादेय तत्त्व के परिज्ञान रूप आत्मतत्व की सिद्धि करना है, क्योंकि मोक्ष प्राप्ति का मूल कारण वहीं है । यदि आत्मतत्त्व की सिद्धि नहीं हुई तो चावलों का त्याग करने वाले के धान के कूटने के समान, जल से निरपेक्ष मनुष्य के कुमां खोदने के समान, शास्त्रश्रवण की इच्छा से विमुख मनुष्य के कणाद की वक्ति के अध्ययनजन्य श्रम के समान.दानगुण से अनभिज्ञ मनुष्य के धनोपार्जन के कलेश के समान, अनात्मवादी, के तपस्या के श्रम के समान, जिनेन्द्र भगवान के चरणों में प्रणाम करने की सद्बुद्धि से रहित मनुष्य के शिर का भार धारण करने से उत्पन्न थकावट के समान और इन्द्रियों के पास के दीक्षा के प्रारम्भ के समान समस्त प्रयास व्यर्थ है। इस संसार में कोपलबुद्धि को धारण करने वाले कितने ही लोग बुद्धिमानों के द्वारा निन्दित, नश्वर शरीर की जीविकामान और सभा को वश में करने में चतुर चार प्रकार के पाण्डित्य को प्राप्ति कर लेना ही शास्त्रज्ञान का प्रयोजन समझते हैं। ऐसे लोग केवल मुट्ठी भर अन्न के लिए बहुमूल्य मुक्ताफलों को बेचने वाले किरातों के समान निष्पल प्रयत्न होते हुए विद्वानों की उपेक्षा को स्वीकार करते हैं । यथार्थ में हेय और उपादेय के परिज्ञान रूप फल से युक्त शास्त्रज्ञान का निश्चय करने वाले विद्वान दुर्लभ है | यौवन से उत्पन्न पोहरूपी महासागर हजारों अगस्त्य ऋषियों के द्वारा भी नहीं पिया जा सकता और प्रलयकालीन सूर्यों के समूह से भी नहीं सुखाया जा सकता । लक्ष्मी के कटाक्षों के प्रसार से फैलने वाला गर्व रूपी अपर समस्त औषधियों के प्रयोग की निष्फलता करने में समर्थ है । अत्यधिक ऐश्वर्य से उत्पन्न गर्दरूपी काय (व्याधिविशेष) से जिनको कान्ति रूक गई है. ऐसे नेत्र सामने रखी हुई भी वस्तु को देखने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रभावरूपी नाटक के अभिनय के लिए सूत्रधार का काम देने वाला, गर्वरूपी अपसार (मिरगी) मणि, मन्त्र और औषधि के प्रभाव को फीका कर देने वाला है । पाताल के गड्ढे में पृथ्वी के उद्धार में समर्थ बराह रूप के पारक नारायण भी फलकाल में विषय विषयाभिलाषा रूपी अत्यधिक शेवाल के जाल में फंसे हुये मन का उद्धार करने में समर्थ नहीं है । सीवरागरूपी धूलिपट्ल के समागम से उत्पन्न होने वाली मलिनता समस्त जाल के प्रवाह से भी नहीं घोयी जा सकती और राजलक्ष्मी रूपी नागिन अवस्थाओं में विषयविष के छोड़ने में भयंकर है, अत: (राजकुमारों को) कुछ शिक्षा दी जाती है जिसका एक रूप निम्नलिखित है। यहाँ जीवन्धर कुमार को प्रबोधित करते हुए गुरु आर्यनन्दी कहते हैं - अविनयरूपी पक्षियों के क्रीडापन स्वरूप यौवन, कामरूपो सर्प के निवास के लिए रसातल स्वरूप सौन्दर्य, स्वछन्दाचरण रूप नट के नृत्य को रंगभूमिस्वरूप ऐश्वर्य और पुग्यपुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने वाली क्षुद्रता को जन्म देने वाली बलवत्ता में एक-एक भी मनुष्यों के अनर्थ के लिए पर्याप्त हैं, फिर इन चारों का एक-एक स्थान पर समागम होना समस्त अनर्थों का घर है, इसमें क्या संशय है अर्थात् कोई संशय नहीं है । मनुष्यों का मन बटिक पाषाण के समान निर्मल.
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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