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________________ 87 होने पर भी यौवनरूप लक्ष्मी के चरण रूपी पल्लवों के पड़ने से ही मानों राग (लालिमा) को धारण करने लगता है । शास्त्र रूपी कसौटी के पत्थर पर पिसने से जिसकी चिकनाई दूर हो गई है, ऐसी बुद्धि भी उतरती हुई नवयौवनरूपी स्त्री के चरणों से उठी हुई घुलि से हो मानों मटमैली हो जाती है। बड़े बड़े बुद्धिमान पुरुषों को भी मनोवृत्ति यौवन के समय वास्तविक नशा से युक्त मदिरा के पीने से उन्मत होकर हो मानों हित और अहिंत को नहीं समझती है। कुछ थोड़े ही पुरुष किसी तरह विवेक को कर्णधार बनाकर यौवन सम्बन्धी उत्कण्ठा रूप तरंगों से युक्त एवं कामरूपी भंवरों से दुस्सर यौवनरूपी सागर को तैर पाते हैं । यौवनरूपी शरद के आने से पत्त, विवेकरूपी बेड़ियों को तोड़ देने वाले और विषयरूपी वन में बिहार करने वाले इन्द्रियरूपी हाथियों को वश में करने के लिए गुरूओं के उपदेश अंकुश का काम देते हैं। आप जैसे भव्य ही गुरुओं के तथाविप उपदेश रूपी बीजों की उत्पत्ति भूमि है । नई कलई के लेप से सफेद कान्ति को धारण करने वाले पहल की छत पर जिस प्रकार चन्द्रमा को किरणे सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार स्वभावसुलभ विवेक से जिसका मोह दूर हो गया है ऐसे मन में गुरुओं के वन्नन सुशोभित होते हैं । अत्यन्त तीव्र मोहरूपी काले लोह से निर्मित कवच से युक्त मूर्ख मनुष्यों के हृदय में प्रविष्ट कराए जाने वाले हितोपदेशी जमों के बचन खण्ड-खण्ड हो जाते हैं। मनुष्यों के लिए उपदेशरूपवचन मन्दराचल के मथन से उत्पन्न परिश्रम के बिना हो प्राप्त होने वाला अमृतपान है। हृदयरूपी गुहा के भीतर अत्यधिक रूप से बढ़ते हुए मलिनमोह रूपी अन्धकार के समूह को दूर करने में समर्थ, सूर्य से भिन्न पदार्थों की किरणों का समूह है। अविवेक रूपीवन को भस्म कर बालं पाण्डित्या ना आन से भिन्न पदार्थ का व्यापार हैं। परिपाक रूपी सागर की वृद्धि का प्रमुख कारण चन्द्रमा से भिन्न पदार्थों किरणों का समूह है और रत्नमयी शिलाओं से निमित्त आभूष्णों का भार धारण करने के खेद से रहित दूसरा आभूषण है । परन्तु यह उपदेश रूप वचन राजाओं के लिए विशेषकरदुर्लभ है, क्योंकि उनके लिए हित अहित का उपदेश देने वाले सज्जन मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ रहते हैं । राजाओं के सभा मण्डपों के प्रदेश दुर्जनरूपी कांटों से व्याप्त रहते हैं । अत: सज्जनपुरुष नि:शंक होकर उनमें पैर रखने के लिए कैसे समर्थ हो सकते हैं? यदि समर्थ भी होते हैं तो अपने कार्य की परवशता से उनका विवेक नष्ट होने लगता है और वे वृहस्पति के तुल्य होने पर भी किसी तरह राजाओं के समीप आश्रय पाने के लिए अग्नि को भी अतिक्रान्त करने वाली शक्ति से प्रज्वलित अनवसर क्रोध से भयंकर उन्हीं के वचनों का तोताओं के समाय स्वयं अनुवाद करने लगते हैं। (उन्हीं के स्वर में अपना स्वर मिला देते है) यदि कोई तेजस्वी मनुष्य सम्ब ओर से परहित में तत्पर होने के कारण निराकरण प्रधान वचनों की उपेक्षाकर उपदेश के वचन कहते भी हैं तो निन्दा का भार धारण करने में समर्थ राजा, पृथ्वीतल की प्राप्ति के समय चढ़े हुए प्रताप रूप ज्वर के वेग से कान बहरे हो जाने के कारण ही मानों उसे सुनते नहीं हैं। किसी तरह सुनते भी हैं तो मदिरा के नशा से मत्त सुन्दरी स्त्रियों के मुख की मदिरा के सम्पर्क से चित्तवृत्ति शिथिल हो जाने के कारण मानों उस ओर ध्यान नहीं देते और अपने लिए हित का उपदेश करने वाले विद्वानों को खेद खिन्न करते हुए उनके कहे अनुसार आचरण नहीं करते । यदि करते भी हैं तो फल को प्राप्ति पर्यन्त कार्य नहीं करते और क्या कहा जाय ? राजाओं की प्रकृति स्वाभाविक अहंकार रूपी अत्यधिक सूजन से उत्पन्न कंपकँपी से विश्वल हुआ करतो हैं । स्वभाव से हो खल-दुर्जन जैसा आचरण करने वाले राजाओं को दुराचार से प्रेम रखने वाली लक्ष्मी और भी अधिक खल (दुर्जन) बना देती है। यह लक्ष्मी कल्पवृक्ष के साथ उत्पन्न होकर भी लोभियों में प्रमुख है, चन्द्रमा की बहिन होकर भी दूसरों के लिए सन्ताप उत्पन्न करने वाले
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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