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________________ (2) व्यसनता -जिस राजा का मन्त्री व्यसन (जुआ, मधपान. पर स्त्रीसेवन आदि) में फैमा हुआ है वह राजा पागल हाथी पर चढ़े हुए मनुष्य के समान शीघ्र नष्ट हो जाता है । (3) युद्धयोद्योग अथवा भूमित्याग का उपदेश देना - यह क्या मन्त्री या मित्र है जी (शव द्वारा आक्रमण किए जाने पर) प्रथम ह्री (सन्यि आदि उपाय को छोड़कर) युद्ध करने अथवा भूमि का परित्याग करने का उपदेश देकर निश्चित रुप से महान अनधं उत्पन्न करता है। (4) हितोपाय तथा अहितप्रतीकार न करना - जो मन्त्री अपने स्वामी को उन्नति के उपाय और दुखों के प्रतीकार को नहीं जानता है, केवल भक्ति दिखाता है. उसको भक्ति से क्या लाभ (5) अकुलीनता : अकुलीन ( मन्त्री आदि) अपनी अपकीर्ति मे नहीं डरते हैं। मीन कल वाले (व्यक्ति)समय आने पर पागल कुत्ते के विष की तरह विरुद्ध हो जाते है । (6) स्वेच्छाचारिता - स्वेच्छाचारी (पुरुष) आपस की उचित सलाह नहीं मानते हैं।" । (7) व्यावहारिकता का अभाव - जिस ज्ञान के द्वारा दूसरों को समझाकर सन्मार्ग पर न लगाया जाय वह मन्त्री या विद्वान का ज्ञान घर में रखे हुए दीपक के समान व्यर्थ है। 1 जिसका शस्त्र अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं है ऐसे शस्त्रविद्या में प्रवीण मन्त्री से क्या लाभ हो सकता हैं। ? कुछ भी लाभ नहीं हो सकता है । शस्त्र या शास्त्र व्यर्थ है जो विरोधी व्यक्तियों के आक्रमण को नहीं रोकता है। (8) मूर्खता - जो मनुष्य धार्मिक क्रियाकाण्डों का विद्वान नहीं है, उसको जिम्य प्रकार श्राद्धक्रिया कराने का अधिकारी नहीं है, उसी प्रकार राजनीतिविज्ञान से शून्य मुर्खमन्त्री को भी मन्त्रणा का अधिकार नहीं है। जिस प्रकार अन्धा मनुष्य देख नहीं सकता है, इसी प्रकार मुम्न मन्त्री भी मन्त्र का निश्चय नहीं कर सकता। यदि अन्य मनुष्य को दूसरा अधा ले जाये तो वह सन्मार्ग को नहीं देख सकता", इसी प्रकार मूर्ख मन्त्री द्वारा मार्ग दिखाया गया मूखं राजा अभीष्ट स्थान को नहीं पा सकता है । मुर्ख मन्त्री से यदि कभी कार्यसिद्ध हो जाय तो वह काकतालीयवत् (अन्धे के हाथ बटेर) होती हैं। 1 मूर्ख मनुष्य जो कार्य करते हैं, उसमें उन्हें बहुत क्लेश उठाना पड़ता है और फल थोड़ा मिलता है।। । मूखं मनुष्य का शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता है120 1 मूर्ख मनुष्य को मन्त्रणा का ज्ञान घुणाक्षरन्याय के समान हो जाता है जो राजा मूर्ख मन्त्रियों को राज्यभार समर्पण करता वह अपने नाश के लिए की गई मन्त्रसिद्धि के समान अपना नाश कर डालता है। (9) विषमता - विषम (परस्पर ईष्यां के कारण मतभिन्न हाले) पुरुषों के समूह में एक सम्मति होना कठिन है।3।। (10) शस्त्रोपजीविका - शस्त्रों से जीविका करने वाले (क्षत्रिय) को कलह के बिना म्याया हुआ भोजन नहीं पचता । अतः शस्त्रसंचालन करने वाले मन्त्रिपद के योग्य नहीं है।" । सत्रिय को रोकने पर भी केवल कलह सूझता है105 | मन्त्रणा और उसका माहात्म्य - आचार्य विशालक्ष का कहना है कि एक हो यक्ति दाग सोचा विचारा हुआ मन्त्र सिद्धिदायक नहीं हो सकता । सभी राजकार्य प्रत्यक्ष और परिक्ष दो पता के होते हैं, उनके लिए मन्त्रियों की अपेक्षा होती है । न जाने हुए कार्य को जानना. जाने हुए काय
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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