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________________ 59 गुरु के समान बहुत मानने वाला, अपने अनुगामियों को अपने समान समझने वाला तथा अपने वंश के अनुरूप सेवकों को भी मित्र के समान सम्मान देनेवाला होना चाहिए। उपस्थित यथायोग्य समस्त कार्यों को करते समय वह आधीक्षिकी, त्रयो, वाता, दण्डनीति इन चार प्रकार की राजविद्या, व्यवहार तथा सामादि उपायों के विचार को एक क्षण के लिए भी न छोड़े तथा कहीं भी हाथी. स्थ, घोड़ा तथा पदातिमय सेना से अलग न हो । उसे दूसरों की सुखप्राप्ति तथा दु:ख हानि की चिन्ता से प्रेरित होकर स्वयं ही लोकोपकारक कार्यों में लगा रहना चाहिए। अपने वैभव और सम्पत्ति के कारण उसके मन में अहंकार न आए । वह कभी भी प्रमाद में न पड़े और न खेदखिन्न हो हो तथा अपने दिन-रात के कार्यो का विभाजन करके जीवन व्यतीत करे राजा का जन्म हो परमार्थ के लिए होता है । वह संसार के विनाश के भय से शत्रुओं का संहार करता है, सन्तान को इच्छा से कामसेवन करता है, प्रजा से कर भी दूसरों को देने के लिए लेता है। राजा को अप्रमादी होने के लिए आवश्यक है कि वह उस घोड़े या हाथी पर न चढ़े जिस पर अनुगत आत्मीयजन न बैठ चुके हों. उस वन में न जाए, जिसमें पहिले उसके आदमी न घूम आए हों । सिद्ध आदि वेषधारी साधुओ से यकायक भेट न करें और अन्त:पुर में भी अकेला प्रवेश न करे । राजा का आचरण ऐसा होना चाहिए जिसके कारण न तो शत्रु उसको निन्दा कर पायें और न उन्हें इस पर अनुग्रह करने का ही अवसर मिले । उसका आक्रमण न तो सिंह अविपारित और आत्मविनाशक आक्रमण के समान हो और न उसकी कूटनीति का प्रयोग श्रृंगाल के समान अत्यधिक भयभीत होकर चलने का हो । राजा का रोप तथा प्रसन्नता रूपी गुण वटवृक्ष के समान बिना फूल दिए ही फल दें। जब वह शत्रुओं का संहार करना चाहे तभी रुष्ट हो और जब (दूसरों को) धनादि देने को इच्छा करे, तभी प्रसन्न हो । युवकों और वृद्धों के विरोध की वह दूर करे । राजा के वचन सत्य हों, अनुष्ठानों का परिणाम उपयुक्त और अनुकूल हो. कृतज्ञता को यह अपनी विशाल सम्पत्ति से नापे, उसको अभिलाषित विजय की इच्छा समस्त दिशाओं में व्याप्त हो तथा कुटुम्बिता की भावना समस्त संसार के भरणपोषण में समर्थ हो । राजा का यह धर्म है कि वह नोतियों का प्रतिपालक व सज्जनों का रक्षक हो तथा उसके राज्य में अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि इलियों की प्रचुरता न हो ।न्यायमार्ग में लीन रहकर सबको सुखकर शर्मिक राज्य द्वारा राजा अपना तथा प्रजा का माहात्म्य प्रकट करे381 1 नीतिशास्त्र का यही प्रश्चम पाठ है कि राजा अपने छिद्रों और शत्रु के आधातों को शान्त कर दे तथा वैभव के द्वारा अपने पक्ष दुर्ग आदि अथवा शत्रु पर किए प्रबल प्रहारो को मुष्ट करे तथा शत्रु की दुर्बलताओं और समर्थकों को अपने वश में करे। राजा को चंचल नहीं होना चाहिए । स्वयं जो चंचल होता है वह अतिक्रमणशील के सामने नहीं टिक सकता है तथा उसे निराश होकर लौटना पड़ता है । जो राजा वीर होता है यह बाहु से शास्त्र ग्रहण करके प्रिय लोगों के दुःख का विनाश करता है, किन्तु हा हा शब्द से निन्दित वंश परम्परा के उन्मूलक भीरु के द्वारा कुछ भी नहीं होता है। महान् धैर्य, पराक्रम, गम्भीरता तथा समय से अपना कार्य पूरा करने की प्रकृति के धारक राजा और समुद्र में क्षोम के सिवा कोई अन्तर नहीं होता है जिस राजा का अपना सामन्त मण्डल दुर्बल अथवा उदासीन हो तथा प्रबल शत्रु के ग्रहार हो रहे हॉ वह अपने राज्य से च्युत हो जाता है । राजा को अनाचरण नहीं करना चाहिए । निराकरण करने रूप से पापाचरण में लीन लोगों की चर्चा करने पर भी सुनने वालों को शान्ति हो जाती है तथा अनीतिमान् का निर्वाह हो जाता है किन्तु लोकलाज
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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