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________________ 5fv { सके । उपजाऊ खेत में खोए हुए बीज को तरह महायन्त्र-पुरुषों को दिया हुआ धन निःसन्देह अनेक फल देता है सहायक पुरुषों के संग्रह की अपेक्षा धन को उत्कृष्ट नहीं मानना चाहिए | राजदोष तथा स्वंय के अपराधों के कारण जिनकी जी का नष्ट कर दी गई है। वे मन्त्री आदि क्रोधी, लोभी, भीत और तिरस्कृत होते हैं, उन्हें कृत्या के समान महाभंयकर जानना चाहिए। मंत्री और पुरोहित हितैषी होने के कारण राजा के माता पिता अतः उसे उनको किसी भी अभिलषित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिए | समस्त क्रोधों की अपेक्षा मन्त्री और सेनापति आदि) प्रकृत्ति का क्रोध विशेष कष्टदायक होता है । राजाओं को अपने समस्त कार्यों का आरम्भ सुयोग्य मंत्रियों को सलाह से करना चाहिए । जो राजा मंत्रियों की बात का उल्लंघन करता है. उनको बात नहीं सुनता है, वह राजा नहीं रह सकता है। अतः राजा अपने आश्रित ( आमात्य आदि) के साथ अनुरक्त दृष्टि और मधुर भाषण आदि का व्यवहार समान रखें, क्योंकि पक्षपातपूर्ण समदृष्टि से राजतन्त्र की श्रीवृद्धि होती हैं व अमात्य आनंद उससे अनुरक्त रहते हैं । जिनके अपराध कौटुम्बिक सम्बन्ध आदि के कारण दवाई करने के अयोग्य हैं ऐसे अपराधियों को खाई खुदवाना, किले में काम कराना, नदियों के पुल बंधवाना खान से धातु निकलवाना आदि कार्यो में नियुक्त कर क्लेषित करे-2 | कृत्वा के समान राज्यक्षति करने वाले कारणवश शुभ हुए अधिकारियों को वश में करने के निम्नलिखित उपाय हैं। (1) अधिकारियों की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना । ( 3 ) त्याग - धन देना । (2) अभयदान् । (4) सत्कार | व्यापारियों के प्रति राजकर्तव्य : तालने और नापने के पात्र जहाँ अव्यवस्थित होते हैं, वहाँ व्यवहार नष्ट हो जाता है। जिसके राज्य में व्यापारी (वणिग्जन) वस्तुओं का मूल्य स्वेच्छानुसार बढ़ाकर धनसंचय करते हैं, वहाँ प्रजा को और बाहर से आए हुए लोगों को कष्ट होता हुँ । अतः समस्त वस्तुओं का मूल्य देश काल पदार्थ की अपेक्षा होना चाहिए । राजा को उन व्यापारियों की जाँच पड़ताल करना चाहिए जो बहुत मूल्य वाली वस्तु व अल्पमूल्य वाली वस्तु की मिलावट करते हैं अभवा नापने तोलने के घाटों में कमी बढ़ती रखते हैं | यणिग्जनों को छोड़कर दूसरे कोई प्रत्यक्ष चोर नहीं है" । यदि व्यापारी लोग स्वार्थवश वस्तु का मूल्य बढ़ा दें तो राजा उमे यथोचित मूल्य पर उसे बिक बाए अन्न का संग्रह करके अकाल पैदा करने वाले व्यापारी अन्याय की वृद्धि करते हैं। इससे तन्त्र (सैन्य आदि) तथा देश का नाश हो जाता है। वाधुषिकों लोभवश राष्ट्र का अन्न वगैरह संचित कर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारियों को कार्य, अकार्य के विषय में लज्जा नहीं होती है } अन्य कर्त्तव्य - राजा मौके पर अपना राजदरबार खुला रखे, जिसमे प्रजा उसका दर्शन सुलभता से कर सके। वह अपना प्रयोजन ऐसे व्यक्ति से न करे जो उसे सिद्ध करने में असमर्थ हो, ऐसा जंगल में रोने के समान है। राजा को अपराधी के साथ कथागोष्टी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग घर में प्रविष्ट हुए साँप की तरह समस्त आपित्तयों के आगमनद्वार होते हैं। बुद्धि, धन और युद्ध में जो सहायक होते हैं, वे कार्य पुरुष हैं। जिस राजा के बहुत से महायक होते हैं उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। राजा को अपने सहायकों की परीक्षा करना चाहिए। जिस तरह भोजन के समय सभी सहायक हो जाते है, उसी प्रकार सामान्य स्थिति में सभी सहायक होते हैं। जो विपत्ति के समय सहायक हो, वही सच्चा सहायक है।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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