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________________ 68 नीतिवाक्यामृत के अनुसार प्रजापालन ही राजा का यज्ञ है, न कि प्राणियों की बलि देना। राजा प्रजा के लोगों को जो बिना किसी व्यसन के क्षीण धन वाले हो गए हों मूलधन देकर सन्तुष्ट करे 1 समुद्र पर्यन्त पृथ्वी राजा का कुटुम्ब है और अन्न प्रदान द्वारा प्रजा का संरक्षण, संवर्द्धन करने वाले खेत उसकी स्त्रियाँ हैं। यदि राजा राजकीय कार्यों में मृत व्यक्तियों की संतति का पोषण नहीं करता तो वह उनका ऋणी रहता है ऐसा करने से उसके मंत्री आदि भली भाँति सेवा नहीं करते हैं * । प्रजा की वृद्धि करने के निम्नलिखित उपाय है - 1. धन नष्ट होने से विपत्ति में फंसे हुए कुटुम्बी जनों की द्रव्य से सहायता करना। 2. प्रजा से अन्यायपूर्वक सृणमात्र भी अधिक कर न लेना । 3. समय आने पर यथापराध अनुकूल दण्ड न देना । 4. यथार्थ में प्रभु वही है जो अनेकों का भरण पोषण करता है । अर्जुनवृक्ष को उस फल सम्पदा से क्या लाभ है जो दूसरों के द्वारा उपयोग्य नहीं होती । राजा को अपराधियों के जुर्माने से आए हुए जुआ में जीते हुए, लड़ाई में मारे हुए, नदी, तालाब और रास्ता आदि में मनुष्यों के द्वारा भूले हुए धन का और चोरों के धन का तथा अनाथ स्त्रियाँ रक्षकहीन कन्या का धन तथा विप्लव के कारण जनता के द्वारा छूटे हुए धनों का स्वयं उपभोग कहाँ करना चाहिए। आांगों की रक्षा करना, शस्त्रधारण कर जीविका निर्वाह करना, शिष्ट पुरुषों की भलाई करना, दीन पुरुषों का उद्धार करना और युद्ध से न भागना ये क्षत्रियों के कर्तव्य है ** । 8. वीरता राजा को वीर होना चाहिए, क्योंकि यह पृथ्वी वीर मनुष्यों से भोगने योग्य होती है" । इसी का समर्थन करते हुए सोमदेव ने कहा है- कुलपरम्परा से चली जाने वालो पृथ्वी किसी राजा की नहीं होती है, बल्कि वह वीर पुरुष द्वारा हो भोगपने योग्य होती है । राजाओं 'की नौति व पराक्रम की सार्थकता अपनी भूमि की रक्षा के लिए है, न कि भूमि त्याग के लिए " । बढ़ी हुई है प्रताप रूपी तृतीय नेत्र की अग्नि जिसकी, परमैश्वर्य को प्राप्त होने वाला, राष्ट्र के कण्टकशत्रुरूप दानवों के संहार में प्रयत्नशील विजिगीषु राजा महेश के समान माना गया है । जो राजा पराक्रमरहित हैं, उसका राज्य वणिक् की तलवार के समान व्यर्थ है । 9. जागृति- राजा को अपने हृदय का भी विश्वास नहीं करना चाहिए, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ? स्वभाव से सरल अपने हृदय से उत्पन्न सब लोगों पर विश्वास करने की आदत समस्त अनर्थों का मूल है। राजा लोग नटों के समान मन्त्रियों के ऊपर अपने विश्वास का अभिनय करते हैं, परन्तु हृदय से उन पर विश्वास नहीं करते हैं, क्योंकि चिरकाल के परिचय से बड़े हुए विश्वास के कारण मन्त्रियों पर राज्य का भार रखने वाले राजा उन्हीं मन्त्रियों द्वारा मारे गए हैं। ऐसी लोक कथाऐं सुनने में आती है। सब उपायों को करने में उद्यत सबको शत्रुओं की कपटवृत्ति से प्राप्त होने वाले विनाश के उपाय का सदा निराकरण करते रहना चाहिए। शत्रुओं के वश में पड़ी स्त्रियों और पुरुष निगृह्य (तिरस्कार के पात्र ) होते हैं। कितने ही लोग खाना, सोना, पीना और वस्त्र धारण करते समय कष्ट उत्पन्न करने वाला विष मिलाकर मारने का यत्न कर सकते है । - 10. नियमपूर्वक कार्य करना राजा को रात्रि और दिन का विभाग करके नियत कार्यों को करना चाहिए, क्योंकि समय निकल जाने पर करने योग्य कार्य बिगड़ जाता है । AJ
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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