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________________ 11.विद्वचा - मनुष्य जिन्हें जानकर अपनी आत्मा के हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करता है, उन्हें विद्यायें कहते हैं । जिस पुरुष द्रव्य में सज्जन पुरुषों द्वारा नीति, आचार सम्पत्ति और शूरता आदि प्रजापानन में उपयोगी गुण सिखाए जाकर स्थिर हो गए हों, वह पुरुष राजा होने के योग्य है जो राजा न तो विद्याओं का अभ्यास करता है और न विद्वानों की संगति करता है, वह निरंकुश हाथी के समान शीघ्र ही नष्ट हो आता है। जिस प्रकार जल के समीप वर्तमान वृक्षों की छाया कुछ अपूर्व हो जाती है, उसी प्रकार विद्वानों के समीप वर्तमान पुरुषों की कान्ति मी अपूर्व हो जाती है । जिस प्रकार बहादुर मनुष्य भी हथियारों के बिना शत्रुओं से पराजित कर दिया जाता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष नीतिशास्त्र के ज्ञान के बिना शत्रुओं के वश में हो जाता है । जो पदार्थ या प्रयोजन नेत्रों से प्रतीत नहीं होता, उसको प्रकाश करने के लिए शास्त्र मनुष्यों का तीसरा नेत्र है जिस पुरुष ने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया वह चक्षुसहित होकर भी अन्या है: ।अन्धे के समान दूसरे (मंत्री आदि) से प्रेरित राजा को होना अच्छा है, किन्तु जो थोड़े ज्ञान के कग है, उस इंसान नहीं समय में विधान प्रधानधन है, क्योंकि यह चोरों के द्वारा चुराई नहीं जातो है एवं दूसरे जन्म में भी जीवात्मा के साथ जाती है | जिस प्रकार नीचे मार्ग से बहने वाली नदी अपने प्रवाहवर्ती पदार्थों (तृणादि) को दूरवर्ती समुद्र से मिला देती है, उसी प्रकार नीच पुरुष की विद्या भी बड़ी कठिनाई से दर्शन होने योग्य राजा से मिला देती है। विद्या कामधेनु के समान विद्वानों के मनोरर्थ पूर्ण करने वाली है, क्योंकि उससे उन्हें समस्त संसार में प्रतिष्ठा व बोध प्राप्त होता है। जिस प्रकार नवीन मिट्टी के बर्तन में किया हुआ संस्कार ब्रह्मा के द्वारा भी नहीं बदला जा सकता है, उसी प्रकार कोमल बच्चों के हृदय में किया गया संस्कार मी बदला नहीं जा सकता है । अत: जो वंश परम्परा, सदाचार, विद्या और कुलीनता में विशुद्ध हों वे ही विद्वान राजाओं के गुरु हो सकते हैं । जो राजा आध्यात्म विद्या विद्वान होता है यह सहज (कषाय और अज्ञान से होने वाले राजसिक और तामसिक दुःख) शारीर (बुखार, गलगण्ड आदि बीमारियों से होने वाली पीड़ा), मानसिक ( परकलत्र आदि की लालसा से होने वाले कष्ट) एवं आगन्तुक दुःखों ( भविष्य में होने वाले अतिवृष्टि, अनावृष्टि और शयुक्त आकार आदि कारणों से होने वाले दुःख) से पीड़ित नहीं होता है । इहलोक सम्बन्धी व्यवहारों का जो निरुपण करता है उसे लोकायत कहते हैं। जो राजा लोकायत मत को भलीभांति जानता है वह राष्ट्र कष्ट को (चोर आदि) को जड़मूल से उखाड़ देता है । जिस प्रकार उपयोग शून्य बहुत समुद्र जल से कोई लाप्त नहीं है, उसी प्रकार विद्वान के कर्तव्यज्ञान कराने में असमर्थ प्रचुरज्ञान से कोई लाम नहीं है। 12. यथापराध दण्ड - राजा को अपराधियों को उनके अपराध के अनुकूल दण्ड देना चाहिए। जिस कार्य के करने में महान् धर्म की प्राप्ति होती है, वह बाह्य से पापरूप होकर मी पाप नहीं समझा जाता है । जो राजा दुष्टों का निग्रह नहीं करता है, उसका राज्य उसे नरक में ले जाता हैbas | जो मनुष्य सदा केवल दया का व्यवहार करता है वह अपने हाथ में रखे हुए घन को बचाने में भी समर्थ नहीं हो सकता है | सदा शान्तिचित्त रहने वाले मनुष्य का लोक में कौन पराभव नहीं करता है, सभी पराभव करते हैं । अपराधियों पर क्षमा धारण करना साधु पुरुषों का भूषण है, राजाओं का नहीं है | जो मनुष्य अपनी शक्ति से क्रोध और प्रसन्नता नहीं करता है, उसे धिक्कार है जो प्रतिकूल व्यक्ति के प्रति पराक्रम नहीं करता, वह जीवित होता हुआ भी
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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