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________________ 172 युद्ध की यह विधि है कि दोनों पक्षों के खेदखिन्न सथा महा प्यास से पीड़ित मनुष्यों को जल दिया जाता है, भूख से दुःखी मनुष्य को अमृत तुल्य भोजन दिया जाता था । पसीना से युक्त मनुष्यों को आहलाद का कारण गोशीर्ष चन्दन दिया जाता है. पंखें आदि से हवा दी जाती हैं, बर्फ के जल के छीटें दिए जाते हैं तथा इसके अतिरिक्त जो कार्य आवश्यक हो, उसकी पूर्ति समीप में रहने वाले मनुष्य तत्परता के साथ करते हैं । युद्ध की यह विधि जिस प्रकार अपने पक्ष के लोगों के लिए है उसी प्रकार दूसरे पक्ष के लिए भी है । युद्ध में निज और पर का भेद नहीं होता है। ऐसा करने से ही कत्तयं की सिद्धि होती है । जो राजा अतिशय बलिष्ठ शूरवीरों की चेष्टा धारण करने वाले हैं वे भयभीत, ब्राह्मण, मुनि, निहत्थे, स्त्री, बालक, पशु, और दूत पर प्रहार नहीं करते हैं। शरणागत तथा शस्त्र डाल देने वाले पर भी प्रहार नहीं किया जाता था। न्याय व्यवस्था - दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीतिशास्त्रों में बतलाया गया है । स्नेह, मोह, आसक्ति तथा भय आदि कारणों से राजा ही यदि नीतिमार्ग का उल्लघंन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवत्ति करती है, अत: राजा को चाहिए कि उसका दायां हाथ भी यदि दृष्ट हो तो उसे कार भाचार्य सोपदेस का कहना है कि दूराचार करने वालों को वश में करने के लिए दण्ड को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार टेढ़ी लकड़ी आग लगाने से ही सीधी होती है, उसी प्रकार दुराचारी दण्ड से ही सोधे होते उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सातवों से दशवीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में राजनीति के सभी पक्षों का विशद निरुपण प्राप्त होता है । इस साहित्य के प्रणेताओं द्वारा की गई राजनैतिक व्याख्यायें उनके राजनीति विषयक गहन चिन्तन को अभिव्यक्त करती है, इससे स्पष्ट है कि धर्म के गहनतत्त्वों का गहराई से चिन्सन करने के साथ लोकनीति और राजनीति के विभिन्न पहलुओं को उन्होंने उपेक्षा नहीं की तथा अपने प्रतिभ नक्षुओं द्वारा जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक दोनों रूपों को देखा । इस प्रकार चिन्तन और विश्लेषण के क्षेत्र में उनको अमूल्य देन है, जो प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के मूल्यवान् सन्दर्भो से भली भाँति स्पष्ट हैं। का फुटनोट) 1. सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 5/4 12. वही 4/117 2. यही 5/5 3. वही 5616 3. क्षत्रचूड़ामणि 11/8 14. वही 5715 4. उत्तरपुराण 52/40 15. आदिपुरण 34/75 5. नीतिवाक्यामृत 19/2 16. जटासिंहनन्दि : वरांगचरित 29/42 6. वही 1016 17. आदिपुराण 47161 7. वही मंगलाचरण 18. वही 18/14 8. पद्मचरित 66/10 19. वही 5/251 9. वही 27/27 20. उत्तरपुराण 59/155 10. आदिपुराण 42/189-203 21. सोमदेव : नीतिवाक्यामृत 10/23 11. उत्तरपुराण 52/5 || 22. नौतिवाक्यामृत 18/5
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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