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सहायकों के प्रति राजा के कर्तव्य - जिस प्रकार बिलावों से दूध की रक्षा नहीं हो सकती है उसी प्रकार अधिकारियों से ( राजकोष की) रक्षा नहीं हो सकती है। अत: राजा को सदा उनकी परीक्षा करना चाहिए।
अर्थव्यवस्था - राजाओं की स्थिति तभी तक सुरक्षित रह सकती है, जब तक उसकी आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ हो, अतएव कोष की महत्ता स्वीकार की गई है । कोष हो राजाओं का प्राण है । इस लोक में पर्याप्त सम्पत्ति संकलित करन से धर्म, अर्थ और काम तीनों सम्भव हो सकते हैं । राजा दशरथ के पास इतनी सम्पत्ति थी कि उनकी दानशीलता को याचक नहीं संभाल सके ।वे निर्मल तथा पर्याप्त यशरुपी धन संचय करने के लिए व्यवसायियों से भरे बाजारों,खनिक क्षेत्रों, अरण्यों, समुद्री तीरों पर स्थित पत्तनों, पशुपालकों की स्तियों. दुर्गो तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को बढ़ाते थे29। वादीभसिंह ने दरिद्रता को प्राणों से न छूटा हुआ परण कहा है गयचिन्तामणि में कहा गया है कि मनुष्य को पितृ पितामह के धन का अधिक भरोसा न कर सम्पत्ति अर्जित करने का यत्न करना चाहिए, क्योंकि आय से रहित घन अविनाशी नहीं हो सकता है।7। नीतिवाक्यामृत में इसी की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि पुरुष का पुरुष दास नहीं है, अपितु पुरुष का धन दास है | जो राजा अपने राज्य में धनसंग्रह नहीं करता है और अधिक धन व्यय करता है, उसके यहाँ सदाकाल रहता है, क्योंकि निथ स्वर्ण का व्यय होने पर मेरू भी नष्ट हो जाता है । अत: अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना आवश्यक है । आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत के 21वें समुद्रदेश में कोषवृद्धि के उपायों का प्रतिपादन विशद रूप से किया
लोकरक्षा के लिए किए गए निर्माण कार्य - इन कार्यों में राजनीतिक दृष्टि से दुर्ग रचना, सभा रचना तथा नगर तथा ग्राम निवेशों का विशेष महत्त्व है । दुर्ग राजा और उसको सेना वगैरह के बचाव के उत्तम आश्रयस्थल थे, उन्हें शत्रु द्वारा असंघनीय कहा गया है। दुर्गों में यन्त्र. शस्त्र, जल, जो घोड़े तथा रक्षक भरे रहते थे | बलवान् शत्रु का सामना दुर्गों का आश्रय लेकर किया जासकता था, क्योंकि अपने स्थान पर स्थित खरगोश भी हाथों से बलवान् हो जाता है दुर्गविहीन देश सभी के तिरस्कार का पात्र होता है।हरिवंशपुराण में विभिन्न प्रकार की सभाओं तथा पठचरित में विभिन्न प्रकार सन्निवेशों का कथन उपलब्ध होता है । सभाओं का निर्माण प्रारम्भ में लोकरक्षा के लिए ही किया गया होगा, बाद में ये राजनीति का केन्द्र होने के साथ राजाओं की शान शौकत कास्थान भी बन गई । आदिपुराण के पंचम पर्व से राजसभा की एक झलक प्राप्त होती है, तदनुसार राजसमा में राजा सिंहसान पर बैठता था। अनेक वारांगनायें उस पर चमर ढोरती थीं। मन्त्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा अन्य अधिकारी राजा को घेरकर बैठते थे। राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ सम्भाषण कर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मानकर
और किसी को आदरसहित देखकर सन्तुष्ट होता था गन्र्धवादि कलाओं का जानकार राजा विद्वान पुरुषों को गोष्ठी का बार बार अनुभव करता था तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद् पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे, उसे भी देखता जाता था। इसी बीच सामन्तों द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलाकर बार बार उनका सत्कार करता था तथा अन्य देश के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों (महत्तरों) द्वारा लाई गई भेंट को देखकर उनका भी सम्मान करता था | राजसमा में राजा पन्विवर्ग