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________________ अष्टम अध्याय बल अथवा सेना सेना की परिभाषा :- जो शत्रुओं का निवारण करके घन-दान मधुर भाषण द्वारा स्वामी को सभी अवस्थाओं में शक्ति प्रदान करती है, उसका कल्याण करती है, उसे सेना कहते हैं। सेना के भेद - चतुरंग बल प्राचीन ग्रन्थों में प्राय: चतुरंग बल का उल्लेख हुआ है चतुरंग बल के अन्तर्गत निम्नलिखित सेना आती है : I 1. हस्ति सेना । 2. अश्वसेना । 4. पदाति सेना । 3. रथ सेना । 1. हस्ति सेना योद्धाओं के वाहन होकर जाने वाले हाथी के ऊपर के सीने के झूल तथा होदे विशेष सुशोभित होते थे तथा उन पर श्वेत चँवर होते थे। युद्ध में लिप्त हाथियों के शरीर कवचों से ढके होते थे । महाबत जब उन्हें हाँकते थे तब वे एक दूसरे से भिड़ जाते थे । तथा सन्नाह (कवच ) के कारण शरीर में कही भेल स्थान न मिलने के कारण लोहे से मढ़े हुए उनके विशाल दांत एक दूसरे के मुखों में पूरे के पूरे पैंस जाते थे। तोमर आदि शस्त्रों के आघात से हाथियों का शरीर फट जाता था, घात्रों में से रक्त की मोटी धारायें निकलती थीं, किन्तु ये मदवाले होकर शत्रुओं का घात करते थे । महान् योद्धाओं के द्वारा भारी गदावें, विशाल परिध तथा अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाली शक्तियों के आघात से परिजात हाथी अपने महावतों को भी परास्त कर देते थे। रोष के कारण हाथी एक दूसरे के दांतों को उखाड़ लेते थे और उन दाँतों को उन्हीं के ऊपर मार देते थे। - 'जल प्रदेश को हस्तिसेना के द्वारा सुगमता से पार किया जाता था पानी को पार करके व्यूह रचना से चलते हाथियों का समूह ऐसा लगता था, मानों सेना के जाने के लिए पुल ही बना दिया गया हो । नीतिवाक्यामृत के अनुसार सेना में हाथी प्रधान अंग माने जाते हैं। अपने अव्यवों ( अंगों) के द्वारा वे अष्टायुद्ध (चार पैर, दो दाँत, पूंछ और सूँड़ एवं अस्त्र वाले ) होते हैं । राजाओं को विजय के प्रधान कारण हाथी होते हैं। एक हाथी भी युद्ध में हजारों प्रहारों से व्यथित न होकर हजारों योद्धाओं से युद्ध करता है। हाथी जाति, कुल, वन और प्रचार के कारण ही प्रधान नहीं माने जाते हैं, अपितु शरीर, बल, शौर्य, शिक्षा और युद्धोपयोगी (कर्त्तव्यशीलता आदि ) सामग्री से प्रमुख माने जाते हैं। अशिक्षित हाथी केवल धन और प्राणों का हरण करने वाले ही होते हैं। हाथियों के निम्नलिखित' गुण होते हैं। : 1. सुखपूर्वक जाना । 3. शत्रु के नगर को तोड़ना फोड़ना । 5. जल में पुल बांधना | 6. बोलना छोड़कर अपने स्वामी के लिए सभी प्रकार के आनन्द उत्पन्न करना । 2. अश्वसेना- अश्वसेना अपनी वेगशीलता के लिए प्रख्यात रही है। इसकी वेगशीलता - का धनञ्जय ने बहुत ही सुन्दर चित्र खींचा है पूरी की पूरी चंचल अश्वसेना का वेग वायु के समान था, चित्त वेगमय था, शरीर चित्रमय था तथा चित्र और शरीर एकमेक हो जाने के कारण • वह अश्वारोहियों की प्रेरणा से जल राशि को पार कर गई थी। 2. आत्मरक्षा | 4. शत्रु के व्यूह का नाश करना ।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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