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________________ 54 कहलाते हैं । हिंसा करना, मांस खाने से प्रेम रखना, बलपूर्वक दूसरे का घन अपहरण करना और धूर्तता करना यही म्लेच्छों का आचार है । (ट) प्रजारक्षण :- राजा को तृण से समान तुच्छ पुरुष की पी रक्षा करना चाहिए जिस प्रकार ग्याला आलस्य रहित होकर अपने मोघन की व्याघ्र, चोर आदि उपद्रवों से रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षा करना चाहिए जिस प्रकार ग्वाला उन पशुओं की देखने की इच्छा से राजा के आने पर भेट लेकर उनके समीप जाता है और धन सम्पदा के द्वारा उसे सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्य के मम्मुन्न आवे तो वृद्ध लोगों के साथ विचार कर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए कि युद्ध बहुस से लोगों के विनाश का कारण है, उसमें बहुत सी हानियां होती है और उसका भविष्य पी बुरा होता है अतः कुछ देकर बलवान् शत्रु के साथ सन्धि कर लेना ही ठीक है । (6) सामजस्य अथवा सपनसत्त्व धर्म का पालन:- राजा अपने चित्त का समाधान कर जो दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करता वही उसका सामन्जस्य गुण कहलाता है जो राजा निग्रह करने योग्य शत्रु अथवा पुत्र दोनों का निग्रह करता है. जिसे किसी का पक्षपात नहीं है, जो दुष्ट और मित्र सभी को निरपराध बनाने की इच्छा करता है और इस प्रकार माध्यस्थ्यभाष रखकर सो सर पर समान दृष्टि रखता है वह समंजस कहलाता है। प्रजा को विषम दृष्टि से न देखना तथा सब पर समान दृष्टि रखना समज्जसत्त्व धर्म है। इस समंजमत्व गुण मे ही राजा को न्यायपूर्वक आजीविका करने वाले शिष्ट पुरुषों का पालन और दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिए । जो पुरुष हिंसा आदि दोषों में तत्पर रहकर पाप करते हैं वे दुष्ट कहलाते हैं और जो क्षमा, सन्तोष आदि के द्वारा धर्म धारण करन में तत्पर रहते हैं वे शिष्ट कहलाते हैं। ___आचार्य सोमदेव ने भी कहा है - अपराधियों को सजा देना (दुष्ट निग्रह ) और सज्जनों की रक्षा करना ( शिष्ट परिपालन) राजाओं का धर्म हैं300 । जो व्यसनी पुरुष के हृदय प्रिय बनकर अनेक नैतिक उपाय द्वारा उसे उन अभिलषित वस्तुओं (मद्यपानादि) से, जिनमें उमे व्यसन (निरन्तर आसक्ति) उत्पन्न हुआ है, विरक्ति उत्पन्न करते हैं. उन्हें योगपुरुष (शिष्ट) कहते है। राजलक्ष्मी की दीक्षा से अभिषिक्त अपने शिष्टमण्डल परिपालन व दुष्टनिग्रह आदि सदगुणों के . कारण प्रभा में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाला राजा विष्णु के समान कहा गया है । साघु पुरुषों के साथ अन्याय का व्यवहार करने वाला अपने हाथों से अंगार खींचने के ममान अपनी हानि करता है। | राजा आज्ञाभंग करने वाले पुत्र पर भी क्षमा न करे जिसकी आज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लघंन की जाती है, उसमें और चित्र के राजा में क्या अन्तर है? जो राजा शिष्ट पुरुषों के साथ नम्रता का व्यवहार करता है वह इसलोक और स्वर्ग में पूजा जाता है । (7) दुराचार का निषेध करना - दुराचार का निषेध करने से घमं, अर्थ और काम तीनों की वृद्धि होती है, क्योंकि कारण के विद्यमान होने पर कार्य को हानि नहीं देखी जाती है। (8) लोकापवाद से भयभीत होना- राजा को लोकापवाद से डरते हुए कार्य करना चाहिए, क्योंकि लोक में यश ही स्थिर रहने वाला है। सम्पत्तियाँ तो दिनाशशील है।
SR No.090203
Book TitleJain Rajnaitik Chintan Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherArunkumar Shastri
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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